छोटी ही उम्र थी 34 - 35, अभी दो नन्ही बच्चियां है दस साल की और छह साल की , एक अदद पति और सास श्वसुर
कल दोपहर तक कितना जूझी कैंसर से और इलाज के नाम पर लम्बे समय से ऑपरेशन, कीमोथेरेपी, दवाएं, अस्पताल की जान लेवा जांच प्रक्रियाएं और घर अस्पताल के बीच ठहरा हुआ जीवन
इस बीच घर का तहस नहस होना, घर बिकना, पति का बीमार होना और बाजार के उतार चढ़ाव में धंधे पर होने वाले खतरनाक असर जिसका सीधा प्रभाव उसके मानसिक स्वास्थ्य पर भी पड़ा ही होगा
मौत को घर देखना ही था, इस कमबख्त ने कही नही छोड़ा एक भी कोना संसार मे , हरेक को छला है - मौत से भयावह, ठगने वाला छलिया कोई नही और बेरहम तो इतनी कि कोई मोह माया नही - आगा पीछा भी नही देखती कभी एक झटके से अपने साथ ले जाती है दृष्ट और निकम्मी कही की
कल दोपहर को हार गई वो और हम सबको, उन सबको, उन अबोध बच्चियों को हमेशा के लिए बिलखता छोड़ गई इस जहाँ में जो दिन पर दिन आकाश गंगा का खतरनाक अखाड़ा बनता जा रहा है
जाना तो सबको था पर आज जब धूं धूं जल रही थी तो वहां खड़े हममे से हरेक की आंख कातर भाव मे थी और दिख रहा एक लापरवाह भविष्य, घटाटोप अंधेरा
कोई कह रहा था ईश्वर है और सबका ख्याल रखेगा
काश ऐसा सच मे हो जाता तो वो जाती ही क्यों , हम सबके सर्व शक्तिमान महान ईश्वर के पास क्या दया दृष्टि और संयम भी नही ?
[ तटस्थ ]
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ईश्वर खुद के अस्तित्व से झुज रहा है आज कल.
हाथ पकडती है और कहती है ये बाब ना रख (गजल 4)