लम्पट दुनिया में मौको कहाँ ढूंढ़े रे बन्दे
हम सब औसत बुद्धि के लोग है और इसलिए औसत तरीके से सोचते है विचारते और करते है
जलन, कुढ़न, ईर्ष्या, द्वैष भाव , कुंठा, अपराध बोध और तनाव हम सबमे है और यह स्तुत्य है
प्रेम, आशा, भावनाये या भावुक होना, दूसरों के दर्द महसूस करना, खुशी गम में शरीक होना हमारी शेष बची मानवीयता का अहम हिस्सा है
इन सारे गुणों और दोषों के साथ हम जो भी दैनिक जीवन के कार्यों के अतिरिक्त कुछ कर रहे हों तो वह निश्चित ही एक अन्याय है और छल
खेलना, बागवानी, पढ़ना लिखना, संगीत, वाद्य , फ़िल्म देखना, चित्र बनाना, सैर, पर्यटन, समाज सेवा, राजनीति, या कि कोई अन्य ललित कला से लेकर जोखिम के काम करना जीवन के दैनंदिन कामों में शरीक कभी नही रहा
ये सारी विधाएं हमने अपने को स्थापित करने, अपना अहम और दर्प बरकरार रखने के लिए और तथाकथित समाज मे अपने को विशिष्ट बनाकर स्थापित करने के लिए ईजाद की
आरम्भ में यह जरूर एक शौक और कौशल या दक्षता वृद्धि के लिए रहा होगा परंतु शनैः शनैः यह एक किस्म का भयावह खेल बन गया जिसमें आज हम खुद के ही सबसे बड़े दुश्मन बनकर रह गए है
इस सबको स्थापित करने की मंशा में हमने इतने झूठ, गल्प और आलोड़न बना लिए कि आज जब आईना देखते है तो शर्म भी नही आती कि हम कहाँ आ गए है
यह बार बार भूल जाते है कि बेहद ओछी और औसत बुद्धि के हम लोगों ने चातुर्य , धुर्तता , जुगाड़, और घटियापन से अपने को एक प्रतियोगिता में झोंक दिया है जिसमे हर वक्त हम हर किसी से हर बात छुपाते हुए, सबको दुलत्ती मारते हुए, येन केन प्रकारेण और वीभत्स तरीकों से विश्व विजयी होना चाहते है
हम यह भूल रहे है कि इस सबमे हमने मूल मनुष्यत्व खो दिया है और जो सहज मानवोचित गुण हममे निहित थे - उन्हें विलोपित कर श्रेष्ठ बनने की प्रक्रिया में खुद कलुष से भर गए है , कितना रीत गये है यह समझ नही पा रहे हैं
हर क्षेत्र विधा का यही किस्सा कोताह है और हर कोई इसी सर्ग में पर्व मना रहा है , इस भीषण में समय मे ये प्रवृत्तियां चरम पर है और जानते बुझते हुए हम सिर्फ और सिर्फ हर कही से किसी भी प्रकार से कुछ भी पा लेना चाहते है
आखिर ये आग, ये ललक, ये वासना और ये मोह क्यों और बजाय अपने आप से तटस्थ होकर सोचने के - हम अंधी दौड़ में क्यो है , हम क्यों पा लेना चाहते है जो हमारा नही है।और चाहते है कि हर जगह पैर पसारकर बैठ जाये और अंगद की तरह स्थापित हो जाए भले वो हमारा कर्म क्षेत्र हो या ना हो
कई दिनों से जूझ रहा हूँ अपने आप से , चूंकि मेरा वास्ता लिखने पढ़ने से है तो देख रहा हूँ कि यहां ये दुष्प्रवृत्तियाँ बहुतायत में है ही नही, बल्कि लोग विक्षप्त होने की हद से बाहर जाकर इसमे पारंगत हो रहे है
मैं ठहर गया हूँ और यह स्वीकार कर रहा हूँ - एक तरह से कन्फेस कर रहा हूँ कि मेरा मूल काम जीवन जीना है - जितना भी, जैसा भी शेष बचा है और लेखन पठन पाठन बिल्कुल ही इतर क्षेत्र है और इसे मैं अपने शौक में लेता हूँ ना कि अपने को स्थापित करने के लिए - और स्थापित होने के लिए ना किसी की चिरौरी करूँगा ना ही किसी को शराब पिलाऊंगा , ना ही उसकी उजबक हरकतें बर्दाश्त करूँगा और किसी के पोतड़े तो निश्चित ही नही धोऊंगा
ना मुझे अमर होने की चाह है, ना किसी तरह की हवस, ना ही किसी से कोई प्रतियोगिता , ना अपने को लगातार झोंकते हुए या षड्यन्त्र रचकर कुछ भी हथियाने की चेष्टा करनी है, मेरी कोई मंशा नही है कि इतिहास के किसी कोने में बिंदु भर जगह भी मेरे नाम से भरी जाएं
आप जो भी करें - मुझे रंजो गम नही , बस मैं मुतमईन हूँ कि इस तपती दोपहरी में मैं अपने आप को इस सबसे अलग करता हूँ, मुझे कुछ लिखना - पढ़ना भी है तो 52 वर्ष उम्र हो चली है, मैं निर्णय स्वयं लूंगा - मित्र लोग कृपया अपने (कु)विवेक का परिचय ना दें और अपने स्वयं के संजाल, षड्यन्त्र और गला काट स्पर्धाओं तक सीमित रहें
कबीर कहते है - हिरणा समझ बुझ वन चरना
Comments