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ये मेहनतकश औरतें 16 Sept 2017



ये मेहनतकश औरतें -1
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नाम तो कभी जान ही नहीं पाए
जिसने बचपन में सम्हाला हमें जान से ज्यादा 
सिर्फ बाई कहते थे हम तीनो भाई उसे 
मां हम तीनों को हवाले कर उसके 
स्कूल चली जाती भेाैरांसा की लडकियां पढ़ाने 
अपने स्कूल से आकर भी उसी के घर जाते
क्योंकि घर में रहता नहीं कोई हमारे
बाई के एक नहीं पांच बच्चे थे सब बराबरी के
शाम को हम खाना खाते अपने डिब्बे से
तो वे देखते रहते और अक्सर कह देते पेट भरा है
बाई दिनभर काम करती घरों में यहां वहां
श्यामू, लीलाधर, रेखा , सुमित्रा और लता
पति क्या करते नहीं पता पर बीड़ी के धुएं से लथपथ
एक ऊंचा पूरा आदमी उस कच्चे मकान में रहता था
कुछ बदबू भी आती जिसे हम समझ नहीं पाते
बाई काम करती और दोपहर आते समय
कई बर्तनों में बचा खाना ले आती रोज
और फिर सब बांटकर खा लेते
सुमित्रा बड़ी थी और बाई तो मां थी उन सबकी
अक्सर उनके हिस्से कुछ आता नहीं या बहुत कम,
पानी जरूर था भरपूर उनके हिस्से में
जो उन्हें काम करने की ताकत देता
बाई को झिकते देखा, उस गली में सबकी हालत समान थी
सबके पांच छह बच्चे होते, मर्द घर में पड़े रहते
औरतें घर घर जाकर काम करती बरतन, कपड़े और झाड़ू पोछा
मैंने सीखा कि खाना कैसे आता है और कम होने पर कैसे खपता है
लड़को को कैसे झपटकर खाना चाहिए जब गरीबी में कम हो रोटी
मां को कैसे भूखी रह जाना है सबको बांटते हुए
घर के मर्द को बीड़ी और दारू में घर की छत को भिगो देना है
जिससे घर में धुआं और बदबू भर जाये
बहुत बाद में जब बड़े होने लगे तो मोहल्ला, गली, जाति और नौकरी समझ आई
समझ आया कि औरतें भूखी रहकर भी खींच लेती है गाड़ी
बामण हो या नावन सबकी मूल जात औरत ही है
अपने बच्चो के साथ सम्हाल लेती है जमाने के बच्चे
सफाई करते हुए बचा लेती है संस्कार और मूल्य
अपने बच्चों को छोड़कर निकल पड़ती है दुनिया संवारने
बगैर कहे और संसार में अपना नाम उजागर किए हो जाती है अमर
कि सन उन्नीस सौ पिछहत्तर के बाद उस बाई को याद करते हुए लिखता है कविता कोई आज
नामों की स्मृतियों में श्यामू या लीलाधर याद रह जाते है
ना मां याद आती है ना बाई बस उनके संसार के चित्र घूमते है
धरती पर किसी कोने में औरतों के लिए एक कविता पढ़ी जाती है बहुत प्यार से

ये मेहनतकश औरतें - 2
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मजाल कि कोई मुंह पर कुछ बोल दें
पूरे मोहल्ले में ऐसी धाक और रुतबा था
सुबह से चौड़े भाल पर बड़ी सी लाल बिंदी
मांग में दमकता सिंदूर और गले में सोने का हार 
आ जाती थी काम पर भोर में सबसे पहले
पांच छह घर इधर और दो घर शनि मंदिर के पास
निपटाकर लौट जाती कहां मालूम नहीं
इतने ही घरों में काम करती थी भरे पूरे घर की बाई
पति एक फैक्ट्री और बच्चे भी पढ़ते लिखते काम करते
लडकियां निगाह में रहती मजाल कि छेड़ दें कोई उनको
हमारे घर काम करोगी पूछने में डरते लोग - मना ना कर दे
राशन की दुकान से लेकर सब्जी लाने का भी काम करती
काम करने आती तो घर के मुखिया सी रहती
बरतन तो साफ करती पर जाले भी साफ कर जाती सबके
तीन तीन किराए के मकान बदलने पर एक दिन
बरस पड़ी मां पर कि दोनों कमाते हो धनी लुगाई
कब तक ये ठीकरे यहां वहां पटकते रहोगे
बना क्यों नहीं लेते छोटा सा अपना टपरा तान के
तीन बच्चों और महंगाई में गुजारा बसर करने वाली
मां ने नब्बे ढाई सौ का रोना रोया और बोली है कहां कुछ
पीछे पड़ गई वो ठकुराईन और नई बन रही कॉलोनी में
एक टुकड़ा दिलवा दिया, मां कहती थी पहली जमाराशि
दो हजार तारा बाई ने दिए थे फिर किश्तों पर जीवन चला
इस तरह यह घर बना जहां आज हम सुरक्षित रहते है
पिता, मां और अभी भाई के गुजर जाने के बाद भी एक साथ
नए मकान में भी आती और कभी रोटी बना जाती
कभी बरतन के लिए दे जाती नगदी, ले आती अचार घर का
अपनी बचत के सात आठ सौ भी मां के पास रखती
किसी ने कभी पूछा तो मां ने भी कहा नहीं कि
बरतन साफ करने वाली है उनकी धमक ही ऐसी थी
हमारी भी हिम्मत नहीं पड़ती कि थाली में छोड़ दें झूठा
या उनके सामने मां से जिद करें गोली बिस्किट की
स्कूल से आकर पढ़ने ना बैठो तो चिल्ला पड़ती थी
गली में कहीं खेलते दिखे तो आंखें देखकर ही डरते थे
तारा बाई कौन थी नहीं मालूम पर जिस घर में रहता हूं
उसकी नींव में उनके दिए दो हजार उधार से यह घर आबाद है
तीर्थ करने गई बद्री बाबा के दर पर मोहल्ले के साथ तो
लौटी नहीं पन्द्रह दिन, मां ने मुझे ही भेजा रहा घर उनके
पूछने गया तो मातम पसरा था, लोग थे, भीड़ थी
किसी ने कहा कि भगवान ने उन्हें वहीं रख लिया
मोहल्ले वाले वहीं क्रिया कर आए थे तारा बाई की
बोले कि पुण्यात्मा थी भगवान के चरणों में तज दिए प्राण
फिर घर में बाई नहीं आई कोई बड़े दिनों तक
मां ने किसी को नहीं रखा खुद साफ करती थी
पिता की बीमारी में मां की हमजोली थी हर क्षण
मां जब गई मद्रास इलाज के लिए तो घर सम्हाला
कैसे भूल सकते है तारा बाई को हम अपने जीवन में
थाली में खाना आज भी नहीं छोड़ता मै कभी
कही से घूर रही हो मानो दो आंखे ताराबाई की डांटते हुए।

ये मेहनतकश औरतें - 3
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बचपन में दादी का प्यार मिला नहीं
मां की तरह वो भी किसी बच्चों के स्कूल में रही
उसकी सेवानिवृत्ति पर महू के उस हाल में जब मै बोला 
तो सबसे कहा कि बचपन में दादी से शिकायत थी
पर आज हाल में कई डाक्टर इंजीनियर और लोग 
देख चुका हूं तो शिकायत दूर हो गई है मेरी
सुशीला उसका भी नाम था इस नए मकान में मिली थी
जाति से केवट यानि मछली पकड़ती थी नाले से
और जब तीन चार मोटी मछली पकड़कर बेच आती तो
बरतन का काम करने आती थी कॉलोनी में दोपहर को
एकदम काली और बेतरतीब से बाल, मटमैली साड़ी
बदबू से सरोबार पर बरतन ऐसे रगड़कर मांजती कि
एक चमक से सारे नहा उठते घर की रैक पर
दादी जब भी आती तो हम मजाक में कहते
अब दो सुशीला घर में आ गई और दादी खिजती
सुशीला के पहनावे से दादी परेशान रहती और कोसती मां को
क्या नीची जाति को रसोई के बरतन छूने देती है
मां मुस्कुरा देती और कहती जमाना बदल गया है
अपने स्कूल में हमें ले जाती गांव तो सबके साथ बैठकर
खाना खाती मां को देखकर बहुत अच्छा लगता
सुशीला ने कई बार काम छोड़ा और कई बार पकड़ा
बगैर बताए लंबी छुट्टी ले लेती और गायब हो जाती
बाद में चुपचाप आकर सब करने लगती झाड़ू भी लगाती
मां और उसके बीच एक अघोषित लड़ाई जारी रहती
कभी कभी सुशीला बीड़ी पीती तो हम औचक से देखते
एक बार गायब हुई लंबे समय तक तो हम भूलने लगे
वैसे भी ओछे काम करने वालों का क्या होता है
एक को छोड़ो दूसरा मिल जाएगा, फिर रुपए की ताकत
ये हलकट काम करने वाले लालची ही होते है
जहां ज्यादा रुपया मिलेगा, चले जाएंगे इनका क्या भरोसा
एक दिन सुशीला का लड़का खड़ा हो गया आकर
बाप मर गया और मां भरती है अस्पताल में , बोला
घर में खाने को नहीं कुछ और दवाई के रुपए नहीं
मां कुछ नहीं बोली एक सौ का नोट पकड़ा दिया
दस बरस तक काम करने का शायद उपकार था
लड़का चला गया और मां उदास थी बहुत दिनों तक

एक दिन ख़बर अाई कि सुशीला मर गईं खूब पीकर
दवा तो नहीं पर देशी शराब पीने लगी थी आखिर में
मछली पकड़ती रहती देर शाम तक और रात दारू में
पति ने छोड़ दिया था और दूसरी रखी थी तब से दुखी थी
काम भी करने निकली थी कि चार बच्चो को पालना था
उसका मरना था और थोड़े ही दिनों बाद दादी भी गुजरी
दो सुशीलाओं के मरने से दुनिया को फ़र्क नहीं पड़ा पर
मेहनतकश औरतों के खाते में से दो औरतें खारिज हो गई।

Comments

Amit said…
बेहतरीन

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