Skip to main content

Posts of Sept III Week 2017



साहित्य में कहानी,कविता, आलोचना या गद्य को समझना किसी की बपौती नहीं है और जो बैनर लगाकर समझाने या सुधारने का ठेका लिए बैठ गए है उनसे दरिद्र कोई नहीं है ।
चार कविता, दो कहानी लिखकर आप जो खुद को मठाधिश समझकर स्वयंभू खुदा बन बैठे है और फतवे जारी करने का उपक्रम कर रहे है ना इसका नुकसान और को तो नहीं आपको ज्यादा हो रहा है।
कहानी, कविता या आलोचना का कोई फ्रेम नहीं होता ना ही कोई क्रमबद्ध फार्मूला पर आप जिस तरह से अपनी समझ से कविता , कहानी और आलोचना पर जजमेंटल हो जाते हो और अपने को श्रेष्ठता के पलड़े में भारी करके दूसरों को हल्का कर देते हो वह बहुत ओछापन ही नहीं वरन कष्टदायी भी है । बाज आ जाओ हे संदिग्ध साहित्यकार। जब अपनी प्रतिबद्धता और सरलता शंकित है तो दूसरों की स्थापनाओं पर सवाल उठाना और उन पर सवाल उठाने का अधिकार किसने दे दिया ?
अपने विचारधारा के अनुरूप खुदा बन चुके आकाओं की ओर मत देखो, उनकी लल्लो चप्पों के लिए अपनी रचनात्मकता की बलि मत दो और उनको खुश रखने के लिए अपने लोगों को किसी वेदी पर बलि मत चढ़ाओं। यह याद रखना जरूरी है कि साहित्य किसी का पूर्ण कालिक पेशा नहीं है , यह सिर्फ एक मानसिक आनंद और कुछ कर गुजरने की एक तफ्तीश है किसी ऐतिहासिक शख्स के बरक्स कुछ पन्नों में हर्फों में जिंदा रह जाने की कशिश । इस भ्रम को तोड़ने का हक किसी ने किसी को नहीं दिया है।
यदि आपकी खुद की समझ कमजोर और शंकित है तो मेहरबानी करके अपने एक्स्पोज़र बढ़ाइए , हिंदी के अतिरिक्त भी साहित्य और विविध विषय पढ़कर, समझकर अपनी हीनता को कम कीजिए।
सिर्फ हिंदी के चार वामपंथी , संघी या लोकप्रियता के लिए वैश्या से खराब जीवन जीने वाले कवि, कहानीकार, आलोचक और गद्यकारों के परे जाकर भी दुनिया के विस्तृत फलक पर फैलें उदीयमान और स्थापित लोगों को भी गुनिये और समझिए वरना आप दो तुच्छ प्रकाशकों, चार दरबारी कवियों और छह कहानी - उपन्यास के कुंठित लोगों में डूबकर ख़तम हो जाएंगे।
यह समय वायवीय संवेदनाओं के बीच स्थापित मूल्यों, मान्यताओं और संप्रेषण के साथ भीड़ में अपनी अस्मिता, कद और प्रतिष्ठा को एक समवाय और संतुलन के साथ बचाकर रखने का भी विकट काल है जिसमें यदि आपने कुछ भी हरकत की तो एक त्रिशंकु की तरह से आजीवन उम्र भटकने के लिए फेंक दिए जाएंगे। समझ रहे हो ना !!!
**********
भारत के पढ़े लिखे प्रबुद्ध दलित, दलितों को भड़काकर बुद्ध धर्म ग्रहण करने को उकसा रहे है, बावजूद इसके कि वो यह भलीभांति जानते है कि धर्म बदलने से जात नहीं बदलेगी।
ये सज्जन जो शांति का लबादा ओढ़े नौटंकी कर रहे है इसका नाम है बौद्ध भिक्षु अशीन विराथु जुलाई, 2013 को टाइम मैगज़ीन ने इसे कवर पेज पर छापा और इसकी हेडलाइन थी, 'द फेस ऑफ बुद्धिस्ट टेरर'।
यह व्यक्ति मुसलमानों के बारे में कहता है कि 'आप कितने भी उदारवादी क्‍यों न हों, लेकिन पागल कुत्ते के साथ नहीं सो सकते।' म्यांमार में वर्षों से मुसलमानों के विरोध में आग उगलने का काम करता रहा है। इसे 25 वर्ष तक जेल की सजा भी हुई थी, बाद में रिहा कर दिया गया था। जिस राजकुमार सिद्धार्थ ने राजपाट छोड़कर समूचे संसार में चोर, उचक्कों, वेश्याओं को एकत्रित कर सहज और सरल इंसान बनाया अब बुद्ध के अनुकरणकरता अब इस भाषा ही नहीं व्यवहार पर उतर आए है।
यानि अब आप भारत के दलितों को बुद्धत्व देकर बोधी ज्ञान देना चाहते है कि हिन्दू या ब्राह्मण या सवर्ण आपके लिए कुत्तों के समान है। मुझे समझ नहीं आता कि क्यों आखिर बौद्ध धर्म में परिवर्तन करने के लिए कुछ लोग उकसा रहे है जबकि इसी शांति प्रिय धर्म ने शर्म बेचकर दो सौ मुसलमानों के घरों को जलाया है और हिंसा की है।
जो काम गौतम बुद्ध नहीं कर पाएं वो उनके अनुयाई कर रहे है - मूर्ति लगाना, पूजा पाठ, संपत्ति इकट्ठा करना, मठ और गढ़ बनाना, सारे प्रपंच करना और हिंसा ही बचा था तो वो भी शुरू कर दिया।
दलित आंदोलन समता, रोजगार, इज्जत, न्याय, आजीविका और योग्यता बढ़ा कर अपने हक लेने की बात नहीं करता बल्कि उन्हें गुमराह करके भटकाने की बात जरूर करता है, स्वाभिमान जगाने के बजाय आजाद भारत में आरक्षण जैसी बैसाखी लेने की बात करता है , क्योंकि अगर दलित पढ़ लिख गये तो इनकी बकैती की दुकानदारी और बरगलाने के धंधे बन्द हो जाएंगे।
इसलिए कभी लगता है कि दलितों का नुक़सान जितना प्रबुद्ध लोगों ने किया है उतना और किसी ने नहीं। इसलिए दलितों में फाड़ भी है और वीभत्सता भी बहुत।
Image may contain: 1 person, close-up

देवास में चित्रकला से लेकर संगीत और तमाम तरह के राजनेताओं या फालतू के लोगों / कलाकारों को लीज पर जमीन दी हुई है गैलरी, भवन या स्मारकों के लिए।
उद्देश्य यह था कि ये लोगों को कला के गुर सिखाए और कलाओं का प्रचार प्रसार करें, परन्तु ना तो ये लोग कुछ काम कर रहे और ना ही कलाओं को फैला रहे है। सिर्फ बरसों से जमीन दबाकर बैठे है और अपने धंधे में कमा रहे है।
मानो जमीन लीज पर नहीं लीद पर हो।
ये लोग शहर के बीचोबीच बेशकीमती जमीन का या तो इस्तेमाल करें या प्रशासन दान दी हुई महंगी सरकारी जमीन राजसात कर लें और जनहित में उपयोग करें। शहर में झुग्गियां बहुत है, शहरी मिशन में लोगों को पक्के मकान बनाकर दें और इसकी राशि प्रधानमंत्री आवास योजना से दी जा सकती है। गरीब अवाम को भी शहर के बीच अच्छी जमीन पर रहने के अवसर मिलें।
धंधेबाजों को सरकारी जमीन का इस्तेमाल ना करने दें या प्रशासन इन जमीनों पर सार्वजनिक शौचालय बना दें।
नवागत कलेक्टर को लिख रहा हूं कि तुरन्त एक्शन लें नवरात्रि में लोगों को फायदा तो मिलें।
**********

Comments

Popular posts from this blog

हमें सत्य के शिवालो की और ले चलो

आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत

संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है

मुझसे कहा गया कि सँसद देश को प्रतिम्बित करने वाला दर्पण है जनता को जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है लेकिन क्या यह सच है या यह सच है कि अपने यहाँ संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है और यदि यह सच नहीं है तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को अपने ईमानदारी का मलाल क्यों है जिसने सत्य कह दिया है उसका बूरा हाल क्यों है ॥ -धूमिल

चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास

शिवानी (प्रसिद्द पत्रकार सुश्री मृणाल पांडेय जी की माताजी)  ने अपने उपन्यास "शमशान चम्पा" में एक जिक्र किया है चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास अवगुण तुझमे एक है भ्रमर ना आवें पास.    बहुत सालों तक वो परेशान होती रही कि आखिर चम्पा के पेड़ पर भंवरा क्यों नहीं आता......( वानस्पतिक रूप से चम्पा के फूलों पर भंवरा नहीं आता और इनमे नैसर्गिक परागण होता है) मै अक्सर अपनी एक मित्र को छेड़ा करता था कमोबेश रोज.......एक दिन उज्जैन के जिला शिक्षा केन्द्र में सुबह की बात होगी मैंने अपनी मित्र को फ़िर यही कहा.चम्पा तुझमे तीन गुण.............. तो एक शिक्षक महाशय से रहा नहीं गया और बोले कि क्या आप जानते है कि ऐसा क्यों है ? मैंने और मेरी मित्र ने कहा कि नहीं तो वे बोले......... चम्पा वरणी राधिका, भ्रमर कृष्ण का दास  यही कारण अवगुण भया,  भ्रमर ना आवें पास.    यह अदभुत उत्तर था दिमाग एकदम से सन्न रह गया मैंने आकर शिवानी जी को एक पत्र लिखा और कहा कि हमारे मालवे में इसका यह उत्तर है. शिवानी जी का पोस्ट कार्ड आया कि "'संदीप, जिस सवाल का मै सालों से उत्तर खोज रही थी वह तुमने बहुत ही