दो समसामयिक कवितायें
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स्त्री के प्रेम से वंचित आदमी किसी का नहीं होता
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कैसे लौट गए तुम
गाय भैंसों के व्यवसायिक मेले में भाषण देकर
तनिक भी धुंजे नहीं तुम
एक बार भी नहीं पूछा कि ये क्यों हुआ
ये भारत माता की लाडली लक्ष्मी बेटियों को
मां दुर्गा के आगमन पर क्यों पीटा इन लड़कियों को
तुम्हारे ही लोग वहां है जहां सरस्वती का वास है
वहीं लोग भारत माता के बहाने देवियों को पीट रहे है
शैला मसूद हो या बनारस के गंगा घाट पर विराजित ये देवियां
तुम्हे दिल्ली जाने की इतनी जल्दी क्या थी
क्यों एक बार भी गए नहीं झांकने भी
नरभक्षी कुलपति और पुलिस को लताड़ा नहीं
तुम चुप हो कब से क्यों बोलते नहीं
पहलू खान, नजीब, जुनैद, अखलाख को मार दिया जब
उना में दलितों को जिंदा जला दिया
रोज जब दलित मर रहे है देश के गड्ढों में
जानते हो ना इन्हे भी संविधान में उतना ही हक है जीने का
सम्मान और गरिमा के साथ जितना तुम्हे
यहां मौत का हिसाब उन लंबी पंक्तियों का नहीं है
जो एक अवसाद में ली गई अवस्था में किया था तुमने
ये लड़कियां वहीं है जिन्होंने तुम्हे दिल्ली या लखनऊ में
तख्त नशी किया है और जेहादी हो गई थी
क्या मां गंगा ने तुम्हे इनके लिए बुलाया था
गलती तुम्हारी नहीं, ना ही उस मठाधीश की
संसार में मनुष्य ही मनुष्य से प्रेम करता है और रचता है
तुम दोनों मशीन हो, बच्चो और स्त्री के प्रेम से वंचित
इसलिए निष्ठुर और निरापद हो
यह समय का ही दुष्चक्र है कि तुम वहां हो जहां कोई नहीं होता
तुम्हे भी वही आना होगा जहां सब कुछ ख़तम हो चुका होगा
© संदीप नाईक
2
प्यार में डूबी लड़की सर्वनाम हो जाती है
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1
प्लेटफॉर्म पर रेलों की आवाजाही में
ख़तम होती शाम के झुरमुट में
एक लड़की खड़ी एक लड़के से टिककर
हंस रही है
यहां प्लेटफॉर्म ख़तम होता है और लंबी पटरियां शुरू
रेल आती जाती है और तेज़ आवाज में
लड़की की हंसी दबती है
पर उसके हाथ भींच लेते है
लड़का उसकी हंसी में बहुत कुछ सुनता है
चुप रहता है, उदास हो जाता है
रेलें गुजर रही है आहिस्ते से
2
आवारा भीड़ जो सड़क पर सरक रही है
एक सिग्नल पर ताक रही है लड़की
उस पार जहां से रोज गुजरने वाला लड़का
फिर खड़ा है आज हेलमेट उतारकर
लड़की अपनी छोटी सी गाड़ी पर टिकाती है हाथ
बालों की सलवटों को संवारते हुए
मुस्कुराती है दांत काटते ऐसे कि लड़का देख लें
ट्राफिक के बीच कुछ साफ नहीं है
धुंधला सा है यह रोज गुजरने वाला प्यार
और लाल बत्ती हर रोज हरी होने पर
सरकता है प्यार भी भीड़ के साथ भीड़ के पार
3
यह शहर का एक तालाब है
लड़की है उसकी सहेली
लड़का है और उसका दोस्त
सहेली और दोस्त सिर्फ संगी है
इन दो प्रेमियों के कि जमाने से छुपे प्रेम
सहेली और दोस्त दोनों जानते है कि
इस प्रेम का कुछ भविष्य नहीं
बस वे भी उन्हें झुरमुट और पेड़ की आड़ में जाने तक
देखते है और इस तरह से सहेली और दोस्त में
पनपता है प्यार
लड़का लड़की बेखबर है
तालाब सूख रहा है बेचैनी बढ़ गई है जीवन में
4
एक साहित्य की गोष्ठी में कविता पढ़ता है लड़का
लड़की सुनती है शब्दों को गुनती है
मुस्कुराती है जब कविता में वह, उसने, कहा था
या कि कुछ और ऐसे शब्द आते है जिन्हे
हिंदी में संज्ञा के बदले सर्वनाम कहते है
वो कागज़ खींच लेती है लड़के से
कविता की गोष्ठी में और भी लोग पढ़ रहे है
कविता का धुंधलका उन दोनों को ओंस में भिगोता है
गोष्ठी ख़तम होकर लड़का अपने कागज़ में
पेंसिल के निशान ढूंढता है
निराश होता है कि कहीं कोई चिन्ह नहीं
लड़की ऊपर आंखें करते आसमान को घूरते निकलती है
संसार की गोष्ठियां चल रही है
लड़की कोई अक्षर नहीं चीन्हती
लड़का अक्सर जमीन मापते लौट आता है घर
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