शिक्षा मे नैतिक शिक्षा, मूल्यों की शिक्षा की बहुत बात होती है. और अक्सर इसे धार्म से जोड़कर देखा जता है, मुझे याद है जब मै आर्मी स्कूल मे था तो अक्सर नवमी के बाद बच्चे यह कालांश गोल कर देते थे और जब उनसे मै पूछता था कि क्या बात है क्यों गोल कर दिया तो कहते थे अरे सर वो......मेडम तो कल रात मे ऑफिसर्स क्लब मे फलाने ब्रिगेडियर के साथ दारू मे झूम रही थी और आज सुबह हमें नैतिक शिक्षा पढायेगी, देवास के विन्ध्याचल अकादमी मे था तो बच्चे कहते थे वो सर क्या गरीबों से हमें सीखने की सलाह देते है जो खुद कार मे आते है और थोड़ा सा भी पैदल नहीं चल सकते. दूसरा छोटी कक्षाओं के बच्चे अक्सर आदर्श और वास्तविकता मे बहुत अंतर् पाते है, हम कहते है झूठ मत बोलो और घर मे पापा मोबाईल पर अक्सर कहते है कि आज कानपुर मे हूँ या दिल्ली मे हूँ, तो अब सवाल यह है कि नैतिक शिक्षा क्या किताबों से मिल सकती है ,
इसमे यह भी ध्यान रखना होगा कि पाठयपुस्तकों के अलावा स्कूल ये किताबें बहुत महंगे दामों पर पालकों को खरीदने के लिए मजबूर करते है और इसका मोटा कमीशन स्कूल संचालक या प्राचार्य को सीधे सीधे जाता है अब यहाँ से नैतिक शिक्षा की शानदार शुरवात होती है. इन किताबों मे धर्मनिरपेक्षता के नाम पर कौरव, पांडव, श्रीकृष्ण या पंचतंत्र की कहानियां होती है. और फ़िर गौतम बुद्ध , महावीर स्वामी गुरु गोविन्द सिंह की कहानियां, नीति के दोहे या किसी वीर बालक की कहानियां कही कोई महिला की कहानी आ जाये तो आप एहसान समझिए लेखक का वरना सारे आदर्श काम और ज्ञान की बातें तो पुरुषों ने ही कही है. अब आईये चूँकि मजबूरी है सप्ताह के स्कूल टाईम टेबल मे इसे जगदेने की तो हर जगह जहाँ बच्चे गणित या विज्ञान जैसे विषयों से उब रहे हो तो एक रिलेक्स या कॉमिक रिलीफ देने के लिए इसे डाल दिया जाता है और जिस शिक्षक की ड्यूटी इसे पढाने मे लगी रहती है वह उस कक्षा मे अमूमन बैठकर या तो कुर्सी पर अपनी टेस्ट की कॉपियां जांचती है या थोड़ा सुस्ता लेती है, ताकि अगले पीरियड की तैयारी कर पाए. और बच्चे मजे लेते है और या तो वे भी अपना काम करते है या चुहलबाजी करते है. कुल मिलाकर सप्ताह मे एक या दो दिन नैतिक शिक्षा का हो हल्ला रहता है, अब आप बताईये कि क्यों आखिर इतना हल्ला चाहे स्कूल मे गीता थोपने की बात हो या रामायण की या मदरसा मे कुछ थोपने की बात हो.
सबसे महत्वपूर्ण है कि नैतिक शिक्षा कभी भी किताबें पढकर नहीं आ सकती या मूल्य किताबों से नहीं विकसित किये जा सकते क्योकि जिस तरह के समाज मे हम रह रहे है वहाँ यह सब अब बेमानी हो गया है. असल मे जिस तरह से बच्चों मे अनुसरण की प्रवृत्ति होती है वे अक्सर इस तरह के दोहरे मानदंडों को जल्दी पकड़ लेते है और जहाँ तक किशोरों की बात है उनके रोल माडल और आईकोन अलग होते है तो ऐसे मे हम किस तरह की नैतिकता की बात कर रहे है, तीसरा हमने एक लंबा समय देख लिया है शिक्षा मे जितना नवाचार, व्याभिचार और प्रयोग भारत मे हुए है उतने दुनिया के किसी देश मे नहीं हुए होंगे चाहे वो पाउलो फ्रेरे ने ब्राजील मे किये हो, समरहिल मे हुए हो, या छोटे मुल्कों ने किये हो. यहाँ तो शिक्षा मे प्रयोग और खाकरके नैतिक शिक्षा मूल्य शिक्षा को करने थोपने और अपनी विचारधारा को पाठयक्रम मे समाहित करने की बात का जो चस्का एनसीआरटी से लेकर राजनैतिक दलों को है वहा कही नहीं होगा.
अकादमिक नवाचार और विषय संबंधी नवाचार को लेकर मप्र की संस्था एकलव्य के विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम, प्राथमिक शिक्षा या सामाजिक कार्यक्रम को लेकर मुझे कही कोई और पहल सार्थक रूप से नजर नहीं आती जिसमे सुबीर शुक्ला से लेकर अंजलि, सुब्बू, अरविंद, टूलटूल , राजेश, रश्मि, विनोद, अनिता रामपाल, ह्रदयकान्त दीवान या कमल महेन्द्रू या दिल्ली विवि के तमाम वो लोग या टीआईएफआर या प्रो अनिल सदगोपाल जैसे लोगों ने काम किया है. परन्तु नैतिक शिक्षा का जो कबाडा हुआ है उसकी यह परिणिती है कि आज देश मे नैतिकता बची ही नहीं है और इसके नाम पर वाक् युद्ध से लेकर सब तरह के युद्ध जारी है. आज अजीम प्रेमजी जैसे बड़े महंगे विवि खुल गये है पर इनकी भी मेल आती है तो अक्सर उसमे नैतिक शिक्षा के बारे मे व्याख्यान आदि का ही ज्यादा जिक्र होता है और उसमे भी विदेशी प्राध्यापकों के नाम ज्यादा होते है.
मुझे लगता है कि दरअसल मे हम बहुत गडबड कर रहे है. नैतिक शिक्षा एकदम भिन्न है और धर्म और गीता थोपना भिन्न पर सरकारों मे बैठे लोग इसे एक ही मानते है राजनीतिज्ञों को यह नैतिक शिक्षा विषय एक ऐसा ओपन एवेन्यू दिखता है जहाँ से वे अपना हर तरह एजेंडा थोप सकते है साथ ही अपनी बात मनवा भी सकते है. कोई भी शिक्षा सिवाय अकादमिक विषयों के, बल्कि किसी हद तक अकादमिक विषय जैसे भाषा विज्ञान गणित भी, व्यावहारिक रूप से दैनंदिन जीवन से सीखी जा सकती है. धर्म हो या नैतिकता क्यों ना हम बच्चों को अपने समुदाय, परिवार, पालकों, अपने दोस्तों, जिसे हम पीयर्स कहते है, या शिक्षकों से सीखने के अवसर दें. यदि गीता सच बोलने या कर्म करने का पाठ पढाती है या मोहम्मद साहब इल्म की ताकत की बात करते है महावीर अहिंसा की बात करते है बुद्ध अप्प दीप भवो की बात करते है तो क्यों ना वे अपने जीवन से सीखें उन लोगों से सीखे जो इन शिक्षाओं को अपने वास्तविक जीवन मे उतार चुके है ?
एक बार फ़िर से सही समय है कि इन मुद्दों को शिक्षा मे फ़िर परिभाषित किया जाये और टटोला जाये ताकि ये स्थाई बहस और घटिया राजनीती कम से कम शिक्षा के परिसरों से दूर हो.
इसमे यह भी ध्यान रखना होगा कि पाठयपुस्तकों के अलावा स्कूल ये किताबें बहुत महंगे दामों पर पालकों को खरीदने के लिए मजबूर करते है और इसका मोटा कमीशन स्कूल संचालक या प्राचार्य को सीधे सीधे जाता है अब यहाँ से नैतिक शिक्षा की शानदार शुरवात होती है. इन किताबों मे धर्मनिरपेक्षता के नाम पर कौरव, पांडव, श्रीकृष्ण या पंचतंत्र की कहानियां होती है. और फ़िर गौतम बुद्ध , महावीर स्वामी गुरु गोविन्द सिंह की कहानियां, नीति के दोहे या किसी वीर बालक की कहानियां कही कोई महिला की कहानी आ जाये तो आप एहसान समझिए लेखक का वरना सारे आदर्श काम और ज्ञान की बातें तो पुरुषों ने ही कही है. अब आईये चूँकि मजबूरी है सप्ताह के स्कूल टाईम टेबल मे इसे जगदेने की तो हर जगह जहाँ बच्चे गणित या विज्ञान जैसे विषयों से उब रहे हो तो एक रिलेक्स या कॉमिक रिलीफ देने के लिए इसे डाल दिया जाता है और जिस शिक्षक की ड्यूटी इसे पढाने मे लगी रहती है वह उस कक्षा मे अमूमन बैठकर या तो कुर्सी पर अपनी टेस्ट की कॉपियां जांचती है या थोड़ा सुस्ता लेती है, ताकि अगले पीरियड की तैयारी कर पाए. और बच्चे मजे लेते है और या तो वे भी अपना काम करते है या चुहलबाजी करते है. कुल मिलाकर सप्ताह मे एक या दो दिन नैतिक शिक्षा का हो हल्ला रहता है, अब आप बताईये कि क्यों आखिर इतना हल्ला चाहे स्कूल मे गीता थोपने की बात हो या रामायण की या मदरसा मे कुछ थोपने की बात हो.
सबसे महत्वपूर्ण है कि नैतिक शिक्षा कभी भी किताबें पढकर नहीं आ सकती या मूल्य किताबों से नहीं विकसित किये जा सकते क्योकि जिस तरह के समाज मे हम रह रहे है वहाँ यह सब अब बेमानी हो गया है. असल मे जिस तरह से बच्चों मे अनुसरण की प्रवृत्ति होती है वे अक्सर इस तरह के दोहरे मानदंडों को जल्दी पकड़ लेते है और जहाँ तक किशोरों की बात है उनके रोल माडल और आईकोन अलग होते है तो ऐसे मे हम किस तरह की नैतिकता की बात कर रहे है, तीसरा हमने एक लंबा समय देख लिया है शिक्षा मे जितना नवाचार, व्याभिचार और प्रयोग भारत मे हुए है उतने दुनिया के किसी देश मे नहीं हुए होंगे चाहे वो पाउलो फ्रेरे ने ब्राजील मे किये हो, समरहिल मे हुए हो, या छोटे मुल्कों ने किये हो. यहाँ तो शिक्षा मे प्रयोग और खाकरके नैतिक शिक्षा मूल्य शिक्षा को करने थोपने और अपनी विचारधारा को पाठयक्रम मे समाहित करने की बात का जो चस्का एनसीआरटी से लेकर राजनैतिक दलों को है वहा कही नहीं होगा.
अकादमिक नवाचार और विषय संबंधी नवाचार को लेकर मप्र की संस्था एकलव्य के विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम, प्राथमिक शिक्षा या सामाजिक कार्यक्रम को लेकर मुझे कही कोई और पहल सार्थक रूप से नजर नहीं आती जिसमे सुबीर शुक्ला से लेकर अंजलि, सुब्बू, अरविंद, टूलटूल , राजेश, रश्मि, विनोद, अनिता रामपाल, ह्रदयकान्त दीवान या कमल महेन्द्रू या दिल्ली विवि के तमाम वो लोग या टीआईएफआर या प्रो अनिल सदगोपाल जैसे लोगों ने काम किया है. परन्तु नैतिक शिक्षा का जो कबाडा हुआ है उसकी यह परिणिती है कि आज देश मे नैतिकता बची ही नहीं है और इसके नाम पर वाक् युद्ध से लेकर सब तरह के युद्ध जारी है. आज अजीम प्रेमजी जैसे बड़े महंगे विवि खुल गये है पर इनकी भी मेल आती है तो अक्सर उसमे नैतिक शिक्षा के बारे मे व्याख्यान आदि का ही ज्यादा जिक्र होता है और उसमे भी विदेशी प्राध्यापकों के नाम ज्यादा होते है.
मुझे लगता है कि दरअसल मे हम बहुत गडबड कर रहे है. नैतिक शिक्षा एकदम भिन्न है और धर्म और गीता थोपना भिन्न पर सरकारों मे बैठे लोग इसे एक ही मानते है राजनीतिज्ञों को यह नैतिक शिक्षा विषय एक ऐसा ओपन एवेन्यू दिखता है जहाँ से वे अपना हर तरह एजेंडा थोप सकते है साथ ही अपनी बात मनवा भी सकते है. कोई भी शिक्षा सिवाय अकादमिक विषयों के, बल्कि किसी हद तक अकादमिक विषय जैसे भाषा विज्ञान गणित भी, व्यावहारिक रूप से दैनंदिन जीवन से सीखी जा सकती है. धर्म हो या नैतिकता क्यों ना हम बच्चों को अपने समुदाय, परिवार, पालकों, अपने दोस्तों, जिसे हम पीयर्स कहते है, या शिक्षकों से सीखने के अवसर दें. यदि गीता सच बोलने या कर्म करने का पाठ पढाती है या मोहम्मद साहब इल्म की ताकत की बात करते है महावीर अहिंसा की बात करते है बुद्ध अप्प दीप भवो की बात करते है तो क्यों ना वे अपने जीवन से सीखें उन लोगों से सीखे जो इन शिक्षाओं को अपने वास्तविक जीवन मे उतार चुके है ?
एक बार फ़िर से सही समय है कि इन मुद्दों को शिक्षा मे फ़िर परिभाषित किया जाये और टटोला जाये ताकि ये स्थाई बहस और घटिया राजनीती कम से कम शिक्षा के परिसरों से दूर हो.
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