"मर्द को भी दर्द होता है", यह सिर्फ एक डायलाग नहीं बल्कि उस पूरे भारतीय फ़िल्मी इतिहास को चुनौती देकर नया कुछ कर गुजरने की तमन्ना है, जो भरत शाह और अजय बहल "बी ए पास" जैसी फिल्म लेकर आये है. दरअसल मे यह फिल्म एडल्ट क्यों है मुझे समझ नही आया , इसे 'यु' प्रमाणपत्र देने की आवश्यकता थी क्योकि आज के किशोर जितने इन मुद्दों से दो चार होते है वो हमारे उम्र के प्रौढ़, वयस्क या बुजुर्ग शायद ही होते हो. और फ़िर सब कुछ तो इस समय खुला खेल है फ़िर प्रमाण पत्र देने से भला कौन इसे नहीं देखेगा. यह फिल्म इस समय की हकीकत नहीं बल्कि गुजरते समय की मांग, बाजार, भोग, रूपया, सूचना प्रौद्योगिकी, महानगर, मध्यमवर्गीय चेतना, युवाओं की लगातार बढती जा रही जिम्मेदारियां, सामाजिक ताने बाने मे पड़ते जा रहे खलल और बाजार का हस्क्षेप, महिला मुद्दें, असुरक्षा, शिक्षा के नाम पर पसरे अड्डे, और छात्रावासों मे होते अवैध धंधों की कहानी है. रितेश शाह ने "रेलवे आंटी" नामक कहानी का बहुत ही अच्छा स्क्रीन प्ले लिखा है और उसे परदे पर उतारने मे जो मेहनत शादाब कमाल ने की है और अजय बहल ने निर्देशन देकर शादाब से काम करवा लिया है उसकी जितनी तारीफ़ की जाये कम है. राँझना ने एक हीरो की इमेज तोडी थी और यह दर्शाया था कि एक आम आदमी भी अपने जीवन का हीरो होता है उसके शहर, गली मोहल्ले का हीरो होता है और फ़िर यही चरित्र उसे दिल्ली या किसी बड़े आंदोलन मे ले जाता है और वह जीवन सफल करता है या खत्म करता है. मिल्खा सिंह की कहानी एक आम आदमी की कहानी है जो दूध पीने के लालच जैसी बात को लेकर देश के लिए अंत मे दौडता है. और बी ए पास फिल्म एक बार फ़िर इस मिथ को तोडती है कि शम्मी कपूर, अमिताभ, राजेश खन्ना, सलमान, शाहरुख या ऋतिक रोशन का युग चला गया है. साथ ही ये फिल्मे यह भी सिद्ध करती है कि अब बालीवुड सिर्फ हीरो के बल पर नहीं चलेगा, कहानी, सधा हुआ निर्देशन, आम लोगों के एहसास, भावनाएं, रिश्तों की बदलती परिभाषाएँ, शब्द और आम छोटे कस्बों की कहानियां ही चलेगी क्योकि अब दर्शक वर्ग का 'टेस्ट" बदल चुका है. वो दर्शक अब सिंगापुर, मालदीव या स्विटज़रर्लैंड नहीं देखना चाहता वो बनारस या पंजाब का कोई गाँव या दिल्ली का पहाड़ गंज देखना चाहता है जो उसकी देखी भाली लोकेशन है.
फिल्म की कहानी वासना और पूर्ति की कहानी है जो इन दिनों बहुत प्रचलन मे है. जिस तरह के समाज मे हम रह रहे है वहाँ तनाव और तनाव से जुड़े जीवन ने जहाँ एक ओर सेक्स को बहुत आम और पारदर्शी कर दिया है वही सेक्स की भूख ना मिटने पर जायज- नाजायज तरीकों से अपनी हवस मिटाने का जो रिवाज चल निकला है और बाकायदा इसे सामाजिक स्वीकृती मिल गई है और जिस तरह से समाज के हर वर्ग मे यह बढ़ा है वह इस फिल्म मे चित्रित किया गया है. जिगेलो जैसा अच्छा शब्द कैसे एक गन्दा शब्द बन गया, गे जैसा शब्द जिसका अर्थ आनंद होता है कैसे घृणास्पद बन गया और एस्कार्ट जैसा शब्द भी इसी लपेट मे आ गया. कॉक मतलब मुर्गा, पर आज क्या अर्थ है इसका ज़रा सोचिये, सिर्फ भाषा और शब्द ही नहीं बल्कि इसके साथ जुड़े वो तमाम तरह के पेशे और हरकतें आज एक चलती-फिरती हकीकत है और हमारे ही समाज मे ये एक बड़ा हिस्सा इससे रोजी रोटी कमा रहा है. जो महिलायें अपने पति से असंतुष्ट है या नपुंसकता का दंश झेल रही है उन्हें भी तो आखिर अपनी सेक्स की भूख मिटाने का हक है और अगर वे किसी युवा के साथ रूपया देकर सम्बन्ध बनाती है तो क्या गलत करती है, यह कमोबेश हर कस्बे, गली और मोहल्ले की कहानी है. आज कई युवाओं से बात करो तो वे साफ़ कहते है कि उनकी पसंद "आंटी" है क्योकि उन्हें वो सब तो मिलता ही है साथ ही रूपया इफरात मे मिलता है और सुरक्षा की भी ग्यारंटी है तो फ़िर इसमे गलत क्या है. बस गलत है तो अंत क्योकि जब मुकेश यानी शादाब को लगता है कि उसे बेहद बुरी तरह से समाज के उच्च वर्ग की महिलाओं ने गलत नाम बताकर इस्तेमाल किया और जब वो पुनः उनसे जुडने की कोशिश करता है तो उसे बुरी तरह ना मात्र दुत्कारा जाता है बल्कि उसकी संचित पूंजी को भी धोखे से छीन लिया जाता है. ध्यान रहे कि यह बारहवीं पास युवा अभी अभी बी ए मे दाखिल हुआ है. जवानी का जोश, मरदाना ताकत, चेहरे पर मासूमियत और सेक्स का नमक उसके पास भरपूर है, नहीं है तो सेक्स की भूख मिटाने का अनुभव और भयानक भूखी और वासना की पुजारिन औरतों को संतुष्ट करने का अभ्यास- जो उसे अपनी बुआ की सखी देती है और सिर्फ अनुभव ही नहीं देती बल्कि उसके लिए वो महिला ग्राहक भी जुटाती है. अंत मे जब वो महिला ग्राहक उसे दुत्कारती है तो वह दिल्ली के भीड़ भरे इलाके मे पुरुष वेश्या बनकर भी किस्मत आजमाना चाहता है पर बुरी तरह से लहुलूहान होकर जख्मी लौटता है. इस बीच उसकी बहनें जो किसी होस्टल मे रह रही है वापिस घर आना चाहती है क्योकि होस्टल की वार्डन उनसे पेशा करवाना चाहती है. मुकेश का एक बार फ़िर पम्मी इस्तेमाल करती है और अपना ही खून करवा लेती है. मुकेश के सामने पुलिस है, दिल्ली स्टेशन पर इंतज़ार करती नाबालिग बहनें है उसके सामने बदनामी का डर है और अंत मे निराशा के सिवाय कुछ नहीं है. समाज की इन औरतों ने उसे इस कदर निचोड़ लिया है कि उसमे लडने का माद्दा ही खत्म हो गया है, दोस्त ने उसे धोखा दिया है और उसके रूपये लेकर मारीशस भाग गया....अंत मे उसके सामने आत्महत्या के सिवाय कोई चारा नहीं बचता और वह अपने आपको खत्म कर लेता है. फिल्म जहाँ खत्म होती है वही से शुरू भी होती है कि आखिर उसकी जो दो बहनें स्टेशन पर इंतज़ार कर रही है वो किस दलदल मे फंसेगी, मुकेश के मरने से समाज के उच्च वर्ग या किसी भी तबके के औरतों की सेक्स की भूख नहीं मिटने वाली तो क्या एक नए मुकेश का जन्म होगा और उसे भी पम्मी जैसी औरतें पारंगत और निष्णात कर देगी ताकि वो एक एस्कार्ट या जिगेलो बनकर समाज मे जीवन बिता सके. स्पर्म डोनेशन को बनाई गई फिल्म "विकी डोनर" जहाँ एक ओर पतन और निराशा के माहौल मे एक अच्छे सार्थक काम की शुरुवात बनकर आई थी वही यह फिल्म "बी ए पास" हमारे समाज के नपुंसक हो जाने और पतन की पराकाष्ठा को दर्शाती है. यह कहानी युवा के शोषण की कहानी ही नहीं बल्कि देश मे फ़ैल रही बेरोजगारी और कुछ न कर पाने की बेबसी मे फंसे युवाओं के विकल्प खोजने की कहानी है. मेरी राय मे इस फिल्म को टेक्स फ्री करके कम से कम नवमीं से पढ़ रहे किशोरों को अवश्य दिखाई जाना चाहिए ताकि वे अपने भविष्य का फैसला खुद कर सके और बाकि कुछ भले ना करें, सीखे या चरित्र बनाए पर कम से कम अपने आपको को एक वर्ग से और इस तरह की कामुक औरतों से शोषित होने से तो बचा ही लेंगे. जरुर देखे, अपने परिवार के साथ देखे, बच्चों के साथ देखे और उन्हें बताएं कि ये अपने ही समाज की कहानी है इसके पात्र ना बने, ना ही इसका अनुसरण करें.
शादाब कमाल का अभिनय आश्वस्त करता है कि वे आने वाले समय मे लंबी रेस के घोड़े सिद्ध होंगे. और दीप्ती नवल को इस फिल्म मे देखकर मिस चमको का रोल, साथ साथ, और भी कई उनकी बेहतरीन फ़िल्में याद आ गई, गाना 'काली घोड़ी द्वार खड़ी' कही नेपथ्य मे गूंजने लगा उनका सबसे अच्छा काव्य संकलन "लम्हे लम्हे" याद आ गया. बाकि निर्देशन कसा हुआ है और एक भी गाना ना होना इसकी विशेषता है. सिर्फ यही कहूँगा कि यह फिल्म नहीं अपने समय का दस्तावेज है जो आने वाले समय मे इस गुजरते समय का साक्ष्य और इतिहास बनेगा.
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