आशिकी दो देखी ................हीरो का मर जाना मुझे सबसे अच्छा लगा. जीवन की सबसे अच्छी सखी मौत ही हो सकती है और अगर घसीट- घसीट कर जीना पड़े तो मौत स्वीकारना बुद्धिमता है.
इसकी समीक्षा मे इसके सिवा और कोई बात नहीं है.... ज़िंदगी का असली सच मौत से मिलना और ज़िंदगी का सबसे बड़ा कर्म अपने आपको उस मौत से गले लगाना है जिसके लिए ताउम्र मेहनत करते है.
दरअसल मे राहुल का मरना हो या हर्ष का मरना (मुझे चाँद चाहिए) दोनों ही हीरो है दोनों ही जीवन की उन परिस्थितियों मे से गुजरते है जहाँ जीवन और मौत एक हो जाता है, जीवन और मौत के घालमेल मे जीवन मे सुख का पलडा भारी हो यह बिलकुल गलत है और ऐसे मे अगर हर्ष और राहुल मौत को जितने गर्व से गले लगाते है वो कोई गलत नहीं बल्कि मेरे लिए यह एक मात्र आदर्श स्थिति है जहाँ जीने के बजाय या घिसटते जाने के बजाय सहज और सम्पूर्ण हो जाता है.
मै इसी को चौरासी करोड योनियों से मुक्त होने का फल मानता हूँ अगर यह मान्यता है तो. जैसे गुनाहों के देवता का हीरो बिनती के साथ ही शेष बचा जीवन जीने को अभिशप्त रहता है. जीवन से सुधा का जाना, आरोही या वर्षा का सफल होना - एक जलन नहीं, बल्कि एक तरह का ठहराव है और शायद अपने सिसकते दर्प और अहम के संतुष्टि का असर होता है, जो पुरजोर तरीके से सिर्फ और सिर्फ मौत की ही मांग करता है.
हम सब अपने अपने जीवन मे हीरो होते है और एक समय ऐसा आता है जब हम मौत के स्वरुप को स्वीकारते है और जीवन के बहरुपिया भाव को नकारते हुए सिर्फ शाश्वत सत्य को अपनाना चाहते है. इस समय हम दुनिया की ना पर्वाह करते है, ना किसी और बात की या दर्शन की वेल्यु, बस हमें लगता है कि यही सच है और यकीन मानिए जिस समय आपको यह भाव लगने लगे वह सम्पूर्णता है वही वस्तुनिष्ठता है और वही परम सत्य....इसे आप डर, कमजोरी, अपराध बोध या कोई भी तत्सम तद्भव के नाम दे दीजिए पर सच आप भी जानते है और आपका मन भी ........
मुझे लगता है मृत्यु जीवन के सबसे सुन्दर भाग से भी खूबसूरत है और इसलिए मै हर्ष, राहुल की मौत को तर्कसंगत मानता हूँ. आप ना माने वो आपकी अपनी परिस्थिति से भागने या पलायन करने की मनोवृत्ति है.
इसकी समीक्षा मे इसके सिवा और कोई बात नहीं है.... ज़िंदगी का असली सच मौत से मिलना और ज़िंदगी का सबसे बड़ा कर्म अपने आपको उस मौत से गले लगाना है जिसके लिए ताउम्र मेहनत करते है.
दरअसल मे राहुल का मरना हो या हर्ष का मरना (मुझे चाँद चाहिए) दोनों ही हीरो है दोनों ही जीवन की उन परिस्थितियों मे से गुजरते है जहाँ जीवन और मौत एक हो जाता है, जीवन और मौत के घालमेल मे जीवन मे सुख का पलडा भारी हो यह बिलकुल गलत है और ऐसे मे अगर हर्ष और राहुल मौत को जितने गर्व से गले लगाते है वो कोई गलत नहीं बल्कि मेरे लिए यह एक मात्र आदर्श स्थिति है जहाँ जीने के बजाय या घिसटते जाने के बजाय सहज और सम्पूर्ण हो जाता है.
मै इसी को चौरासी करोड योनियों से मुक्त होने का फल मानता हूँ अगर यह मान्यता है तो. जैसे गुनाहों के देवता का हीरो बिनती के साथ ही शेष बचा जीवन जीने को अभिशप्त रहता है. जीवन से सुधा का जाना, आरोही या वर्षा का सफल होना - एक जलन नहीं, बल्कि एक तरह का ठहराव है और शायद अपने सिसकते दर्प और अहम के संतुष्टि का असर होता है, जो पुरजोर तरीके से सिर्फ और सिर्फ मौत की ही मांग करता है.
हम सब अपने अपने जीवन मे हीरो होते है और एक समय ऐसा आता है जब हम मौत के स्वरुप को स्वीकारते है और जीवन के बहरुपिया भाव को नकारते हुए सिर्फ शाश्वत सत्य को अपनाना चाहते है. इस समय हम दुनिया की ना पर्वाह करते है, ना किसी और बात की या दर्शन की वेल्यु, बस हमें लगता है कि यही सच है और यकीन मानिए जिस समय आपको यह भाव लगने लगे वह सम्पूर्णता है वही वस्तुनिष्ठता है और वही परम सत्य....इसे आप डर, कमजोरी, अपराध बोध या कोई भी तत्सम तद्भव के नाम दे दीजिए पर सच आप भी जानते है और आपका मन भी ........
मुझे लगता है मृत्यु जीवन के सबसे सुन्दर भाग से भी खूबसूरत है और इसलिए मै हर्ष, राहुल की मौत को तर्कसंगत मानता हूँ. आप ना माने वो आपकी अपनी परिस्थिति से भागने या पलायन करने की मनोवृत्ति है.
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