इंदौर से निकालने वाले सर्वोदय प्रेस सर्विस मे अभी एक
समाचार पढ़ा कि सरकार ने गांधी जी के समस्त कामों, यात्राओं और लिखे
पढ़े को डीजिटाईजेशन करने के लिए बयालीस करोड दिए है और एक समिति बनी है. समिति के
एक सदस्य ने यह जानकारी दी कि इस बयालीस करोड का क्या, कैसे इस्तेमाल किया जाएगा इसमे भारत सहित उन सभी देशों की
यादों को भी एकत्रित किया जाएगा जहाँ जहाँ गांधी जी गये थे. मेरे दो-तीन मासूम
सवाल है, यह समिति किसने बनाई और
कौन इसका निर्णय करेगा कि गांधी की वसीयत क्या है और अब उसमे और क्या दस्तावेजीकरण
किया जाना शेष है क्योकि इतना लिखा गया है गांधी के नाम पर कि देश के पेड़ खत्म हो
गये है कचरे को छाप-छापकर. दूसरा, आप कब तक इस देश मे गांधी और गांधी परिवार और गांधी के
नाम का दुरुपयोग करते रहेंगे? तीसरा आप कस्तूरबा स्मारक को करोडो की ग्रांट बजट मे
देते है, गांधी शान्ति प्रतिष्ठान को पालते है, वर्धा मे गांधी के नाम पर बेमिसाल संपत्ति को ढोते है और
उसे पालते पोसते है, मेंटेन करते है, और अब यह नया
शिगूफा, आखिर क्या हो गया है इस देश को कब गांधी - गांधी
चिल्लाकर रूपया ऐंठते रहेंगे ये गांधीवादी. मेरा दावा है खादी और अंदर से चार-चार
तौले सोना पहने वाले, जोकी को धारण करने वाले और बैंकों मे करोडो की
व्यक्तिगत एफ डी बनवाने वाले, हवाई यात्राओं मे घूमने वाले, जुबाँ पर अंग्रजी और व्यवहार मे घोर व्यवसायी गांधीवादी लोग
क्या सचमुच गांधी है या इनमे कितना गांधीवाद बचा है. गांधी का चरखा चबा गये, भरे पेट पर देश खा गये, फ़िर भी ये भूखे
के भूखे मांग रहे अनुदान........... अब इनसे कहो कि अपनी रोटी कमाकर खाए बहुत हो
गया चुतियापा, देश का बहुमूल्य रूपया जो गिर-गिरकर इतना नीचे चला
गया है कि कीमत ही नहीं बची, बच्चे भूखे मर रहे है, गरीबी मे सारा
देश परेशान है और इन तथाकथित गांधी वादियों को ऐयाशियाँ सूझ रही है, करेंगे क्या गांधी के नाम पर दस्तावेजीकरण करके किसको
दिखाना है, कौन देखना चाहता है और किसे पसंद है आज गांधी ? सब बेवक़ूफ़ बनाकर मोटी कंसलटेंसी वसूल कर अपनी धन संपदा
बढ़ाना चाहते है बुढापे मे पैर कब्र मे, मुँह मे दांत
नहीं, हाथ पाँव काम के नहीं, दिमाग पूरी तरह
से सठियाया हुआ, जुबाँ पर पुराना माल बेचने वाला स्लोगन, जीवन मे किया एकाध ढंग के काम को ताउम्र बेचते रहना, चार नौजवानों को अपना गुलाम बनाकर उनके कंधों पर अपना भारी
भरकम बोझ ढोना, पाईल्स और गठिया के मरीज ये गांधीवादी सुबह उठाकर चरखा
या तकली काटने का नाटक जानते है बस और कुछ नहीं. भाई साहब बयालीस करोड बहुत होता
है और ज़रा हिसाब लगाएं इनके पास संपत्ति कितनी है और इसका उपयोग कौन करता है , कभी जाकर देखिये गांधी शान्ति प्रतिष्ठानों मे कि आपको एक
रात वहाँ टिकने भी दिया जाता है क्या? सब अड्डे बन गये
ऐयाशियों के और बौद्धिक जुगालियों के कर क्या रहे है. अब ये मत पूछना कि मै क्यों
इतना निगेटिव हूँ और फ़िर मेरे विचारधारा क्या है और मै एनजीओ के खिलाफ और कारपोरेट
के खिलाफ, और सारी पार्टियों के खिलाफ तो किसके साथ
हूँ.........बस एक इंसान हूँ जहाँ घपला दिखता है उसके खिलाफ हूँ ........बंद करो
और शर्म करो महात्मा के भेष मे छुपे समाज के असली दुश्मनों ..............बंद करो
महात्मा को बेचना, पूछो कि क्या वे लिंकन को बेच रहे है, वे क्या रूसो को बेच रहे है, क्या मार्क्स को
बेच रहे है वे, क्या मंडेला को बेचा, क्या केनेडी को
बेचा, क्या कास्त्रो को बेचा??? तुमने तो पूरी
ज़िंदगी गांधी के नाम पर बीता दी मक्कारों कुछ काम नहीं किया कभी, सात तिया इक्कीस पीढ़ी के लिए इकठ्ठा कर लिया फ़िर भी हवस
शांत नहीं हो रही?
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
Comments