मेरी आज की एक टिप्पणी भोजन का अधिकार पारित होने पर.
"भोजन के अधिकार वाले देखते रह गये, हर्ष मंदर, एन सी सक्सेना और सुप्रीम कोर्ट में बरसो से पेंडिंग याचिका धरी रह गई, तमाम राज्यों में फैले हुए सलाहकार कुछ नहीं कर पाए और सब आंकड़े और रणनीतियाँ भी खोखली साबित हो गई. हाँ हुआ यह कि इस बीच एक्शन एड से लेकर कई दीगर संस्थाओं और तथाकथित कंसल्टेंट्स ने खूब माल, नाम, जमीन बंगलें और यश बटोर लिया ........खाद्य सुरक्षा के नाम देश में इतने वर्कशॉप और सेमीनार पिछले दस बरसों में हुए है कि एक पूरा प्रदेश कम से कम पांच साल खाना खा सकता था बैठे बैठे, हवाई यात्राएं और बाकि छोटे मोटे खर्च तो अलग है
कुल मिलाकर सब फेल, सरकार पास..."
Sachin Kumar Jain "संदीप भाई, आपकी एक पोस्ट के सन्दर्भ में कुछ सूचनाएं देना चाहता हूँ ताकि कोई गताल्फह्मी न रहे. आपने सर्वोच्च न्यायालय आयोक्तों और सलाहकारों के बारे में अपने मत व्यक्ति किये हैं. तथ्य यह है कि पिछले १३ सालों में आयुक्तों ने अपने काम के लिए कोई मानदेय या वेतन नहीं लिया है; सलाहकारों की भूमिका और काम भी अवैतनिक है. इतना ही नहीं कोई भी सलाहकार इस काम के लिए किसी भी तरह की फंडिंग नहीं लेता है. अपने मौजूदा काम के साथ समन्वय करके यह काम किया जाता रहा है. कोई कुछ कर पाया या नहीं, यह एक वस्तुनिष्ठ विचार है. इस विचार में कोई दिक्कत भी नहीं है, पर साथ में विचारों की वस्तुनिष्ठता को भी जांचते रहना चाहिए. कम से कम इतना तो गर्व है कि इनमे से कोई भ्रष्ट नहीं रहा. यह भी गर्व है कि हम एक अस्वीकार की जाने वाली सच्चाई को आवाज़ दे पाए. कल यदि आपने संसद की बहस सुनी हो और आयुक्तों या अभियान के काम का अध्ययन किया होगा तो तो आप इस काम का प्रभाव और महत्त्व दोनों समझ पायेंगे; स्वीकार करें या न करें, यह कोई मसला नहीं है. चूँकि मैं भी इस व्यवस्था का एक हिस्सा रहा हूँ, इसलिए कहने से रोक नहीं पाया खुद को!
आज बहुत पेट दर्द होगा कुछ दोस्तों को; कुछ भी हो राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक पारित जो हो गया. कुछ और न सही, हम सरकार को यह स्वीकार करने के लिए तो मजबूर कर पाए कि वह आर्थिक नीतियों की आग में भूख और गरीबी की कड़वी सच्चाई को न जलाए. हम उसके दावे झुठला पाए. मैं नहीं समझ पाया इन दोस्तों के पक्ष को; ये किसानों की आत्महत्या और खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश पर मौन रहते हैं. ये गरीबी की परिभाषा पर चुप हो जाते हैं. ये नियमागिरी, विदर्भ, जी एम् तकनीक की राजनीति और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून की राजनीति के परस्पर सम्बन्ध भी नहीं समझ पाते हैं.....ये बस व्यक्तिगत खाज में खुजाई का काम करने में माहिर हैं; इन्हें पहचान लेना भर पर्याप्त है.
Sandip Naik यह एक तंज है जो यह कहता है कि आखिर में सरकार और बहुमत ही जीतता है जो निहायत ही घटिया है. किसी को टारगेट बनाना उद्देश्य नहीं है. बात तो सही है बोस यदि तुम इसे मेरी टिप्पणी पर कमेन्ट करो या मुझे इजाजत दें तो इसे वाल पर पेस्ट करू दूँ क्योकि इसमे सचिन जैसे लोग कम से कम शामिल नहीं थे जो खाद्य सुरक्षा के नाम पर गडबड करते रहे है और एक्शन एड का नाम अपने अनुभवों और विकास संवाद के जन्म के आधार और समय और कालान्तर में उनके नजरिये और देश में जगह जगह हुए सम्मेलनों में उनकी भूमिका, उन्नी डेनियल जैसे लोगों का एक्शन एड में रहना और फ़िर एड एट एक्शन में रहकर एकदम भिन्न स्टेंड लेना यह सब मेरे दिमाग में शामिल था, इसलिए उनका नाम जान बूझकर लिखा था जो हम सबके साथ हुआ था उन लंबी लंबी बहसों में. इससे शायद वे लोग सामने आये जो सच में अथक प्रयास करते रहे और दूसरा वे लोग बेनकाब हो जो सिर्फ खाते रहे.
मैंने तुरंत तो कुछ कहा नहीं फ़िर अभी लंबा सोचा और अपने लिखे तुम्हारे "खाज की खुजली" को फ़िर से पढ़ा और यह लिखा है...............
और यह भी कहना था कि सरकार नामक घड़ियाल पर इतना करके भी कुछ फर्क नहीं पडता................
तीसरा अब याचिका जो लंबित है उसका क्या..........? यहाँ न्याय की भी भूमिका पर प्रश्न चिन्ह है.................
सचिन जैन : संदीप भाई, मैं आपकी बात को समझता हूँ, पर आप भी जानते हैं कि आज की तारीख में यह बहस बहुत संवेदनशील है. बहुत अच्छा या पूरा अच्छा कुछ नहीं है, पर जो थोडा अच्छा भी है उसमे से क्या निकलता है, यह देखने की कोशिश जरूर है. निःसंदेह इसका मतलब मध्यमार्गी होना नहीं है. यह महत्वपूर्ण हैं कि हम अपना पाला तय करें और फिर लड़ें. दिक्कत यह है कि हममे से कुछ लोग राजनीतिक पक्षधरता को भी उतना ही महत्वपूर्ण मानते हैं. और इस कारण से उन्हे दलीय राजनीति से जोड़ कर देखा जाता है. मैं सहमत हूँ कि इससे वैचारिक लड़ाई कमज़ोर भी होती है; लेकिन वह व्यक्तिगत प्रवर्ति नहीं है, वह एक राजनीतिक प्रवर्ति है.
मैं तो बस अपनी बात आपसे कहना चाहता था, सो कह दी थी. हालाँकि किसी ने उस पर कुछ कहा नहीं था पर मेरे मन में थी तो आपको सीधे लिख दिया था.
कोई दिक्कत नहीं यदि आप इसे वाल पर डालें तो...
संदीप- अच्छा लगा और भाई अगर झगडना या मत व्यक्त करना होंगे तो हम आपस में ही करेंगे तीसरे आदमी से नहीं करेंगे जिसे हम जानते नहीं है
सचिन - कोर्ट केस का जीवन इस क़ानून के साथ जुड़ा है. मौजूदा बैंच मानती है कि यदि सरकार यह क़ानून बना दे तो केस का अंतिम फैसला दे दिया जायेगा. और इसके बाद यदि कोई समस्या हो तो नए क़ानून के सन्दर्भ में कोर्ट जाना होगा नए सिरे से.
आपसे सहमत हूँ.
संदीप - अफसोस यह हुआ कि बिराज से लेकर सचिन तक जो लंबा लड़ रहे थे वो अंदर से टूटते है जैसे मेधा सुप्रीम कोर्ट के बाहर रोई थी जब कोर्ट ने बगैर पढ़े फैसला दे दिया था उससे जमीन पर काम कर रहे लोगों को तकलीफ होती है मेरी इस पीड़ा को भी दर्ज करें..................
सचिन - शायद हम सब भी चाहते हैं कि कोर्ट सी बात अब बाहर आना चाहिए.......कब तक कोर्ट के सहारे चलेंगे! अब अपनी ताकत को परखना जरूरी है.....जब तक यह केस खत्म नहीं होगा शायद हम भी योजनाओं के ट्रेप से बाहर नहीं आ पायेंगे......यह भी तो जाल ही है न!
एक भी व्यक्ति - आयुक्तों से लेकर सलाहकार तक यह नहीं चाहते कि अब यह व्यवस्था और चले....क्योंकि अपने आप में इसका कोई अस्तित्व नहीं है.
जहाँ तक मेरी आज की पोस्ट का सवाल है, वह उनके बारे में हैं, जिनका अपना कोई नजरिया नहीं है.....जो खुद तय नहीं कर पा रहे हैं कि सही क्या है और गलत क्या है?
"भोजन के अधिकार वाले देखते रह गये, हर्ष मंदर, एन सी सक्सेना और सुप्रीम कोर्ट में बरसो से पेंडिंग याचिका धरी रह गई, तमाम राज्यों में फैले हुए सलाहकार कुछ नहीं कर पाए और सब आंकड़े और रणनीतियाँ भी खोखली साबित हो गई. हाँ हुआ यह कि इस बीच एक्शन एड से लेकर कई दीगर संस्थाओं और तथाकथित कंसल्टेंट्स ने खूब माल, नाम, जमीन बंगलें और यश बटोर लिया ........खाद्य सुरक्षा के नाम देश में इतने वर्कशॉप और सेमीनार पिछले दस बरसों में हुए है कि एक पूरा प्रदेश कम से कम पांच साल खाना खा सकता था बैठे बैठे, हवाई यात्राएं और बाकि छोटे मोटे खर्च तो अलग है
कुल मिलाकर सब फेल, सरकार पास..."
Sachin Kumar Jain "संदीप भाई, आपकी एक पोस्ट के सन्दर्भ में कुछ सूचनाएं देना चाहता हूँ ताकि कोई गताल्फह्मी न रहे. आपने सर्वोच्च न्यायालय आयोक्तों और सलाहकारों के बारे में अपने मत व्यक्ति किये हैं. तथ्य यह है कि पिछले १३ सालों में आयुक्तों ने अपने काम के लिए कोई मानदेय या वेतन नहीं लिया है; सलाहकारों की भूमिका और काम भी अवैतनिक है. इतना ही नहीं कोई भी सलाहकार इस काम के लिए किसी भी तरह की फंडिंग नहीं लेता है. अपने मौजूदा काम के साथ समन्वय करके यह काम किया जाता रहा है. कोई कुछ कर पाया या नहीं, यह एक वस्तुनिष्ठ विचार है. इस विचार में कोई दिक्कत भी नहीं है, पर साथ में विचारों की वस्तुनिष्ठता को भी जांचते रहना चाहिए. कम से कम इतना तो गर्व है कि इनमे से कोई भ्रष्ट नहीं रहा. यह भी गर्व है कि हम एक अस्वीकार की जाने वाली सच्चाई को आवाज़ दे पाए. कल यदि आपने संसद की बहस सुनी हो और आयुक्तों या अभियान के काम का अध्ययन किया होगा तो तो आप इस काम का प्रभाव और महत्त्व दोनों समझ पायेंगे; स्वीकार करें या न करें, यह कोई मसला नहीं है. चूँकि मैं भी इस व्यवस्था का एक हिस्सा रहा हूँ, इसलिए कहने से रोक नहीं पाया खुद को!
आज बहुत पेट दर्द होगा कुछ दोस्तों को; कुछ भी हो राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक पारित जो हो गया. कुछ और न सही, हम सरकार को यह स्वीकार करने के लिए तो मजबूर कर पाए कि वह आर्थिक नीतियों की आग में भूख और गरीबी की कड़वी सच्चाई को न जलाए. हम उसके दावे झुठला पाए. मैं नहीं समझ पाया इन दोस्तों के पक्ष को; ये किसानों की आत्महत्या और खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश पर मौन रहते हैं. ये गरीबी की परिभाषा पर चुप हो जाते हैं. ये नियमागिरी, विदर्भ, जी एम् तकनीक की राजनीति और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून की राजनीति के परस्पर सम्बन्ध भी नहीं समझ पाते हैं.....ये बस व्यक्तिगत खाज में खुजाई का काम करने में माहिर हैं; इन्हें पहचान लेना भर पर्याप्त है.
Sandip Naik यह एक तंज है जो यह कहता है कि आखिर में सरकार और बहुमत ही जीतता है जो निहायत ही घटिया है. किसी को टारगेट बनाना उद्देश्य नहीं है. बात तो सही है बोस यदि तुम इसे मेरी टिप्पणी पर कमेन्ट करो या मुझे इजाजत दें तो इसे वाल पर पेस्ट करू दूँ क्योकि इसमे सचिन जैसे लोग कम से कम शामिल नहीं थे जो खाद्य सुरक्षा के नाम पर गडबड करते रहे है और एक्शन एड का नाम अपने अनुभवों और विकास संवाद के जन्म के आधार और समय और कालान्तर में उनके नजरिये और देश में जगह जगह हुए सम्मेलनों में उनकी भूमिका, उन्नी डेनियल जैसे लोगों का एक्शन एड में रहना और फ़िर एड एट एक्शन में रहकर एकदम भिन्न स्टेंड लेना यह सब मेरे दिमाग में शामिल था, इसलिए उनका नाम जान बूझकर लिखा था जो हम सबके साथ हुआ था उन लंबी लंबी बहसों में. इससे शायद वे लोग सामने आये जो सच में अथक प्रयास करते रहे और दूसरा वे लोग बेनकाब हो जो सिर्फ खाते रहे.
मैंने तुरंत तो कुछ कहा नहीं फ़िर अभी लंबा सोचा और अपने लिखे तुम्हारे "खाज की खुजली" को फ़िर से पढ़ा और यह लिखा है...............
और यह भी कहना था कि सरकार नामक घड़ियाल पर इतना करके भी कुछ फर्क नहीं पडता................
तीसरा अब याचिका जो लंबित है उसका क्या..........? यहाँ न्याय की भी भूमिका पर प्रश्न चिन्ह है.................
सचिन जैन : संदीप भाई, मैं आपकी बात को समझता हूँ, पर आप भी जानते हैं कि आज की तारीख में यह बहस बहुत संवेदनशील है. बहुत अच्छा या पूरा अच्छा कुछ नहीं है, पर जो थोडा अच्छा भी है उसमे से क्या निकलता है, यह देखने की कोशिश जरूर है. निःसंदेह इसका मतलब मध्यमार्गी होना नहीं है. यह महत्वपूर्ण हैं कि हम अपना पाला तय करें और फिर लड़ें. दिक्कत यह है कि हममे से कुछ लोग राजनीतिक पक्षधरता को भी उतना ही महत्वपूर्ण मानते हैं. और इस कारण से उन्हे दलीय राजनीति से जोड़ कर देखा जाता है. मैं सहमत हूँ कि इससे वैचारिक लड़ाई कमज़ोर भी होती है; लेकिन वह व्यक्तिगत प्रवर्ति नहीं है, वह एक राजनीतिक प्रवर्ति है.
मैं तो बस अपनी बात आपसे कहना चाहता था, सो कह दी थी. हालाँकि किसी ने उस पर कुछ कहा नहीं था पर मेरे मन में थी तो आपको सीधे लिख दिया था.
कोई दिक्कत नहीं यदि आप इसे वाल पर डालें तो...
संदीप- अच्छा लगा और भाई अगर झगडना या मत व्यक्त करना होंगे तो हम आपस में ही करेंगे तीसरे आदमी से नहीं करेंगे जिसे हम जानते नहीं है
सचिन - कोर्ट केस का जीवन इस क़ानून के साथ जुड़ा है. मौजूदा बैंच मानती है कि यदि सरकार यह क़ानून बना दे तो केस का अंतिम फैसला दे दिया जायेगा. और इसके बाद यदि कोई समस्या हो तो नए क़ानून के सन्दर्भ में कोर्ट जाना होगा नए सिरे से.
आपसे सहमत हूँ.
संदीप - अफसोस यह हुआ कि बिराज से लेकर सचिन तक जो लंबा लड़ रहे थे वो अंदर से टूटते है जैसे मेधा सुप्रीम कोर्ट के बाहर रोई थी जब कोर्ट ने बगैर पढ़े फैसला दे दिया था उससे जमीन पर काम कर रहे लोगों को तकलीफ होती है मेरी इस पीड़ा को भी दर्ज करें..................
सचिन - शायद हम सब भी चाहते हैं कि कोर्ट सी बात अब बाहर आना चाहिए.......कब तक कोर्ट के सहारे चलेंगे! अब अपनी ताकत को परखना जरूरी है.....जब तक यह केस खत्म नहीं होगा शायद हम भी योजनाओं के ट्रेप से बाहर नहीं आ पायेंगे......यह भी तो जाल ही है न!
एक भी व्यक्ति - आयुक्तों से लेकर सलाहकार तक यह नहीं चाहते कि अब यह व्यवस्था और चले....क्योंकि अपने आप में इसका कोई अस्तित्व नहीं है.
जहाँ तक मेरी आज की पोस्ट का सवाल है, वह उनके बारे में हैं, जिनका अपना कोई नजरिया नहीं है.....जो खुद तय नहीं कर पा रहे हैं कि सही क्या है और गलत क्या है?
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