जनसँख्या पर ज्ञान देने वाले भूल जाते है कि वे पैदा हो चुके है
◆ 11 जुलाई, विश्व जनसँख्या दिवस
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मीडिया संस्थान से हकाला हुआ पत्रकार / संपादक -
◆ फेसबुकिया मीडिया आलोचक हो जाता है जो हैश टैग पेलता है
◆ संघी तो होता ही है, खुलकर चड्ढी दिखाता है और दिन भर में दस बार अखबारों की निंदा करता है कंटेंट, भाषा से ले आउट तक की
◆ किसी एनजीओ से जुड़कर घटिया कौशलों के सहारे धंधा करने पर उतर आता है और ज्ञानी प्रवचनकर्ता एवं लाईट हाउस बनने की नौटँकी करता है और उनके लिए मसीहा बन जाता है
◆ कोई विधवा, परितक्त्या, सिंगल महिला मिल जाये तो हमदम बनकर उसके लिए गूगल बन जाता है
◆ संघी, वामी, सपाई, भाजपाई, कांग्रेसी या बसपाई जूतों का स्वाद जिव्हा के शिखर से चाटते हुए अंततः किसी विवि में माड़साब या बड़ा बाबू बन जाता है अर्थात कुलपतित टाईप
◆ फ्री लांस भड़ास का अड्डा बन जाता है
◆ अपना पोर्टल या कोई अखबार निकालने लगता है जिसमे सत्ता शिखर से लेकर ब्यूरोक्रेट्स की कहानियाँ छापकर बीबी बच्चे पालता है
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और कोई विकल्प है आपकी नजर में इन बापडों के लिए
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मैंने उस प्रबुद्ध युवा साथी को कहा कि जब नौकरी लग जाये किसी भी तरह की चाहे आशा कार्यकर्ता, कांस्टेबल, माड़साब, प्राध्यापक, पत्तलकार बाबू, चपरासी* या भाप्रसे के बड्डे वाले साब की सबसे पहले आदमी पढ़ना बन्द करता है और दिमाग़ बन्द करता है ताकि झंझट होने का ईच नई जीवन में
और जो ज़्यादा ज्ञानी बनकर बकैती करते है या इधर - उधर - गूगल से टीप टाप के लिखने के कुत्सित प्रयास करते है, सेमिनारों और कार्यशालाओं में ज्ञान का बघार लगाते है हर जगह - वो बापडे सिर्फ इंक्रीममेन्ट, स्थाईत्व और प्रमोशन के मारे है
महान बनने के लिए 60 - 70 वर्ष के छोटे से जीवन को एन्जॉय करने के बजाय इन सब पाप कर्मों में संलग्न रहना भी एक कला है - जिसे बिरले ही साध पाते है
( नोट - सेमिनार को कोविड अवधि में वेबिनार समझा जाये )
* नोट - चपरासी भी आजकल पीएचडी है इसलिए अब इस वर्ग के लिए पहले से ज्यादा सम्मान है मीलोर्ड - इंटेशन गलत एकदम नई हेगा
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अभी एक मित्र से बात हो रही थी, कुछ बड़ी महत्वपूर्ण बातें हुईं समसामयिक विषयों पर तभी अचानक बड़ी गूढार्थ वाली बात कही उस युवा साथी ने
"भाप्रसे के अधिकारी आपसे दो ही बार अच्छी और मीठी बात करते है - एक, जब वे घूस ले रहे होते है और दूसरी बार, जब उन्हें ज्ञान देना होता है"
और मेरा अनुभव यह है कि वे अच्छी बात तब भी करते हैं जब उन्हें कोई अच्छी सी ड्राफ्टिंग करवाना होती है और प्रस्तुतिकरण बनवाना होता है, अपने विभाग से लेकर आई ए एस ट्रेनिंग अकादमी, मसूरी तक के लिए वे प्रस्तुतिकरण बनवाने वालों को खोजते हैं - करें क्या बाकी समय जी हुजूरी में निकल जाता है
बात तो करेलानुमा थी पर करेला स्वास्थ्य के लिए बढ़िया होता है और शुगर के मरीजों के लिये तो वरदान है सुना
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"This is the calm before the storm
This is the sea between the isles
And this ain't the time to chase the dawn
This is the time to count the miles
Now I am the lights behind the scenes
Now I 'm the wolf that's yet to howl
Yet to break out and yet to run
Yet to be out done"
- एक उदास शाम
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अब आया ऊँट पहाड़ के नीचे
उत्तराखण्ड में तीन मुख्यमंत्री बदले, अनुभवी संघी मंत्रियों को निकाल बाहर किया, दलित ओबीसी को ज्यादा जगह, युवाओं एवम महिलाओं को जोड़ा और अनपढ़ गंवारों के बीच डॉक्टर्स और पीएचडी धारियों को जगह मिली, आखिर तुष्टिकरण पर उतरना ही पड़ा - उस्ताद और जमूरे की जोड़ी से देश नही चल सकता, यह तब समझ आया जब लाखों लोग मार डाले गए व्यवस्था और कुप्रबन्धन से
जावड़ेकर, हर्षवर्धन और रविशंकर को भी समझ आया होगा कि बकर करने से ना स्वास्थ्य सम्हलता है ना ट्वीटर ना फेसबुक - लो तुम तीन निकम्मों को ही चुप कर लूला बना दिया
बकचक करने से 140 करोड़ों को हाँका नही जा सकता, पर फायदा नही कुछ - अब पछतावे का होत जब चिड़िया चुग गई खेत
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लाखो लोगों की हत्या का मुकदमा बनता है, सिर्फ मंत्री मंडल से निकालना पर्याप्त नही - एक अयोग्य मंत्री की वजह से देश दो साल से बर्बादी के रास्ते पर खड़ा है, सारे अस्पताल और स्वास्थ्य के ढांचे को ध्वस्त कर चुपचाप निकल गया औऱ यह तो तब जब बाकायदा डाक्टर की उसके पास डिग्री थी, अनपढ़ गंवारों या फर्जी डिग्री वाले तो अभी भी बंसी बजा ही रहें हैं
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