हिंदी का सच में भगवान मालिक है - बताओ क्यों
◆ नामवर जी पर मरने के बाद विवाद हो रहें है - उनपर लिखी किताब पर वाद विवाद, पक्ष प्रतिपक्ष, प्रकाशक और पार्टनर, ज्ञानी ध्यानी सब लगे है पर सच अल्लाह जाने, पर एक बात तो है जीवनी के लेखकों और प्रकाशकों की विश्वसनीयता पर अच्छी बहस हो गई और अब लुगदी साहित्य छापने के पहले सोचेंगे जरूर, एक धड़ा यह भी कह रहा कि किताब को प्रचार और केंद्र में लाने की यह सुनियोजित संगठित साजिश है - "क्योंकि खपत कम है " यह बात एक बड़े जिम्मेदार व्यक्ति ने कही है और मुझे लगता है अंकित को उसके किसी समकालीन ने ही जलन ईर्ष्या में आकर डुबोया है और उसका कैरियर खत्म किया है, जैसे पिछले वर्ष विहाग वैभव को बीएचयू के पण्डे खा गए थे फेसबुक पर - यहाँ प्रचार करना ही नही था
◆ इधर मप्र के इंदौर , उज्जैन, भोपाल के कवियों की कविताओं के बहाने लोग फर्जी आईडी बनाकर टोपियां उछाल रहें है, भाजपा काल है और भगवान या सांस्कृतिक प्रतीकों को लेकर लिखें शब्दों को तोड़ मरोड़कर भारत भवन पर कब्जा करने की पुरजोर कोशिश की जा रही है, भारत भवन में जाकर कविता पाठ से मिलने वाली दक्षिणा ,तीन सितारा होटल की सुविधा और हवाई सुख पर नजर है अब, संघी सरकार और बिहारी आईएएस पदों पर है तो इस जमात के लोग मौज नही करेंगे , बीच बचाव में लोग आ रहें है पर इसमें पैरवीकार ज्यादा वो है जो बरसो बरस भारत भवन से उपकृत होते रहें है, "आशी दुबे" जन्मी और मरी - जैसे द्रोपदी सिंघाड़ या तोताबाला जन्मी और मरी थी - इस आशी दुबे ने सारे दुबे, चौबे और छब्बे जी सहित आण्डे, पाण्डे, अरमा, शर्मा, जोशियों और सक्सेनाओं को पानी पिला दिया और स्वर्ग सिधार गई पीछे छोड़ गई स्वच्छता अभियान का कचरा अब अलेस प्रलेस और जलेस वाले बैठकर तियाँ पाँचा कर रहें है जबकि है कोई इनमें से ही घुन्ना जो महत्वकांक्षी है और बेचैन है रिटायर्डमेंट के बाद खपना चाहता है पर मजा आ रहा है कुछेक के इष्ट पकड़े गए है चोरी में और ये बापड़े अब मुंह नही दिखा पा रहें ना अपने एकमेव इष्ट का मुकदमा लड़ पा रहें
◆ इधर दो साल हो गए लाइव आने का और एक ही दिन में दस बार लाइव आने का मोह छूट नही रहा कवियों का, मतलब बेशर्मी इतनी है कि अब लोग रोज - रोज उन्ही विषयों पर बाते कर रहें है कि आप इनके श्रीमुख खुलने के पहले ही बता सकते है कि अगला क्या बोलेगा, हिंदी के माड़साब और दूसरी भाषाओं और विषयों के प्रकांड पंडित भी हिंदी की बिंदी लगाकर धन्य धन्य हो रहें है खींसे निपोरते हुए, प्राध्यापकों की लाइवी मुस्कुराहट देखकर बादल भी बरसना भूल गए है मतलब एक लाइव में 15 - 20 प्रोफेसर और बाकी 40 - 50 आयोजक और महाविद्यालयों की प्रबन्ध समिति के सदस्य जो महुआ से लेकर चने चिरौंजी बेचते है - आपको पिरेमचन्दर से लेकर गुलजार साब पे बोल देते है आभार में
◆ पीएचडी और पोस्ट डॉक्टरेट कर बैठे या कर रहें बच्चे मुंह पर मास्क, हाथ में सेनिटाइजर रगड़कर बगल में फेबी फ्लू की गोलियों का पत्ता लिए यूँ भटक रहे है जैसे कोवेक्सिन का टीका लगवाना हो ; टूटी आंत, उजड़े चमन, ढीले पड़ गए दांत और पोपले मुंह के प्राध्यापकों के उलजुलूल विचार, कविताएँ और व्याख्यान की रिपोर्टिंग करते हुए साठ सत्तर फोटो चैंप रहें है दो साल से कि कुछ किरपा आ जाये , पर गुरु की निगाह उन लौंडो लपाड़ो पर है जो अलित दलित या जुगाडू प्रवृत्ति से विदेश पहुंच गए, गुरु जी उनको साधने में है कि एकाध विदेश का दौरा लगें तो जन्म सुधर जाए - क्या करें बेचारे तवायफों की जीवनी लिखकर गुजर बसर कर रहें है और पापुलर हो रहे, मुस्लिम गढ़ से सरदारों के इलाके में गए और फिर बुद्धू की तरह लौट आये क्योकि मामला सेट नही हुआ, बहरहाल - अब लाइव, छात्र और अपने घर मे ज्ञान की जड़िया बांट रहे है
◆ बाकी हिंदी के कवि और कवयित्रियां, कहानीकार और आलोचक रोज नहा धोकर चकाचक होकर अपनी फोटू (भले नंग धड़ंग हो - जिससे तितलियाँ ज़्यादा आकर्षित हो) के साथ अपनी रचनावली बगैर नागा यहां पेस्ट कर ही रहें है, यहां वहां के झरने, जल, जंगल, जमीन, भोजन, छत पर या पड़ोसी की रस्सी पर सूखते चड्ढी बनियान दिखाकर वाहवाही लूट रहें है और इनमें "अहं ब्रह्मास्मि का अहो भाव है ही" जो बाकी सबको बेवकूफ समझकर बिहारी या ठेठ मालवी गंवारपन से भरा है ये सबको हिकारत भरी नजरों से देखते - तौलते है
◆ अखबारों से टनों की संख्या में हकाले गए पत्तल कार, सम्पादक और हॉकर्स अब दस बजे सोकर उठते है और चाय पीकर अपने ही अखबार की माँ बहन करते हुए साहित्यकार बनने का प्रयास पुरजोर तरीके से करते है इसके लिए उन्होंने बंधुआ मजदूरों उर्फ फॉलोवर्स की एक बाकायदा टीम पाल रखी है, करें क्या कुछ है नही शेष निशेष
बाकी तो जो है हईये है , सबकी जै जै
#दृष्ट_कवि
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हाथी जाए बाज़ार
कुत्ते भूँके हजार
मजेदार है कुत्ते सिर्फ भौंक ही सकते है, आज तक किसी कुत्ते की हिम्मत नही हुई कि हाथी को काट लें और हाथी की भी सदाशयता है कि उसने इन भौंकने वाले छोटे और ओछे कुत्तों को कभी भी सूंड में लपेटकर कही दूर नही फेंका - अपवाद हो सकते है
हाथी को यूँही मस्त रहना चाहिये और कुत्तों को इसी तरह भौंकते रहना चाहिये - यही पारिस्थितिकीय ज्ञान है [ Ecosystem ]
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मुआफ़ कीजिये मैंने आपको कंफ्यूजा हुआ कहा था - आपने काफ़्का समझ लिया, थोड़ा घर - परिवार, समाज और जीवन में भी रहा कीजिये जनाब, कब तक आत्म मुग्ध रहेंगे, ज्ञानी, ध्यानी, पढ़ाकू और डिफरंट रहने के मुगालते पालते हुए जमाने को सुतिया समझते रहेंगे
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अतिशय किस्म के असम्भव विवरण, अजीब नाम, अतिउत्साह में अश्लीलता और किस्सों की भरमार, स्त्री पुरुष के बीच सम्बन्धों का सूक्ष्म नियोजित विवरण जिसमे बौद्धिक कम - वीभत्सता लिए शारीरिक ज़्यादा, भयानक किस्म की अस्पष्टता, दर्शन और बदलते हुए समय में सदियों से एक जगह ठहरे समाज पर निर्णयात्मक जजमेंटल होकर लिखीं टिप्पणियां और बोझिल लम्बाई का कोई अंत नही - ये आधुनिक कहानी के आवश्यक तत्व है
सुधीजनों, पाठ्यक्रम निर्माताओं और विवि के प्राध्यापकों से अनुरोध कि इन तत्वों को शामिल करते हुए इस मिज़ाज़ की कहानियों को खोजे या ठेके पर लिखवाकर किताबों में समाहित करें - ताकि विद्यार्थी सही और ठीकठाक साहित्य पढ़े
स्व लवलीन की चक्रवात को कहानी की इस धारा का प्रस्थान बिंदु मानते हुए इतिहास में जगह दें और बाकी तो फिर एक पूरी श्रृंखला है, एक पूरा गैंग है और तमाम कर्ता धर्ता जो यह दिव्य बाती लेकर खड़े है और पूजा रहें हैं
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लेपटोप भी कितना जोर मारेगा, तीन चार साल हो गए, बेदर्दी से आजकल मोबाईल और लेपटोप ही इस्तेमाल होते है. जिस तरह से रोबोट बन रहें है कल हो सकता है कि अभा स्तर पर मोबाइल संघ और लेपटोप संघ बन जाए कि हे मनुष्यों हमें बस आठ या दस घंटे यूज़ करो या हम बार बार फार्मेट होते रहेंगे.
आखिर बोल गया टे, सारा लिखा हुआ इधर उधर हो गया है, काम का और निरर्थक भी , कुछ खोजे नहीं मिल रहा , अब नया लेना ही पड़ेगा - कोई दानदाता हो तो दे दो इस गरीब को एपल की नई मेकबुक, जो भी हो अब जो लूंगा वो जीवन का आखिरी लेपटोप होगा क्योकि और कितना काम करेंगे, उंगलियाँ थक गई है घिसते घिसते
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