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Drisht kavi, Khari khari and Sandip ki rasoi - posts of July 24 to 6 Aug 2020

बहुत साल पहले पंकज बिष्ट [वर्तमान में समयांतर के सम्पादक] को पढ़ा था, वे उन दिनों आजकल में सम्पादक थे और युवा कहानी विशेषांक में मेरी एक कहानी " उत्कल एक्सप्रेस " छापी थी - यह 1992- 93 की बात होगी
पंकज दा से यह पहली मुलाकात थी और पहाड़ समझने की कोशिश, जोशी जी के बाद पंकज दा के आलेख एवं "उस चिड़िया का नाम" "लेकिन दरवाज़ा" और भी उपन्यास पढ़े और पहाड़ से रिश्ता जुड़ा, फिर गया भी घूमा भी और गैरसैण से लेकर नैनीताल तक के मित्रों से दोस्ती हुई पर इधर पहाड़ ही नही बदला लोग भी बदलें हैं
बहरहाल,
Lalit Fulara
पेशे से पत्रकार है दिल्ली में रहते है और बहुत खूबसूरत गद्य लिखतें हैं, भाई ललित के लिखें का इंतज़ार रहता है खासकरके तब - जब वो पहाड़ दिल्ली लाते है और पीड़ा, दंश, खुशियाँ और पहाड़ की संस्कृति साझा करते है
डॉक्टर
Pratibha Pandey
संसार मे एकमात्र व्यक्तित्व है जो मुझे दाजू कहती है जो एक पहाड़ी शब्द है और इसके मायने भी बड़े बढ़िया है जैसे दादा या बड़ा भाई या बुजुर्ग , वैसे ही इजा बड़ा प्यारा शब्द है - इन शब्दों को हिंदी में अपनाना चाहिये
इजा [ यानि माँ शायद ] को लेकर युवा कवि
Anil Karki
की एक वीडियो कविता दो साल पहले देखी थी जो आज तक ज़ेहन में तरोताज़ा है और आज ललित का ख़ूबसूरत गद्य पढ़कर आज का दिन बना गया
ललित शुक्रिया, धन्यवाद से बड़ा शब्द कोश में नही भाई - खूब लिखों और रचों
आप भी पढ़िये
◆◆◆
असल मायने में पहाड़ की पहरू ईजा ही ठहरी। सदियों से ईजाओं ने ही पर्वतीय जनजीवन को संवारा व बचाया ठहरा। उनकी बदौलत ही शिखरों से घिरे हमारे गौं, पुरखों की स्मृतियों की याद लिए खंडहरों के बीच भी खड़े ठहरे। हमारी ईजाएं न होती, तो ये पहाड़ टूट जाते!
सूनेपन, उदासी व उजाड़ के दु:ख से धराशायी हो जाते! दरक जाती घाटियां और महाप्रलय से पहले ही दूर पर्वतों की तहलटी पर बसे गौं; धरती की कोख में समा जाते। न यादें होती और न ही स्मृतियां! न गीत व कविताएं लिखी जातीं और न ही कहानियां बुनी जातीं।
शुक्रिया कहो ... अपनी ईजाओं को जिनकी बदौलत पहाड़ बसे रहे, बने रहे व बचे रहे।
बियावान में अग्नि धधकने के दु:ख के बाद भी पेड़-पौधे खुशी-खुशी लहलहाते रहे। लोक और संस्कृति बची रही। रीति-रिवाज और बोली का गुमान रहा। लोकगाथाओं की आस्था में सिर झुके और जागर की रौनक छाई। पहाड़ों का खालीपन भी ईजाओं के पदचाप, कमर की दाथुली, हाथ का कुटऊ, सिर की डलिया और आंचल के स्नेह से भरा रहा।
जब हमारे बुबुओं की पीढ़ी ने पोथी लेकर धैली से बाहर कदम रखा और चौथर पार किया, तो हमारी आमाओं के साथ पहाड़ को खुशहाल 'पहाड़' बनाने वाली हमारी ईजाएं ही थीं। जब हमारे पिताओं ने सरहद लांघीं, तो भी बुढ़ी आखों और झुकी देह के साथ कंधे से कंधा मिलाकर दु:ख /सुख और दर्द बांटती हमारी ईजाएं ही रहीं।
जब हमने गौं की सड़क छोड़ी, उस वक्त भी बस के पीछे से निहारने वाली दो आंखें और 'जा च्यैला...जल्दी लौटिए' कहने वाली ईजा ही थी। जब हमारे खेत-खलिहान फसलों से लहलहाते थे, तब भी ईजाएं ही रहीं... और जब सुअरों और बंदरों ने हमारे पाख लांघे, तब भी उनको हंकाने के लिए ईजाएं ही रहीं।
जब बेटा गौं छोड़कर अपनी पत्नी को शहर ले जाने के लिए आया, तो सिर पर बोझा लेकर केमु बस पकड़वाने वाली ईजा ही ठहरी। अपनी तकलीफ छुपाते हुए खुशी-खुशी 'जा ब्वारी असोज बंटोने आ जाना है' कहने वाली भी हमारी ईजाए ही हुईं।
हमारी ईजाओं के आंचल से ही पहाड़ लिपटा ठहरा और वो ही पर्वत के अंगोव से चिपकी जुझारू, संघर्षशील व 'पहाड़' जैसी जिजीविषा लिए असल पहरू हुई। हम जब शब्द बुन रहे थे और दु:ख व सुख को भावों में पिरो रहे थे, तब ईजा भौर में चुपचाप उठकर लाठी टेकते हुए दूर छानों को जा रही थी।
गोबर बाहर निकाल गोठ में धुंआ लगा रही थी। चमु देवता की केर कर रही थी और बधाड़ पूज रही थी। जब हमारी भैंस ब्यायी, तो ईजा ही ग्यारहवें दिन खरीक में पालथी मारे गोबर के कुंडे बनाकर दूध भरने वाली हुई। जब रोंसी को ब्याहे बाईस दिन हो रहे थे, तो ईजा ही छान में पुए, लापसी और खीर पकाकर खुशी मनाते हुए; पशुओं के साथ अनादिकाल के रिश्तों को निभाने वाली ठहरी।
जब हमारे नौले सूख रहे थे और पानी की कमी से स्यारे बंजर हो रहे थे, तब भी आसमां की तरफ प्रार्थना के हाथ उठाए, नौले की सफाई करने और स्यारों को बंजर होने से बचाने की चाह रखने वाली ईजा ही ठहरी। जब बच्चों की याद हिकोई झिकोड़ देने वाली हुई तो गाय, भैंस और बकरियों को कसकर गले लगाकर अकेले में दो आंसू बहाने वाली ईजा ही हुई।
जब हमारी आमाएं आखिरी सांस गिन रही थी, तो भी ईजा ही थी जो 'ओ ज्यू' कहकर सेवा में जुटी हुई ठहरी। बुबुओं के हाथ में हुक्का भरकर थमाने वाली ईजा ही हुई। प्रसव पीड़ा में भाभियों को हिम्मत बंधाने वाली ईजा ही ठहरी। जब बेटा ब्या करके गांव गया, बहु को पिछाड़ा पहनाकर नंगे पांव सलामती की दुआ करने के लिए देवी थान भेट चढ़ाने जाने वाली ईजा ही ठहरी। नई-नवेली दुल्हन को गांव घूमाने वाली, अपने बंजर पाटो और रिश्तेदारी बताने वाली ईजा ही हुई।
जब वैश्विक कोरोना महामारी ने शहरों से लौटाते हुए गांवों में हमारे कदम टिकाए, तो टुकटुक बच्चों को दूर से निहारती और गुड़ की ढेली के साथ चाय थमाने वाली ईजा ही ठहरी। पोती-पोतियों को देखकर आंखों के आंसू छिपाने वाली ईजा ही ठहरी। बेटे को लौटा देख भीतर की खुशी छिपाकर तमतमाने वाली ईजा ही हुई।
असल शब्दों और अर्थों में पहाड़ ईजा का ही हुआ और ईजा पहाड़ की हुई। पहाड़ के असल दुख, दर्द और संघर्ष को ईजा से बेहतर कोई नहीं समझ सकता एवं ईजा से बेहतर पहाड़ की परिकल्पना किसी के पास नहीं! हम सबकी ईजा एक-सी ही हुई। बाट जोहती, खुशहाली की कामना करती और अपने गोरु, भैंस और बकरियों के साथ ही मरने और बागेश्वर में ही फूंके जाने का ख्वाब देखती हुई। शहर से दूर गांव भागने के लिए बिलखती और गांव में पहुंचकर सुंकू से प्याज थेचकर मडुवे की रोटी और नहो का पानी पीती हुई, पहाड़ों की असली पहरू हमारी ईजाओं को सलाम!!
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काश राम'नाथ के 'राम' को ही सम्मान दे देते तो लगता कि जिस संस्कृति और धर्म की बात करते है वह नज़र आता
पर ब्राह्मणों और साधु संतों से घिरे समारोह में उस पवित्र जगह और प्रक्रिया में एक दलित का प्रवेश कैसे हो सकता था
और सड़कों पर सबसे ज़्यादा धर्म ध्वजा उठाने वाले, भीड़ बढ़ाने वाले अधिकांश दलित युवाओं और नेताओं को सोचना चाहिये कि वे कहां है इस राम राज्य में, उनका स्थान, महत्व या सम्मान कितना है - शम्बूक और शबरी हमेशा जिंदा रहते है याद रखना और राम कभी ये भूलते नही है
***
राम के नाम पर
◆◆◆
इतने पटाखे , इतना जोश - विश्वास ही नही कि ये वही देश है जो अभी अप्रैल से अभी तक भिखमंगो की तरह से सड़कों पर था, जूते - चप्पल, सैनिटरी नेपकिन और दो रुपये के बिस्किट के पैकेट के लिए तरस गए थे - यही धर्म अब रोटी देगा - जाओ अब इन्हीं से मांगो अब रोजगार और रोटी
कब तक थाली , लोटा , झाँझ और ढोल बजाकर या रैली और इस तरह के पटाखों पर लोगों का रुपया बर्बाद कर भूखे रखोगे और कंगाल करोगे और यह सब भी ठीक है पर जो सोशल डिस्टनसिंग क़ा मज़ाक सत्ता के शीर्ष से बनाया गया है - उससे बड़ा दोगलापन इतिहास में देखने को नही मिलेगा
बहुत अच्छा बेवक़ूफ़ बनाया - पूरे देश को पांच महीने क़ैद करके रखा और सत्ता से जुड़े लोग सारे नियम तोड़कर मजे करते रहें
सबको बर्बाद करके खुद नेतागण नौटँकी कर कोरोना बाँट रहें हैं -शिवराज सिंह और इनके मंत्री मंडल को ही देख लो विश्वास ना हो तो
सवाल यह है ना कि हम ही सब मूर्ख है तो इन गधों को क्या दोष दें
मार्क्स तो अफीम कहता था यहाँ तो सरेआम जनता को सरकार बाँट रही है 1990 से और जनता साष्टांग प्रणाम के नाटक देख रही है मज़े में और पूर्ण नशे में
जय जय सियाराम
भाड़ में जाओ और मरो भूखे जनता जनार्दन
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अगस्त की आज़ादी में चार चाँद
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रामो राजमणि सदा विजयते ...
पर मन्दिर बनने से क्या राम राज की स्थापना होगी
ऐतिहासिक दिन है राजनैतिक, सामाजिक दृष्टि से जब पंथ निरपेक्ष राज्य में राज्य का वित्त मन्दिर में लग रहा है, प्रधान कार्यक्रम में जा रहा है, कोरोना की त्रासदी और लाशों के अम्बार के बीच उत्सव मनाने की सनक ने कितना खोखला कर दिया है सबको - केदारनाथ के लिए राज्य का रुपया है, सिंहस्थ के लिए भी, अयोध्या के लिए भी और बाकी सबके लिए है - नही है तो गरीब के लिए - जिसे माह भर में पाँच किलो का गेहूं देकर बेशर्मी से एहसान सरकार जताती है
यह भाजपा की ही नही - कांग्रेस और बाकी सभी पार्टियों की देन है देश को और सबसे ज़्यादा न्याय पालिका की - जिसने देश को समता, स्वतंत्रता, भ्रातृत्व ,अभिव्यक्ति की छूट, वैज्ञानिक मानसिकता बढ़ाने और पंथ निरपेक्ष राज्य जैसे मूल्यों के बजाय पूरे देश को साम्प्रदायिक, अंधविश्वासी और जाहिल बना दिया
मीडिया संस्थानों पर मनमाना प्रचार करने पर लगाम लगाने के बजाय इन्हें खुल्ले सांड की भांति छोड़ दिया - मेरे आराध्य राम ये नही है कम से कम जो इस पूरे प्रचार और धन लिप्सा में शामिल है
गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी के बीच जिस तरह से दीवाली मनाई जा रही है , वह कितना हास्यास्पद है और 1992 का वो मन्ज़र तैरता है आंखों के सामने - रथयात्रा से आज तक कितने लोगों की जान गई और हम 'रामं रमेशं भजे' की बात कर रहें है
कितना दुर्भाग्य है कि ठीक दस दिन बाद हम स्वतंत्रता दिवस मनायेंगे पर क्या ये वो सुबह है जिसका इंतज़ार था, जिन लोगों ने आज़ादी की लड़ाई नही लड़ी पर आज़ादी का भरपूर उपयोग करते हुए देश बर्बाद कर दिया एक लंबी दीर्घकालीन योजना बनाकर - कितना दुखद और शर्मनाक है यह सब देखना 1992 और 2020 के बीच क्या क्या नही हुआ पहलू खान हो या कोई और
बहरहाल, बधाई सबको कि ये कहां आ गए हम
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ये खून की महक है
या लबे यार की खुशबू
- फ़ैज़ साहब
मित्रता दिवस की बधाई सबको
उन्हें भी जिनका मुँह हमेंशा फुला रहता है, उन्हें भी जिन्हें पोस्ट या चेहरा देखकर ग़ुस्सा आता है, उन्हें भी जिनका ख़ून जलता है अपना थोबड़ा देखकर, उन्हें भी जो इधर बदल गए है और एटिट्यूड का तो क्या कहना - इतना कि यमराज शर्मा जाएं, उन्हें भी जो अपनी सूची में मुझे ढो रहें है - आज मौक़ा है निकाल दें
आज के दिन की बधाई और प्यार उन्हें भी जिन्होंने बहुत मुश्किल समय में ऐसा साथ दिया कि सात जन्मों तक कर्ज नही उतार सकता, उन्हें भी जिन्होंने गिरने से बचाया या गिरने पर बगैर किसी पूर्वाग्रह के थाम लिया, उन्हें भी जिन्होंने सीखाया कि जीना इसी का नाम है, उन्हें भी जो भावना से लेकर सबसे मुश्किल समय और सामाजिक - आर्थिक मौकों पर सम्बल बनें रहें और अंत में उन्हें भी जो मेरी ताकत, मेरी ऊर्जा मेरा अक्षय, और मेरा अक्षुण्ण जीवन है
बहरहाल, मित्रता के मायने बदलते रहते है और केस टू केस निर्भर करते है - बस, अपने हिसाब से जियो और जहाँ भी लगें कि कोई भी शख़्स अपनी सीमाएँ लाँघ रहा है और आपकी निजी ज़िंदगी में घुसकर आपका चैन छीनने की कोशिश कर रहा है - फ़ेसबुक से ही नही - जीवन से बाहर करो खींचकर ससुरे को - मैं सुधरने वाला नही हूँ आप सब जानते है कि नालायक हूँ - नालायक ही रहूँगा और आपको - " जैसे है वैसे ही स्वीकार करता हूँ " - ना बदलें आप और ना बदलूँ मैं और यही जीवन है
स्नेह और सम्बंध बनें रहें , मर्यादाएँ बनी रहें और हाथ मिलाने की गुंजाईशें भी, सारी दुश्मनियों और दुश्वारियों के बाद भी दिल में एक कतरा जगह, प्यार और सम्मान बना रहे
"हम तो मुसाफिर है कोई सफ़र हो
हम तो गुजर जायेंगे ही
लेकिन लगाया है जो दाँव हमने
वो जीतकर जायेंगे ही"
राजकुमार साहब पर फिल्माया यह गीत आज ना जाने क्यों रात भर कानों में गूँजता रहा - भोर का आगाज़ हो रहा है और अब विदा की बेला है, आशुतोष दुबे की कविता है - " विदा लेना बाकी रहें "
क्या कहते है “लभ यू ऑल “
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विद्या बालन अभिनय की उस्ताद ही है यह कहा जाए तो अति नही होगा , जिस बिंदासपन से शकुंतला देवी का चरित्र उन्होंने निभाया है वह लाजवाब है
यह फ़िल्म प्रसिद्ध भारतीय महिला गणितज्ञ शकुंतला देवी के निजी जीवन की परतें ही नही खोलती - बल्कि परंपरागत घरेलू माहौल से निकलकर अपनी पहचान स्थापित करने तक संघर्ष और निजी जीवन मे जेंडर तक के मुद्दों पर उनके विचार और जद्दोजहद की बात खूबसूरती से उभारती है
अनु मेनन के निर्देशन में बनी यह फ़िल्म जिशु सेनगुप्ता, सान्या मल्हौत्रा - जो उनसे मात्र 13 वर्ष छोटी है - जिसने बेटी का रोल किया है, और अमित साध के अभिनय का भी लोहा मनवाती है
बच्चों, युवाओं और खासकरके महिलाओं को यह जरूर देखना चाहिए क्योंकि बार - बार एक महिला का गणितज्ञ होना कितना मुश्किल होता है विकसित समाजों में भी और फिर इंसानी कम्प्यूटर में बदल जाने की महत्वपूर्ण कहानी है, यह माँ बेटी के रिश्तों और भावनात्मक लगाव और टूटन की भी कहानी है
#ShakuntalaDevi #अमेज़ॉनप्राइम पर बढ़िया फ़िल्म - जरूर देखें धीमी है पर रोचक है
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भोपाल स्कूल ऑफ लिटरेचर की भारी सफलता के बाद
इंदूर स्कूल ऑफ लिटरेचर होने की सबको बधाई
प्रवेश आरम्भ - ज्ञानपिपासु / पिलाऊं अनुभवी महामात्य, आचार्य एवं शिक्षकों की फ़ौज उपलब्ध जो आपको हर तरह का ज्ञान देने में सक्षम है
आज ही आवेदन कर प्रवेश प्राप्त करें - भाषा का नो टेंशन, छपने छपवाने की ग्यारंटी और पुरस्कार से लेकर अजा रज़ा तक में भागीदारी करवाने के काम ग्यारंटी से किये जाते है
विचारधारा की ज़रूरत नही यहाँ चोरल बांध के पानी से लेकर क्षिप्रा, नर्मदा और खान नदी तक का पानी सहज सरल रूप से उपलब्ध है जिसमे नहाकर आप पूर्णतया दोष मुक्त हो सकते है
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ट्वीटर, ब्लॉग, इंस्टाग्राम और फेसबुक पर लिखने से कोई लेखक नही हो जाता और ना ही पत्रकार और ना ही कलाकार - ये माध्यम सिर्फ लाइक्स और कमेंट्स का भ्रामक चक्र और मायाजाल है
असली पाठक और श्रोता की जरूरतें अलग है और विशुद्ध शास्त्रीय है - मंजी - पकी और सुगठित चाहे वो खबर हो, कोई रचना या ठुमरी तोड़ी या बंदिश
यहाँ जो भी युवा, अधेड़ या पके और चुके हुए लोग अपनी भावनाएं उंडेलकर, अश्लील फोटो या आत्म मुग्धता से भरे फोटों डालकर या उत्तेजक पोस्ट्स लिखकर यश और कीर्ति की पताकाएँ फहराना चाहते है - वे समझ लें कि ये मस्तराम और सविता भाभी टाइप लिखकर या कलाओं को रंजकता से निकालकर मनोरंजक बना रहे हो किसी घटिया फिल्मी आईटम सांग की तरह तो यह सब स्थाई नही है
आश्चर्य यह है कि मीडिया गुरुओं से लेकर साहित्य और कला के तपे और पके लोग भी इन रासलीलाओं में अब रस लेकर दौड़ में शामिल है
युवा कवि, पत्रकार और कलाधर्मियों के लिए यह सब पतनोन्मुखी सोपान है जो ऊर्ध्व के बजाय विपरीत दिशा अर्थात शिखर से भूतल की ओर जाने या धकेलने की सामूहिक चेष्टा है
सम्हलेंगे तो क्या - आत्म मुग्धता में औकात और मेधा भूलते जा रहें हैं - जिन मूल्यों, संस्कृति और सभ्यता के गुणगान करते नही थकते उनके बरक्स तुम कहाँ खड़े हो एक बार देख लो अपने गिरेबाँ में झाँककर तो समझ आ जायेगा कि कितने छिछले, उथले और पतित हो गए हो
कृपया जिसे समझ ना आये वो टिप्पणी ना करें और समझदार टिप्पणी करेंगे नही , औकात से बाहर जाने और लिखने वालों की टिप्पणी तत्काल हटा दी जाएगी - बदतमीजी किसी भी शर्त पर सहन नही होगी
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कड़वे है पर फायदेमंद है
कुछ लोगों की तरह ही है कड़वे पर फायदेमंद और स्वास्थ्यवर्धक - इन्ही से मिठास पर नियंत्रण भी सम्भव हो शायद
ये घर पर उगे करेले, पानी गिर नही रहा - धूप इतनी हैं कि बढ़ नही रहें और डाल पर ही पककर गिर जा रहें है तो मैंने इंतज़ार नही किया और तोड़ लिए
अब आज पकेंगे मिट्टी की कढ़ाई में जो मंडला के सिझौरा से लाया था - एक ग्रामीण हाट से ली थी यह कढ़ाई, मित्र आनंद टांडिया ने गिफ्ट की थी, मंडला के बिछिया में इन दिनों वनोपज की बहार होगी, पीहरी से लेकर जंगली सब्जियां खूब आई होंगी - हाट में खूबसूरत मिट्टी के बर्तन थे, दो चार लाया था पर लाने में ही टूट गए - यह कढ़ाई शेष है अभी भी - अपनी सौंधी सुगंध के साथ
करेले आज 1989 में पानीगांव , देवास में क्रिस्ट सेवा केंद्र में केरल की वयोवृद्ध और स्नेहिल सिस्टर शीबा ने जिस तरह बराबर मात्रा में गीला नारियल कद्दूकस कर और मीठी नीम की पत्तियों के साथ बनाई थी वह स्वर्गिक सब्जी - सिर्फ तेल, खूब सारी राई, हल्दी, धनिया पाउडर और नमक डालकर वैसे ही बनाने की कोशिश होगी
स्वाद याद रह जाते है और लाख कोशिशों के बाद भी वो स्वाद कभी दोबारा लौटता नही चाहे हर मसाले या वस्तु का अनुपात वही रखें
जीवन, लोग, कड़वापन, करेला, मिट्टी की सौंधी खुशबू , प्रक्रिया और विधियां अनुपातिक रूप से हर बार ठीक रखने पर भी बहुत कुछ है जो सध नही पाता है जीवन मे और हम बेस्वाद से हर बार अतृप्त रह जाते हैं
बहरहाल
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देवास वाले घर आ जायें
बाहर वाले अपने बैंक डिटेल्स भेजें - भुगतान कर रहा हूँ अभी
● प्रति व्यक्ति एक लीटर का
● कवियों को दो लीटर का
● कहानीकार को तीन लीटर का
● उपन्यासकार को चार लीटर का
● आलोचक को पांच लीटर
● सर्वगुण सम्पन्न संपादक को सीधे ग्यारह लीटर का
नाग पंचमी मुबारक
रिटर्न में आप लोग गाय, भैंस, या अन्य डेयरी प्रोडक्ट भेज सकते है मुझे या ऑन लाईन दूध का भुगतान कर दें
आभार सब गुणीजनों का पारखी नजरों से पहचानने के लिए
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"अरे वाह , कैसी है आप" - मनमोहिनी का फोन ढलती शाम को पाकर उत्तेजित था कवि
"जी ठीक हूँ,और आप , कल क्या प्लान है सुबह का " - कवयित्री बोली
"जी, कुछ खास नही, आपका फोन आ गया तो शाम रोमांसभरी हो गई"- कवि बोले
"नही कुछ खास व्यस्त नही हो तो आईये - सुबह घर यही चाय, नाश्ता, दूध आदि लेते है" - मीठी मादक आवाज़ थी कवयित्री की
"जी - जी, पक्का, सुबह 930 ठीक है ना, वैसे कल कुछ खास , कोई कवि आया है बाहर से या कही लाइव है" - कवि का मन और उत्साह बल्ले - बल्ले उछल रहा था
"नही बस, लॉक डाउन है ना, पता नही कल साँप वाले आते है या नही, नाग पंचमी है और हमारे यहाँ नाग की पूजा का रिवाज़ है, सोचा आपको तो सब्स्टीट्यूड के रूप में बुला ही लूँ कम से कम" - कवयित्री की शोख आवाज़ बुलंद हो रही थी
कविराज को बीन की आवाज़ में छंद, दोहा, सोरठा और ग़ज़ल याद आ रही थी
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संघी मित्र और देशभक्त कह रहें है कि सदियों में मंदिर निर्माण का अवसर आया है , मेरा भी यही कहना है पर इतनी जल्दी क्यों है
अभी तो भारत क़ब्रगाह बन रहा है, प्रभु श्रीराम के राज में किसी द्रवित की व्यथा नही सुनी पर आधुनिक काल है तो ज़ाहिर है लाशों पर मंदिर बनकर रहेगा कोरोना की , बिहार और बंगाल चुनाव में दिखाना भी है ना , वरना यह उपयुक्त समय बिलकुल नही है
कोई भी थोड़ा सा अल्प ज्ञानी भी यह समझ सकता है , जब कोर्ट ने अनुमति दे दी है, दोनों पक्ष तैयार है तो जल्दी किस बात की है पर मोदी शाह और संघियों से ज़्यादा ज्ञानी कोई और है इस धरा पर
कोई मना नही कर रहा है - जनवरी तो रुक जाए, अप्रैल में श्रीराम नवमी पर कर लें, आज किया तो इतिहास सिर्फ़ गाली ही देगा कि जब लाशों के अंबार पर देश दुनिया बैठी थी तो सत्ता का शीर्ष चालीस किलो की चाँदी नींव में रखकर मंदिर बनाने को उद्धत था
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