50 से लेकर 60 के लोगों को युवा कहते आयोजको को लज्जा आनी चाहिए असल में - गलती इन 50 से लेकर 85 तक के कवियों की नही ये तो बेचारे है जो शुगर की गोलियाँ और बत्तीसी लेकर कविता की सेवा करने जेब से रुपया लगाकर "पोच" जाते है कही भी
पिछले दिनों एक आयोजन में हिंदी के 6 कवि युवा कहे गए जिनमे से एक उसी समय रिटायर्ड हुआ, दूसरा 59 का है तीसरा 52 का है....And so on
दो तो मुझे साफ लिखने पर नाराज हो गए और बाकी से मन मुटाव हो गया, इनमें से एक अपने से "बड़े वाले" को इष्ट कहकर कविता की वैतरणी पार कर गया बाकी तो राम भला करें काव्य और कविता का - दूसरे के बंधुआ है कुछ
साला अजीब हालत है हिंदी जगत की - एक 72 के ऊपर है लौंडो टाइप घने बाल वाली फोटो लगाकर नई प्रोफ़ाइल बना ली और बेवकूफ बनाता है दुनिया को
ये ससुरा युवा होता क्या है - युवा भी युवा नही रहें - शोध करते करते 35 - 38 के हो गए , गाइड के चरण धोकर पी लिए,नहा लिए फिर भी नौकरी नही बापड़ो को , इनकी चम्पाओं को दलित - आदिवासी या महिला कोटे से नौकरी मिल गई और वो इन्हें गंगाराम कुंवारा रह गया टाइप गाना गाने के लिए छोड़कर किसी और के साथ फुर्र भी हो गई - अब अपन तो 25 के नीचे वालों को युवा कहते है
पर आलोचक Pankaj की पोस्ट पढ़ने के बाद अब अपुन लिखेगा गृहस्थ कवि क्योंकि 25 के ऊपर सब गृहस्थ कवि ही है ब्याह ना भी हुआ हो पर एकाध गर्ल फ्रेंड तो बांध ही लेते है टाइमपास के लिए, 50 वालों को बूढ़े कवि और बाकी सबको चूके हुए सठियाये कवि आज से Prefix लगेगा
महिला कवियों का तो और मत पूछिए अंजू मंजू सीता गीता अनिता सुनीता - लिखेंगी तो चालीस साला, पचास साला औरतें और बनी रहेंगी 16 और हाई स्कूल की फोटू ब्यूटी एप से धे फिल्टर धे फिल्टर लगाकर चैंपति रहेंगी - इसलिये सबको आज से सबको अक्षत यौवना माताजी कहूँगा
होशियार
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मुहल्ले के बच्चे तक कविराज को चाँद अंकल कहने लगे, फिर कवि ने जमाने पुरानी फोटू हेड़ी अपने खजाने से जो अधर्मयुग में छपी थी किसी तुकबंदी वाली कविता के साथ और एक नई प्रोफ़ाइल फेडबुक पर बनाई
अफसोस अधिकांश कवयित्रियों ने रिक्वेस्ट रिजेक्ट कर दी और दो चार जुड़ी भी तो वाल पर लिख गई कि ये रचना आपने चोरी करके लिखी है फलाने जी की जो रिटायर्ड होकर आजकल सुंदर पाठ पर तालियाँ पीटते है कॉलोनी के मंदिर में पंडिताई करते हुए और ब्लॉक कर गई
कवि फिर हैदस में है कि "हे भगवान कोरोना दे दें और जान ले लें, अब बेईज्जती सही नही जाती"
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साला इस देश ने 74 साल में दो ही काम किये, जनसंख्या बढ़ाई और ढेर सारे कार्ड बनाये - जच्चा बच्चा से लेकर बीपीएल तक, बस, फिर अब लाईन में लगो और कार्ड बनवाते फ़िरो - दलालों को फिर नया धँधा मिल गया
अजीब मूर्खों का देश है, आधार कार्ड से लेकर वोटर कार्ड क्या आत्महत्या की पुष्टि के लिए बनवाये थे - जो अब हेल्थ कार्ड बनवाने पड़ेंगे
फिर बाबूओं, हरामखोर अधिकारियों और दफ्तरों के चक्कर काटो, फोटो कॉपी वालों के धंधे आबाद करो और इसी महान जनता की लड़ाई फिर लड़ो क्योकि कार्ड नही बनेंगे, एनजीओ को सर्वे और रोज़गार मिलेगा गरीब फिर निरक्षर साबित होंगे और एक बड़ा वर्ग वंचित रहेगा - जो आज तक 74 सालों में ना राशन कार्ड बनवा सका ना बीपीएल और कुल मिलाकर अंत में कार्ड उन्ही के बनेंगे जिनके पासपोर्ट, लायसेंस से लेकर मृत्यु प्रमाणपत्र भी ब्यूरोक्रेसी ने अग्रिम बनवाकर दे दिए है
धिक्कार कोई शब्द था क्या कोश में ?
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Book on the table
"चल मेरे पिठ्ठू दुनिया देखें"
#कमलजोशी यायावरी के बादशाह रहें है उनके जैसे यात्रा वृतांत लिखना और घूमना बहुत दुष्कर कार्य है - पहाड़, हिमालय, नदी - झरने और संस्कृति उनके लेखन और फोटोग्राफी के विषय रहें है - 24 जनवरी 1953 को जन्में कमलजी ने बहुत लम्बा और सार्थक जीवन जिया और इतना विराट और वृहद काम करके 3 जुलाई 2017 को गुजर गए कि अब शायद ही कोई इतना काम करके लिख पायेगा, एक जीवंत और जीवट आदमी ही इस विधा को अपनाकर पारंगत और निपुण हो सकता है - ट्रैवलोग विधा ही ऐसी है
पत्रकार मित्र और भाई Praveen Singh ने इस क़िताब का जिक्र पिछले हफ्ते किया था बस मंगवा ली, अब पढ़ने को पर्याप्त सामग्री हो चली है, कोरोना काल का छह माही कोटा भी अपने निजी पुस्तकालय में पूरा करना है
शुक्रिया प्रवीण
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मेरे सीने में अभी दर्द है महकूमी का
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74 साल की आज़ादी का हश्र यह है कि हमारे पास कुछ कहने - सुनने को है नही, अतीत की वैभवशाली लड़ाईयां और गुणगान जिसमे हमारा कोई प्रत्यक्ष योगदान नही था - वर्तमान इतना बिगड़ा हुआ है कि एक कोरोना ने हमारी सारी पोल पट्टी खोलके हमें नंगा कर दिया है - अब कपोल कल्पनाएं और गप्पबाजी से देश नही चल सकता इतनी बड़ी आबादी है और उससे ज़्यादा योजनाएं है - बीस लाख करोड़ के दावे हैं जिसमे अनोपयोगी सूखे संडास से लेकर मुफ्त राशन के उपाय और पानी से लेकर दवाई की बात हो, खेती के उपाय हो या डिजिटलाइजेशन की बात हो, उद्योगों की बात हो या बाँस से टोकरी बनाने की घरेलू इकाइयों की बात हो - जो देश भारत माता नुमा स्त्री को सुरक्षित डिलीवरी नही करवा सकता या अपने देश के कान्हाओं और लाड़ली लक्ष्मियों को सुपोषित भोजन उपलब्ध नही करवा सकता वहाँ इतने शोर की महत्ता स्थापित करने का क्या अर्थ है और अफ़सोस कि हम अभी भी वही गीत भौंडे ढंग से आज़ादी के तराने बजा रहें हैं - सुन रहें है - क्या हमने कोई नया गीत रचा है या गाने की हिम्मत है - सवाल बहुत है, पर जवाब नही है कही शोर और हल्ले में कुछ समझ नही आ रहा है
मूर्खताओं और बकवास का कोई अंत नही है और दुर्भाग्य है कि ऐसे नगीनों को बीनते चुनते हुए हमने 74 साल गुजार दिए और संविधान के हिसाब से ना कार्यपालिका सुधारी, विधायिका में भ्रष्टतम और नीचतम लोगों को हमने सिर माथे पर बिठा दिया और न्यायपालिका में जो अव्वल दर्जे के धूर्त आकर सत्यानाश कर रहें हैं उनके बारे में बोलना मतलब अपना खून ही जलाना है
दोषी वो नही - नेहरू से लेकर मोतीलाल सरपंच या इंदिरा गांधी से लेकर द्रोपदी बाई मवासी सरपंच - बल्कि हम सब या मैं सबसे ज्यादा दोषी हूँ कि यह सब हम देखते रहा और सिर्फ तालियाँ पीटता रहा बजाय इसके कि मुंह खोलकर दिलेरी से सवाल पूछ सकूँ पर डर, पिछलग्गू प्रवृत्ति, सब कुछ सह लेने की इस मानसिकता और दोगलेपन ने ही मुझे यहाँ लाकर खड़ा कर दिया है - पिछले 6 माह में सबकी औकात सामने आई है और हम सब जिसमे सबसे ज़्यादा शामिल मैं हूँ, की गलती है और इसका अब कोई इलाज संभव नही है
मैं निराश नही पर प्रचंड और उद्दंड आशाओं का हिमायती नही, रंगीन सपने देखना वर्जित कर रखा है मैंने और जो इस सबमें विश्वास रखते है उन्हें ये सब लुभावने वादे और विश्वास मुबारक - मेरा ज़मीर गंवारा नही करता और यह हक कम से कम मुझे संविधान देता है जिसे कोई नही छीन सकता
स्वतंत्रता दिवस की बधाई कहने की हिम्मत नही पर उन्हें अलबत्ता सलाम और जोहार जिनमे इस सबके बाद भी मुंह खोलकर कहने की हिम्मत है और सारा दिन कॉपी पेस्ट मैसेजेस ठेलते रहेंगें झंडे और विभिन्न चित्रों के कि
"स्वतंत्रता दिवस की बधाई, शुभ कामनाएँ, अमर रहें भारत देश"
माफ़ कीजिये - आज तबियत ठीक नही, मेरी ओर से बधाईयाँ फिर कभी - आज बस इतना ही कि [ Preamble ] कम से कम संविधान की उद्देशयिका पर धूल ना जम पायें और उसको बाँचने और निहारने लायक धूप बनी रहें - ये सब लिखने पढ़ने और कहने सुनने की आज़ादी मेरे से लेकर प्रशांत भूषण और परम सम्मानीय बोबडे साहब तक बनी रहें - ये आरजू है
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#यूनिसेफ #UNICEF और यूएन एजेंसी के टुच्चे अधिकारियों का वेतन इस समय 1/4 कर देना चाहिये और टैक्स लेना चाहिए , ये लोग क्यों टैक्स के दायरों से बाहर रहें, सभी लगभग काले यानी भारतीय है और जो डॉलर्स में इनको तनख्वाहें है वो इनके उद्देश्यों और काम के हिसाब से बिल्कुल अलग है
इस समय जब देश में सब आर्थिक तंगी से गुजर रहे है, सरकारें वित्तीय समस्या से जूझ रही है तो इनसे इंकम टैक्स लिया जाये और इनके ऐशो आराम पर प्रतिबंध लगाये जाये
[अभी एक मित्र से इन यूएन एवं विदेशी दानदाताओं के भारतीय दफ्तरों में काम करने वाले तथाकथित अधिकारियों के वेतन भत्ते सुनकर होश उड़ गये ]
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