पहल के 121 में अशोक अग्रवाल जी का एक आलेख छपा है जिस पर भाई शिरीष मौर्य ने एक पोस्ट में गम्भीर सवाल उठाए है - यह एकदम साफ़ साफ़ झूठ लिखने का मामला है
कल यह अंक पढ़ा तो अजीब लगा था अब लगता है कि " पहल " या तो बंद हो जाये या ज्ञान जी और दूसरे बूढ़े और चुके हुए लोग भी वहां से हट जाएं , हालात बहुत खराब हो गई है, बुढापे का साम्राज्य है और ये बूढ़े भी कुर्सी छोड़ना नही चाहते, पुरानी मान्यताएं लेकर बैठे है और कविता, कहानी, आलोचना में हिंदी की परिभाषाओं से बाहर नही आना चाहते
नये रूप में पहल छपने के बाद यदि समग्र रूप से भी देखें तो कुछ निहायत ही अपरिपक्व और उज्जड लोगों को लंबे समय तक श्रृंखलाबद्ध छापकर हिंदी का बहुत नुकसान किया पहल ने और इन लोगों ने इतना कीचड़ उछाला कि पहल ने अपनी विश्वसनीयता खो दी है, इसलिये आज तदभव या अन्य पत्रिकाएं ज्यादा विश्वसनीय लगती है, मैं तो ये भी कहूंगा कि ज्ञान जी की पहल अपनी विचारधारा से भी भटक गई है एक एक कहानी, कविता या आलेखों को देख लें
निजी बातचीत में कई बार मैंने ये बातें सबसे सुनी और तर्क में साथ रखते देखी है पर सब डरते है कहने सुनने में - आखिर किस बात का डर है - जेब से रुपया देकर खरीदकर पढ़ते है कोई कागज़ में भी मुफ्त में नही लेते , एडवांस में सालभर का चंदा देते है तो बोलने में क्या दिक्कत है, आखिर पहल जैसी पत्रिका में नही कह पायें तो क्या गायत्री परिवार की कल्याण में बोलोगे, ऋषि प्रसाद में, ओशो टाईम्स में या सामना में लिखोगे
दुर्भाग्य है पर सच है, राजनीति में हम उम्मीद करते है कि बूढ़े जड़ हो चुके लोग हटें और नये युवा आगे आये और नई ऊर्जा से काम करें पर हिंदी की हालत तो बेहद घटिया है - पाँव कब्र में लटके है, अस्पताल में भर्ती है, वेंटिलेटर पर सुप्तावस्था में है पर सम्पादक का मोह नही छूट रहा और बेशर्मी से जमे रहेंगे आखिरी सांस तक , उनकी व्यक्तिगत मेधा और समझ पर सवाल नही पर ये बुढ़ापे में मतिभ्रम और कुछ भी करने की जिद, अकड़ और पद मोह का क्या करें और बात करेंगे वामपंथ की
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" वे वहाँ क़ैद है "
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प्रियम्वद की एक कहानी है - " वे वहाँ क़ैद है " - जिसमे इतिहास का रिटायर्ड प्रोफेसर मुहल्ले के गुंडे युवाओं की अश्लील हरकतों का शिकार होता है और सारा दिन साबुन से हाथ धोता रहता है, असल में मोहल्ले के आवारा लड़के उस प्रोफेसर के घर पर चढ़कर भगवा झंडा लगा देते है और वह प्रोफेसर उनके सामने ही विरोधकर झंडा निकालकर फेंक देता है, बदले में लड़के ना मात्र उसकी पिटाई करते है, उसकी बेटी की बेइज्जती भी करते है और उस बूढ़े प्रोफेसर से अश्लील हरकत भी करते है और इस वजह से उसके हाथ गंदे हो जाते है, यह कहानी सम्भवतः हंस के बहुत शुरुवाती अंक में छपी थी शायद 1992 में बाबरी मस्जिद के ढहाने के बाद किसी अंक में यह कहानी आई थी
इसी तरह का एक अश्लील वाक्या मेरे एक स्कूल में प्राचार्य रहते हुआ था, एक फौजी अधिकारी का बच्चा जब बहुत दिनों तक नही आया जब मैने पता किया तो उसके ब्रिग्रेडियर पिता ने बोला कि पता नही उसे क्या हुआ है वह दिन भर साबुन से हाथ धोता रहता है, उसे बुलाकर प्यार से पूछा तो उसने बताया कि कुछ सिविलियन छात्रों ने उसके साथ मारपीट ना करके अश्लील हरकतें की और वह उस सदमे से निपट ही नही पाया ,आखिर उसने पढ़ाई ही छोड़ दी, मैंने मालूम होने पर 3 छात्रों को स्थाई रूप से निष्कासित किया था
आज सारी दुनिया को दिन भर हाथ धोते देख ये दो वाक्ये प्रसंगवश याद आये, किसी ने तो जरूर कुछ घृणित किया ही है
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