सात औरतों की जिंदगी के बहाने से पितृ सत्ता अर्थात थप्पड़ की अनुगूँज
एक औरत है जो सुबह से रात तक खपती है पति और सास के लिए, एक औरत है जो परित्यक्तता है बेटे बहु के साथ रहकर जी रही है, एक औरत है जिसका पति रोज उसे मारता है फिर भी काम करती है घर घर, एक बड़ी वकील है जो मुकदमे जीतकर यश कमाती है और वैवाहिक बलात्कार का शिकार होती है फिर अपने पूर्व प्रेमी से भी मिलती है क्योंकि पति से उसे प्रेम नही मिलता, एक औरत है जो वकील की सहायिका है अपने पति के पुरुषवादी विचारों को त्यागकर घर छोड़ आई ननद का साथ देती है, एक माँ है जो बेटी को सीखाती है कि औरतों को समझौता कर ही लेना चाहिये इसी में उनकी भलाई और घर का सुख है स्त्रियां घर की हद में रहें तो ही दुनिया में बैलेंस बना रहता है, एक परित्यक्तता और स्त्री है जो अपनी बेटी को नृत्य सीखा रही है और उसके युवा मित्र से मिलने की उसे भरपूर छूट देती है और अंत में एक किशोर वय की बालिका है जो अपनी माँ के लिए पति ढूंढ़ते ढूंढ़ते थक जाती है और अंत में अपने युवा मित्र के साथ जीवन के मीठे स्वप्न बुनती है
इसके अलावा एक वकील, तीन पिता, तीन पति है जिनमे मर्दानगी है और दो दोस्त है और कार्पोरेट्स की एक मायावी दुनिया है जिसका होना ना होना कोई इस फ़िल्म में मायने नही रखता और जिस मुद्दे से थप्पड़ समूची स्त्री जात को मारा गया है वह भी कोई मुद्दा नही है - खासकरके भारतीय समुदाय में यह बेहद ही अप्रासंगिक मुद्दा है जिसका बतंगड़ बनाया गया है
सात स्त्रियों के भिन्न भिन्न परिवेश, जीवन, व्यवसाय और जीवन की पद्धति को रोज रोज एक ढर्रे पर कैसे समाज चला रहा है वह एक बिम्ब से बहुत अच्छा दर्शाया है कि अखबार और दूध की बोतल समेटने से भोर की शुरुवात होती है और कैसे स्त्रियों का जीवन इसी दुष्चक्र में फंसकर रह जाता है
थप्पड़ असल में एक ऐसे समय में आई सही फ़िल्म है जब देश दंगों से जहां एक ओर झुलस रहा है, महिलाएं सॉफ्ट टारगेट होने के कारण वहशीपन का शिकार हो रही है, लोवर कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक पुरुष न्यायाधीश और कानूनी विशेषज्ञ उर्फ वकील उर्फ बलात्कारियों के दलाल फांसी टालने के नित नये शिगूफे लाकर कोर्ट को गुमराह करने की कोशिश कर रहे है और फांसी टलते टलते आखिर दो माह लेट हो गई है आज तारीख तक, राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आंकड़ों में हम भारत के सभ्य लोग महिलाओं के प्रति हिंसा का क्या व्यवहार कर रहें है - यह स्पष्ट परिलक्षित हो ही रहा है , पहले मप्र था और अब उप्र ने रिकॉर्ड तोड़ बढ़त हासिल कर महिलाओं को प्रताड़ित करने में कोई कसर नही छोड़ी है
थप्पड़ दरअसल में एक समर्पित, प्रेम में पगी हुई संस्कारित भारतीय स्त्री की बगावत की कहानी भी है -जो वस्तुतः अभी जमीन पर आना बाकी है क्योंकि जो फिक्शन कहानीकार और निदेशक ने बुना है उसमें सच ऐसा कोई एंगल नजर नही आता कि बात अपराध शास्त्र की विभिन्न धाराओं से होते हुए मुआमला कौटुम्बिक न्यायालय तक पहुँचे और सामान्य सी समस्या को वकील अपनी योग्यता, ज्ञान और कौशल से इतना पेचीदा बना दें कि एक परिवार का जीवन ही खत्म हो जाये, अच्छी बात यह है कि महिला वकील जानती है कि अदालतें बहुत गंदी है - इसलिए नेत्रा बार बार अमृता को आगाह करती है, अपने पिटीशन में भी वह घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण कानून 2005 का उपयोग नही करती - क्योकि वह इसके दुष्परिणाम जानती है, पर पुरुष वकील के साथ आर्बिट्रेशन में असफल होने के बाद उसके पास केस को पुख्ता करने के लिए कोई और चारा नही बचता
ज्यूडिशियल सेपरेशन या म्युचुअल तलाक के लिए प्रयास जारी है पर घर पर अमृता की माँ, भाई, सास, सहेली सब उसे एक घटना या दुःस्वप्न मानकर भूलने के लिए कहते है पर उसके दिल -दिमाग़ में जो थप्पड़ का दर्द है उससे ज़्यादा गूंज है जो किसी अनहद नाद की तरह चौबीसों घण्टों बजती रहती है, उसका स्त्री मन जब बारम्बार विक्रम से कहता है कि मैं तुमसे प्यार नही करती तो भी उसके पीछे भी बचपन से पुरूष ही श्रेष्ठ है और समर्पण भाव ही सर्वोच्च है, की झलक दिखती है पर वह अभ्यास और समय गुजरने के साथ पक्की होती जाती है और इतना ही नही - अपनी सास, माँ, कामवाली बाई, सहेली, भाई, भाभी और यहां तक कि अपनी वकील को यह समझाने में सफल होती है कि वह सिर्फ एक थप्पड़ नही था, सिर्फ गुस्से, तनाव और दफ़्तर के अवसादों से उपजा हुआ कमज़ोर मर्द का अपनी पत्नी पर उठा हुआ हाथ - जो उसे अपनी निजी मिल्कियत समझकर चाहे जब मार सकता है , बल्कि वह थप्पड़ एक दृष्टिकोण, सदियों पुराना पुरुषप्रधान समाज का व्यवहार और थोथी ताकत और मर्दानगी का निचोड़ है जिसकी वजह से कुल मिलाकर स्त्री एक भोग्या बनकर रह गई है - जो सुबह उठने से लेकर देर रात तक उसका बिस्तर गर्म करती रहें और यदि स्त्री जरा भी विरोध करें तो थप्पड़ की अनुगूंज उसकी पीढ़ियों में सदियों तक शाश्वत बनी रहेगी
यह फ़िल्म देखी जानी चाहिए इसलिये नही कि यह जेंडर और जेंडर आधारित हिंसा की बात करती है , बल्कि इसलिए कि यह हमारे नजरिये, समूची न्याय पालिका, उसके दलालों और परिवार एवं विवाह नामक संस्था के विघटन की कहानी है जो बुरी तरह से ध्वस्त हो चुके है, अमृता के पिता एक वाजिब सवाल उठाते है कि क्या परिवार को बचाये रखने का काम सिर्फ स्त्री का है, पुरुष अपनी व्यक्तिगत अपेक्षाओं, प्रमोशन और हवस के लिए कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र है - बदले में सवाल जवाबों की एक लम्बी श्रृंखला है जिनपर खुलकर साफ़, गहरी और सार्थक बहस होनी ही चाहिए - अब हम आधी आबादी को जो योग्य, सक्षम, कौशलों से परिपूर्ण और दक्ष है - उन्हें सिर्फ पुरुषों के रहमो करम पर नही छोड़ सकते, शाहीनबाग में विभिन्न सम्प्रदाय की औरतों ने साबित किया है कि महिलाएँ पुरुषों से हर क्षेत्र में ज़्यादा बुद्धिमान और सफल है
थप्पड़ फ़िल्म नही हम सबके चेहरे पर कनपटी के नीचे लगा वो छाप है जिसे बार बार आईने में देखकर अपने को सुधारना जरूरी है
कलाकार, अभिनय, गीत, निर्देशन आदि पर बात करने का कोई मतलब मैं नही समझता बस फ़िल्म मुद्दे को लेकर है तो मुद्दे पर ही बातें होनी चाहिए
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