Adnan Kafeel Darwesh को भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार की बधाई
बहुत शुभकामनाएं और दुआएँ अनुज अदनान
इस वर्ष के निर्णायक थे मेरे प्रिय गुरु और प्रख्यात व्यक्तित्व प्रोफेसर Purushottam Agrawal जी, एकदम सही चयन है अदनान का
यह पुरस्कार उन्हें 'क़िबला' कविता के लिए मिला है
आइये पढ़ते हैं वह पुरस्कृत कविता 'क़िबला'
क़िबला
माँ कभी मस्जिद नहीं गई
कम से कम जब से मैं जानता हूँ माँ को
हालाँकि नमाज़ पढ़ने औरतें मस्जिदें नहीं जाया करतीं हमारे यहाँ
क्यूंकि मस्जिद ख़ुदा का घर है और सिर्फ़ मर्दों की इबादतगाह
लेकिन औरतें मिन्नतें-मुरादें मांगने और ताखा भरने मस्जिदें जा सकती थीं
लेकिन माँ कभी नहीं गई
शायद उसके पास मन्नत माँगने के लिए भी समय न रहा हो
या उसकी कोई मन्नत रही ही नहीं कभी
ये कह पाना मेरे लिए बड़ा मुश्किल है
यूँ तो माँ नइहर भी कम ही जा पाती
लेकिन रोज़ देखा है मैंने माँ को
पौ फटने के बाद से ही देर रात तक
उस अँधेरे-करियाये रसोईघर में काम करते हुए
सब कुछ करीने से सईंतते-सम्हारते-लीपते-बुहारते हुए
जहाँ उजाला भी जाने से ख़ासा कतराता था
माँ का रोज़ रसोईघर में काम करना
ठीक वैसा ही था जैसे सूरज का रोज़ निकलना
शायद किसी दिन थका-माँदा सूरज न भी निकलता
फिर भी माँ रसोईघर में सुबह-सुबह ही हाज़िरी लगाती.
कम से कम जब से मैं जानता हूँ माँ को
हालाँकि नमाज़ पढ़ने औरतें मस्जिदें नहीं जाया करतीं हमारे यहाँ
क्यूंकि मस्जिद ख़ुदा का घर है और सिर्फ़ मर्दों की इबादतगाह
लेकिन औरतें मिन्नतें-मुरादें मांगने और ताखा भरने मस्जिदें जा सकती थीं
लेकिन माँ कभी नहीं गई
शायद उसके पास मन्नत माँगने के लिए भी समय न रहा हो
या उसकी कोई मन्नत रही ही नहीं कभी
ये कह पाना मेरे लिए बड़ा मुश्किल है
यूँ तो माँ नइहर भी कम ही जा पाती
लेकिन रोज़ देखा है मैंने माँ को
पौ फटने के बाद से ही देर रात तक
उस अँधेरे-करियाये रसोईघर में काम करते हुए
सब कुछ करीने से सईंतते-सम्हारते-लीपते-बुहारते हुए
जहाँ उजाला भी जाने से ख़ासा कतराता था
माँ का रोज़ रसोईघर में काम करना
ठीक वैसा ही था जैसे सूरज का रोज़ निकलना
शायद किसी दिन थका-माँदा सूरज न भी निकलता
फिर भी माँ रसोईघर में सुबह-सुबह ही हाज़िरी लगाती.
रोज़ धुएँ के बीच अँगीठी-सी दिन-रात जलती थी माँ
जिसपर पकती थीं गरम रोटियाँ और हमें निवाला नसीब होता
माँ की दुनिया में चिड़ियाँ, पहाड़, नदियाँ
अख़बार और छुट्टियाँ बिलकुल नहीं थे
उसकी दुनिया में चौका-बेलन, सूप, खरल, ओखरी और जाँता थे
जूठन से बजबजाती बाल्टी थी
जली उँगलियाँ थीं, फटी बिवाई थी
उसकी दुनिया में फूल और इत्र की ख़ुश्बू लगभग नदारद थे
बल्कि उसके पास कभी न सूखने वाला टप्-टप् चूता पसीना था
उसकी तेज़ गंध थी
जिससे मैं माँ को अक्सर पहचानता.
ख़ाली वक़्तों में माँ चावल बीनती
और गीत गुनगुनाती-
“..लेले अईहS बालम बजरिया से चुनरी”
और हम, “कुच्छु चाहीं, कुच्छु चाहीं…” रटते रहते
और माँ डिब्बे टटोलती
कभी खोवा, कभी गुड़, कभी मलीदा
कभी मेथऊरा, कभी तिलवा और कभी जनेरे की दरी लाकर देती.
जिसपर पकती थीं गरम रोटियाँ और हमें निवाला नसीब होता
माँ की दुनिया में चिड़ियाँ, पहाड़, नदियाँ
अख़बार और छुट्टियाँ बिलकुल नहीं थे
उसकी दुनिया में चौका-बेलन, सूप, खरल, ओखरी और जाँता थे
जूठन से बजबजाती बाल्टी थी
जली उँगलियाँ थीं, फटी बिवाई थी
उसकी दुनिया में फूल और इत्र की ख़ुश्बू लगभग नदारद थे
बल्कि उसके पास कभी न सूखने वाला टप्-टप् चूता पसीना था
उसकी तेज़ गंध थी
जिससे मैं माँ को अक्सर पहचानता.
ख़ाली वक़्तों में माँ चावल बीनती
और गीत गुनगुनाती-
“..लेले अईहS बालम बजरिया से चुनरी”
और हम, “कुच्छु चाहीं, कुच्छु चाहीं…” रटते रहते
और माँ डिब्बे टटोलती
कभी खोवा, कभी गुड़, कभी मलीदा
कभी मेथऊरा, कभी तिलवा और कभी जनेरे की दरी लाकर देती.
एक दिन चावल बीनते-बीनते माँ की आँखें पथरा गयीं
ज़मीन पर देर तक काम करते-करते उसके पाँव में गठिया हो गया
माँ फिर भी एक टाँग पर खटती रही
बहनों की रोज़ बढ़ती उम्र से हलकान
दिन में पाँच बार सिर पटकती ख़ुदा के सामने.
ज़मीन पर देर तक काम करते-करते उसके पाँव में गठिया हो गया
माँ फिर भी एक टाँग पर खटती रही
बहनों की रोज़ बढ़ती उम्र से हलकान
दिन में पाँच बार सिर पटकती ख़ुदा के सामने.
माँ के लिए दुनिया में क्यों नहीं लिखा गया अब तक कोई मर्सिया, कोई नौहा ?
मेरी माँ का ख़ुदा इतना निर्दयी क्यूँ है ?
माँ के श्रम की क़ीमत कब मिलेगी आख़िर इस दुनिया में ?
मेरी माँ की उम्र क्या कोई सरकार, किसी मुल्क का आईन वापिस कर सकता है ?
मेरी माँ के खोये स्वप्न क्या कोई उसकी आँख में
ठीक उसी जगह फिर रख सकता है जहाँ वे थे ?
मेरी माँ का ख़ुदा इतना निर्दयी क्यूँ है ?
माँ के श्रम की क़ीमत कब मिलेगी आख़िर इस दुनिया में ?
मेरी माँ की उम्र क्या कोई सरकार, किसी मुल्क का आईन वापिस कर सकता है ?
मेरी माँ के खोये स्वप्न क्या कोई उसकी आँख में
ठीक उसी जगह फिर रख सकता है जहाँ वे थे ?
माँ यूँ तो कभी मक्का नहीं गई
वो जाना चाहती थी भी या नहीं
ये कभी मैं पूछ नहीं सका
लेकिन मैं इतना भरोसे के साथ कह सकता हूँ कि
माँ और उसके जैसी तमाम औरतों का क़िबला मक्के में नहीं
रसोईघर में था…
...........।।
वो जाना चाहती थी भी या नहीं
ये कभी मैं पूछ नहीं सका
लेकिन मैं इतना भरोसे के साथ कह सकता हूँ कि
माँ और उसके जैसी तमाम औरतों का क़िबला मक्के में नहीं
रसोईघर में था…
...........।।
2
सन् 1992
जब मैं पैदा हुआ
अयोध्या में ढहाई जा चुकी थी एक क़दीम मुग़लिया मस्जिद
जिसका नाम बाबरी मस्जिद था
ये एक महान सदी के अंत की सबसे भयानक घटना थी
अयोध्या में ढहाई जा चुकी थी एक क़दीम मुग़लिया मस्जिद
जिसका नाम बाबरी मस्जिद था
ये एक महान सदी के अंत की सबसे भयानक घटना थी
कहते हैं पहले मस्जिद का एक गुम्बद
धम्म् की आवाज़ के साथ
ज़मीन पर गिरा था
और फिर दूसरा
और फिर तीसरा
और फिर गिरने का जैसे
अनवरत् क्रम ही शुरू हो गया
धम्म् की आवाज़ के साथ
ज़मीन पर गिरा था
और फिर दूसरा
और फिर तीसरा
और फिर गिरने का जैसे
अनवरत् क्रम ही शुरू हो गया
पहले कीचड़ में सूरज गिरा
और मस्जिद की नींव से उठता ग़ुबार
और काले धुएँ में लिपटा अंधकार
पूरे मुल्क पर छाता चला गया
फिर नाली में हाजी हश्मतुल्लाह की टोपी गिरी
सकीना के गर्भ से अजन्मा बच्चा गिरा
हाथ से धागे गिरे,
रामनामी गमछे गिरे,
खड़ाऊँ गिरे
बच्चों की पतंगे और खिलौने गिरे
बच्चों के मुलायम स्वप्नों से परियाँ चींख़तीं हुईं निकलकर भागीं
और दंतकथाओं और लोककथाओं के नायक चुपचाप निर्वासित हुए
और मस्जिद की नींव से उठता ग़ुबार
और काले धुएँ में लिपटा अंधकार
पूरे मुल्क पर छाता चला गया
फिर नाली में हाजी हश्मतुल्लाह की टोपी गिरी
सकीना के गर्भ से अजन्मा बच्चा गिरा
हाथ से धागे गिरे,
रामनामी गमछे गिरे,
खड़ाऊँ गिरे
बच्चों की पतंगे और खिलौने गिरे
बच्चों के मुलायम स्वप्नों से परियाँ चींख़तीं हुईं निकलकर भागीं
और दंतकथाओं और लोककथाओं के नायक चुपचाप निर्वासित हुए
एक के बाद एक
फिर गाँव के मचान गिरे
शहरों के आसमान गिरे
बम और बारूद गिरे
भाले और तलवारें गिरीं
गाँव का बूढ़ा बरगद गिरा
एक चिड़िया का कच्चा घोंसला गिरा
गाढ़ा गरम ख़ून गिरा
गंगा-जमुनी तहज़ीब गिरी
नेता-परेता गिरे, सियासत गिरी
और इस तरह एक के बाद एक नामालूम कितना कुछ
भरभरा कर गिरता ही चला गया
फिर गाँव के मचान गिरे
शहरों के आसमान गिरे
बम और बारूद गिरे
भाले और तलवारें गिरीं
गाँव का बूढ़ा बरगद गिरा
एक चिड़िया का कच्चा घोंसला गिरा
गाढ़ा गरम ख़ून गिरा
गंगा-जमुनी तहज़ीब गिरी
नेता-परेता गिरे, सियासत गिरी
और इस तरह एक के बाद एक नामालूम कितना कुछ
भरभरा कर गिरता ही चला गया
"जो गिरा था वो शायद एक इमारत से काफ़ी बड़ा था.."
कहते-कहते अब्बा की आवाज़ भर्राती है
और गला रुँधने लगता है
इस बार पासबाँ नहीं मिले काबे को सनमख़ाने से
और एक सदियों से मुसलसल खड़ी मस्जिद
देखते-देखते मलबे का ढेर बनती चली गयी
कहते-कहते अब्बा की आवाज़ भर्राती है
और गला रुँधने लगता है
इस बार पासबाँ नहीं मिले काबे को सनमख़ाने से
और एक सदियों से मुसलसल खड़ी मस्जिद
देखते-देखते मलबे का ढेर बनती चली गयी
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर
हाँ, उसी हिन्द पर
जिसकी सरज़मीं से मीर-ए-अरब को ठंडी हवाएँ आती थीं
वे कहाँ हैं ?
हाँ, उसी हिन्द पर
जिसकी सरज़मीं से मीर-ए-अरब को ठंडी हवाएँ आती थीं
वे कहाँ हैं ?
मैं उनसे पूछना चाहता हूँ
कि और कितने सालों तक गिरती रहेगी
ये नामुराद मस्जिद
जिसका नाम बाबरी मस्जिद है
और जो मेरे गाँव में नहीं
बल्कि दूर अयोध्या में है
कि और कितने सालों तक गिरती रहेगी
ये नामुराद मस्जिद
जिसका नाम बाबरी मस्जिद है
और जो मेरे गाँव में नहीं
बल्कि दूर अयोध्या में है
मेरे मुल्क़ के रहबरों
और ज़िंदा बाशिंदों
बतलाओ मुझे
कि वो क्या चीज़ है
जो इस मुल्क़ के हर मुसलमान के भीतर
एक ख़फ़ीफ़ आवाज़ में न जाने कितने बरसों से
मुसलसल गिर रही है
जिसके ध्वंस की आवाज़ अब सिर्फ़ स्वप्न में ही सुनाई देती है !
और ज़िंदा बाशिंदों
बतलाओ मुझे
कि वो क्या चीज़ है
जो इस मुल्क़ के हर मुसलमान के भीतर
एक ख़फ़ीफ़ आवाज़ में न जाने कितने बरसों से
मुसलसल गिर रही है
जिसके ध्वंस की आवाज़ अब सिर्फ़ स्वप्न में ही सुनाई देती है !
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