गुदा के द्वारे बैठी हिंदी की कविता बकौल
अम्बर पाण्डेय और मोनिका कुमार
अम्बर पांडेय और मोनिका कुमार की ये कविताएं पढ़िए और बताईये कि कविता, भाषा, कथ्य, शिल्प, मुद्दें और सबसे ज्यादा शुचिता और सन्देश क्या है
इस वेब साईट, पत्रिका और पत्रिका के लोगों की समझ पर भी प्रकाश डालें तो और स्पष्टता आयेगी
यह मैं नही कई लोगों ने पूछा है , पहले आप बताइए फिर मैं बताऊंगा कि मुझे क्या लगा पढ़कर
एक बात जरूर कहूँगा कि कुछ लोग "स्कैंडल क्रिएट" करने के लिए भी किसी हद तक जाते है और इसका इलाज सिर्फ उपेक्षा है - घृणा और चुहलबाजी और चर्चा नही है , ये सिर्फ अम्बर और मोनिका की बात नही है हिंदी में लाखों में कुंठित कवि है जो रोज अपनी या दूसरों की कविताओं को चैंपकर लड़कियों के फोटो लगाकर पोस्टर बनाते है - ठेलते है और अपनी हवस और अपराध बोध का सार्वजनिक प्रदर्शन करते है यही नही उन्हें वाट्स एप के समूहों में ग्रुप आईकॉन बनाने से लेकर देर रात तक द्विअर्थी शब्दों में ठिठोली करने से गुरेज़ भी नही तो फिर बदनाम करने का ठीकरा इन दो पर ही क्यो, इन कम्बख्तों को भी नंगा किया जाये जो चुन चुनके देश भर की औरतों को इकट्ठा कर समूह में जोड़ते है जिसकी समझ भले कुछ ना हो या पापड़ बड़ी या ननद भौजाई या तीस पैंतीस पर कविताएं बघारती हो
दो कौड़ी की समझ वाली ये औरतें उर्फ कवि बनी और रोज लाइक्स और कमेंट्स के लिए कुछ भी कूड़ा कचरा लिखने वाली भी दिल्ली से लेकर दूर दराज तक उत्तर मेनोपॉज संसार मे जी रही शाब्दिक सुख लेने में कोई कम नही - हिंदी का जगत भरा हुआ है इनसे
मोनिका का तो नही मालूम पर अम्बर को यह सब लिखवाने वाली ऐसी ही कुछ महिलाएं है जिन्होंने उसे इतना चने के झाड़ पर चढ़ाया की वह "यह" भी लिख बैठा फिर भी अभी यह लिखा कविता में आता है और उसके होने के अपने तर्क और विचार हो सकते है - असहमतियां भी पर गुदावर्ष घोषित करवाने की मांग करने वाली मोनिका कुमार पर सवाल नही है कोई क्योकि मुआमला जेंडर का हो जाएगा
और अपनी समझ पर भी सवाल उठाइये और पूछिये कि कहानी कविता की जमीन पर आपकी अपनी क्या औकात है - क्या इतनी भी है कि मलाई चाटने रज़ा फाउंडेशन तक जा सकते है
वे कविता में शिल्प, रवानगी, तुकांत - अतुकांत की बात करेंगें
तुम 2018 से लेकर भारत भूषण अग्रवाल, और नोबल पुरस्कार में कविता के गुदाद्वार पर ही अड़े रहना
हिंदी के बड़े कवि आग्नेय जब साक्षात्कार से गये तो बहुत दिनों तक खबर नही थी, यहां वहां घूम घामकर लौटें तो सदानीरा नामक महंगी पत्रिका शुरू की जिसमे कविताओं के बदले अनुवाद छपते थे बेसिर पैर की कविताएं विश्व कवियों की और उन्हें अनुवाद करने वाले और भी घटिया गए गुजरें
अभी ताजा मामला इस सदानीरा के वेब एडिशन में "2018 को गुदावर्ष घोषित कर दो" जैसी कविताएं छापी है जिन पर विवाद है - एक कविताओं के शीर्षक और कथ्य को लेकर, दूसरा दोनों कवियों को लेकर जिनमे छद्म नामों से लिखकर प्रसिद्ध हुए और अपने नाम से भी लिखने वाले Ammber Pandey और मोनिका कुमार के प्रति पूर्वाग्रह को लेकर
अम्बर इधर हिंदी में तेजी से उभरे कवि है जो अपने तरह का लिखते है - धर्म, पेड़, अनुष्ठानों, बंगाली से लेकर आदिवासी संस्कृति उनकी कविताओं के विषय रहें है. मोनिका कुमार कौन है - मैं नही जानता , इसलिए कमेंट नही - पर अम्बर को जानता हूँ इसलिए यही कहूंगा कि ये कोई अनोखी कविता अम्बर के लिए नहीं है , पर यह भी बात है कि सदानीरा के जिस तथाकथित सम्पादक ने ये कविताएं छापी है - उसने 'अम्बर की कविताएं' छापी - यह मेरे लिए आश्चर्य की बात है और अचरज भी !!! क्या सेटिंग है और षड्यंत्र की कि वो अम्बर को छाप रहा है तिस पर से वाणी प्रकाशन से अम्बर की किताब आने की घोषणा भी एक विस्फोटक खबर ही है मेरे लिए - क्योकि विदुषी स्व द्रोपदी सिंघाड़ से लेकर स्व तोताबाला और स्वयम अम्बर की कविताओं को पुस्तकाकार में लाने के लिए मैं, आशुतोष, चन्दन , शशांक, मनीषा जैन से लेकर कई लोग बरसों से पीछे पड़े है पर वो हमेशा यह कहकर टाल जाता है कि एक पेड़ कटेगा और किताब का क्या फायदा
ये कविताएं चुभ रही है स्वाभाविक है पर जो महिला कवि इन्हें पढ़ने से बचे रहो टाईप सलाह दे रही है - वे भी घर से भागी लड़कियां , पन्द्रह - बीस साल की किशोरियों के स्तनपान से लेकर चालीस साला औरतों के रसोई, नाखून में आटा, माहवारी और सैंतालीस साला औरतों के मेनोपॉज पर भी तो लिखकर यहां वहां चैंपती रहती है और ईनाम और यश के लिए डोरे डालती रहती है साथ ही हमारे हिंदी के मर्द पुरुष कवि खीं खीं कर दुलारते सराहते रहते है
इन कविताओं में जो प्रतीक और बिम्ब इस्तेमाल किये गए है वे इस भयावह समय को दर्ज कर रहें है और गुदा को जिस खूबसूरती से पूरे परिदृश्य और फलक को प्रतिबिंबित कर रहें है उस पर कोई गौर नहीं कर रहा अफसोस यह है कि अभिदा, व्यंजना और लक्षणा के बीच रहने वाले कवियों की मोटी बुद्धि क्यों जड़वत हो गई है और मजे से सब पढ़ चुके और शेयर भी किया , सेव भी कर ली , पर उँगली कटाकर, शुचिता की दुहाई देकर अब नैतिक बन रहे है
मजाक और नैतिकता के द्वंद में फंसे , लोकप्रियता को तरस रहें ये ब्रीड कसमसा रही है और अब कुल मिलाकर उसी गुदा में फंसकर रह गये है - जहां अम्बर और मोनिका इन्हें अंततोगत्वा घेरकर ले जाना चाहते थे और बदबू के बीच बजबजाते हुए छोड़ना चाहते थे - ठीक वही ये सब पहुंच गए है , द्वैत और अद्वैत का भेद मिट गया है और अब बात कविता पर नहीं कुंठा और जलन की है , ना लिख पाने का , नई भाषा ना सीख पाने का, कविता ना सध पाने का अफसोस भी है इन्हें और ये जायज - नाजायज गुस्सा निकल रहा है संगठित रूप से
किसी ने मुझे यह भी कहा कि "अम्बर को इस वर्ष भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार ना मिल पाने का भी अफसोस है और यह उसी का प्रतिफल है जो पूरी हिंदी कविता के संसार को वह एक गुदा में लाकर बन्द कर देता है" हो सकता है सही हो यह बात कि लो हिंदी के महानतम लोगों यह रही तुम्हारी कविता, पर क्या इससे कुछ हल निकलेगा - कवि तो लिखेगा पर यदि आग्नेय जैसे मंजे कवि अपनी बागडोर किसी के हाथ मे देंगे और सम्पादक के अधिकार डेलीगेट कर देंगे तो आगे आपको और भी अंडाणु, शुक्राणुओं, यौन से भरी पूरी कविताएं मिलेंगी इसके लिए तैयार रहिये
मुझे तो लगता है सम्पूर्ण हिंदी जगत इस समय गुदा के द्वारे बैठा है और बदबू एवम गन्दगी को एक दूसरे पर फेंकते हुए फाग की मस्ती में झूम रहा है
अंबर पांडेय की कविताएँ
मेरी प्रेमिका के गुदास्थान का विवरण
रिक्त स्थान की पूर्ति के लिए मैं इसे नहीं लिखना चाहता। अपनी प्रेमिका को यह लिखकर मैं अचंभित भी नहीं करना चाहता क्योंकि अचंभा कोई ऐसा मनोभाव नहीं जिस पर प्रेमी का एकाधिकार हो—जिस तरह उसके गुदास्थान पर मेरा अधिकार है। साहित्य के आलोचकों को चौंका देने के लिए भी मैं यह नहीं लिखना चाहता। गुदास्थान पर लिखने में समस्याएँ भी बहुत हैं, ख़ासतौर पर तब जब इसे लिखने वाला मुझ जैसा कोई धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्ति हो। अधिकतर बिंब खाद्य पदार्थ या धर्म संबंधित होने के कारण मेरे लिए व्यर्थ हैं।
जिसकी जिह्वा काट ली गई हो, जिसके दाँत तोड़ दिए गए हों… वैसे मुख से गुदा की उपमा दी जा सकती है, किंतु वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए तब यह कहना पड़ेगा कि देश के बहुसंख्य लोग मुख के स्थान पर गुदा लिए हुए अपना जीवन काट रहे हैं। तब विषय गुदास्थान न होकर राजनीतिक हो जाएगा जिससे मुझे बचना है।
उसके गुदोष्ठ संसार की सबसे कोमल वस्तु हैं और स्पर्श से किंचित संकुचित और फिर फैल जाने वाले—श्याम, अरुण और हरित वर्ण। मनुष्य जाति गुदास्थान के प्रति प्राचीनकाल से ही बहुत संवेदनहीन रही है। वायु ने ही इसके प्रति हमेशा संवेदना दिखाई है। उसके गुदास्थान का व्यक्तित्व उसकी नाक की तरह ही अभिमानी, लेकिन भीतर से भावुक है और जिस तरह यह गुदाद्वार यंत्रणा का स्वागत करता है, उससे यह ज्ञात होता है कि इसकी यंत्रणा अन्य सांसारिक यंत्रणाओं से नितांत भिन्न है।
गुदा का अपमान करना संभव नहीं
वह यूरोपियन पुनर्जागरण काल के चित्र-सी
स्थिर और नग्न थी।
उसने कहा, ‘‘मुझे अपमानित करो जितना मध्यकाल में स्त्रियों को अपमानित किया जाता था, जितना दूर भारतवर्ष में अब भी स्त्रियों को अपमानित किया जाता है, जितना गुदा का अपमान किया जाता है संसार की प्रत्येक भाषा में।”
अपमान की इच्छा
अपमान से अपमान को घटा देती है।
‘‘गुदा का अपमान
करना संभव नहीं
क्योंकि गुदा का अपमान
गुदा को कंटकाकीर्ण कर देने वाले
आनंद से भर देता है’’
ऐसे ही जब उसने
अपमानित होने की इच्छा की
उसे अपमानित करने का
आनंद जाता रहा।
गुदा से स्त्री की उपमा देने पर भी उसे अपमानित नहीं कर सका।
माँगे गए अपमान को
चुंबन की तरह देना पड़ा।
बहुत समय तक अपमानित होते-होते
मनुष्य में भी गुदा जैसा लचीलापन उत्पन्न हो जाता है
मार मनमोहक लगने लगती है।
गुदा में अँगुली डालकर तुम क्या जानना चाहते हो
क्या
जानना
चाहते
हो
तुम्हारे प्रेम में मेरी भूख नष्ट हो गई?
निद्रा के विषय में गुदा मौन है
या किसी नष्टप्रायः, पुरातन छंद को
पुनर्जीवित करके तुम मेरी गुदा की उपमा
मेरे ही कमलनयनों से दोगे
हमारे आलिंगन के बहुत बीच में आए मेरे ये उन्नत स्तन
ये मेरे स्त्री होने के सबसे पुरुषोचित साक्ष्य
जिनमें जाने का मार्ग नहीं, जो अपने दसों ओर से
बंद हैं ऐसे स्तन, जो पुरुष को इतने प्रिय हैं
क्योंकि पुरुषों जैसे ही हैं
स्पर्श को लेकर
किसी सद्यप्रसूता मादाव्याघ्र की भाँति चौकन्नी
जिसमें कितना ही खोजो
जहाँ पहुँचने के कितने ही तुम प्रयत्न करो
नहीं मिलेगा तुम्हें संसार का उद्गम
यहाँ तक मेरे केवल हाथ जाते हैं
दृष्टि नहीं इसलिए यह सृष्टि से विलग है
कमल की तरह इसे भी ब्रह्मा ने नहीं रचा
अंतोनिओ ग्राम्शी की कविता
उन्होंने मुझ लोर्का बना दिया
इसलिए नहीं कि मैं कुछ लिखने का प्रयास किया करता था
इसलिए कि वे मुझे मार सकें—
गुदा पर गोली
उन्होंने कहा कि मेरी भाषा नक़ली है
क्योंकि कविता में मैं स्त्री होने का प्रयास
कविता में मैं आदिवासी होने का प्रयास
कविता में मैं मुसलमान होने का प्रयास कर रहा था
ऐसा करके वे बन गए आलोचक, बहुत प्रयास
किए उन्होंने मुझे चुप कराने के और जब मैं
चुप नहीं हुआ तो वे हो गए चुप
जैसे अन्यायी हो जाता अंतत:
जैसे राह चलते मँगते की कबीरबानी सुनकर
भीतर रियाज़ करती शास्त्रीय गायिका मौन हो जाती है
घृणा से भर उठता है उसका कंठ, उसकी शिराएँ
उनकी किताबें छप चुकी थीं
उन्होंने पुरस्कार आपस में बाँट लिए थे
जैसे गिरोह चोरी का धन बाँट लेता है
वे सरकारी अनुदान प्राप्त पत्रिकाओं में
सरकार के विरोध में लिखकर
सरकार की उचित सेवा कर रहे थे
उनका वामपंथ संगठित था कलकत्ते की पुरानी पेढ़ियों की तरह
जहाँ पर नाक रगड़े बिना कोई कवि नहीं हो सकता था
उनके पास भाषा थी, उनके पास
मृतकों की लंबी सूची थी जिस पर उन्हें
रास्ता पार करते नहीं बल्कि मंच पर
कविता पढ़ते रोना आ जाता था
मेरे पास मेरे जीवन को छोड़ कुछ नहीं था
जिसे ख़त्म करने का उनका कोई इरादा नहीं था
क्योंकि जीवन अपने आप चुक जाता है जैसे चिमनी में
नेह चुक जाता है रात्रिभर अंधकार से लड़ने के बाद
और कविता भी चाहे मुक्तिबोध की कविताओं की तरह
लंबी हो, आख़िर ख़त्म हो ही जाती है
सत्ता का विरोध करते-करते
उन्हें पता ही नहीं चला कि वे विपक्षी पार्टी हो गए हैं
वे उतने सजग नहीं थे जितने होते हैं कवि
जितने होते हैं आलोचक
वे रो नहीं रहे थे, वे रुआँसी आवाज़ में गुनगुना रहे थे—
एक कवि को गुदा पर गोली मारने का शोकगीत
वे भूल गए थे कि कवि अभी तक मरा नहीं है।
*
मोनिका कुमार
मोनिका कुमार की कविताएँ
[एक]
जो जीवित है वह अपनी देह में केवल दिल लिए नहीं घूमता-भटकता,
कि कोई हो जो उसके दिल को प्यार करे
उसकी देह में गुदास्थान भी है
प्रेम पाने के लिए आतुर और प्रेम का अधिकारी,
दिल का अपमान करता है कोई
तो गुदा पीड़ा से सिकुड़ जाती है
गुदा का सुख दुःख भी अटूट जुड़ा हुआ है दिल से,
कभी ऐसा नहीं हुआ दुनिया में
किसी ने किया हो दिल से प्रेम
और गुदा गौरवान्वित न हुई हो उस प्रेम में।
गुदा से प्रेम करने का अर्थ है
मनुष्य की गहराई से प्रेम करना,
उसके अँधेरों से प्रेम करना
उसके दुःख से प्रेम करना
गुदा से प्रेम करने का अर्थ है,
दुःख में केवल दुखी नहीं होना
बल्कि प्रेमी के दुःख में प्रवेश करना और उसे सुखलोक में ले जाना।
प्रेमी की निष्ठा का प्रमाण माँगना हो तो
केवल यह मत देखना कि होंठ कैसे तप जाते हैं प्रेमी के दर्शन से
दिल की धड़कन कितनी बढ़ जाती है प्रेमी के स्पर्श से
प्रेमी के लक्षणों का जब तुम करो अन्वेषण
गुदास्थान की राय भी शुमार करना
कि यह प्रेमी गुदा का मर्मज्ञ होगा या नहीं
[दो]
जीवन बीत रहा है
और अभी तक मैं गुदास्थान के चरित्र से अनजान हूँ,
अनभिज्ञता की ऐसी स्थिति में
क्या मुख लेकर जाऊँगी स्वर्ग में,
द्वारपाल पूछेंगे गुदास्थान के रहस्य
और मैं उलझी हुई व्याख्याओं से,
उनका समय और अपना भविष्य नष्ट करूँगी।
जीवन बीत रहा है
और मैं अभी भी टाल रही हूँ जीवन के वास्तविक प्रश्न,
नितंबों को अभी तक नहीं पूरी तरह अपनाया मैंने
युगों से गुदास्थान ने सहन की है अवहेलना,
आने वाले युगों में गुदास्थान की न्यायोचित प्रशंसा हो
तो उम्मीद बँधे,
मनुष्य समझदार हो रहा है
अपनी गहराइयों से अब उसे इनकार नहीं है
वर्ष 2018 को गुदावर्ष घोषित कर दो तो यक़ीन आए
अपने रहस्यों से मनुष्य अब शर्मसार नहीं है।
जीवन बीत रहा है
लेकिन भ्रम नहीं बीत रहे,
सामने वाले की नज़र में क्या है
उसे अभी आँखों से परखती हूँ,
गुदास्थान के दर्शन को अभी आत्मसात नहीं किया है।
[तीन]
मेरा गुदास्थान आतंकित और सहमा हुआ है,
वह सदमे और शोक में निराश पड़ा रहता है।
जीवन से पस्त होकर
मैनें बहुत बार कहा है कि हाथ-पैर सलामत हैं तो सब कुछ बचा हुआ है,
वंचना को सहनीय बनाने के लिए भी बहुत बार कहा है
ईश्वर ने हाथ पैर दिए हैं तो सब कुछ दिया है,
ईश्वर के प्रति कृतज्ञता के क्षणों में
गुदास्थान के निमित्त हमेशा उपेक्षा और चुप्पी बरती है।
सत्य जबकि यह है कि
मेरा अस्तित्व अब गुदास्थान में सिमट चुका है—
आतंकित, सहमा हुआ और शोकग्रस्त।
मन की बात कहने से प्रेम बढ़ते हुए नहीं देखा
मन की बात कहने से अपार घृणा अवश्य बढ़ जाती है।
मुझ में अब और घृणा सहने की हिम्मत नहीं है,
मेरा अब और संकुचन संभव नहीं
मेरा अस्तित्व अब गुदास्थान में सिमट चुका है।
गुदास्थान अस्तिव को मल की तरह समेट कर रखता है,
अस्तित्व जो अब केवल एकांत में क्रियाशील और सहज होता है।
चिता पर जब मेरा शव लिटा दिया जाए,
तो कपाल पर प्रहार करने से किंचित मत घबराना
अपराधबोध से ग्रस्त मत होना,
कपाल मृत्यु से पूर्व भी परित्यक्त और मुक्त था,
चिता पर पड़े मेरे कपाल पर प्रहार करते हुए प्रार्थना करना
मेरा बिंदुतुल्य अस्तित्व गुदास्थान से स्खलित हो जाए।
[चार]
सिर्फ़ माँ ने स्वीकार किया
कि मेरा गुदास्थान भी मैं हूँ।
उसने धोया-पोंछा
लाल हुआ तो तेल भी लगाया
माँ ने गुदा को मेरे हृदय से कम ज़रूरी नहीं समझा,
मुझे गर्भ में रखकर,
उसने रुदन करते हुए शिशु के स्वस्थ होने की प्रार्थना की
कई बार देवता केवल उच्चारित शब्दों जितना ही वर देते हैं
माँ ने शिशु के स्वस्थ हाथ-पैर और स्वस्थ हृदय की बजाय स्वस्थ शिशु का वर माँगा,
प्रार्थना निपुण मेरी माँ ने इस प्रकार मेरे स्वस्थ गुदास्थान का वर माँग लिया।
आर्द्र भाव से उसने मुझे रोज़ नहलाया-सजाया
मेरी माँ ने मेरे हृदय और गुदास्थान में कोई भेदभाव नहीं किया।
माँ की गोद के बाहर सभी कुछ खंडित है
माँ की गोद के बाहर गुदा को अपमान ही अपमान मिला,
हृदय चाहिए गुदा नहीं चाहिए
रोशनी चाहिए अँधेरा नहीं चाहिए
सहमति चाहिए असहमति नहीं चाहिए
चुंबन चाहिए पीड़ा नहीं चाहिए
प्रेमी चाहते हैं कि प्रेमिका उन्हें अपनी माँ से अधिक प्रेम करे,
प्रेमिका भी चाहती है प्रेमी को सबसे अधिक प्रेम मिले
लेकिन गुदा को प्रेम किए बग़ैर प्रेम खंडित रहने के लिए अभिशप्त रहा।
प्रेमिकाएँ बिछती रहीं हर रोज़ पलंगों पर ख़ुशी से
पर बंद आँखों से बाट जोहती रही उन प्रेमियों की,
जो गुदास्थान को उर्फ़ उसके अँधेरों को
माँ से भी अधिक प्रेम करें।
***
अंबर पांडेय और मोनिका कुमार दोनों ही हिंदी की नई नस्ल से वाबस्ता कवि-लेखक हैं। इनके पहले कविता-संग्रह इस वर्ष ‘वाणी प्रकाशन’ से आ रहे हैं। इनसे क्रमशःammberpandey@gmail.com औरturtle.walks@gmail.com पर बात की जा सकती है। इस प्रस्तुति की फीचर इमेज ‘द गार्जियन’ से साभार।
Link is http://www.sadaneera.com/hindi-poems-of-amber-pandey-and-monika-kumar/
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