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Posts between 13 to 16 April 2018 हिंदी के संकट

हिन्दी के संकट खरी खरी में 

हिंदी में नैतिकता का बहुत बड़ा संकट है। हिंदी का लेखक बेहद दब्बू, कायर और नपुंसक मानसिकता का है वह अपने साथ अपने भीतर के पचास साठ चेहरे लेकर चलता है और हर जगह और मौकों पर चेहरों को बदलता रहता है मसलन वह सरकार के खिलाफ कहानियां लिखेगा, कविताएं लिखेगा अपनी सरकारी नौकरी बचाएगा , वह अमीरों के खिलाफ लिखेगा और मौका मिलने पर उन्ही के टुकड़ों पर पलता रहेेगा , समय आने पर उनके रुपयों से हवाई यात्राएं कर आएगा, वह अपरिग्रह की बात करेगा और कंधे पर लटका किसी कार्यशाला का झोला किसी को नहीं देगा - यहां तक कि दूसरी जगह से उठाकर लाए मुफ्त के पेन, पेंसिल, लेटर हेड और बाथरूम के साबुन ऐसे छुपा कर रखेगा जैसे कोई नोबल की प्रशस्ति अपने कांख में दबा कर रखता है।
नैतिक रुप से भयानक गिरे हुए यह लोग महिलाओं की बराबरी की बात करेंगे परंतु इनकी पतलून महिलाओं का नाम सुनकर ही खिसक जाती है और बाकी संबंध निभाने के लिए तो यह लोग हर जगह खिसियाकर हंस देते हैं और महिलाओं के मामलों में इतने उदात्त हो जाते हैं कि मैले मन की भावनाये मन के कोनो से बहने लगती हैं, अपना घर छोड़ दूसरों की थाली में ताकते - झांकते, मुंह मारते और ज्ञान की पिटारी महिलाओं के लिए खुली रखने के साथ यह उनके सर्वोच्च हितेषी भी बन जाते हैं।
साहित्य में यह बहुत सामान्य हैं जिन मित्रों को यह पाखंडी कहते हैं, मजाक उड़ाते हैं , उनके बारे में गलत ख्याल रखते हैं और यहां वहां बयानबाजी कर उल्टियां करते करते हैं - बाज दफ़ा उन्हीं के टुकड़ों पर पल रहे यह लोग यह भूल जाते हैं कि दोस्ती में खंजर पीछे जरूर होता है पर उसकी नोक आंखों तक नजर आती है।
बहरहाल हिंदी कहानी - कविता - उपन्यास और आलोचना का लोक नैतिकता के संकट से जूझ रहा है । एक और देश में विषाक्त माहौल है वहीं दूसरी ओर हिंदी के लेखक इस समय जिस अश्लीलता की हद तक जाकर ठिठोली कर रहे हैं वह बेहद शर्मनाक है। यदि आप को इस बात का सबूत चाहिए तो किसी भी साहित्यिक हिंदी वााट्स एप के किसी भी ग्रुप में चले जाइए और कविता से लेकर फिल्म आलोचना के चोरी चमारी के माल और यहां वहां से कॉपी पेस्ट किए हुए मटेरियल पर इन ढपोरशंखियों का बगुला आसन देखिए और सुबह से देर रात तक सारे काम धाम छोड़कर बैठे है हिंदी के यह अग्रदूत और विशुद्ध ठिलवे बाजी में व्यस्त है और इन्हें कोई लज्जा भी नहीं कि देश में कोई 8 बरस की बेटी बलात्कार से मर जाती है - इन्हें ना नौकरी पर जाना है और ना कुछ काम करना है - बंधी बंधाई तनख्वाह हर माह एक तारीख को मिल जाएगी।
जो लोग ईमानदारी से नौकरी नही कर सकते, सम्बन्धों में ईमानदारी और खुलापन नही रख सकते वे जब नैतिक शिक्षा की कविता, कहानियां या उपन्यास परोसते है और पुरस्कारों की जुगाड़ में रहते है उनसे क्या उम्मीद की जाए कि वे या उनका लिखा कुछ समाज को राह दिखायेगा ! यदि कोई इनके कंफर्ट जोन में घुसेगा तो यह कविता का चोगा पहन कर मीडिया के दलालों को लेकर यहां वहां हल्ला मचाएंगे और दबाव बनाकर अपने गरीब होने, हाथ पैर टूटने या पारिवारिक बीमारियों का हवाला देकर छूट जाएंगे और रात को दो पैग लगाकर कमसिन बालाओं के साथ अपने दुष्कर्मों में लीन हो जाएंगे। साल भर तक पुरस्कार और सेमीनार की बाट जोहते ये लोग समाज को ज्ञान बांटने का धर्म चलाते हुए अपने आप को मठाधीश बताते हैं ।
एक बार इस आलेख के बरक्स अपने आसपास नजर दौड़ाऐंगे तो आपको हर शाख पे अति आत्ममुग्ध नजर आएंगे।
सबकी जय जय !!!
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लम्बे समय तक सरकारी और गैर सरकारी सेवा में रहा तो 32 वर्षों का अनुभव यह है कि हम अरबों रुपये क्षमता वृद्धि यानि प्रशिक्षणों में लगाते है पर कुल मिलाकर ये सब व्यर्थ हो जाता है।
इससे व्यक्ति, संस्थाओं के चरित्र में मूलभूत फर्क नही आता बस प्रशिक्षण लेने और देने वालों की पौ बारह होती रहती है।
सब घूमघाम कर मामला खत्म हो जाता है वरना प्रशिक्षण तो भारत मे इतने हुए है और रोज़ हो रहे है कि देश आज दुनिया का वास्तविक यूटोपिया होता कसम से।
प्रशिक्षणों के बाद मैंने देखा है कि लोग ज्यादा शातिर और मक्कार हो जाते है क्योंकि आपने उन्हें काम ना करने के टूल्स दे दिए है।
गन्दा है पर धंधा है।
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देवास नगर निगम ने मच्छरों के लिए फॉगिंग मशीनों की व्यवस्था की थी पर मजाल कि किसी को नजर आ जाये शहर में मच्छर भयानक है और नगरनिगम भी सो रहा है और मलेरिया उन्मूलन विभाग भी।
इतना निष्क्रिय कभी कोई विभाग रहा नही कि मच्छर मर्द बनकर पूरे शहर और विभागों को नामर्द बना दें। पूरे एपिसोड में मच्छर ही एक मात्र अमिताभ बच्चन की तरह मर्द नजर आता है मुझे जिसे कोई हरा नही पा रहा।
निश्चित ही हम सबकी जिम्मेदारी ज्यादा बड़ी है इनसे पर नगर निगम ने पूरे शहर जो खोदकर रखा था और ठेकेदार ने तदर्थ रूप से काम कर दिया, अब जो गन्दगी पड़ी है उसका मालिक कौन साथ ही स्वच्छ भारत अभियान का ठेका सर्वेक्षण तक ही था उसके बाद भारतीय चरित्र यानी आलस सबपर तारी हो गया तो कोई क्या करें ?
जनता अभिशप्त है - हिट से लेकर ऑल आउट और मच्छर अगरबत्ती लगाकर भी ये मच्छर भाग नही रहें और इनकी वजह से सांस की दिक्कत अलग हो रही है ।
मीडिया के साथी क्या सोते नगर निगम और कही गुप्त खजाने में रखी फॉगिंग मशीन के इस्तेमाल के लिए लिखेंगे ?
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भ्रष्टाचार को कम करने के लिए 500 एवम 1000 का नोट बन्द किया था
अब 2000 के बहाने पूंजी जमा हो रही है और कालेधन के पहाड़ बन रहे है मुद्रा और अर्थ शास्त्र की समझ किसे है इस सरकार में येल फेलो को, बगैर डिग्री वाले को या बैकडोर इंट्री जेटली को
कुतर्कों की कमी नही है। एटीएम खाली और रुपया गायब है, बैंक ही कंगाल हो गए तो क्या बात करेंगे और किस मुंह से
एक भी काम ढ़ंग का किया हो तो बताओ और ऊपर से मेरी एक मित्र वत्सला कह रही है कि कॉमनवेल्थ खेलों में स्वर्ण पदक भी इस सरकार की वजह से आये है यानी ज्ञानान्ध लोग खिलाड़ियों की मेहनत का श्रेय भी खुद ले रहे है अफसोस है कि ऐसे ऐसे मूर्ख भरे पड़े है इस भारत मे। अरे बलात्कारियों का श्रेय भी 56 इंची सीना ठोककर लो ना फिर
जनता को जब तक जूते नही पड़ते सुधरती नही
लाइये इन ढपोर शंखी अर्थ शास्त्रियों को फिर से 2019 में तो आपको बाजार में जिंदा रहने लायक नही रखेंगे
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एक ही फ़िल्म में मंजे हुए कलाकार वो भी लगभग सब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के।
नक्सलवाद की आहट, कविता कहानी और कला की दुनिया मे बदलाव की आहट और व्यक्ति की भूमिका क्या हो और इस सबके बीच व्यक्तिगत कुंठा, झगड़े, अस्मिता के प्रश्न महिलाओं की भागीदारी और फिर अंत मे मीडिया इतना सब समेटने का काम एक बेहद जमीनी आदमी ही कर सकता था।
1984 में महेश एलकुंचवार की कहानी और बहुत बारीकी से रची फ़िल्म "पार्टी" सर्वकालिक और हमेशा समकालीन रहने वाली फिल्म है।
इसे बार बार देखना चाहिए रोहिणी हट्टनगड़ी, विजया मेहता, ओमपुरी , मनोहर सिंह, बेंजामिन गिलानी, इला अरुण, सोनी राजदान, अम्बरीष पूरी, नसरुद्दीन शाह , जयंत कृपलानी, अनिल भंडारी और दीपा साही के लिए ।
राष्ट्रीय फ़िल्म विकास निगम द्वारा बनाई गई मात्र 55 लाख के बजट में बनी इस फ़िल्म ने 5.5 करोड़ का व्यवसाय किया था। समानांतर फिल्मों के दौर की यह अदभुत फ़िल्म है ।
एक बार फिर देखिए गोविंद निहलानी जैसे बहुआयामी निदेशक का काम जरूर देखिये।
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"भुवन शोम"
उत्पल दत्त मतलब कमाल का किरदार
अभिनय, मानवता, आदर्श की चरम स्थिति और सीमित संसाधन में बनी अप्रतिम फ़िल्म
कभी देखिये जाले साफ होंगे फ़िल्म देखने का नजरिया बदल जायेगा
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सीख के लिए आखिरी दो पैरे पढ़ियेगा बाकी तो सब ज्ञान ही है।
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महाभारत में कर्ण ने श्री कृष्ण से पूछा "मेरी माँ ने मुझे जन्मते ही त्याग दिया, क्या ये मेरा अपराध था कि मेरा जन्म एक अवैध बच्चे के रूप में हुआ?
द्रोणाचार्य ने मुझे शिक्षा देने से मना कर दिया क्योंकि वो मुझे क्षत्रीय नही मानते थे, क्या ये मेरा कसूर था?
परशुराम जी ने मुझे शिक्षा दी साथ ये शाप भी दिया कि मैं अपनी विद्या भूल जाऊंगा क्योंकि वो मुझे क्षत्रीय समझते थे।
भूलवश एक गौ मेरे तीर के रास्ते मे आकर मर गयी और मुझे गौ वध का शाप मिला?

द्रौपदी के स्वयंवर में मुझे अपमानित किया गया, क्योंकि मुझे किसी राजघराने का कुलीन व्यक्ति नही समझा गया।
यहां तक कि मेरी माता कुंती ने भी मुझे अपना पुत्र होने का सच अपने दूसरे पुत्रों की रक्षा के लिए स्वीकारा।
मुझे जो कुछ मिला दुर्योधन की दया स्वरूप मिला!
तो क्या ये गलत है कि मैं दुर्योधन के प्रति अपनी वफादारी रखता हूँ..??

श्री कृष्ण मंद मंद मुस्कुराते हुए बोले-
कर्ण, मेरा जन्म जेल में हुआ था, मेरे पैदा होने से पहले मेरी मृत्यु मेरा इंतज़ार कर रही थी। जिस रात मेरा जन्म हुआ उसी रात मुझे मेरे माता-पिता से अलग होना पड़ा। तुम्हारा बचपन रथों की धमक, घोड़ों की हिनहिनाहट और तीर कमानों के साये में गुज़रा।
मैने गायों को चराया और गोबर को उठाया।
जब मैं चल भी नही पाता था तो मेरे ऊपर प्राणघातक हमले होते रहे।
कोई सेना नही, कोई शिक्षा नही, कोई गुरुकुल नही, कोई महल नही, मेरे मामा ने मुझे अपना सबसे बड़ा शत्रु समझा।
जब तुम सब अपनी वीरता के लिए अपने गुरु व समाज से प्रशंसा पाते थे उस समय मेरे पास शिक्षा भी नही थी। बड़े होने पर मुझे ऋषि सांदीपनि के आश्रम में जाने का अवसर मिला।
तुम्हे अपनी पसंद की लड़की से विवाह का अवसर मिला मुझे तो वो भी नही मिली जो मेरी आत्मा में बसती थी।
मुझे बहुत से विवाह राजनैतिक कारणों से या उन स्त्रियों से करने पड़े जिन्हें मैंने राक्षसों से छुड़ाया था!
जरासंध के प्रकोप के कारण मुझे अपने परिवार को यमुना से ले जाकर सुदूर प्रान्त मे समुद्र के किनारे बसाना पड़ा। इस वजह से दुनिया ने मुझे कायर कहा। कई जगह मुझे छल कपटी दुष्ट शैतान निर्मोही कायर भगोड़ा यहाँ तक कि मेरे चरित्र पर भी लांछन लगा।

यदि दुर्योधन युद्ध जीत जाता तो विजय का श्रेय तुम्हे भी मिलता, लेकिन धर्मराज के युद्ध जीतने का श्रेय अर्जुन को मिला! मुझे कौरवों ने अपनी हार का उत्तरदायी समझ।
हे कर्ण! किसी का भी जीवन चुनौतियों से रहित नही है। सबके जीवन मे सब कुछ ठीक नही होता। कुछ कमियां अगर दुर्योधन में थी तो कुछ युधिष्ठिर में भी थीं। सत्य क्या है और उचित क्या है? ये हम अपनी आत्मा की आवाज़ से स्वयं निर्धारित करते हैं!
इस बात से *कोई फर्क नही पड़ता* कितनी बार हमारे साथ अन्याय होता है, 
इस बात से *कोई फर्क नही पड़ता* कितनी बार हमारा अपमान होता है, 
इस बात से *कोई फर्क नही पड़ता* कितनी बार हमारे अधिकारों का हनन होता है।

फ़र्क़ सिर्फ इस बात से पड़ता है कि हम उन सबका सामना किस प्रकार करते हैं..!

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