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अभिव्यक्ति के खतरे उठाकर गढ़ और मठ तोड़ते युवा - 09 अप्रेल 2018


आलेख प्रकाशनार्थ
अभिव्यक्ति के खतरे उठाकर गढ़ और मठ तोड़ते युवा
-      संदीप नाईक -
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ये युवा है, जोश से भरे है, घरों से दूर है और किसी महानगर में रहते हुए अपने जीवन के महत्वपूर्ण मकाम से गुजर रहे है – पढ़ रहे है, प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे है, इंतजार कर रहे है या नौकरी खोज रहे है परन्तु निराशा का घटाटोप है, मंजिल नजर नहीं आ रही, पढाई करते हुए उकता गए है अब वे मुश्क बांधकर उतरना चाहते है संसार में और दिखाना चाहते है कि वे अलग है , वे भी समाज में ठोस और बड़ा काम आकर सकते है बदलाव ला अकते है जात पांत का गुरुर नहीं और वे इस बीमारी को खत्म भी करना चाहते है. दिल में उमंग और प्यार की दास्ताँ बुनते हुए वे अपने एकाकीपन को भी शिद्दत से महसूस करते है इसलिए आखिर में घूम फिरकर वे कविता गज़ल और शेर शायरी को अपना हमदर्द बनाते है और बहुत गंभीरता से भाषा भी सीखते है और मेहनत भी करते है अपने समान मानसिकता वाले मित्रों को खोजते है. थोड़े संकोच, थोड़ी झिझक और थोड़े खुलेपन से वे मित्रों से कही किसी चाय की टपरी पर मिलते है, अपने अँधेरे कमरे में बुलाते है और जीवन कि कुछ बातें शेयर करते है और फिर धीरे धीरे यह सिलसिला बढ़ता है और दोस्ती शेयरिंग में बदल जाती है जो अपनी माशुका से हुए खटपट से लेकर आर्थिक से होते हुए देश समाज पर आकर रुकती है. इस बीच कविता शेर, शायरी कि भी बात होती है शेयरिंग होती है अपने लिखे को दूसरों के साथ शेयर करते है और जब लगता है कि मामला ठीक ठाक है तो संकोच के साथ फेसबुक पर लिखते है – दो चार लाईक और कुछ कमेंट्स के आने से बेहद उत्साही होकर अपने लिखें को लगातार मांजते हुए वे मेहनत करते है, पढते है खोजते है अपने मिजाज का लिखा, कुछ किताबें कमरे में उठाकर लाते है और देर रात तक अपनी छाती पर रखकर पढ़ते है और रूमानियत से भर जाते है.
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एक अंतराल के बाद खोजते हुए उन्हें एक बड़े मंच की जरुरत पड़ती है तो बहुत सारे मंच नजर आते है प्रलेस से लेकर जलेस और ना जाने कौन कौन जहां ज्ञानी, निंदक और कविता के ऐसे महान लोग बैठे है जो प्रत्साहन देने के बजाय उन्हें दुत्कारते है और उनकी कविता को सिरे से खारिज कर अपने लिखे को, इतिहास को पढ़ने की और परम्पराबोध आदि की दुहाई देते है. ये तथाकथित बड़े कवि या शायर अपने में इतने आत्ममुग्ध है कि उन्हें ना नए लोगों की प्रवाह है ना उन्हें यह चिंता है कि कविता या शायरी को आगे कौन कैसे ले जाएगा यदि अभी इन नए जोश से भरे लोगों  के साथ काम नहीं किया तो. परन्तु वे अड़े हुए है और इन नए लोगों पर पाश से लाकर फैज़ तक थोपना चाहते है, अपनी घटिया किस्म कि कचरा किताबें उन्हें खरीदने के लिए प्रेरित करते है और बावजूद इसके भी वे उन्हें जगह नहीं देते. छन्द, अतुकांत और कविता आन्दोलन से लेकर मक्ता और रदीफ़ काफिये में उन्हें उलझाकर वे इन्हें बेमुरव्वत होकर बड़ी बेदर्दी से खारिज करते है. ये युवा फिर भी निराश नहीं है वे लड़ते है लिखते है पढ़ते है आपस में मिलते है और फिर मिलकर अपना एक कोना बनाते है जिसे वे बहुत संजीदगी से पालते पोसते है. पोएट्री कार्नर के नाम से यह एक मंच है जिसे इंदौर के युवा साथी चलाते है इसमें वे माह में एक बार मिलते है और अपनी ताज़ा कविता, गज़ल या रचना पढ़ते है और सुनते सुनाते है चर्चा करते है और अपने सुख दुःख बाँटते है. इसकी शुरुवात के बारे में अवधेश शर्मा बताते है, जो आई आई टी इंदौर के छात्र यूनियन के अध्यक्ष रहे है और पीएचडी कर रहे है, कि हम युवा लोग जब कुछ लिखते तो उसे स्वीकारना बड़ा मुश्किल होता था, आई आई टी इंदौर में हमने एक हिंदी लिखने पढ़ने वालों का क्लब बनाया क्योकि यहाँ माहौल आमतौर पर अंग्रेजी का ही होता है परन्तु बहुत मित्र लिख पढ़ रहे थे उनके शौक अलग थे, सो हमने हिंदी दिवस मनाना शुरू किया और फिर जब यह सफल सा होता दिखा तो लगा कि अन्य युवाओं को भी जोड़ना चाहिए ताकि हम भी कुछ नया सीखें और अपना लिखा दूसरों को दिखाएँ. बस इस तरह से हमने फेस बुक और अन्य सोशल मीडिया के मंचों पर तलाश की और जुनूनी लिखने पढ़ने वाले साथी मिलें और इस तरह से आई आई टी कैम्पस के बाहर भी एक नई दुनिया की शुरुवात हुए. देश के अलग अलग हिस्सों में इस तरह की कई गतिविधियाँ चल रही है जिसमे कई युवा साथी कविता को लोगों तक ले जाने का सार्थक प्रयास कर रहे है. ये अपने सिमित संसाधनों से या कभी कोई प्रायोजक मिल जाएँ तो उससे कुछ आर्थिक मदद लेकर नियमित आयोजन देश भर में करते है. सबसे अच्छी बात यह लगी मुझे कि ये युवा बहुत मैच्योर, और संवेदनशील है.
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इंदौर में अब तक चार इवेंट हो चुके है जिसमे हर बार पचास से लेकर साठ युवा मित्रों की सक्रीय भागीदारी रही है और इसमें देश स्तर पर पहचान बनाने वाले कवियों, शायर और ग़ज़लगो ने भागीदारी करके पोएट्री कार्नर को एक सफल आयोजन बनाया है. सफ़दर हाशमी कहते थे कि कलाओं और संस्कृतियों को हब तक हम लोक से नहीं जोड़ेंगे तब तक हम ना समृद्ध होंगे ना ही आने वाली पीढ़ियों को कुछ दे पायेंगे. कबीर की वाचिक परम्परा में भी ऐसा ही है जहां लोग सडकों पर चौराहों पर बैठकर कबीर गाते है और जहां भी जिसने भी कबीर को बंद कमरों में शास्त्रीयता का पुट देकर बांधने की कोशिश की वह गायक ही खत्म हो गए. क्यों हम हबीब तनवीर को यद् करते है जो कहते थे कि शरीर ही नाटक की सबसे बड़ी प्रॉपर्टी है इसलिए उनके नाटकों में बहुत कम मेकअप या सामग्री के नाम पर तामझाम नजर आते है. सफ़दर ने तो नाटक जैसी एलिट विधा को नुकड़ पर लाया और नुक्कड़ पर जन मुद्दों की पैरवी करते - करते जान दे दी. शायद हिंदी का रसूखदार साहित्यकार यह अभी भी समझ नहीं पाया है. 
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इन युवाओं कि कविताओं और ग़ज़लों को जब मैंने शिद्दत से सुना तो पाया कि महानगरों में रहते हुए अकेलापन, घर गाँव की यादों में खोये ये कभी माँ को याद करते है कभी पिटा को कभी दोस्तों को और कभी अपने परिवेश को अझना खेत है मिटटी है जानवर है और अपनापन है, पर शहर में दस बाय दस के कमरे में रहते हुए ये सब याद करके वे बेहद नास्टेल्जिक हो जाते है भावुक होकर कविता की शरण में आते है , एक सुट्टा मारकर अपने पिता को याद करते है कि कैसे पिता के अनुशासन में जीवन कसमसा रहा था और अब वे खुद उस फ्रेम में रहकर अपने को अनुशासित करने का प्रयास कर रहे है. जेब में कम रूपये या कमाई नहीं होने का गम कैसे सालता है और शहरी माशुका के खर्च बर्दाश्त नहीं कर पाते पर भावनात्मक जरुरत तो है ही इसलिए ब्रेक अप और ब्रेक अप के बीच हर बार वे तरोताजा होकर नया प्रेम तलाशते है और इस दो ब्रेक अप के बीच आह से उपजी कविता है तो गजल है और जीवन का फलसफा भी .
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कुल मिलाकर यह बेहद सार्थक पहल है जो बड़े शहरों में उभरी है. रायपुर में प्रियंक पटेल इसी तरह की दूसरी पहल लेकर सामने आये है. अपनी पत्नी के साथ उन्होंने साहित्य और कला को समन्वित करते हुए शहर में दो कैफे खोले और दोनों जगह पर गूंगे बहारें युवाओं को काम सीखाया और अब प्रियंक के रायपुर स्थित दोनों कैफे में गूंगे बहरे युवा और किशोर काम करते है. प्रियंक ने हाल ही में इस्पात नगरी भिलाई में एक कैफे और खोला है जहां थर्ड जेंडर समुदाय के लोगों को काम सीखाकर काम करने और पूरी व्यवस्था सम्हालने का मौका दिया है. एक ओर वे समाज में उपेक्षित लोगों को आजीविका प्रदान आकर रहे है वही वे इन लोगों को समाज की मुख्य धारा में जोड़ने का भी उजला प्रयास कर रहे है. “नुक्क्ड टैफे” नाम से चल रही यह श्रृंखला आज कई पुरस्कार जीत चुकी है. सोशल इंटरप्रैन्योर के रूप में प्रियंक और उसकी टीम को बड़े स्तर पर ख्याति मिली है और वे लगातार इस काम में लगे रहते है कि “नुक्क्ड टैफे” कविताओं से गूँजता रहें, किताबें की कमी ना हो और लोग आयें बात करें और खूब समझे. इसी क्रम में इंदौर में रिफलिंग कल्ट नामक कला कैफे की शुरुवात दो युवा उत्साही मित्रों ने की है सूचित सिंह और वैभव हाडा और पोएट्री कार्नर की गतिविधियाँ अक्सर यहाँ होती है. वैभव बताते है कि हमने यहाँ कई प्रकार की सुविधाएं लोगों को देने का निर्णय लिया है जिसमे लोग आयें यहाँ अपनी कला का प्रदर्शन करें जो बनाये उसे बेचने के लिए भी रख सकते है. सूचित बताते है कि हर शनिवार रविवार को कैफे भरा रहता है और कविता, कहानी, कॉमेडी या संगीत के कार्यक्रम होते रहते है.
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ये सारे प्रयास आश्वस्त करते है कि समय बदल रहा है और आने वाले समय में रचनात्मकता के नए आयाम हमें सार्थक और परिष्कृत रूप में देखने को मिलेंगे और समाज का उजला स्वरुप भी सामने आयेगा. ये युवा जात पांत की दीवारों को तोड़कर एक नया समाज बनायेंगे जहां संता, बराबरी और न्याय के साथ सबके लिए पर्याप्त स्पेस होगा.
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Comments

Unknown said…
ज़िन्दगी की कश्मकश और भागदौड़ के बीच अपने आपको को साहित्य और सृजन से जोड़े रखना भी एक हुनर है, एक इल्म है !

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