सुबह से इस आदमी को ढूंढ रहा हूँ. पकड़ में ही नहीं आ रहा है. अब जा के मिला. पता नहीं किस तरह की जीवनचर्या अपना रखी है. रात को जागता रहता है और ये देखिये चाँद की तस्वीरें लेता रहता है रात भर. असमान में कई चाँद होते तो भी इसका दिल नहीं बहल सकता. फिर इस एक से क्या उम्मीद करें. आखिर अकेलापन दीमक की तरह आदमी को खा जाता है. हालाँकि संगी-साथियों की असंख्य संख्या के बावजूद अन्दर का कोई एक कोना है जो निराशा और बेचैनी से भरा रहता है. इस कोने को भरने कोशिश में ज़िंदगी चलती रही. आज भी निराशा का वही असमान इसके ऊपर तना हुआ है और उसमें मृगतृष्णा का एक चाँद लटका हुआ है. जिसे कभी पाया नहीं जा सकता है सिर्फ हृदय के कोने से क्लिक करने की कोशिश ही की जा सकती है. जिस आदमी के जीवन में इतना अवसाद हो जो मृत्युलेख जैसी कहानी लिखता है. नर्मदा किनारे जाकर अपनी बेचैनियाँ धोता रहता है और उन्हें जतन से ले आता है और अपने भीतर के अँधेरे के कैनवास पर टांग देता है. उन बेचैनियों के भीतर से बीमारियों की एक श्रृंखला जन्म लेती है जिनके साथ वह जुगलबंदी करता रहता है. हँसता है गुनगुनाता है. सबके सुख-दुःख में साझेदार होता है. डॉक्टर, अस्पताल, दवाई की पर्चियाँ और डॉक्टर से लगायत संगी-साथियों की हिदायतें हमेशा अपने जेबों में रखता है और भूल जाता है. जीता है हम सबके साथ. बिलकुल हमारी तरह होकर.
कल से ही सोच रहा था कि इसके जन्मदिन पर एक अच्छा सा फोटो लगाऊंगा और एक कविता भी. कल से कविताएँ ढूंढ़ रहा हूँ. इन दिनों लिखी गयी जितनी भी कविताओं को मैंने हाथ लगाया सिहर उठा. इनमें सबमें अजीब किस्म की बेचैनी और अवसाद भरा हुआ है. अंततः निराशा ही हाथ लगी. इतने प्यारे इन्सान, दोस्त और भाई की कोई कविता मुझे आज नहीं मिली. इस जन्मदिवस के अवसर पर किस तरह की शुभकामनाएँ दूँ कि सबकुछ ठीक हो जाये. संदीप दद्दा यही कहूँगा कि खूब जियो हम सब आपके साथ हैं और हमेशा रहेंगे.
Bahadur Patel
संदीप...क्या लिखूँ, तुम्हारे लिए और कहाँ से शुरू करूँ...समझ नहीं आ रहा... कुछ लोग हमारी ज़िन्दगी में नमक की तरह घुले होते हैं और अक्सर ही उन पर लिखने से हम अपने को रोके रहते हैं, इन पर लिखना आसान नहीं होता, बरसों की कई खट्टी-मीठी यादों के झौंको को कागज़ पर उकेरना बड़ा ही कठिन है ... फिर भी आज संदीप का जन्मदिन है और कुछ लिखने का मन हो रहा है।
सन 86-89 का वह दौर था, जब सदी खत्म होने को उतावली हुए जा रही थी और कुछ युवाओं की आँखों में गज़ब के सपने हुआ करते थे। वे दुनिया को बदलने के जुनून से भरे थे और देश-दुनिया को किताबों और अपने अनुभवों के जरिए नए ढंग से देख-समझ कर गुन रहे थे। इन्हीं में एक संदीप नाईक हुआ करते थे। कालेज के जमाने से ही खूब लिखते-पढ़ते, खूब बातें करते पर हमारी कभी आमने-सामने की मुलाकात नहीं थी। कई बार पत्र-पत्रिकाओं में उन्हें पढता लेकिन प्रत्यक्ष मिलने में संकोच आड़े आ जाता। मैं उनकी ज्ञान, प्रतिभा और वाकपटुता से खौफज़दा था।
खैर, 2 अक्टूबर 88 को पहली बार सामना हुआ...तीखी जुबान के पीछे का यह आदमी भले दिल का लगा। उसके बाद तो एक लंबा सिलसिला है, संदीप से मुलाकातों का और मित्रता का। एकलव्य में काम करते हुए या बहादुर और सुनील भाई के साथ किस्से कहानियाँ कहते-सुनते हुए, देस -देस घूमते हुए घंटो तक बातें हुई, तीखी बहसें भी हुई, यहाँ तक कि कई बार जीभर डांट डपट भी हुई. मतभेद भी रहे पर सच कहूँ तो कभी मनभेद नहीं हुआ। तीखी बहसों और तमाम असहमतियों के बाद भी भीतर का स्नेह उसी तरह बना रहा... दुःख, परेशानियों, पीडाओं और संत्रासों के दौर में भी संदीप को हमेशा साथ खड़ा देखा। अपने कडवे और स्पष्ट बोल के कारण चाहे कुछ कहता रहे लेकिन भीतर उतना ही साफदिल इंसान है...
लिखना तो बहुत है, लेकिन बाक़ी फिर कभी... आज जन्मदिन पर अपने इस अज़ीज़ को दिल से बधाई, अशेष शुभकामनाएँ... इस उम्मीद में कि वह हर घड़ी रचनात्मक बना रहे...
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Manish Vaidya
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