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सतरें जीवन के - तटस्थ Satare Jivan ke

सतरें जीवन के 


जब प्रवाह में बह जाने का समय आता है, लगता है कि अब सब खत्म हो ही रहा है - अचानक एक तिनका कही से तैरते हुए आ जाता है और शिद्दत से थाम लेता है यह कहकर कि धैर्य रखो, शांत हो जाओ - उजाले की किरणें छटा बिखेरेंगी जल्दी ही

शाम ओस से भीगी हुई एक कविता है जिसने संसार में अपनी लय से सबको बाँध रखा है

जीवन झूठ का पुलिंदा है और हम सब इसे पसंद करते है, हम सब झूठ के साम्राज्य को बनाये रखना चाहते है और इसी उपक्रम में मरने तक मेहनत करते रहते हैं, अंत में मौत का सच इसकी हवा निकाल देता है

अयोग्यता ही असली धन और शांति है, जब तक अयोग्य लोग है तब तक योग्यता की असली और वीभत्स सच्चाई सामने आती रहेगी जो स्वाभाविक ना होकर ना - ना प्रकार के कृत्रिम संसाधनों से अर्जित कर सुख सम्पदा हासिल करने के लिए बेहतरीन स्वांग के साथ ओढ़ी गई है

हारना और स्वीकारना हिम्मत का काम है और इसकी जड़ें बहुत गहरी होती है, अपूर्णताएँ, अकुशलताएँ और अधकचरी थोथी सूचनाएँ जीवन के उत्तरार्ध में आपको एहसास दिलाती है कि आपके सारे प्रयास, अभ्यास और चेष्टाएँ व्यर्थ है - इसलिये ख़ारिज करो अपने हर कर्म को, समझ को, देखे भालें को, बोले - सुने को और हर लिखें - पढ़े को - यही बेहतर रास्ता है, वरना अंतिम समय तक साँसों पर बोझ बना रहेगा

हर फ़ल और सब्जी के डंठल को काटकर फेंक दिया जाता है जिससे वह पनपा, पोषित हुआ और पका, काम के हिस्से को रख लिया जाता है - जीवन में चतुराई और धूर्तता यही है हर उस चीज़ को उखाड़ फेंको जिससे आपका होना तय होता है और मैं कोई गलत नही कह रहा - शिशु से भी अंततः माँ के गर्भनाल को अलग कर फेंक ही दिया जाता है बेदर्दी से काटकर - यही रीत और समझदारी है

हमेंशा याद आता है कि आप एक नदी में दो बार नही उतर सकते, पर दुखों, संताप, पीड़ा और अवसाद की नदी में यूँ उतरा कि डूब गया हूँ और यह समंदर में बदल गई है , जहां से लौटना अब मुश्किल है - इसी में रहकर लड़ता हूँ, जूझता हूँ, सीखता हूँ और समझने की कोशिश करता हूँ - समय अपनी तेजी से गुजरते जा रहा है और पीछे जो स्मृतियाँ मानस पटल पर दंश के रूप में दर्ज हो रही है – वो यही कहती है कि आज भी मैं पूरी सघनता से जुड़ा हूँ और इन सबके बावजूद भी इस बहते पानी के गुनगुनेपन को महसूस करता रहूँगा जिससे हमेंशा ताज़गी मिलती थी


अपने जीवन में तीन ढेर बनाओ - एक में वो चीजें रखो - जो साथ रखनी है, दूसरे में वो - जो कल काम आयेंगी और तीसरे में वो - जिन्हें नष्ट करना फायदेमंद है
रुकिए
चौथा ढेर भी है - उसमें वो चीजें रखों जिनके बारे में नही मालूम कि क्या करना है
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जीवन में रिश्ते, दोस्ती और यहाँ तक कि ये वर्चुअल दोस्ती भी इन्हीं पैमानों पर मापकर देखें - राहत मिलेगी

मन की दहलीज पर सुबह से सुख - दुख माँजकर सूखने रखे थे, शाम किसी भिखारन की तरह आई और चुपके से उठाकर ले गई, अब लम्बी अँधेरी खामोश रात है, चाँद झाँकता है खिड़की से, दहलीज़ सूनी पड़ी है, एक सन्नाटा भीतर पसर गया है और दूर कही परछाइयाँ कुएँ की मुंडेर पर जा बैठी है - यह निस्तब्ध, निस्पृह रात बहुत भारी पड़ने वाली है - अब जब इस झंझावात में गर्जना सुनाई दे रही है तो पुकारो नही - छोड़ दो, जाने दो मुझे - पूरे उद्दाम वेग से सारे तटबन्धन तोड़कर निकल जाना चाहता हूँ , मैं शुक्र तारे के उदित होने की बेला तक जागना चाहता हूँ अपने पूरे निर्जीव एकांत में - सब कुछ भूलकर अपने ही विक्षिप्त मन बंजारे के साथ

होड़ और प्रतिस्पर्धा किससे है और क्यों है - जब हमने अपने आप को ही कमतर आँका, जब अपने ही लोगों ने हमें ख़ारिज कर दिया तो क्या हिसाब दें किसी को और क्या मायने लगाये इस बेरुखी के - जीवन के कष्टतम समय में एक अपनी ही मुस्कुराहट है जो आईने के सामने खिल जाती है - वरना तो हत्यारे चहूँ ओर बेख़ौफ़ घूम रहे हैं


मंजिलो पर पहुंचने की पीड़ा मुसाफिर से नही - उन रास्तों से पूछिये जिन्होंने सर्वस्व त्यागकर अपने आपको एक जगह पर सदा के लिए स्थिर कर लिया

और जब नींद ही ना आये तो स्वप्नों को जगह कैसे मिलेगी

शरीर एवं जीवन नश्वर है, इच्छाएं अनंत है, तृप्ति हमेंशा सिर्फ एहसास है, कर्मों का अंत भी सिर्फ चंद क्षणों का भुलावा है, श्मशान वैराग्य की बात भी समझ आती है, भावनाओं की उम्र भी इतनी छोटी है कि कब खत्म हो जाती है समझ नही पाता - अभी जो पिता, काका - बाबा था - वह बॉडी बन जाता है, बावजूद इसके हम मोह माया में पड़कर जीवन अंत तक जिये चले जाते हैं - जीना भी चाहिये बिंदास होकर अपनी मर्जी से, पर यदि निस्पृह और निर्मोही होकर जिये और मानकर चलें कि हम हर सांस में खत्म होते जा रहें है तो गमन पथ आसान हो जाएगा और उस अनंत में विलीन हो जाने की संभावना बढ़ जाएगी

जब तक जीवन नष्ट नही होगा - कुछ भी समझ नही आएगा, और यह समय पर ही होता रहें तो ज्यादा उचित होगा बशर्तें समय चुनने की आज़ादी हो मनुष्य को, इस मामले में परावलम्बी होना दुखद है


सिर्फ़ रंग देखिये, यदि आप रंगों को देखने में दक्ष और पारंगत हो गये तो इंसान पहचानने में आपको बहुत मुश्किलें नही आना चाहिये - क्योंकि रंग ही आपको वस्तुओं की प्रकृति, उद्देश्य और उनके होने की सार्थकता सीखा सकते हैं , साथ ही हिल मिलकर क्या बेहतर हो सकता है - इसका भी भान करा सकते हैं
हम अपने जीवन में रंगों की अधिकता से भरे हुए हैं और इसीलिए हम अंधे होने की हद भी पार कर चुके है - क्योंकि रंगों की पहचान से अभी परे है और निहित अर्थों को बूझ नही पा रहें हैं

पूनम के चाँद से सीखता हूँ कि जब पूर्ण हो, शिखर पर हो तो बहुत खुश मत हो, अगले ही दिन से पतन शुरू हो जाता है
पूनम के चाँद से यह भी सीखता हूँ कि चढ़ते और घटते हुए ही जीवन के शुक्ल और कृष्ण पक्ष से दो चार हुआ जा सकता है
पूनम के चाँद से ही सीखता हूँ कि अंधेरे से ही उजालों का शिखर है और उत्तुंग शिखर ही एक दिन अँधेरों में ला पटकते है


और चाँद से बड़ा रूपक और मिथ्या जीवन मे नही मिलेंगे कभी

***
अप्रिय, विवादित और अड़ियल होकर भी जीवन जी लेना एक बेहतरीन कला है और यदि इसमें पारंगत हो गए तो सब पा लिया
***
पद, पैसा एवं प्रतिष्ठा - ये तीनों ही मृगतृष्णा है और हम सबको मालूम है फिर भी हम इनके लिए ना मात्र जीवन हार जाते है बल्कि जीवन की खुशियों को भी इनमें विलोपित कर एक नरक अपने आसपास खुद बना लेते है - असल जीवन इनमें घुलकर, इनका इस्तेमाल कर जीवन को शांत और निस्तब्ध कर देने में है, निस्पृह हो जाने में है और इन तीन सीढ़ियों से ही वस्तुतः निर्मोही हो जाना है - तभी हम संवर सकेंगे
***
तुम गए ही नही पिता


◆◆◆

अब चिट्ठियां आती नही तुम्हारे नाम - बिजली, फोन, मकान के टैक्स से लेकर राशन कार्ड तक में बदल गए है नाम


कोई डाक, पत्रिका, निमंत्रण तुम्हारे नाम के आते नही

हमारे बड़े होने के ये नुकसान थे और एक सिरे से तुम्हारा नाम हर जगह गायब था

कितनी आसानी से नाम मिटा दिया जाता है हर दस्तावेज़ से और नाम के आगे स्वर्गीय लगाकर भूला दिया जाता है कि अब तो स्वर्ग में हो वसन्त बाबू और बच्चें तुम्हारे ऐश कर रहें हैं

बच्चों से पूछता नही कोई कि बच्चें कितना ख़ाली पाते हैं अपने आपको कि हर दस्तावेज़ से नाम मिटाकर अपना जुड़वाने में कितनी तकलीफ़ हुई थी और अब जब बरसों से सब कुछ बिसरा दिया गया है तो नाम भी लेने पर काँप जाती है घर की नींव जिसमे तुम्हारे पसीने और खून की खुशबू पसरी है
घर में मिल जाती है कोई पुरानी याद तो घर के दरवाज़े और छतें सिसकियों से भर उठती है रात के उचाट सन्नाटों में
***
सच भले ही सबके अलग हो सकते हैं - बल्कि होते ही है, परन्तु झूठ सबके एक ही होते है और इसी झूठ की प्रतिकृति बना बनाकर हम सब जीवन के अलग - अलग सोपानों पर सुखी रहने का अथक श्रम करते हैं - हममें से हरेक के पास झूठ का विशाल साम्राज्य है, हर कोई इसे हरदम पोषित रखता है क्योंकि हम सच को पचा सकने में असफल है, क्योकि सच एक बड़ा मूल्य है और सर्वोच्च स्थान पर है संसार में, क्योंकि हम सच का सामना नही कर सकते है - झूठ जीवन आसान करता है


धूप के साम्राज्य में जीकर शाम तक पहुंचना ही जीवन है जिसमे पसीने से भरी दोपहर की लम्बी सुरंग हैं और पथरीली राहें जिन पर नंगे पांव चलना है - रात का सुकून बिरलों को ही नसीब होगा, इसलिये शाम तक भी पहुंच सको तो एहसानमंद रहो जिंदगी के

हम सब अपने विश्वासों में जीते है, अपने को सर्वोपरि, सुरक्षित और संवर्धित करके जीते है - मुश्किल तब आती है जब कोई इन विश्वासों को भंग करके हमारी आस्थाएं तोड़ना चाहता है, हमारी तन्द्रा में सेंध लगाता है - ये जीवन नष्ट करने के उपक्रम हमें खाली करते है और यही से शुरुवात होती है विद्रोह की - फिर वो खुद से हो, व्यक्ति से या कि व्यवस्था से

फैसले लेने का हौंसला पैदा करना बड़ी बात नही, बड़ी बात है उन परिस्थितियों को समझ पाना जहाँ फैसले लेने की नौबत आई - और वह किसी भी तरह का हो, पक्ष का हो या परिस्थिति जन्य हो

पश्चाताप पहले तन को घेरते है, फिर मन को और अंत में जीवन को ऐसी जगह ले जाकर छोड़ते है जहां से लौटना सम्भव नही होता - एक दिन सुबह हम पश्चाताप उच्चारित करने की स्थिति में भी नही रहते हैं और इसे इति कहें तो कोई हर्ज नही


क्या चाँद को पता होगा अपने उगने और डूबने का, शुक्ल और कृष्ण पक्ष का - काश कि पता होता, जीवन मे यह सब पता होना जरूरी है

दरवाज़े पर खटखटाहट बढ़ते जा रही है , सांकल टूट सकती है कभी भी


जब आपको किसी चीज को खाने पीने से मना किया जाए तो समझ लें कि संसार मे आपका उस वस्तु विशेष को लेकर कोटा खत्म हो गया है जैसे मेरा शक्कर का कोटा ख़त्म हो गया है
धीरे धीरे ये कोटा खत्म होते जाता है और एक दिन हम सब अनावश्यक हो जाते है इस धरा पर और यह सब कुछ प्रायोजित और पूर्व निर्धारित होता है
हम सिर्फ कोशिश करते है और लगातार जीने की जद्दोजहद पर आखिर में याद रखना है -



"पांच सखी मिल करें रसोई

जिम्हे मुनि और ज्ञानी,

कहें कबीर सुनो भाई साधौ

बोवो नाम की धानी"


***
जीवन के गमले में सुबह को खिला नाज़ुक प्रेम प्रायः दोपहर की कड़ी धूप से गुजरकर शाम तक बेहद कड़ा हो जाता है जिसे सिर्फ संरक्षित कर रखा जा सकता है

लम्बी यात्रा में हम सब मुसाफिर है,सबको सबसे ही नही अपने आप से भी बिछड़ना है - समय बहुत कम है, बहुत कुछ फैला रखा है हमने - समेटने में समय ज्यादा लगता है, बिछड़ने में और फुर्र हो जाने में जरा भी समय नही लगता - निर्मोही हो जाओ , एक नजर घूमा लो चारो ओर सब समझ जाओगे


"एक बन चरना, दूजे बन चरना
तीज़े बन पग नही धरना
हिरणा समझ बुझ बन चरना"


जीवन में हर रास्ते पर नो एंट्री का बोर्ड लगा है, हर जगह भीड़ है जो आपको कुचलकर आगे जाने की होड़ में है, हर सड़क पर गड्ढे खुदे है, अँधेरों का साम्राज्य है और आपके साथ एवं आगे पीछे चलने वाले भी आपको ना बढ़ने देना चाहते है और ना ही स्थिर रहने देना चाहते है
अब आप पर है कि आप सबकी परवाह ना करते हुए अपने दिल की बात सुनें और सबको चीरकर आगे निकल जाये
यही तड़फ़, बेचैनी और जहाँ हो वहाँ से सरकने की जद्दोजहद ही ज़िंदा रखेगी वरना तो आप मर ही चुके हो अभी


दूर कही उन सितारों तक हवाएँ पहुँच पाती तो एक सन्देश तुम्हे भेजता - यह कहता कि इधर उजालों की अभी और ज़रूरत है, यहाँ मौसम की उदासी शब्दों में व्यक्त नही की जा सकती है, कहने को अभी बहुत बाकी है, और अंत मे इतना कि सितारों तक आने में सफ़र का आगाज़ हो चुका है

प्रश्नों का जवाब नही होता और मालूम भी हो तो मैं जवाब नही देता, दरअसल में प्रश्न शाश्वत व्याकुलता के परिचायक है और हम बहुधा निसंग उत्तर देकर अनंत जिज्ञासाओं की अप्रत्याशित हत्या कर देते हैं - प्रश्न का उत्तर ना देना ही प्रश्न का संतुलित, माकूल और मुकम्मल जवाब है


संसार में ज़िंदा रहने की लम्बी अनथक लड़ाई में हारने वाले तो हार ही रहें हैं, पर ध्यान रहे कि जीतने वाले भी सब कुछ जीतकर हारेंगे ही - यह तय है
जो शेष बचेगा वह सिर्फ और सिर्फ दृष्टा होगा और दृष्टा अर्थात जो दूर से आती पदचाप की आहट सुन सके, जो तीव्र घ्राण शक्ति से सूंघ सके, हवाओं की दिशा से अंदाज़ लगा सके, बदलते मौसम में स्वाद की अनुभूति कर सके, साँसों के उच्छ्वास से आवाज़ों को टटोलकर परख सके
यही दृष्टा हो जाना इस समय की बड़ी परीक्षा है - जो इसमें से निकल गया - वह मनुष्य बन गया

जिंदगी में डूबने से मौत नही होती - जिंदगी में ठहर जाने से मौत हो जाती है


संसार में ज़िंदा रहने की लम्बी अनथक लड़ाई में हारने वाले तो हार ही रहें हैं, पर ध्यान रहे कि जीतने वाले भी सब कुछ जीतकर हारेंगे ही - यह तय है
जो शेष बचेगा वह सिर्फ और सिर्फ दृष्टा होगा और दृष्टा अर्थात जो दूर से आती पदचाप की आहट सुन सके, जो तीव्र घ्राण शक्ति से सूंघ सके, हवाओं की दिशा से अंदाज़ लगा सके, बदलते मौसम में स्वाद की अनुभूति कर सके, साँसों के उच्छ्वास से आवाज़ों को टटोलकर परख सके
यही दृष्टा हो जाना इस समय की बड़ी परीक्षा है - जो इसमें से निकल गया - वह मनुष्य बन गया
प्रश्नों का जवाब नही होता और मालूम भी हो तो मैं जवाब नही देता, दरअसल में प्रश्न शाश्वत व्याकुलता के परिचायक है और हम बहुधा निसंग उत्तर देकर अनंत जिज्ञासाओं की अप्रत्याशित हत्या कर देते हैं - प्रश्न का उत्तर ना देना ही प्रश्न का संतुलित, माकूल और मुकम्मल जवाब है
दूर कही उन सितारों तक हवाएँ पहुँच पाती तो एक सन्देश तुम्हे भेजता - यह कहता कि इधर उजालों की अभी और ज़रूरत है, यहाँ मौसम की उदासी शब्दों में व्यक्त नही की जा सकती है, कहने को अभी बहुत बाकी है, और अंत मे इतना कि सितारों तक आने में सफ़र का आगाज़ हो चुका है

उदासियों भरी लम्बी रातें, धूप में निकली सुबहें, अलसाई सी ना खत्म होने वाली गर्म दोपहरें, अंधेरों में डूबी शामें जीवन को इस मोड़ पर ले आई है कि अब लगता है कि सब कुछ खत्म हो गया है, सब कुछ नए सिरे से शुरू करने के लिए बहुत हिम्मत चाहिये और हममें से अधिकांश लोग अब चूक गए है और अब जो है वह एक संकरी सी पगडंडी है जो एक अंधे मोड़ पर जाकर खत्म होती है


रात भर बारिश होती रही, कल दिन में धूप जो ज़ख्म देकर गई थी उन्हें भिगोने का काम बारिश ने कर दिया, गुलमोहर पर आ रहे सुर्ख फूलों की कलियाँ बिखर गई है - पता नही कैसा विक्षप्त समय हैं जब हर ओर से मौत के पंजे साँसों को दबोचने के लिए आतुर है

चलते रहने से धूप की आदत पड़ ही जायेगी, बस अपनी आंखें खुली रखें और देखते समझते रहें कि धूप की दिशा क्या है - बवंडर उठेगा तो हवा का रुख क्या होगा - यही सम्भवतः जीवन का सच्चा सार है

पथिक
◆◆◆


बहुत कुछ भोग लेना चाहता हूँ , सभ्यता और संस्कार क्या होते होंगे - जब जीवन ही नही रहेगा तो इन सबको बचाकर क्या करूँगा और शुचिता - फीकी हँसी थी होठों पर उसके - सामने सब कुछ साफ है अब.....




और काश के साथ एक पूर्ण विराम ही लग गया, जबकि नियम यह था कि काश के साथ विस्मयादि बोधक चिन्ह ही लगेगा

क्या ऐसे समय में भी भाषा के नियम तर्कों की कसौटी पर पाले जायेंगे

नही पर ...

फिर पर, किंतु , परन्तु - आज तो कम से कम कह लेने दो - अभी अभी जिसकी मौत की खबर सुनाई वो मात्र 34 बरस का था और जीवन के रास्तों पर बेख़ौफ़ चलता, गुनगुनाता हुआ कही से लौट रहा था

मत बोलो, कुछ भी - बस अब आखिरी बार जी लेने दो - जानते हो ना इस अस्पताल का नाम अमलतास है - एक बार तुमने अमलतास के फूल चम्पा के फूलों के साथ अपनी अंजुरी में भरकर मेरे आगे रख दिये थे...

उफ़, अमलतास - उसे टेसू के सुर्ख फूल याद आने लगे - जब नदियां सूख जाती है, कूएँ रीतते जाते है और जमीन पर कड़ी पपड़ी जमने लगती है - तब ये कमबख्त खिलते है

तो सही तो है, देखो पानी कहाँ बचा है - इस अमलतास के आंगन में टेसू दहक रहा है

ये आखिरी रात है...

चौथ का चाँद फिर मुस्काया !!!

[ देवास में उज्जैन रोड पर स्थित अमलतास अस्पताल एवं मेडिकल कॉलेज को कोरोना के इलाज के लिए चींहित किया गया है ]



जीवन के जो पूर्वार्ध में है उन्होंने दुनिया देखी नही तो बहुत ज्यादा चिंता की बात नही - उनके पास खोने को कुछ है नही

जो उत्तरार्ध में है उन्हें यह समझ आया है कि जीवन का हश्र अंततः एक भयावह समाप्ति की घोषणा मात्र है - इसलिए वे उदास है जीवन से - उनके पास भी अब पाने को कुछ नही है

और जो इन सबसे परे है वे लड़ने की जद्दोजहद कर रहें हैं कि लड़े बिना कुछ मिलता नही तो वे पहले से ही ग़लत मार्ग पर है - यह लड़ाई हार की ही जीत है
इसलिये कहता हूँ कि अभी जीवन से आगे की यात्रा करना है इसलिए सिर पर कम बोझ रखो और मोह त्यागकर जीना सीख जाओ - बस अभी, यही क्षण है कल का मुझे नही पता
आज जी लो
कल हो ना हो


हम सब मौत के मुहाने खड़े है - कोई पुण्य और पाप काम नही आयेगा , बस एक नशा है जीवन का जो एक झटके में टूट जाएगा
जी लो, सारी चिंताएं और दुख सुख छोड़कर

इस निपट एकांत में स्मृतियों का भवसागर ही है - जो अतीत से वो पल ला रहा है, जिनसे उम्मीदों के बीज पल्लवित होने की प्रचंड आशा है ,अन्यथा तो यह निजता, अपने से भी दूरी और असहजता का सम्पूर्ण वातायन नैराश्य से भर देता है
जीवन में अवसरों का उपयोग करने के बजाय हम सब कुछ मुल्तवी करते गए और अब जब सामने अनिश्चितता की घड़ी है तो सब कुछ समेट लेना चाहते है
हम एक ऐसी जगह खड़े है जहां जीवन की डोर तो हाथ में है पर किश्तों में सम्भावनाये बढ़ रही है जीने की - हम सब एक ऐसी अंधी गली के मोड़ पर खड़े है जिसमें कुछ नजर नही आ रहा - लौटने के रास्तों पर कांटे है और उम्मीदों के सभी पुल ढह चुके है
हम कुछ नही कर सकते - भीतर बाहर सब समान हो गया है और यात्राएँ भी स्थगित है तो भीतर भी झाँक नही सकते, मगन हो जाओ और देह से परे होकर जीने का अभ्यास करो
मौन से एकालाप ही हमे अब आंतरिक शांति दे पायेगा, यदि इस लम्बी सुरंग के पार हम निकल गए तो बहुत परिष्कृत होकर निकलेंगे और शायद एक बेहतर काया और पवित्र आत्मा के साथ और यदि इस जगह खड़े होकर हम इस अंधेरे रास्ते में चलने की हिम्मत जुटा नही पा रहें है तो झाड़ लीजिये सारे बोझ, संताप और अवसाद - प्रच्छन्न और उद्दंडता के उपाय जो अब तक किये जीने को और उन सब प्रतिफलों को इस मुहाने पर छोड़कर निकल पड़िये और अपने आप में विलीन हो जाईये
यही निरासक्त, निस्पृह भाव ताकत देगा और सबसे परे जाकर विलोपित होना पड़ेगा ताकि उस ओर टिमटिमाते धुंधले से दिए की बाती को अपने अंदर बसाकर उस तरफ चलना शुरू करें विश्वास के साथ कि सब ठीक होगा - मैं तुम्हारे लिए जुगनुओं के साथ की दुआएँ करूँगा, झींगुरों का संगीत तुम्हें मिलें, अपने भीतर अनहद नाद को महसूस करो और चलना शुरू करो - अर्पित कर दो अपने को
बाकी प्रारब्ध के बारे में सोचना चलने के पहले मुश्किल है
प्रेम बाड़ी ना उपजे
◆◆◆
संवाद, प्रलाप, संताप, अवसाद, दूरी, आलाप, अनहद नाद, एकांत, निर्जनता जैसे शब्द लगता है कि जीवन का स्थाई भाव बनते जा रहें है
न पढ़ने की इच्छा, न लिखने का जुनून, फ़िल्म, गीत, खेल, गपशप, ना कुछ और - एक अजीब सा तनाव तारी हो गया है दिल दिमाग पर - एक मेंटल असाईलम यानि पागलखाने में कैद है जिंदगी
कोरोना का जो होगा सो होगा पर 15 अप्रैल के बाद समाज में मानसिक रोगियों का एक वृहद वर्ग ऐसा तैयार होगा -जो स्वकेन्द्रित, स्वसंचालित और स्वेच्छाचारी होगा - निरंतर हाथ धोता, अपनो से दूरी रखता, शंका और अविश्वास से परखता और संदेह के सर्वोच्च शिखरों पर अपने को अभेद्य किलों में कैद करता सा
यह तमाम लड़ाईयों और असंख्य छोटे बड़े विश्व युद्धों की विभीषिकाओं को झेल चुके और मौत का तांडव देखकर उबरे समाज से घातक होगा जिसे ना कोई कार्ल युंग लिख सकेगा ना फ्रायड - अब हमारे पास ज्यां पाल सात्र नही ना हक्सले और ना कोई बनना भी चाहेगा
इस उत्सव प्रिय और अति सामाजिक भारतीय समाज की ऊब तीन चार दिन में ही जिस तरह से सामने आई है - वह बेहद चिंतनीय है और डर यह है कि खुदा ना खास्ता यदि 15 अप्रैल के बाद एक दिन भी यह तथाकथित कर्फ्यू आगे बढ़ा तो लोग अपनी मौत की कीमत पर सड़कों पर आ जाएंगे - बाकी सब तो छोड़ ही दीजिये
फेसबुक पर प्रबुद्ध लोगों से लेकर आम जनों के पोस्ट [ यहाँ तक कि मैं खुद भी ], एक संक्रमित , बीमार और असहाय लाचार हो चुके नैराश्य भरे समाज के प्रतिफल नजर आ रहें है और यह दर्शाता है कि हम आदर्श रूप में भले ही कितना मुक्ति, आध्यात्म, वैराग्य, निर्मोही,सन्यास, जप, तप , ध्यान, विपश्यना या त्याग की बात करें - योग और सन्धानों की बात करें पर वस्तुतः हम निहायत ही कमज़ोर, पाखंडी और बेबस समुदाय है - जो कबीलाई संस्कृति में ही जी सकते है
और शायद यही हमारी ताकत है -लड़ना झगड़ना, तर्क वितर्क, राजनीति अनाचार और इसी से उपजता है प्यार और संगठित रहने की क्षमता, वैचारिक मतभेद, आगे बढ़ने की होड़, प्रतिस्पर्धा, गला काट दौड़, निंदा, स्तुति और ऐसे तमाम मूल्यों के बीच जीवन का अर्थ तलाशते और एक दिन चुपचाप मौत की नींद में सो जाने वाले हम लोग ऐसे ही है सहज, सरल और प्रेम, ईर्ष्या, द्वंद और कटुता से भरे हुए और मुझे "हम सब " एक समुदाय के रूप में ऐसे ही स्वीकार्य है
सबसे लड़ता हूँ पर अपने भीतर सबको गहराई से महसूस करता हूँ - सबके लिए प्रेम है सहानुभूति और समानुभूति है और लड़ने झगड़ने से हर कोई दिमाग मे रहता है और उनके तर्कों से सीखता हूँ पर अब इस निर्जन वास में बेहद अकेला महसूस कर हैरान हूं कि कैसे चार दिन निकल गए
मित्रों सम्हालिये अपने को और विश्वास रखिये कि ज़िंदा रहे तो इंशा अल्लाह फिर मिलेंगे - स्थगित जीवन का संगीत और राग भैरवी - झपताल और काली चार से निकल कर गाईये और झूमते रहिये
गुरुजी मैं तो एक निरंतर ध्याऊँ जी
दूजे के संग नही .....
या
माझ माहेर पंढरी ....
या
लग जा गले कि फिर ये हसी रात हो ना हो
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सुनता है गुरु ज्ञानी , गगन में आवाज हो रही झीनी झीनी.
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अड़सठ घाट भीतर है कहाँ जाना है - ना गंगा - ना यमुना, सुमिरन कर ले मेरे मना, मन चंगा तो कठौती में ही गंगा है - बीती जा रही है सबकी उमर पर हम मानने को तैयार ही नही है - इसी घट अंतर और बाग - बगीचे है पर भागना रुक नही रहा है - सोचने समझने को तैयार नही है
हमने कंदराओं में बैठे साधु देखें, जमीन की तलहटी में ईश्वर, पहाड़ों पर देवियाँ, नदियों की धार में साक्षात प्रकृति की लीला ,समुद्र का रौद्र रूप, आसमान से बरसता नेह और आग भी - चमत्कारों के बीच अपने पैदा होने को भी प्रारब्ध माना और जब मौत के आगोश में समाएँ तो शाश्वतता और क्षण भंगुरता समझ भी आई
दौड़ते - भागते हुए सब कुछ पाने की अनंत इच्छा ने हमें बहुत क्रूर और भावुकता के बीच झुला दिया - देह चंद्रमा और सूरज की गति के मध्यमान में धरती और आसमान के अक्ष पर घूमती रही और अंत में जब समय पूरा होने को आया तो आत्मा के सवालों से जूझने लगें
अपने को भीड़ में रखा, सबके बीच सबके साथ होकर सब सा बन जाने को सदैव आतुर रहें - काम , क्रोध, मद और लोभ निवारण के लिए किंचित भी प्रयास नही किये और जब सब शिथिल होने लगे अंग और इन्द्रियाँ तो प्रार्थना में डूबने लगे - संतों की खोज करने लगें कि मोक्ष पा जाएं और फिर समझ आया कि या जग में कोई नही अपना - गुरु भी डूबा है दर्प और माया के जाल में
फिर देह की चादर पसारकर मन के तम्बूरे से भजन गाने लगे, सुमिरन करने लगे पर देर हो चुकी है , नदियों की धार में अब वो उद्दाम वेग नही बचा, सप्तपर्णी के फूल झर चुके है, कचनार पर बहार नही है , बबूल शबाब पर है और बरगद ने छाँव देने से मना कर दिया है और यह घर ही सबसे न्यारा है देह का - इसकी परवाह में ऐसे लगें कि फिर संताप अवसाद ओढ़ लिए
पहाड़ों की चोटियों पर निर्जन होता ही है पर वहां जाने पर जो पूर्णता का एहसास होता है - सुख - दुख , पाप - पुण्य और दिन- रात का भेद ही समाप्त हो जाता है - पर अब वो भी रीतता सा लग रहा है - ज्ञान, जप, तप, प्रव्रज्या और कर्मों से भी मुक्त होता लग रहा है
पूर्णता ही खोखलेपन का सर्वोच्च और अनंतिम सत्य है - मेरा मानना है कि शरीर में जब पांच तत्व आपस में घुलमिल जाते है सम्पूर्ण रूप से तो हम पूर्णता को प्राप्त होते है और बस इस ठीक इसी हिमांक बिंदु पर सब जमता भी है और फिर गलता भी है आहिस्ते से
नीले गाढ़े रँग को जब भी गहराई से देखता हूँ तो लगता है यह एक उद्दीपन भाव से भरा हुआ रंग है - न्यारा है और विभेद करने का श्रेष्ठ संयोजन है पर इसे अंदर तक उतरते देखता हूँ तो कुछ नही कह पाता - कबीर कहते है जब राम निरंजन न्यारा रे तो मुझे सब कुछ धुन्ध में धुँधला होता दिखता है - आवाजें तेज़ होकर मंद होते जाती है और चहूँ ओर उठते हाहाकार के स्वर, मौत के दृश्य हैरान करते है

सुनता है गुरु ज्ञानी , गगन में आवाज हो रही झीनी झीनी...


देह के बंधन में मत रहिये, देह से पवित्र और घृणित कोई नही - जहाँ एक ओर यह सद्कर्मों से जोड़ें रखती हैं - वही बेहद लज्जास्पद कार्य भी करवा लेती है - अपेक्षाओं और महत्वकांक्षाओं के बीच पाप पुण्य की गठरी को सहेजते हुए इस माया के जाल से निकल गए तो पार पा लिया समझ लें


" हम मिट्टी के पात्र बनाते हैं, उस पात्र का रिक्त स्थान उसे उपयोग के योग्य बनाता है "


बहुत बेचैन करने वाली बात थी, सारा दिन और सारी रात उस रिक्त स्थान को खोजता रहा - बाहर भीतर और फिर लगा कि सारी दिक्कत पात्र की है जो कभी गड़बड़ बन जाये, मिट्टी कच्ची रह जाये या उपयोग पर ही सवाल हो तो रिक्त स्थान क्या करेगा - और इसका जवाब हमें ही खोजना होगा सम्भवतः

रीतते जाओ और अनासक्त भाव रखो - एक दिन जब सम्पूर्ण रूप से खाली हो जाओगे तो सब बंधन छूट जाएंगे, मेरा आजमाया हुआ नुस्ख़ा है कि जितना मैं खाली होता हूँ - तन, मन और धन से उतनी ही तृप्ति महसूस करता हूँ


मुझे पूनम का चाँद कभी पसंद आया - सम्पूर्णता का कोई आनंद नही है - जितने अतृप्त रहेंगें, जितने पूर्णता की ओर लगे रहेंगें, जितनी कमी रहेगी हममें, जितनी पूर्ण होने की भूख शेष रहेगी - जीवन उतना ही सुखद रहेगा और प्रयासरत भी - अन्यथा शीर्ष पर अकेले है और बेहद कमज़ोर भी और कुछ करने को भी शेष नही रहेगा

पूनम से एक दिन पहले का चाँद कितनी सम्पूर्णता से शेष रह जाता है और पूरा चाँद नही बन पाने का अभिशाप झेलता है आजीवन - जीवन ऐसा ही होता है ठीक पूनम के एक दिन पहले वाले चाँद की तरह - पूर्ण पर एक कला की कमी जैसा

रंगों से ऊब होने लगे, नीरसता स्थाई भाव हो जाये तो फिर जो मन को भाता है वह क्यों नही सामने आता - जीवन की उहापोह अक्सर बेमेल रंगों और उनको छुड़ाने की चेष्टा का प्रतिफल है और इसी यात्रा में निकले हम लोग आगे पीछे होकर अपने अपने अंत के लिए समाहित हो रहें है


अस्पताल और हड़बड़ी में सारा दिन बीता, एक तनाव भरा दिन और हर पल उथल पुथल भरा पर शुक्र है कि अंत भला सो सब भला - एकदम से सब कुछ धड़ धड़ घटित हुआ - बगैर सोचे समझे और फिर लम्बी प्रक्रियाएं , ये जांच, वो जांच - ये दवा - वो इंजेक्शन, एक्सरे, ईसीजी फला, ब्लाँ ब्लाँ .
उफ़्फ़, कितनी पेचीदगियां है जीवन में, अचानक से आये कड़वे सच, पांच दशकों की उम्र और अपने सामने बड़ी होती देह को ऐसा कष्ट झेलते देख रहा नही जाता , सच में ईश्वर है तो ये कष्टों का अंबार क्यों
पता नही पर अब बैठकर सोच रहा हूँ तो तसल्ली है कि एक दुखस्वप्न था जो गुजर गया, किसका शुक्रिया अदा करूँ पता नही पर अपने हाथों से दुःस्वप्नों को खुशी खुशी विदा किया एकदम तो नही पर खतरे की अवस्था से सामान्य अवस्था में लाकर, अब कुछ राहत है और उस भयावह कष्ट से हल्की मुक्ति भी


देह का उपकार है - देह के प्रति आभारी होता हूँ बारम्बार कि दिल - दिमाग के स्वप्नों को ढोती है और हम अकिंचन भूलते है कि यह काया नश्वर है और एक दिन माटी में मिल जाना ही है फिर भी इसे हर बार मुसीबत में डालते है - ज़्यादा काम और तनाव लेकर जीने का अर्थ नही, हमें तो जो होगा - होगा ही पर जो पीछे है, जो संग साथ है उनके चेहरों का दारुण्य और दीनता देखी नही जाती अब - बस , सहज साध लें वही बहुत है - जो भी क्षण शेष निःशेष है अब

आमीन
बीतते हुए साल की अंतिम यादें
स्मृतियों से जूझता हुआ गौरवशाली अतीत जो एक दिन इतिहास बनकर सीखाता है, डराता है और मीठी सुखद अनुभूतियां भी देता है
हम सब एक दिन इन्ही की तरह हो जाएंगे जर्जर , छूटे हुए , बहिष्कृत, विखंडित और बिलखते हुए - हमारे हाथ में बस मजबूत नींव है, दूर से दिखते चमकते बुर्ज और पत्थरों में छुपी विश्वस्त आस्थाएं
सब हममें और हमारे हाथ में - अभी भी बहुत कुछ शेष है - तय भी हमें ही करना है
यात्राएं कभी खत्म नही होती ना होना भी चाहिये, हम सब लगातार बाहर भीतर यात्रारत है, नही बन पाते तो फाह्यान, कोलंबस, इब्न बतूता या कुछ और , इसी सबमें लगातार क्षरित होकर , गिर पड़ कर, सीखते सिखाते हुए रोज अपने को ही रचा और बसा रहें है - साल भी आते जाते रहते है जो शेष रह जाती है वो स्मृतियाँ है - जो रुलाती है, हंसाती है और रक्त रंजित सी होकर हर दम स्नायुओं में दमकती रहती है इन्हें ही पालना और पोसना है - इतना ही ध्येय है और प्रारब्ध भी
साल की अंतिम यात्रा पर हूँ शायद इस बरस लौट भी आऊं ... पता नही - पथ सुगम हो, श्वास उच्छ्वास बना रहे - आमीन
निरर्थक का एक अर्थ उत्कृष्ट, गुणवत्तापूर्ण , बहुमूल्य, प्रेरक, विद्वता का पर्याय और अर्थवान भी होता है - बशर्ते आपमें बूझने की अकूत क्षमता हो
अनिश्चितता अनिवार्य है और बेख़ौफ़ होकर रहना भी, आखिर में सबसे हार जीतकर हमें अपने आपसे ही लड़ना है बाकी सब तो बहाने है जीवन को व्यस्त रखने के
जब हाथ में राख आती है बंधी हुई पोटली में चंद हड्डियों के टुकड़ों के साथ तो जीवन की नश्वरता का एहसास होता है, हम यह हर रोज़ देखते है, बार बार समझते है, श्मशान वैराग्य या ना जाने कैसे कैसे देखकर आत्मसात करते है और अपने आप से वादा भी करते है कि अब हम दर्प, अहम, घमंड, गुरुर या जो भी कह लें - नही करेंगे पर ज्यों राख पानी में बहाते है, हड्डियों को विसर्जित कर एक व्यक्तित्व को अपने से विलोपित करते है चाहे माँ बाप हो, भार्या या सहोदर - पुनः उसी मायालोक में लौट आते है और फिर संसार को अपनी स्थावर या जंगम सम्पत्ति मानकर व्यवहार शून्य हो जाते है
अपने आपको अक्सर कही इसी सबमें डूबा हुआ पाता हूँ जबकि इस शरीर पर राख का बोझ बढ़ता जा रहा है, दूर कही से मालकौंस की मीठी चाशनी में डूबी शहनाई सुनाई देती है, वो आंगन, ओसारे गाहे - बगाहे दिखते है जहाँ से होकर आया हूँ, उन उदास शक्लों की आसमान ताकती आँखें नज़र आती है जिन्हें यादकर मैं नींद से उठ जाता हूँ, पपड़ी जमे होंठ दीवारों से झाँकते है जो कुछ बोलने को सदियों से बेचैन थे और मैं अपनी यात्राओं में उनमें कुछ मुस्कुराहट ला पाया , अपने कान उन आवाज़ों पर देने की पुरजोर कोशिश करता हूँ जो कोलाहल की कविताएँ बन चुकी है
यह सब इतना गड्डमड्ड हो जाता है कि अब मैं याद ही नही रख पाता हूँ कि कहाँ क्या था और सब चेहरे, सब दुख एक से लगते है - मुझे हर शख्स राख की एक बोरी लगता है, जब भी किसी से मिलता हूँ तो शरीर को घूरता हूँ कि कितनी हड्डियाँ साबुत मिलेंगी अंत में इसकी , मैं घबराता हूँ - पसीना माथे पर चुहाता है और अपने आप से नज़र नही मिला पाता - हट जाता हूँ , लौट आता हूँ अपनी खोल में
मेरे अपने बचाव का सोपान वीभत्सता और भय के बीच कही निर्जन रास्ता है, बाहर धूप खत्म हो गई है, यहां कई लोग है जो इस उच्च ताप वाले कमरे के बाहर अपनी अपनी स्मृतियां बन गई शख्सियतों की बोरियां लेने के लिए खड़े है, इस शांत नीरव उजाड़ में पेड़ भी बहुत कुछ सीखाते है, बहुत मन है एक दिन खुद आकर इन पेड़ों के नीचे सारी रात गुजार दूं, किसी अमावस्या को आसमान की कालिख़ में चांद खोजते हुए ग्रहण लगे सूर्य के उदय के साथ इस कमरे के भीतर जीवित ही चला जाऊं और इतना तपा दूँ कि ना हड्डी बचें और किसी भी बोरी में भरने लायक राख
दुआओं का मुन्तज़िर हूँ, आमीन कहकर मेरा पथ सुगम करें
असल में फेर नज़रों में ही हैं, हम सिर्फ यहां - वहाँ देखकर निर्णय ले लेते है और फिर पुनः लौटते है उन जगहों पर जो हमारी कभी थी नही, उन्हें देखते है जो कभी हमारे साथ खड़े थे ही नही और अपने आँसू भी पोछकर खत्म कर देते है
खुद को खोज लेना सबसे बड़ी खोज है और इसी को पा लिया, समझकर समझ लिया तो ही बहुत है, बाकी तो सब माया ही है

दोस्ती निभाना और प्रेम पाना बहुत सरल है पर दुश्मनी निभाने के लिए बहुत कड़ी मेहनत करनी पड़ती है - यह गाँठ बाँध लें जीवन में तो सब कुछ माफी करने योग्य हो जाता है


भाव, विचार, भय, आनंद, अवसाद, कुंठा, पीड़ा और भाषा से खाली हो जाओ तो मेरे पास आना - मैं बताऊंगा कि जीवन का अर्थ जीने में नही खो देने में है , खुलने में है - बंध जाने में नही, समर्पित करने में नही - आत्मकेंद्रित हो जाने में है, देने में नही समेट लेने में है, इस सबसे ही तुम ठीक रहोगे और खुद का ठीक रहना बहुत ज़रुरी है - यदि तुम ठीक नही तो - ना अपना ख़्याल रख पाओगे , ना अपनो का, ना इस चराचर जगत का



सुयोग्य और श्रेष्ठ होने का आत्म बोध ज़्यादा घातक है बनिस्बत घटिया और नीच प्रवृत्ति होने से - सुयोग्यता अभिजात्य वर्ग का लक्षण है जो सिर्फ स्व को खत्म नही करता बल्कि पूरे परिवेश को कलंकित कर पीढ़ियों को खत्म करता है

सब कुछ खो देने के बाद ही सब कुछ प्राप्त होता है , सब कुछ बर्बाद होने के बाद ही कुछ नया रचा जा सकता है, सब कुछ दे चुकने के बाद ही नया पाने की तमन्नाएं जन्म लेती है और अपने को खोने के बाद ही अपने को पाकर सब कुछ पाया जा सकता है


विश्वास टूटने से दुख या पश्चाताप ही नही बढ़ते बल्कि सबसे पहला हमला सम्बन्धों की नींव पर पड़ता है , दीमकें तेज़ी से इस नींव में भरा जाती है और सम्बन्धों का नाश कर देती है, दीमकों से बचना मनुष्य के लिए मुश्किल है क्योंकि मनुष्य मूलतः दीमकों का आदि है 

जब दिन की न आस हो - ना उम्मीद, ढलान पर सब कुछ दिखना बंद हो जाएं  और निगाहें नीची हो जाएं, भाल पर से लकीरें मिट जाएं , आंखों का धुंधलापन बरकरार रहें और सारी इंद्रियां निष्क्रिय होकर सिमटकर अपने मूल पर लौट जाएं तो समझिये कि यह प्रस्थान की बेला है 


जब उद्देश्य खत्म हो जाएं तो अनथक यात्राओं का कोई मोल नही और बेहतर है समानांतर पटरियों पर चलने के बजाय एक किसी कोने में मुस्कुराकर अलविदा कह देना - बहुधा हम इस एकांत का मजा समझ नही पाते और विश्वास, आस्था और रिश्तों में यकीन कर लेते है - एक शुभ्रांत की बेला का इंतज़ार 

सत्य के आगे झूठ चल रहा था और मैं बीच में - जाहिर है पथ भ्रष्ट होना ही था, बस अच्छा यह था कि सत्य मेरा अनुसरण कर रहा था और मैं झूठ के पीछे था और वास्तविकता कही दूर से आँक रही थी जीवन
सबसे स्वीकृति, मान्यता लेने में ही जीवन बीतता जा रहा है, कभी किसी की तारीफ, कभी निंदा और कभी समालोचना में बीत गए पल अब लौटकर आने वाले नही है - अब कम से कम अपने को अपने से ही स्वीकृति दिलवाकर जीवन को मुक्त कर लो, बंधनों और वर्जनाओं से मुक्त होकर चैन से जी लो - समय गुजरकर गया है - कब तक किसी की हुंकार से अपना होना तय करते रहेंगे - एक मन है और एक जीवन - बस तो जी लो, यही सब कुछ है .....बस अभी, अभी और अभी 
  
उदास मत हो मीत मेरे , जीवन में यह सब होता  रहता है - याद रख लो जिसने भी तुम्हारे साथ बुरा किया है, जिसने भी तुम्हारा अपमान किया है, जिसने भी तुम्हें विपरीत परिस्थितियों में डाला है - प्रकृति एक दिन उससे भरपूर बदला लेने के लिए अवसर देगी - मेरा यह मानना है कि यह अवसर सबको मिलता है और बेहतरीन ढंग से मिलता है - इतना कि आप सामने वाले को पूरी तरह से खत्म कर दे - बस धैर्य रखना होगा और करना होगा उपयुक्त समय का इंतजार



बचपन से कम दिमाग़ की, अर्ध विक्षिप्त, मनोरोगी या पता नही क्या क्या उसे कहा गया था, मैंने उसको देखा बचपन से हंसते बोलते और मसखरी करने से रोते हुए भी - आज खत्म हो गई , माँ बाप को दुख हुआ, लाजमी था यह सब भी पर सुकून यह है कि उनके सामने ही यह मेंटली रिटार्डेड बिटिया इहलोक में चली गई क्योकि ब्याह के बाद डोली लौट आई थी फिर से ससुराल से - यदि माँ बाप मर जाते और वह जिंदा रहती तो जीवन के समीकरण कैसे होते यह सोचकर ही मैं कांप जाता हूँ
प्यार रुक गया था, माँ बाप का खत्म नही हुआ था, आज खत्म नही हुआ - जब अपनी ही ब्याहता बेटी को पिता ने मुखाग्नि दी तो प्यार मुकम्मल हुआ और एक कहानी पूरी हुई , पचहत्तर वर्षीय पिता के आँसू जब बह रहें थे उस अग्नि के समक्ष तो लोग बातें कर रहे थे और बाद में कपाल क्रिया के बाद पिता ने भी मुस्कुरा दिया यह सोचकर कि सब कुछ तो खत्म हो गया, अब मियाँ बीबी के पास कोई काम शेष नही है


उधर उस अर्ध विक्षिप्त बेटी की देह जल रही थी, लोग गपशप में व्यस्त थे और पिता व्योम में निगाहें टिकाए सोच रहें थे इस खाली समय का अब क्या करेंगे - मुझे याद आई एक और मित्र की जो अपनी ऐसी ही एक बहन को सम्हालते हुए कब 60 की होकर रिटायर्ड हो गई मालूम ही नही पड़ा - कल यह घड़ी उसके सामने आई तो क्या उसके पास दिन के चौबीस घँटों का कोई चक्र अब होगा जबकि वह सब कुछ छोड़ चुकी होगी

जीवन में प्रेम रुक जाता है, कभी खत्म नही होता

हम जिन्हें अपने से ज़्यादा प्यार करते है यदि वो अपने सामने ही व्योम में मिल जाएं तो यह उपकार होता है प्रकृति का - पर यह समझने के लिए बहुत हिम्मत चाहिये होती है

आत्मा अमर है, अजर है और यह ना मरती है ना जीवित होती है, शरीर के रूप में चोला बदलती है ... ओम शांति, ओम शांति, ओम शांति

ज्यों की त्यों धर दीन्ही
***
दिनभर की थकान, काम काज, कार्यक्रम और इस सबके बीच रविवार कब निकल गया मालूम नही पड़ा
अभी लौटकर आया तो अपने पसंदीदा कॉफी मग में स्ट्रॉन्ग, बगैर चीनी की कॉफ़ी - वो भी चॉकलेट पाउडर डालकर पी रहा हूँ तो सुकून मिल रहा है
आसमान पर बादल है, दिन में खूब तेज़ पानी गिरा है आज फिर, और अभी भी बूंदाबांदी हो रही है, गुलमोहर पर चिड़ियाएँ बैठी है काँपते हुए, अजान हो रही है, गुरुद्वारे से गुरुबाणी की आवाज़ आ रही है


और ये कॉफ़ी लगता है एक प्रेम पत्र है जो किसी भीगे हुए कागज़ पर लिखा जा रहा है , स्याही फैल रही है और भाव भी

शब्द बूंदों के बीच फंस गए है और गुलमोहर की शाखों पर हरी पत्तियों के झरने से अब कुछ पारदर्शी हो रहा है, वे लाल चटख फूल प्रेम की पाँति लेकर कही दूर चले गए है और मैं खोज रहा हूँ उनकी सुवास यहां - वहां, नही जानता पर दिल से दुआ देता हूँ कि बेमौसम की ये बरसात जीवन भर यूंही बनी रहें और उन सब लकड़ियों को भिगो दें जो देह को जलाती है - बरसात में भीगी लकड़ियां देर तक सुलगती रहती है

अपनी स्मृतियों को इसी तरह सुलगते देखना चाहता हूँ सदियों तक कि फिर कोई कभी यूं भभकते हुए खत्म ना हो - देह धरे को दण्ड भुगतना ही होता है सबको एक ना एक दिन और ये बूंदें इसकी गवाह रहेंगी
जब होवेगी उमर पूरी
◆◆◆


आग पुराणों में 39 प्रकार की बताई गई है और आग के यूँ तो कई धर्म है पर यह धर्म जो काया को जलाकर भस्म करने का है वह मुझे सर्वाधिक प्रिय है क्योंकि गीता का दर्शन मानें तो शरीर इसी अग्नि से पंच तत्वों में मिल जाता है परंतु जो शेष रह जाती है वह आत्मा है - जो अजर और अमर है


वो कहते है नैनं छिन्द्रन्ति... पर जब देह के पिंजरे को तोड़कर निकलती है तो कही से छन्न की आवाज़ भी नही होती, हम समूचे जीवन में बार बार ऐसे दृश्यों को देखकर, मृत्यु को गुजरते देखकर और मौत के क्रंदन सुनकर बड़े होते है, पक्के बनते जाते है, ढीठ होते जाते है कि जब यह हम पर गुजरे और मौत की आहट सुनाई भी दें तो हम इतने मजबूत हो जाएं कि कोई स्वांग कर ना सकें, जब कोई बेहद अपना गुजर जायें तो दहाड़े मारकर रोयें जरूर पर चार कांधों पर डोली गुजरे तो शुष्क हो जाएं और लौट आएं जीवन में

सच में अभ्यास से इतने मजबूत हो जाते है कि अपनी माँ को भी जला देते है जिसके गर्भ में रहकर आप इस धरा पर आए, अपने पिता के भाल को भी जिसने आपको सिर ऊँचा उठाना सीखाया था, अपने सहोदर को भी जो उसी उदर से आया था जहां से आप या हम और साथ हंस बोलकर बड़े हुए - बहुत ढीठ है मनुष्य

यही सोचकर फिर संसार में आना होता है कि अभी भुगतना और बाकी है यहां और वो सुनहरी आगत और आहट का बेसब्री से करना होगा इंतज़ार अभी, हर बार भरे और रुंधे हुए गले से लाश को कंधा देते हुए जाता हूँ - रिवाज़ है कि कंधा देना चाहिए - पुण्य भी मिलता है और आपने किसी को नही दिया तो आपको कौन देगा यही रीत है पर जब धूं धूं कर जलने लगती है काया तो कबीर के शब्द याद आते है - क्या तन माँजता रे , एक दिन माटी में मिल जाना, या जिन जोड़ी तिन तोड़ी, या झीनी रे झीनी या याद आता गोरी सोई सेज पर .... बहुत खाली होकर वहां इकठ्ठी भीड़ का हिस्सा बन जाता हूँ और रोजमर्रा की घटिया और सांसारिक बातों में उलझा लेता हूँ खुद को - बहुत विनम्रता से मिलता हूँ लोगों से पर दिल दिमाग उस लाश के साथ लगा होता है जो काले पतरों के नीचे जल रही है और उसका ताप इतना होता है कि कोई खड़ा नही हो पाता - और यही बेहतर भी है कि जलते समय कोई पास ना हो

बाहर निकलता हूँ तो उन पेड़ो को देखता हूँ जो वहां की हवा में भी फल फूल रहें है, झूम रहें हैं, इठला रहें हैं और इतने झुक झुक जाते है मानो हर आने वाले से कह रहे हो - मत कर अभिमान, यह काया मिट्टी की, पर हम सुनते कहां है - रीते हुए से भर्राए मन से बाहर निकलकर यूं सामान्य हो जाते है कि लगता है जो पीछे छूटा है वह त्याज्य है और मेरा ना वर्तमान है ना भविष्य और एक तनी गर्दन के साथ मुस्कुरा कर संसार जीतने निकल पड़ते है और यह भूल जाते है कि जो जीवित है अभी धरा पर - उससे ज्यादा उनकी संख्या है जो मिट्टी बन चुके है और पृथ्वी पर सैंकड़ो लाखों परतें चढ़ चुकी है लाशों की मिट्टी की - है कही अंत इस दौड़ का

संसार मे सबको दुख होता है और अपना दुख सबसे बड़ा लगता है ....मुझे ये अग्नि, ये स्वांग, ये विलोपित होना और यूँ पलभर में धुआँ बनकर विलीन हो जाना बहुत पसंद है और रोज शाम कटती है ऐसे मानों यह आखिरी हो और सुबह ऐसे जैसे कभी आई ही हो ना ज़िंदगी में कभी
*** उजली सुबह के इंतज़ार में कितनी ज़िंदगी गुज़र गई और जब मुड़ी तुड़ी अवस्था में मिली तो उजाले लुप्त हो चुके थे
***
पानी हो और धरती भी हो, ना अंधेरा हो ना उजाला, सूरज की चमक भी कम ना पड़े और चाँद पर कभी अंधेरा ना छाएं , पेड़ों से आच्छादित हो आंगन और मछलियों को ठौर ठिकाने मिलते रहें, चींटियों की कतारें हो और गिलहरियों की पदचाप बजती रहें कानों में, टिटहरी के शोर से नींद खुल जाए और बिल्ली की आँखे देखता रात गुजार दूँ, आसमान के तारे स्वप्नों में झिलमिलाते रहें और भूगर्भ में छुपे हीरे अपनी चमक से दीप्त करते रहें जीवन के अँधियारे , दुखों के दानावल झंझावात बनकर बरसें और सुखों के तिलिस्म भरभराकर लाक्षागृह में भस्म हो जायें, एक घर की तलाश है ऐसा घर जहां जाने के लिए जन्मो - जन्मान्तर से लौट रहा हूँ काया दर काया में और अब तलाश हुई है पूरी कि जब मन फकीर हुआ और गुना बुना कबीर का बाना और ओढ़ी चदरिया तब समझा कि



"जहां पुरुष तहवा कछु नाहीं,

कहे कबीर हम जाना

हमरे संग लाखे जो कोई,

पावे पाद निर्वाना...सखिया"


वे कहते है - समझ बूझ बन चरना हिरणा
***
चीख
◆◆◆
जीवन में अंधेरे ही थे, चलते ही जाना था लगातार और इधर लम्बी उम्र और जिम्मेदारियों का बोझ उठाते हुए कंधे ढीले ही नही पड़े बल्कि हड्डियां भी जगह - जगह से सरक गई, कंधे से होते हुए कमर में लोच के साथ बड़ा गैप हो गया कुछ ऐसा कि बैठना दूभर हो गया ज़मीन पर


आंखें धंस रही थी और ललाट चौड़ा होने लगा था, सिर के बाल उड़ चले थे - कुछ प्रतीक के रुप में लटकते थे गुच्छे के रूप में और जब भी सुलझाने की कोशश की वे ठीक जीवन के मानिंद ही निकले - सुलझने के बजाय जड़ से खत्म हो गए

जब चलता तो लगता कि अब घुटने भी घिस गए है और कराह के साथ हर कदम आगे पड़ता था, पर जितना आगे बढ़ता उतना ही पीछे जाकर पछींट जाता जीवन और बहुत मुश्किल से अपने को उस अतीत की गुफा से खींचकर लाता और हिम्मत जुटाकर फिर एक कदम बढ़ाता पर दूसरा साथ देने से मुकर जाता

अँधेरों में ही बीता हर पल, अँधेरों से ही सांसें उधार ली, अँधेरों में ही पहचाना अपने को और उन सबको छूकर महसूस किया जिन्होंने घाव दिए थे और देख भी नही पाएं अश्रुधाराओं को, अँधेरों में रिश्तों की आँच और सर्द भावनाओं को देखा और किनारा कर लिया और अँधेरों में ही सब वसन्त खिलें, शरद के चाँद की उजास और हल्की सी ठंड की कँपकपी हाड़ के भीतर पाकर काँप उठा था

उजास से विरक्त रहा और जब भी कभी उजालों में प्रतिफल पाने की इच्छा से बाहर निकला तो लगा ये जगमग आँखें चौंधिया देंगी, इसलिए वह अंदर ही अंदर छुपता रहा, आजीविका के लिए भटकन तब ही होती जब अँधेरे का साम्राज्य अपने शिखर पर होता

साँसों, गति, शरीर और प्रारब्ध के बीच झूलता जीवन क्यों, कब, कैसे अस्तित्व में आया - यह नही मालूम, पर जैसा सुना था कि हर चर - अचर का इस धरा पर आने का एक उद्देश्य होता है और यही मानकर वह पांच दशकों से अपने होने के उद्देश्य खोजते खोजते थक गया था, अपनी आत्मा पर रखी कोई गठरी खुल नही रही थी, वह निराश हो चला था और इतना थक गया था कि वह आँखें खोलने में भी असहज हो जाता, हाथ की उंगलियां हिलाने में उसे तकलीफ़ होती, पलकें झुकाने में लगता कि कोई पत्थर सीने पर रख दिया हो किसी ने , सोचना शुरू करता तो शरीर टूटने लगता

बस, यही सब ढोते हुए आज फिर वह अँधेरे में चला आ रहा है, सड़क पर आवाजाही है - उसे मालूम था कि रात के समय गाड़ी घोड़े किसी के बाप के नही होते और अचानक उसे लगा कि पीछे से साक्षात मौत आ रही है, उसे लगा कि शायद यह वहम भी हो जैसा कि हमेंशा से होता आया है - आज उसने फिर कोशिश की कि कदम उठाये और एक ओर हो जाएं पर कदम थक गए थे, धोखा दे दिया उसे और ..

आज कुछ विकल्प नही था, एक धक्के में सब कुछ छुट गया था, एक चीख कर्कश स्वर में निकली, भीड़ की आवाजों में वह खत्म हो गया था, उसे लग रहा था कि वह किसी बहुत तेज़ चमकने वाले जुगनू की पीठ पर बैठकर उड़ा जा रहा है व्योम में और चंद मिनटों में ही उसकी 'बॉडी' को देर रात डॉक्टर ने मौत की घोषणा के रूप में जाहिर किया

रात भर, वह जो एक अदद शख्स था मुकम्मल पहचान के साथ जल्द ही बदल गया और उसकी 'बॉडी' पोस्टमार्टम के लिए इंतज़ार करती रही, वह शुक्र मना रहा था कि कल जब यह क्षत - विक्षत शरीर सूरज के भक्क़ उजाले में खोला जाएगा तो वह आकाश गंगा के दूर किसी कोने में तिरोहित हो चुका होगा

दहाड़े मारकर रोते लोग कितने नकली होते है वह दूर अँधेरों से देखकर मुस्कुरा रहा था

***
संघर्षों का अंत होना निश्चित नही है, हर सांस जो आ रही है और एक कड़े आत्मावलोकन के बाद हम उसे बाहर निकाल रहें हैं वह भी एक चुनौती है जो हर गुजरने वाले पल के साथ बढ़ते जाती है, फिर लगता है एक ना एक दिन मंज़िल होगी एकदम आँचल में - किसी पके फ़ल की भांति टपक पड़ेगी अनायास और संग चल देंगे सब कुछ यही छोड़कर सबको रोता बिलखता छोड़कर और लौट जाएंगे मुस्कुराते हुए क्योकि सब ठीक तभी होगा और बाँछें खिलेंगी उसी दिन - तैयार करें अपने को कि उस दिव्य बगीचे का फ़ल कभी भी टपक सकता है, कही भी, किसी भी समय
***
आज फिर शरद पूर्णिमा है - चांद को देखो कितना सुंदर है
तो
तो, कुछ नहीं - ठीक है ना - यह अभी-अभी कुछ घंटों बाद डूब जाएगा, अब कल से फिर इसका भी धीरे-धीरे पतन होना शुरू होगा और बस देखते ही देखते अमावस आ जाएगी


एक बात बताओ बारहों मास की हर पूनम तो हर बार पूरे चांद को लेकर आती है फिर इसे ही क्यों इतना महत्व - क्यो बताओ ना

पता नहीं ....

मुझे लगता है हमारे आसपास भी बहुत लोग हैं , पर आज की रात मैं तुम्हारे साथ हूं , कल से मैं भी दूर, दूर, बहुत दूर और फ़िर एक दिन सब खत्म जैसे अमावस का चाँद डूब जाता है

उफ उफ...... बस करो , देखो चाँद डूबने लगा है तेज़ी से
***
अँधेरों को जीने का हौंसला रखें जीवन में


◆◆◆

हमें उजालों में जीना ही नही आया हम उजालों में जितने नाकामयाब रहें उतने कभी कही नही - नैराश्य, अवसाद, संताप, अपराध बोध, एकाकीपन, त्रासदी, घुटन और कुंठाएँ जितनी उजालों में मिली उतना कही नही


हम घूमते रहें कुम्भलगढ़ के, आमेर के, चित्तौड़ के, गोलकुंडा के अभेद्य किलें उजालों में और दम घुटता रहा हमारा, इनकी ऊंची दीवारों और शौर्य पताकाओं की आँच में यश - कीर्ति की गाथाएं सुनते हुए हम सुन्न हो गए इतने कि मनुष्य होने की मूल भावनाएं और गुण भी खत्म हो गए

हमने पीपल, बड़, सागौन, बबूल, आम, महुआ, नीलगिरी और देवदार के ऊँचे वृक्ष देखें उजालों में और उन पेड़ों की छाँव में हमने महसूस किया कि कितने अस्थिर है - हम चलायमान होकर भी इस धरा पर

नदियाँ, समुद्र, कुएँ , बावड़ियों, तालाबों, पोखरों और नालों ने सीखाया कि उजालों में ही दिखती है कालिख और बजबजाते हुए सूक्ष्म जीव, अँधेरों में पानी की अठखेलियाँ और खिलखिलाहट की आवाज़ें भ्रम पैदा करती है और हम इनमें तल्लीन होकर खो देते है अपना सुकून

हम पहाड़ों पर घूमें उजालों में, लम्बी सुरंगें पार की हमने टिमटिमाते हुए मद्धम बल्ब की रोशनी में, घने जंगलों से गुजरे भक्क़ उजालों में - मकड़ियों के जालों को निहारते और पगडंडियों पर आहिस्ता से कदम रखते हुए पर हम हर बार भटके और मंजिलों को खोया

उजालों में हमने दुनिया के बेहतरीन लोगों से तवारुख किया - उनकी चमकती आँखें देखी, दिलकश आवाज़ सुनी, गुनगुनाये और उनकी लिखी तहरीरें पढ़ी और गुनी - पर हर बार गुनगुने पछतावों में डूबकर लौटे और कसम खाई कि अब नही और इस मनुष्य से कोई वास्ता

हमने उजालों में मित्रता, ईमानदारी, सरलपन , सहजता और मनुष्येत्तर और मनुष्यनिहित गुण देखें - भोले भाव और उदात्त मन से भावनाओं को उंडेल दिया उद्दाम वेग से कि रिश्तों के कोमल तंतुओं में गूँथा हुआ मन किसी और मन से दूर ना हो जाएं, उजालों की आंच में ही इन दोस्तियों को पलते - पालते उम्र का लम्बा हिस्सा निकल गया, पर कुछ हाथ नही आया

आज इस एकांत में इन बरसती बूंदों में जब अँधेरा चहूँ ओर व्याप्त है और रिमझिम की आवाज़ आत्मा के पोर - पोर को उद्धिग्न कर रही है, तो समझ आया है कि अँधेरा ही हमारा शाश्वत और स्थाई भाव है और जीवन के अँधेरों को जितनी जल्दी हो सकें पहचान लेना चाहिये और उन सबको भी जो हमें यहां धकेलकर लाये है तर्पण करने कि हमारे जीवन की समिधा से उनकी उपासना पूरी हो और वे उजालों की हकीकतों से सबको बरगलाते हुए हमें मुक्त कर दें - बगैर किसी प्रतिफल के और ऐसी जगह जाकर हमें विलोपित कर दें कि हम उजालों का नाम ना लें फिर

अँधेरों के बगुले उजालों के राजहंसों से बेहतर है - आज सबको माफ़ करता हूँ , उन दिव्य उजालों के संगी साथियों को जो सूरज की तप्त रोशनी में तृण तृण लेकर सब कुछ अंगिकार कर रहें हैं और सिरे से दुनिया को उजालों में लाकर विगलित कर रहें है
***
धूप निकली है आज बड़े दिनों बाद - गली में सूरज का स्वागत जैसे घुप्प काली अँधेरी रात में चाँद का आलोक हो - दमकता चमकता राजदुलारा


***
ऐसी धूप आई ना थी जीवन में जो सब कुछ सूखा रही है तो भी मन जल नही रहा
छत पर लौट रही है गिलहरी, चिड़ियाएँ, चींटियाँ, मकोड़े, और तितलियां
पत्तों की सरसराहट फिर सुनाई दे रही है, चमकने लगे है कांच और दिखा रहें है प्रतिबिंब फिर से


आसमान उजला सा है धुला धुला और दूर तलक नज़र जाती है तो पक्षियों के झुंड डैने फैलाएं दिख जाते है

कल चाँद देर से भले ही निकला था बहका बहका सा पर छत से सारी रात निहारना बहुत भाया

शरीर ने देखा है सूखा सावन और भीगा भादो अब कार्तिक मास की आगत है पदचाप सुनाई दे रही है कही

भीतर ही भीतर कुछ खदबदाता है कुछ निकलने को बेताब और कहने को अपने ही में मगन दुनिया से दूर

यह क्या है मुझे नही मालूम - जब साथ छोड़ दें क्षणिक एक पांव शरीर से तो दुनिया की दूरी बहुत लंबी हो जाती है और कुलांचे मारना एक दुःस्वप्न की हक़ीक़त

आईए नापें मन की उड़ान से दुनिया दिलों की दूरियां

दोस्तों की हक़ीक़ते वाकिफ़ कराती है असलियत से

***

भीगोकर जो गया था अभी अपने पीछे एक गहरा अँधेरा भी छोड़ गया है

जीवन में अब कुछ भीग जाने के बाद जो शेष बचता है वह तिमिर ही है

जो तिमिर है वही से उजालों का पता चलता है

जो उजालों की लकीरें हैं वे ही अदृश्य भाग्य रेखाएँ है
यही रेखाएँ जीवन का प्रतिफल है जो मृत्यु का प्रतिसंहरण करती है
जीवन विगलित होता है बारम्बार और हम प्रव्रज्या में डूबे डूबे साधौ साधौ करते है
***
10 सितंबर
◆◆◆


कमरा पूरा अस्त व्यस्त था - किताबों का अंबार लगा था पत्रिकाएं खुली पड़ी थी, कुछ कागज बिखरे पड़े थे , टूटे हुए पेन, जमीन पर ढुलकी हुई स्याही, खुला हुआ लैपटॉप, रेडियो , लेपटॉप का टूटा हुआ बेग, मोबाइल के चार्जर, यूएसबी, एक स्विच पर लटक रहा मोबाइल , फ्यूज बल्ब, धूल खाती ट्यूबलाईट्स, हेडफोन जो बुरी तरह उलझ गया था, बिस्तर पर अखबारों के ढेर थे , चादरे कहां छुप गई थी - मालूम नहीं पड़ रहा था
तकिए की खोल में रोटी के टुकड़े और प्लास्टिक के बर्तन में पड़ी दाल , टमाटर , प्याज़ और खीरा के टुकड़े रोटी के साथ सलाद होने का इतिहास बता रहे थे, समझ नहीं आ रहा था कि यह कमरा है या किसी कबाड़ी का ठेला - परंतु जो भी था कमरा ही था , शराब की बोतलें इतनी थी कि उन्हें बेचकर इस मंदी में एक देशी अध्दा तो आ ही सकता था , पर अब मन उचट गया था शराब से भी लिहाज़ा उसे अब ग्लानि होती थी
दीवार से सटकर बैठा हुआ वह शख्स ऊपर से टूटी हुई छत को देख रहा था जहां से लगातार तीन दिन से पानी टपक रहा था और उसके ठीक नीचे पानी का सैलाब था जो पूरे कमरे को गीला किए हुए था, उसका पैंट भी गीला होकर अब बदबू मार रहा था , पुट्ठों पर खुजली मच रही थी, कंजी लगी दीवारों से सटा होने के कारण पीठ भी भींज गई थी, लाल ददौडे उभर आये थे, दोनो जांघों के बीच लाल चकत्ते निकलें थे और पांव के पंजों में पानी के कारण लाल दाग हो रहे थे ,अपने दोनों हाथों की उंगलियों को हथियार बनाकर वह इस मीठी खुजली को खुजाकर तीन दिन से संतुष्ट कर रहा था और आंखों में एक वहशी पन उभर आया था उसकी
समझ नहीं आ रहा था कि इस पानी को कैसे बाहर निकाला जाए क्योंकि निकासी का कोई द्वार नहीं था ठीक वैसे जैसे फैली हुई देह पर छिद्र तो कई थे परंतु अंत में आत्मा कहां से निकलेगी - उसे पता नहीं था, कल ही वह दिन गुजरा है जब दुनिया भर के लोग एक दूसरे को सांत्वना बांट रहे थे और कह रहे थे कि अपने अवसाद और तनाव में मुझे फोन कर लेना , मुझे कह देना कहने से जी हल्का हो जाता है, बोल लेने से मन का घाव भर जाता है, सब कुछ साफ-साफ कह देने से सब कुछ ठीक हो जाता है
उसने भी कुछ ऐसे ही संदेश अपने मोबाइल पर पढ़े थे और उसके बाद जब मोबाइल की बैटरी खत्म हुई तो उसे जरूरत महसूस नहीं हुई कि उसे फिर से चार्ज पर लगाया जाए - परंतु अचानक उसे याद आया कि बहुत साल पहले उसके पिता और फिर बाद में थोड़े साल पहले मां गुजर गई थी, कभी-कभी उसे लगता था कि अंधेरे में आकर वे दोनों उससे बात करना चाहते हैं मोबाइल पर कैमरे के सामने, जी हां ठीक समझ रहे हैं आप - फ्रंट कैमरा के पास में जब नीले रंग का एक बहुत बारीक सा मद्धम नीली रोशनी वाला सेंसर का बल्ब रात अंधेरे में जलता है तो उसे लगता है कि उसके पिता बात कर रहे हैं , बीच-बीच में जब बैटरी कम होने के मैसेज आते है कि 25% बैटरी बची है तो उसे लगता है कि उसकी मां उसे कह रही है कि जीवन का इतना हिस्सा निकल चुका है , अब चार्ज कर लो - अपना जीवन संवार लो और कुछ आगे बढ़ो परंतु उससे कुछ समझ नहीं आता उसे लगता है जो कुछ होना था वह हो चुका है, जो कुछ उसके पास है वह खत्म हो चुका है , उसके पैदा होने का मकसद यही तक था , उसने अपना सर्वस्व देकर अपना कर्ज संसार के प्रति चुका दिया है और अब जो वह जी रहा है वह महज एक अनवरत सी प्रतीक्षा है मौत के आगत की
वह धीमे से उठा उसने धीमे से उस डिब्बे को ढूँढा जिसमे माचिस रखी थी सौभाग्य से उसके बहुत पास रखा था वह डिब्बा, भीगी हुई अगरबत्तियों को बमुश्किल जलाया और एक खीरे के टुकड़े में खोंस दिया और फिर बेचैनी से आलमारी के टूटे दरवाज़े को आहिस्ता से पकड़कर रखा और दूसरे हाथ से एक कपड़े की थैली निकाली जिसमे टेलीफोन बीड़ी का आधा बिण्डल पड़ा था जो उसके दोस्त ने उसे दिलवाया था जब वो उसके घर अरसा पहले आया था, इन दिनों वह बहुत बड़ा आदमी हो गया है उसकी कहानियों पर दो फिल्में बन गई है - काँपते हाथों से बीड़ी सुलगाई स्वाद तो नही था पर दोस्ती की आंच बाकी थी सो कमरा बीड़ी और अगरबत्ती के धुँए से महक रहा था उसने एक बार अपने कमरे को देखा, उन किताबों को देखा जो उसने पेट काटकर खरीदी थी, बरसों फ़टे कपड़े और दो जोड़ी स्लीपर में निकाल दी ज़िंदगी यह कहते हुए कि पुराने कपड़े पहनो नई किताबें खरीदो पर आज यह जाला भी टूट गया है भ्रम का
बाहर बरसात के बाद की धुंध थी, ना कोई अपना नज़र आ रहा था ना कोई दोस्त , बूंदों का शोर था, चुभती हुई हवा और आसमान का साया भी सर से उठ गया था, पाँव रखने को जमीन बची नही थी - उसकी आवाज भी कही जा नही रही थी, अचानक उसने निर्णय लिया और वह जुट गया अपनी यात्रा की तैयारी में उसे खुद अपने को विदाई देना थी आज
एक ढेर किताबों का लगाया उसने बीचों बीच, उसे सब याद आ रहा था और वह हाथ में कोहनी से पंजों के बीच प्लास्टिक की सुतली को डबल करने की प्रक्रिया में साक्षी भाव से जुटा था - एक बार छत की गर्डर को देखा फिर गणितीय ज्ञान से अनुमान नामक मूल्य का प्रयोग किया सुतली का फंदा उस पार से निकाला और फिर तसल्ली से किताबों पर खड़ा हुआ , जेब से बीड़ी निकाली एक और - सुलगाई और जोर से तीन बार चिल्लाया 10 सितंबर
मुक्तिबोध को याद किया उसने जिसका जन्मदिन था और ताउम्र घुटता रहा वह भी ऐसी ही वीरानियों में, अँधेरों में "अपना सब वर्तमान, भूत भविष्य स्वाहा कर
पृथ्वी-रहित, नभ रहित होकर मैं
वीरान जलती हुई अकेली धड़कन"


और अंत में मजबूत इरादा करके दोनों हाथों से प्लास्टिक की सुतली खींच ही दी, झूलकर लटक गया था चेहरा, वह फिर भी मुस्कुराया मानो कह रहा हो - "अरे , मर गए तुम और ज़िंदा रह गया देश "
[ तटस्थ ]
#टेलीफोन_बीड़ी का सन्दर्भ मित्र और अग्रज Charan Singh Pathik जी का है }



***

एक कमरा है जिस पर पतरा लगा है और ऊपर खपरैल है यह शायद उसकी उम्र से भी पुराने हैं और इतनी पुराने कि इस पर जमी हुई कंजी भी अब शायद सदियों से इस तरह चिपक गई है कि उसे अलग करना नामुमकिन सा है - जैसे उसकी हड्डियों पर झूलती हुई यह चमड़ी जिसको खींच कर अलग कर पाना, हालांकि ना चमड़ी अलग होती है ना कंजी - पर जीवन इन दोनों के बीच में से कहीं ना कहीं दिखना चाहता है
आज फिर ढिबरी खोजता रहा वह जब एन शाम के समय बत्ती गुल हो गई और उसे ना ढिबरी मिली ना दियासलाई , उसने बुझती हुई स्मृतियों को याद कर श्रुति को बड़बड़ाया फिर हाथों से टटोलते हुए एक पुरानी सी बोतल खोली - किनोर टूटे ग्लास में मटके से पानी भरा और थोड़ा सा बोतल को झुकाया और आवाज़ के अंदाज से ग्लास को भरा


अचानक उसे लगा कि कपड़े कुछ ज़्यादा भारी हो रहें है - एक एक करके उसने सब उतार दिए , अब एक गमछा लपेटे वह सोच रहा था इस घटाटोप अँधेरे में अपने निर्वात और एकांत के बारे में, उसके आसपास की सीलन लगी दीवारों पर कॉकरोच रेंग रहें थे, कच्चे फर्श पर झींगुरों की कतार और चींटियों के बीच उसे डर नही लगता था

उसने कभी छिपकलियों को हुश हुश नही किया और ना ही कभी कमरे में मेंढकों या बिच्छुओं को पटक पटक कर मारा - उसके ज़ेहन में ऐसा कुछ दर्ज नही है - अपने निविड़ एकांत में वह निश्चित ही ख़ुश था, इधर उम्र बढ़ने के साथ उसने अपने को अपने एकांत में बांध लिया था और सबसे दूर कर लिया था मानो अब संसार में उसे जुड़ने के लिए कुछ शेष बचा ही नही था

अक्सर अपने में इतना मगन हो जाता है कि उसे पता ही नही चला कि मौत कई बार आई और उसे व्यस्त देखकर लौट गई, अब वह पूरी तैयारी में है कि मौका नही चुकेगा इस बार , कितनी बार उसे लोगों ने अर्धनग्न या नग्न अवस्था में इस कमरे में घूमते देखा पर किसी ने टोका नही - क्योकि उसे फर्क नही पड़ता था , और इसे देखकर एक अजीब सा डर हावी हो जाता

उसके चेहरे पर झुर्रियाँ , होठों की शुष्क पपड़ी, गाँठो नुमा बाल और धंसी हुई आँखें , लगभग रेंगने की प्रतिमूर्ति बन चुका वह अपने पंजों नही, अब इरादों से चलता है , बेतरतीब सा बिखरा कमरा कुछ किताबों से भरा था, पर इधर नई आमद नही थी और किताबों के चरित्र उसके सो जाने पर बहस मुबाहिसा में शामिल हो जाते और उस भयावह शोर में वो इस तरह सोता मानो मौत के आगोश में वह लिप्त हो गया हो डूबकर

यह उसके आखिरी दिन थे पर वह लगा था कि मौत बहुत आहिस्ते से यूँ आ जायें जैसे कोई गिलहरी आकर चुग जाये दाना, एक जुगनू बूझ जाये चमककर, एक तारा टूटे और कोई देख ना लें , एक पहाड़ से कोई झरना किसी नदी में गिरकर एकसार हो जाये और एक नदी सबको अपने में समेटकर दूर कही किसी समंदर में मिल जाये अपने को तिरोहित करके और कोई समुंदर यूँ रिक्त हो जाये किसी प्यासे बादल को अपनी आखिरी बूंद सौंप दें बगैर उद्दाम वेग से किसी को आहत किये हुए

वह बूढ़ा दिनभर ही नही रात को भी नीलकंठ देखता था और भोर के शुक्र तारे को देखकर गीत गाता था आसमान के बदलते रंगों को देखकर कहता - ओ रंगरेज मेरे , कौनसे पानी में तूने कौनसा रँग डाला रे और वह देखता कि मौत आ रही है बहुत तेजी से - और करीब, और करीब - उसे किसी ने सोते नही देखा था और हरदम कुछ ना कुछ करते दिखता था

दीवारें गिरना शुरू हो गई है और समय खत्म हो गया है , एक दिन तो मौत को आना ही है पर यह जो हर पल मर रहा है उसका लेखा कही दर्ज होगा

***

इस वीराने में कोई तो है जो सब कुछ देखता - सुनता रहता है - मकड़ी के जाले , चीटियों की चाल , उदास अंधियारे , खिड़कियों पर बैठे पक्षी , टिटहरी की चीख, मिट्टी में बने छेद, सूखी पत्तियों का आलाप और बार बार लगता है कि कोई झांक रहा है मुझ पर ठीक ऐसे जैसे मौत ताकती रहती है अपने शिकार को हर पल हर घड़ी

***

उसने मेरी क़ाया को नही चरित्र को उठाया और अंतहीन संवाद करता रहा और मैं अभी भी उसके हाव भाव देखकर हतप्रद था कि कैसे कोई इतना बनावटी हो सकता है और यकीन जानिए साहेबान उसका कोई हिस्सा ऐसा ना था जहाँ से चरित्र, औकात या वजूद भी नज़र आये

मैं लौट आया था - अपना चरित्र उसे सौंपकर कि नश्तर चुभोता रहें और जब मुतमईन हो जायें कि अब उधेड़ने को कुछ बचा ही नही है तो फिर थाम लूंगा उसके लिखें - बोलें हर्फ़ और दास्तां पूरी करूँगा पुरसुकून से कुछ ऐसे सोचकर कि बाज़दफे इंसान की लाशों में जुनून नही ख़ुलूस होता है

कमबख्त जो मयस्सर नही होता वही वाईज़ ने खुदा से कहलवा कर बख़्श दिया है इस अखलाख सी ज़िंदगी में
***
बादलों, अंधेरों और टिमटिमाते निविड़ में सहारा खोजेंगे तो लगेगा कि जीवन में दुख, दारुण्य और शास्ति के सिवा कुछ है नही पर वही उजली हल्की धूप में पसरकर फैलेंगे तो पाएंगे कि हर ओर से प्रतिफल आते दिखाई देंगे जो दुखों के संग सन्निहित है पर खुशियों की एक परत भी लपेटे है अपने भीतर कही गहरे 
***
हम सब चेतना की टूटी हुई कड़ियाँ है, जिस दिन जोड़ मिल जाएगा कि हम सब चमकेंगे
मेरा राम निरंजन नियारा है.
***
वक़्त अच्छा भी आएगा 'नासिर' 
ग़म न कर ज़िंदगी पड़ी है अभी
◆◆◆
सोचते विचारते, उहापोह, कुछ अनिश्चय और कुछ ना कर पाने की बेबसी में रात भर जागकर अभी सुबह जब एक मित्र से बात हुई तो उसने यह उपहार दिया, ये दीगर बात है कि समय फिसल चुका है और अब गिनती के लम्हैं ही शेष है



काश, कि दुनिया सच में ऐसे चल पाती, एक दिन और इस पथ पर
रोशनी उगाने का एक जतन और 
एक जतन और अभी एक जतन और

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भाषा अपने आप में एक बहुत बड़ा अंधविश्वास है जो मान्यताओं, प्रथाओं और परम्परा के नाम पर अंधविश्वासों को पोषित, संवर्धित और संरक्षित करती है
***
भाव खत्म हो गए , शब्द खो रहे हैं , कहन की शैली ही नही रही, लगता है इस कमतर बरसात में सब कुछ भीग गया है और कहने - सुनने और देने को कुछ शेष नहीं है, लगता है - रीत गया हूं और यह रीतना ही तटस्थ हो जाना है, निर्वचन की स्थिति है, समय विस्थापन का है और जादू समाप्त हो गया है , पर्दें बन्द कर दिए जाएं और यवनिका को मुक्त कर दिया जाएं
क्या यही समय है जब इन हर्फ़ों पर एक और एपिलॉग लिखा जाये
***
जब सब कुछ खत्म हो जाये और कुछ भी न बचें तो सच में तटस्थ हो जाना चाहिए
बच रहा हूँ बात करने से, फोन उठाने से, लिखने - पढ़ने से - एकालाप भी करने से डरता हूँ
आसमान, सितारें, चाँद - सूरज, धरती, पहाड़ और रास्ते खत्म हो गए हो मानो
एक फूल का पूरा खिलना जीवन के सवालों का जवाब है

एक दोपहर फूलों भरी भी हो जीवन में



बरसती बूंदों में छत की मुंडेर पर एक चिड़िया पंख फहराती है, टिटहरी चीखती है, पत्तियां झूम रही है, मिट्टी ने अपने द्वार खोल दिये है, घने आसमान से तृप्ति झलकती है, नेह की बूंदें हैं चहूँ ओर मन मयूर बन भागता है - अभेद्य किलों की ओर
किन्ही पहाड़ों के उत्तुंग शिखरों पर आँखें खोजती है बहाव - नदियां, समंदर में और किनारों के बंधन तोड़कर उन्मुक्त हो जाना है, लगता है इस स्वप्निल और क्षणिक अलौकिक नृत्य में सरोबार होकर तोड़ दूं सारे रिश्ते और इस नश्वर जीवन के ठहरे हुए से मंच पर एक थाप के साथ सम हो जाये जीवन


उकता गया हूँ मुखौटों और लय ताल को साधते हुए - अब जो बचा है वही है शेष - निःशेष
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प्रकाश और ध्वनि की गति से लेकर हमने संसार की हर गति जान ली - उनके मापन के बारीक से बारीक पैमाने बना लिए है - पर अंधेरों और उदासी की गति अभी मापना बाकी है क्योंकि अंधेरे उदासी का हाथ पकड़े दिल की गहराइयों से गुज़रते हैं - जहाँ किसी की थाह नही, पैठ नही तो क्या पैमाने गढ़े जायें
***
जो रात सो जाता तो बरसात आ जाती
***
जैसे श्राद्ध पक्ष की धूप हो
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धूप से नफरतों का मौसम है और सूरज से बदला लेने की इच्छाओं का क्षण, ऐसे में जीवन से रस का खत्म होना निश्चित ही है
***
पानी से प्यास बुझ जाती तो नदी को बहना क्यों पड़ता, समंदर को क्यों उछाल लेने पड़ते और कुएँ भरे होने के बाद भी क्यों रिक्त रह जाते
***
जैसे परिंदों को बहुत ऊंचे जाने के बाद भी रात के पहले लौटना होता है वैसे ही एक मक़ाम पर जाने के बाद लौट ही जाना चाहिए
जैसे संगीतकार सारे राग गाकर अंत में भैरवी गाता है, एक श्रेष्ठ वादक अपना सबकुछ देकर वाद्ययंत्र भंगुर कर देता है, एक कलाकार अपनी श्रेष्ठ कृति बनाने के बाद रंगों से ऊब जाता है
जैसे नदियाँ अपना सर्वस्व बहाने के बाद समुंदर में मिल जाती है, कुएँ की रस्सी रहट पर ही टूट जाती है, बरसात में ही जंगल सबसे ज़्यादा परेशान करते है, हवाएँ गर्मियों में ही बैरन बन जाती है


समय पर चिंता करके परिंदों की भांति चुपचाप लौट जाना ही जीवन जीने की कला है - एकदम शांत और निस्पृह होते हुए, बगैर शोर किये लौटना ही जीवन का अनंतिम सत्य है और इसे स्वीकार करना ही पड़ेगा

लौट जाओ, हम सब उत्तुंग शिखर पर है अब
***
जो रास्ता जीवन के अंत की ओर जाता है आज फूलों से, गुलाल से अटा पड़ा था
लगता था कि आज सुबह ही कोई इस दिव्य पथ से अपनी यात्रा का ठौर पा गया, मुक्त हो गया और मैं बहुत बचते हुए निकलकर आया हूँ कि कही कोई फूल पांव के नीचे ना आ जाये और उस आत्मा को तकलीफ ना हो जो किसी नश्वर देह में नामवर बनकर रही थी
जब आखिरी मोड़ पर रुका और उधर एक तृष्णा के साथ देखा तो वहां लगे बोर्ड पर नज़र पड़ी



"मुक्ति मार्ग के लिए यहां से मुड़िये"
मुझे समझ नही आ रहा था किधर मुड़ जाऊं जीवन की ओर या मुक्ति की ओर, तीसरा रास्ता अक्सर जीवन में होता नही है और चौराहे के आगे जीवन खत्म हो जाते है
फूल, गुलाल और जीवन के अर्धसत्य हमेंशा ही अनसुलझे होते हैं
***
आसमान काला हो रहा है तीज का अकेला चाँद ही है जो इस कालेपन को और भयावह कर रहा है, हवाएँ मानो किसी ने जकड़ रखी हैं - बाज़दफे एक चील या टिटहरी तीखी आवाज़ में शोर मचाते गुजर जाती है तो निस्तब्धता में खलल पड़ता है
बाकी आरोह - अवरोह में सांसों का क्रम अभी जारी है , दूर पहाड़ी पर घँटे बजाता है कोई तो पुरा शहर कांप जाता है और पेड़ों की पत्तियां भी चीख उठती हैं, यह जागने की बेला है और अपने को झकझोरने की कि कही कुछ भी हलचल हो तो भरभराकर सब नष्ट हो जाएं
मैं ताक रहा हूँ और जाग रहा हूँ कि चौथ के चाँद के आने से पहले आज भोर का शुक्र तारा देख लूँ
***
छपना एक हवस है और यह दिनोंदिन बढ़ते जाती है, अंत में हम अपने मूल चरित्र को भूलकर अति व्याभिचारी और अनैतिक हो जाते है - बस सिर्फ छपते जाते है - एक दिन हम धरा जाते है अपने तमाम कुकर्मों, छल, छद्म, नकल, चोरी, और मुखौटों के साथ और तब तक देर हो चुकी होती है - इतनी कि पश्चाताप के लिए आँसू, मित्र, परिजन और स्वयं का अक्स यानी कोई भी साथ नही होता और हम मर जाते है या यूं कहूँ कि मरना पड़ता है
***
बेचैनी व्यथा का अपमान है, यह अबोले दुख की हड़बड़ाहट में की गई अभिव्यक्ति है जो व्यथा को अपने संपूर्णता में आने से रोकती है और शैशव में ही उसे खत्म कर रीत देती है
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मैं सबके पाप अपने ऊपर लेता हूँ
◆◆◆


तुम्हारे इंतज़ार में जीवन मुश्किल हो गया है - हर जगह उपताप है, अपने कर्मों का प्रतिफल हम सब भुगत रहे है पर तुम तो सब जानते हो हमारी तृष्णा, हमारी भूख और हमारी अकर्मण्यता - अब नही सहा जा रहा


बहुत छोटे छोटे बीज बो रखें हैं, गमलों की मिट्टी पलटकर रख दी है, मुंडेर पर टँगे पक्षियों के पानी वाले सकोरे हटा लिए है, हथेलियां छत से गिरती बूंदों का इंतज़ार कर रही है, जंगलों से बंदर चले आ रहें हैं रोज़ और घर घर की बाल्कनी पर झपट्टे मारते हुए बेचैन है

मुझे एक गिलहरी की उदास आंखों में भविष्य दिखता है, लाल चींटियां लम्बी कतारों में दिशाहीन सी गुजर रही है और कोई उन्हें भगाने को कुंकु हल्दी नही डाल रहा, मेंढकों का टर्राना खत्म हो रहा है, पानी के डाबरों में मछलियों के लार्वा अब तड़फ रहें हैं और पानी की अतल गहराई में जीवन सूख रहा है

आसमान की ओर तकते हुए आंखें निराश हो गई है काँधों पर जिजीविषा का बोझ अब सहा नही जा रहा, प्यासा कंठ ही नही जमीन भी है - तुम अल्लाह, ईश्वर, जीसस या वाहे गुरु हो, अनंतिम हो या अंतिम - हम सब इस धरा के दोषी है, हम सब सर झुकाएं खड़े है

हमारी कातर प्रार्थना के स्वर तुम तक पहुंच रहे हैं ना, हम अभी अपने वंश वृक्षों को यहां रहने देना चाहते हैं , हमने जो किया है उसकी सजा हमारी संततियों को मत दो, झूमकर बरस जाओ

मैं सम्पूर्ण सृष्टि के मनुष्यों द्वारा किये गए समस्त अनैतिक कृत्यों और प्रकृति के नियमों में किये गए बेजा दख़ल की जिम्मेदारी लेता हूँ - इसकी कोई भी सजा भुगतने को तैयार हूँ पर इन सबको बख़्श दो, मेरे सामने तड़फ रहें उन कोमल अंकुओं को बख्श दो, उन अबोध बच्चों का गर्मी में क्रंदन करना अब सहा नही जाता


हे सर्व शक्तिमान और किसी की नही तो मेरी प्रार्थना सुन लें - मैं खुले आकाश तले पंच तत्वों को साक्षी जान और मानकर पुनः क्षमा मांगते हुए तुमसे बरसने की उम्मीद करता हूँ 

सुन लो


***

जीवन में कृतज्ञ होना सीखना चाहिये और विरक्त होना भी तभी संवेदनाएं बचेंगी और तभी सघनता से हम कुछ रच पाएंगे

***

दुविधाओं के संजाल में जीवन का औचित्य बहुधा धूल धूसरित होते नजर आता है, लगता है कि अभी उम्मीदों का बियाबान कही सुस्ता रहा है और आजमाने की बेला पर यजु की काठक, कपिष्ठल, मैत्रायणी, तैत्तिरीय और वाजसनेयी जैसी शाखाओं में उलझ कर रह जातें हैं और यही से प्रारब्ध की शुरुवात होती है

***

समय के तराजू में फुर्सत के पल क्षणिक होते है और दूसरे पलड़े में रखें तनाव, अवसाद और दुश्चिंताएँ अक्सर झुक कर जमीन छू जाती है और आसमान से ऊँची न्याय की पीठ पर बैठा कांटा भी मुस्कुराकर बाज़दफे दगा दे जाता है

***

जीवन से शब्दों का बिछड़ते जाना मानसिक आघात का पहला लक्षण है जो आगे चलकर भाषाई पक्षाघात के साथ आपको लिखने पढ़ने से स्थाई विकलांग बना सकता है

***


उत्तरों पर प्रश्न करना ही सीखना है

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एक अति शिक्षित युवा शोधार्थी और विद्वान साधु पुरुष ने आज मुझसे प्रश्न किया कि दादा बताओ

"इस जीवन में संघर्ष या समर्पण में से क्या चुनने योग्य है"
मुश्किल था जवाब मेरे लिए, कोई प्रत्युतपन्नमति भी नही हुई - फिर बहुत देर सोचा विचारा और कहा कि -
दोनो सापेक्ष है, अलग अलग आरोह और अवसरों के अनुसार तय करना होता है, किसी एक से अब सब नही हो सकता जीवन में
परिवार, समाज और देश के लिए समर्पित भाव से रहना है, माता पिता के लिए समर्पित भाव से रहना है - तो बहुत सारी इच्छाओं का समर्पण करना पड़ेगा, प्रेम में हो तो भी समर्पण करना पड़ेगा, जीवन में यदि सांसारिक सुख भोगने है तो पत्नी और बच्चों के लिए समर्पण करना पड़ेगा, उनके लिये नौकरी करना होगी, और नौकरी के लिए अपनी इच्छाओं का दमन करना पड़ेगा - जिसे समर्पण के फ्रेम में हम डाल सकते हैं
यदि समर्पण करना है इन सब जगहों पर - तो जीवन में निश्चित ही संघर्ष करना पड़ेगा और संघर्ष बहुत मुश्किल है, संघर्ष के साथ ही समर्पण जुड़ा हुआ है - समर्पण और संघर्ष जीवन में जन्म से उपजते है, इसे ऐसे समझो मानो ये दोनों प्रेम की राह पर चलती दो पटरियां हैं जो समानांतर चलती है पर कभी मिलती नहीं है और एक दूसरे के पूरक रहती है, इनके सुख दुख एक है और दोनो को अलग करके नही देखा जा सकता
संसार में पड़ोगे तो मानकर चलो कि एक गृहस्थ का सारा जीवन यह समझने में गुजर जाता है कि समर्पण करें या संघर्ष करें - रास्ते दो भले ही हो और दोनों का उद्देश्य एक ही है और दोनों में ही मनुष्य अपने छोटे - छोटे सपने भी जी नहीं पाता, कुछ नहीं कर पाता - जो वह सोचता है वह भी नहीं कर पाता - यहां तक कि एक बार वह मुस्कुराना चाहता है फिर भी मुस्कुरा नहीं पाता
मुझे कभी दुविधा इसलिये नही हुई कि मैंने अपने हिसाब से जीवन जिया और जी रहा हूँ
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स्मृतियों की तलाश में उड़ जाने को बेताब पक्षी
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लहज़े को ज़रा देख जवां है कि नहीं
बालों की सफेदी को बुढ़ापा नहीं कहते


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निस्पृह
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यादों का ठिकाना कोई नही वे एक पक्षी की भांति उड़ आती है, जीवन के वक्ष पर फैले दानों को चुगती है, हम पकड़ने जाते है और वे फुर्र से उड़ जाती है


पक्षी रोज़ आते है दाना चुगने पर वे इतने समानुपातिक और आरोही क्रम में होते है कि समझ नही पाते कि कल कौन सा था जिसे पकड़ने की चेष्टा की थी और आज फिर पांवों को हल्के से बढ़ाते ही है कि आहट सुनकर वे पुनः उड़ जाते है


स्मृतियाँ कोई कबूतर नही जो आसमान को बींधते बांस की खपच्चियों से बने और तने चौकोर आकार के जाल पर आएं और बैठ जाएं - ये तो प्रवासी उक्रेन के मानिन्द है, जो कभी आती है तो समूचे ताल -तलैया को खाली कर जाती है और नदियों के रुख मोड़ देती हैं

इन दिनों मैं रात को अक्सर हड़बड़ाहट में उठता हूँ, लगता है गिर जाऊँगा और फिर बहुत हौले से मुस्कुराता हूँ यह सोचकर कि अभी स्मृतियाँ है तो जीवन का अर्थ विविक्षित है, प्रतिफल के प्रति आसक्ति भी बनी है शाश्वत सी - अन्यथा सब तो नष्टप्रायः है



ना जाने क्यों वो सारी जगहें बारी बारी से याद आ रही है इन दिनों जागते सोते जहां कभी गया था - लगता है कुछ कहना चाहती है और अपने दर्द बांटना चाहती है

कुछ चेहरे याद आते है, परेशान हो जाता हूँ, नींद में से जागकर बैठ जाता हूँ और दिमाग पर जोर देता हूँ तो नाम भूल जाता हूँ जगहों के, लोगों के और धुँधला पड़ने लगता है

आवाज़ सुनाई देती है, बातचीत के स्वर तेज़ी से उभरते हैं और मैं सुन नही पाता शोर और सन्नाटों में खो जाती है बातें और सिसकियां

मंडला का किला हो, उदयपुर की सहेलियों की बाड़ी, अरुणाचल के तवांग जिले का गांव हो या कन्याकुमारी के बीच समुद्र में सुनाई किसी मछुआरे की दास्तान - मैं हैरान हूं छत्तीसगढ़ के गांव देहात के किस्सों को याद कर या छिंदवाड़ा के अमरवाड़ा में एक बूढ़ी आदिवासी महिला की हत्या के दृश्य से या बैहर के आसपास के जंगलों में भूखे मरते लोगों के कोलाहल से
बहुत परेशान हूँ 
सब भूलना चाहता हूँ 
कोई दवा है 
मैं स्मृति दोष का शिकार होना चाहता हूँ



मेघों की ताकत यह है कि वे सूरज को ढाँक सकते है और यह जानते हुए भी कि बहुत जल्दी ही वे खाली हो जाएंगे, एक तेज़ हवा का झोंका उन्हें उड़ा ले जाएगा पर जब वे बरसते है तो अपने मन मयूर को खोल देते हैं और झूम कर नाचते हुए धरती के कोने कोने को भीगो देते हैं और अंत सूरज दुबक कर छुप ही जाता है
जीवन में एक बार भी मेघ बन जाएं , एक जुगनू को लुप्त कर दें क्षणिक भर भी तो शायद जीतने के स्वप्न फिर आँखों मे सजाने की हिम्मत आ जायेगी - हवाओं का डर ना हो, रिक्त हो जाएं पूरे मनोभाव से तो शायद कही अंदर से पूरा हो पाएं - यह आधा अधूरापन अब जीने नही दे रहा कही भी

जीवन के चौराहे पर खड़े होकर सही रास्ता तलाशना ठीक तेज़ी से हो रही बरसात जैसा ही है - हर तरफ ऊपर से नेह टपक रहा है और नीचे कीचड़
पेड़ों की छाँह में भी भीगना है और दरख्तों के साये में, ठिकानों में बसे लोग मुसाफिर को कातर दृष्टि से देख दरवाजें बन्द कर लेते है और मन कहता है रास्ता चुनो और चलते रहो
चलना जरूरी भी है, पांव भी सने है कीचड़ में और तन मन भी भीगा हुआ है और चौराहे खत्म नही हो रहें - हर बार नया रास्ता लिया पर वह गलत मंजिल या डेड एंड पर जाकर खत्म हुआ
अब ना चौराहों की चाह है ना रास्तों को चुनने का विकल्प बचा है इसी बरसात में किसी घने अंधकार में बहुत तेज बारिश होगी, इतनी कि आवाजें अपना अस्तित्व खो देंगी, तिमिर में नीड़ ढह जायेंगे, हाथ को हाथ नही सूझेगा, सब कलरव शान्त हो जाएगा
जब आसमान साफ़ होकर खुलेगा तो बजबजाती धरती पर एक सांस अपनी उपस्थिति से विमुख हो जायेगी और किसी को कानों कान खबर ना होगी - चौराहे हमेंशा की तरह फिर भी आबाद रहेंगे भटकाने को


जुलाई की धूप बादलों की शिकायत है


मैं देह में रहूँगा और देह की देखभाल करूँगा तब तक - जब तक इसमें से मैं ना निकल जाऊं , पर जब तक इस देह में हूँ तब तक देह को बाहरी ताकतों , उन सभी बातों और चीजों से बचाना होगा जो इसके भीतर रह रहे मैं को प्रभावित करता है, एक दिन मैं चला जाऊँगा और फिर सब लोग देह को देखकर ही याद रखेंगे और देह को ही पूजेंगे - मैं जब तक मैं में हूँ तब तक का ही खेल है - जब मैं में मैं ना रहूँगा तब सब कुछ विलोपित हो जाएगा


मन को भिगोती दुआओं की बारिश


वर्षा की अमृत और नेह में पगी बूंदे उन सभी पछतावों का गुनगुना पुरस्कार है जो धूप के रहते हमने अपनी आत्मा के किन्ही कोनो को आंच में जलाकर किये थे


बहुत कुछ मिला और उससे ज़्यादा छूट गया समेटने से, कड़ी धूप में जो सूख गया अब वो अंकुरित ना हो पायेगा इसलिए भीगा हुआ तो है सब कुछ पर कोंपलों की संभावना नज़र नही आती - यह धूप और बादल के बीच बरसात में खो जाने का आल्हादित मौसम है

बिन बरसे बादल जब छूकर निकल जाते है तो उससे बड़ा संताप कोई नही हो सकता बशर्ते आपको प्यास का अंदाज़ हो और नेह की एक बूंद का भी महत्व पता हो


मैं प्रार्थना सीखना चाहता हूँ
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ज्यों - ज्यों बादल कारे होते जा रहें हैं गुलमोहर झर रहा है, इन फूलों का झरना यूँ तो नियति का ही एक हिस्सा है पर मन मानने को तैयार नही
रक्तिम लालिमा के इन फूलों से गत 35 बरसों का नाता है, ये मेरी स्मृतियों की सफ़ेदी के सबसे बड़े हिस्से रहें है और मैंने अपने जीवन के बेहतरीन पल इनकी छाँह में बीताये हैं
ये गुलमोहर सिर्फ एक पेड़ नही जो खोखला हो रहा है, इसके मोटे तने में वलयों को चीरकर दीमकों ने घर बना लिया है, रोज़ काली मिट्टी की एक परत चढ़ती दिखाई देती है और अगले दिन भोर में खिर जाती है
मिट्टी से मिट्टी मिलने का यह क्रम बरसों से देखता आया हूँ और पलटकर देखूँ तो एक लम्बा अतीत है जहां मैं साक्ष्य रहा उन सभी ऐसे मजबूत तनों का जिनपर उम्र, घात, बीमारी या दुर्घटना की दीमक चढ़ी मिट्टी से मिट्टी मिली और मन को ढांढस बन्धाते हुए घर लौट आये
कितने ही सूरज ढलते हुए देखें जहां सूरज की रश्मि किरणों से प्रचंड ताप अग्नि शिखाओं का था और एक उद्दाम वेग से सिर फटा - सब खत्म और उस श्मशान वैराग्य से लौटते हुए वही पांव पर पानी डाला, हाथ से आचमन कर कुल्ला किया और चंद बूंदें सिर पर अस्ताचल में उछाल दी, घर आकर स्नान किया और उस लाश को यादों में भी दफना दिया - कितनी लाशों से दिमाग़ का बड़ा हिस्सा भरा हुआ है याद भी नही अब
ऐसी हर शाम को स्नान के बाद इसी गुलमोहर ने सहारा दिया - इसकी हरी पत्तियों से सीखा कि पतझड़ और वसन्त ही जीवन के असली निहितार्थ है , फूलों का आना एक आश्वस्ति और संयोग, तने में वार्षिक वलय बनना उम्र का परिपक्व होते जाना है और दीमक का आहिस्ते से आक्रमण एक बिरली घटना - एक कोताही और फिर मिट्टी से मिलाप का अवसर होना होता है
1989, 2008 और 2014 के वर्षों में इस पर कोई फूल नही आये - यह मेरी स्मृतियों में इसलिये भी दर्ज है कि इन तीन पड़ावों पर भयावह ग्रीष्म का साया रहा और उन शुष्क बादलों में मैंने अपनी छाँह, अपने सहारे और अपना सब कुछ खोया था - खोखला हो गया था तना - इन तीन वर्षों के वलय इसके तन पर नही दिखते जैसे मप्र की राज मछली - महाशीर के शल्कों पर तीन या साढ़े तीन सालों के वलय आधे अधूरे रह जाते है और वह अवयस्क होकर ही खत्म हो जाती है
फिर लौटा खाली होकर इसी के आश्रय में और पाया कि इसने अपना सब कुछ दे दिया निसक्त और निस्पृह भाव से और एक बार फिर पत्तियाँ खिली, फूल आये, तना और मोटा हुआ, वलय बनें और यह फिर हरा हुआ जैसे नाव को बहती धार में दिशा मिली
भोर से रात के तीसरे पहर तक जब इस पर दूधराज, लाल तरुपिक, हुदहुद, टूटरु, लाल मुनिया, धनेश, ठठेरा बसन्धा, स्वर्ण पीलक, गुलदुम बुलबुल, मटिया लहटोरा, बड़ा महोक, लीशरा अबाबील, उल्लू, कोयल, नीलकंठ, तोता, गिलहरी या गौरैया जैसे पक्षी आकर बैठते, फुदकते मेरी खुली छत पर - ढेरों प्रकार के दाने खाते तो मन प्रफुल्लित हो जाता और मैं कोशिश करता कि शुक्र तारे के उदय होने तक संगीत की लहरियाँ सुनता रहूं इनकी और बस निहारते हुए ही आँखें मूंद लूँ
इधर प्रचंड ताप के बावजूद भी पत्तियां हरी हुई है, फूलों ने अपने पूरे लालपन से टेसू को पछाड़ा है और इस पूरे चैत से जेठ में हजारों लोग इसके नीचे से सांस लेकर गुजरे हैं दुआ देते हुए , मुसाफिरों ने सुस्ती ली है और गर्मी में अपनी पूरी आंखें खोलकर रास्ता देखा, निहारा और सही कदमों से मंज़िल पर पहुंचे है
आज जब अभी सूरज की तपिश कम हुई है और पुरा आसमान काले बादलों से ढंक गया है तो एक एक कर फूल गिर रहें हैं और हर गिरते फूल के साथ मैं अपने को भयभीत पाता हूँ और मन अनिष्ट से भर जाता है , आंखें बंद कर बुदबुदाता हूँ, हाथ जुड़ने लगते है और होठ कांपने लगते हैं - ये कोई असहज नही पर एक समय में विचलन की घातक और कमजोर करने वाली स्थिति है
मैं सशंकित हूँ पर पराजित और टूटा हुआ नही, दीमकों में अभी इतना ज़ोर नही कि प्रेम, मुहब्बत, लगाव और अपनत्व की नाजुक बेलों को तोड़कर पूरी मिट्टी खोखली कर दें और मिट्टी को मिट्टी से मिला दें
प्रार्थनाओं के स्वर तेज हो रहें हैं और बादल ज़िद्दी स्वभाव में एक बार फिर घिर आये हैं वसुंधरा को अपने स्नेह से उंडेलने कि ख्वाब सच हो , फुलें फलें और अंगड़ाई लेकर धरती उठें


क्या आप मेरे सुरों में सुर जोड़कर प्रार्थना सीखा सकते है मुझे


शरीर की उम्र, भाव, संवेदनाओं और अपेक्षाओं से कही ज़्यादा इच्छाओं की उम्र अधिक हो जो जीवन के बाद भी बनी रहती है - अनंतिम समय तक के लिए और जब कभी कही से कोई अधूरी रह जाएं तो एक बोझ आत्मा पर सदैव बना रहेगा कुछ इस तरह कि इस धरती से आसमान तक हर कोई उन्हें पूरा करने को लालायित रहें

बरसात, गर्मी या ठंड के बीच इंतज़ार की स्थिति घातक है और इसमें जी लेना ही जीवन है - एक ऋतु से दूसरी ऋतु के बीच वाले संक्रमण काल में जीने वाला कभी निराशा से भर नही सकता और रिक्त नही हो सकता


अपने अपने लाक्षागृह सबके है और उनके पिछले द्वारों से निकल भागने के बजाय हमें उनमें जल जाना चाहिए - मुक्ति इसी में है, षड़यंत्र जिसने भी किये हो उसे भी खुश करना मनुष्य जीवन का एक चरण है


धीरे धीरे बदल रहा है सब कुछ, हवा में शीतलता आ गई है, आसमान काला होता जा रहा है, गुलमोहर के फूल झड़ रहें हैं तेज़ी से, मिट्टी की खुशबू फिर महकने लगी है, ज़मीन भुरभुरी हो रही है यहां और कीड़े निकलने लगे हैं


बस एक यह मन ही है जो इस सबके बाद भी बदलना नही चाहता और उचट जाता है

इंसानों के बीच जो विश्वास है उसके बीच जब स्मार्टनेस या बल्कि ओव्हर स्मार्टनेस आ जाती है वो घातक ही नही आत्मघाती हो जाती है

जंगल कभी बेरंग नही होता

ताप के बादलों में छिपी बूंद का इंतज़ार ऐसी ही बेचैनी है जैसे पहले दीदार की थी तुम्हारे


अँधेरा, रास्ते और आसमान की दौड़ में जीवन खप जाता है - उजालों को बीनते बीनते हम कहां से कहां आ जाते हैं बस रह जाते है तो झीने अवसाद और गुनगुने से पछतावे जिनमे पांव डालकर हम अपनी ही धुन में तिलक कामोद गाते हुए मालकौंस छोड़ देते है



जीवन का अर्थ मिट्टी और राख में निहित है - सवाल सिर्फ एक अस्थाई समझ और नजरिये का है - चाहे तो मिट्टी बन जाओ ताकि नवांकुर निकल सकें या राख जिसमे नहाकर फीनिक्स जन्म ले दोबारा, दोनों ही स्थिति में सृजन है - पर एक धरातल की वास्तविकता है और दूसरी मिथक की पुख्ता धारणा जो सर्वव्यापी है

शाम का रँग बदलने लगा है, हवाएं तेजी से चलती है, धूल उड़ती है और दूर आसमान में जब कालापन नज़र आता है तो मन प्रफुल्लित होने लगता है - यह सुगबुगाहट आश्वस्त करती है और आस्था जगाती है कि प्रचंड ताप हो या भीषण गर्मी धरती तप्त होगी तो ही आसमान से आग के बदले अमृत की नेह बूंदें बरसेंगी



प्रव्रज्या भी एक मानसिक स्थिति है - मानो तो सब यही है संसार में रहकर भी और नही तो वहां रहकर भी संलिप्त होने से क्या होगा
अभी घर मे जितना भी आम आ रहा है - सारी गुठलियाँ सहेज कर रखी है, सब्जियां आ रही है सबके बीज सहेज रहा हूँ
सब्जियों के कचरे, उपयोग की हुई चाय पत्ती को एक बड़े से मटके में, गमले में इकठ्ठा कर रहा हूँ
बीज , खाद तैयार है बस मिट्टी में गूंथकर बरसात की पहली बूंदों के संग रोप दूँगा


किसी दिन निकल जाऊंगा उम्मीद के बीज लेकर लंबे रास्तों, सूनी गलियों और नंगे पहाड़ों पर , जहां जहां पग पड़ेंगे - झुकूंगा नीचे और पग उठाकर हल्का सा गड्ढा खोदूँगा एक बीज डालकर मिट्टी को थपकाउंगा प्यार से और हौले से आगे बढ़ जाऊंगा, पहाड़ पर चढूँगा तो अपने पसीने की बूंदों से सींचूँगा उसकी पहली प्यास और इस तरह धरती के किसी कोने पर हरियाली होगी दमकती - महकती और सांस लेती


मैं आश्वस्त हूँ कि बीज बोने से ही पौधे उगते है, पेड़ बनते है और एक दिन फल आते है , कितना भी कम पानी हो, नमी हो या सख्त मिट्टी - यदि आपने बीजों को सहेजा है और उन्हें सही रोपा है तो नवांकुर आएंगे जमीन फोड़कर आएंगे और खड़े होकर मुस्कुरायेंगे


हर बीज एक विशाल वटवृक्ष की प्रबल संभावना है - यही सभ्यता, संस्कृति और हमारी परंपरा है


धूप का साम्राज्य खत्म हो रहा है, तपती धरा आसमान ताकने लगी है, रोहिणी में तपने के लिए नक्षत्र भी बेसब्र हुए जा रहें है, चातक और चकोर की गिद्ध दृष्टि उन्मुक्त आसमान पर है और ऐसे में बावला मन हरियाली ढूंढ रहा है, पानी के पोखर, तालाब में जाकर एक पत्थर फेंकने की तमन्ना लिए डगर डगर घूम रहा है, किसी गीली नदी में पांव डालकर घण्टों बैठना चाहता है और शाख से बिछड़ी किसी पीली जर्द पत्ती को विरलता से बहते हुए देखना चाहता है
यह धूप के साम्राज्य को विदा देने की घड़ी है जब मन व्याकुल है -धूप जिसने अपने पूरे कड़े स्वरूप में मन की भाप को इतना सूखा दिया कि अब दूर समंदर में उठ रही मचलती लहरों, कारे गड़गड़ाते, ख़ौफ़ पैदा करते बादलों और तांडव करती बूंदों की झमाझम से भय नही होगा


ये धूप के साम्राज्य को विदा कहने का मौसम है


और


मैं ताक रहा हूँ आकाश के उस कोने में जहां सूरज विलुप्त हो जाएगा सदा के लिए


दिन भर के धूप की तपिश, सूरज का घाम और शाम ढले किसी सूनी छत पर गुलमोहर के सामने आसमान में डेढ़ इंच के चाँद को देखकर लगता है - सांसों के आरोह अवरोह में प्रेम की स्वर लहरियाँ गूंज रही हो और इस बेला को यूँही थामकर आहिस्ते से आँखें मूंद लें
हवाओं का मद्धम गति से बहना, ऊपर से पक्षियों का एक कतार में फुर्ती से निकल जाना, दूर किसी निवांत में एक साथ सैंकड़ों दियों की भांति छोटे बल्बों का जलना, चूल्हों से निकले धूएँ के हल्के - हल्के उठते बादल, कोयलों के जलने की सुवास, मंद मंद बजते सुर और इस सबके बीच अपनी ही दुखी और आर्द्र अंतरात्मा का आप्त कोलाहल मानो कहता हो कि सौभाग्य ना सब दिन सोता है


तसल्ली फिर भी नही कही और एक किनारे बैठे हुए लगता है कि बस अब और नही, और नही, कुछ नही - समर भी शेष नही


***
ठंडे बदन को सुबह जब धूप को सौंपती है तो बहुत आश्वस्त होती है घाम इसे और मजबूत बनाएगा और फिर शाम को गहरे अँधेरे में इसके घाव चांदनी धो देगी और यह काया और निखरेगी - कितना अजीब है कि ज्यों ज्यों हम मौत की ओर बढ़ते है काया और आत्मा निखरते जाती है और जब उसके पूरे स्वरूप की बात आती है तो फक्क से सब खत्म हो जाता है

माँ हो जाना एक अवस्था है 
◆◆◆


सुबह से कड़ी धूप में लौटता हूँ तो सबसे पहले जो याद आती है घर के हर कोने में वो माँ के अलावा कोई और हो सकता है क्या



अपनी हर मुसीबत से लेकर हर द्वंद में जो सुलझाव की बात कर सकती थी वो माँ ही थी


अपने जीवन की सबसे बड़ी मुश्किलों को जिससे साझा किया वह माँ ही तो थी , खुशी जीवन में अभी तक मिली ही नही - माँ के होने के बाद कोई और दुनियावी खुशी हो भी सकती थी क्या


1989 से पिता के जाने के बाद जिसने सम्हाला, हिम्मत दी और पढ़ाया लिखाया वह आदर्श माँ ही तो थी


2008 में जब माँ ने देह त्याग दी तब से अपने करीब जिसे सबसे ज़्यादा महसूस किया और तमाम एकालाप किये है उसका साक्षी माँ के अलावा कोई और हो भी नही सकता था


बस, यही है सब कुछ - जो अब समेटने में राह दिखा रही है, मोह माया त्यागकर रास्ता चुन लेने के लिए अपने संग साथ रहने को बुला रही - वो कोई और हो सकता है क्या

निर्मोही बनना और बनाना किसी से सीखा है तो वह सिर्फ माँ से और अब उम्र के इस पड़ाव पर व्यवहार भी बदल रहा - चिंता, लगाव और तटस्थ हो जाने का भाव लगातार बढ़ते जाना एक व्यक्ति का माँ के बाद माँ हो जाना है

बस अपने में हम माँ बनकर रहें दुनिया में तो सब कुछ जोड़ना और छोड़ना संभव है

***
मिट्टी की जुगत
◆◆◆
गुलमोहर के फूल बिखरे पड़े है चहूँ ओर, एक दिया भी है, पुराना है - रँग उड़ गया है, उसकी चमक और शिल्पता खत्म हो रही हैं, मिट्टी बिखरती जा रही है उसकी, तेल की जगह वाली खोल में धूल जम गई है, एक लंबे समय से उसमे पड़ी बाती उड़ गई है, कोर उखड़ रही है, सीढ़ियों पर रखा दिया ना ऊपर जा रहा - ना नीचे; स्थिर है फिर भी एक संदेश है कि इस सबके बाद भी वह दिया ही है, यह फूल कब गिरा - ठहरा, मैं नही जानता पर बासी होकर भी इस नाजुक फूल ने अपनी लालिमा अभी तक खोई नही है


माटी के स्वरूप बनते बिगड़ते है उससे हर बार नई आकृतियां घड़ी जाती है रंगों रोगन होने पर भी मिट्टी की सुवास जाती नही, कृत्रिमता उघड़कर हर बार सामने आती है समय के साथ भद्देरूप में पर जो अंदर से मिट्टी की ताकत है वह उसका मूल नही बिगड़ने देती और इसलिए वह टूट फूटकर , बिखरकर, जर्जर होकर भी दिया ही बना रहता है


अपनी मिट्टी को पहचान लें हम, बाकी कोर किनोर तो बिखरती ही है समय के साथ - अपनी मिट्टी के स्वरूप और आत्मा को देखता हूँ तो जुगत से बने दिए का सब कुछ खत्म हो गया है - मेरे आसपास की प्रकृति ने फूलों को सहेजना शुरू कर दिया है शरीर के भीतर धरी आत्मा पर ये लाल फूल आहिस्ता से धरना शुरू कर दिये है


अपनी मिट्टी पहचान गया हूँ , सब कुछ उजड़ गया है और शाख से टूटते फूलों का इंतज़ार है कि आये और इस काया को ढक दें प्यार और आहिस्ते से


एनजीओ में रहकर हम सबने सीखा कि संस्थाएँ, सिद्धांत और मूल्य व्यक्तियों से बड़े होते है - चाहे वो एनजीओ के आका हो, मालिक हो या वरिष्ठतम अधिकारी
यही बात पार्टियों के लिए लागू होती है
अफसोस कुछ लोग अपनी औकात भूल जाते है और क्षुद्र स्वार्थों के लिए सब कुछ दाँव पर लगाकर सिद्धांत, मूल्य भूल जाते है और इस सबमें एनजीओ या पार्टी को विनाश के मार्ग पर ले आते है

धूप ने उतरते हुए सांझ को दुलारा, आशीष दिया और बोली इसलिए नही जा रही कि कमज़ोर हूँ पर इसलिये कि तेरे साये में चाँद आएगा और ठूँठ पर उगता ये उम्मीदों से भरा पौधा अपनी हरियाली को निखार लेगा


कड़ी धूप में भर दोपहरी किसी लम्बी राह पर भूखे प्यासे चलते हुए एक बड़े से नीम के नीचे बैठकर संयम के साथ निम्बोलियाँ बीनते हुए आगे की ओर देखना और फिर पसीना पोछते हुए पुनः नंगे पांव चल देना ही प्रेम है जो संध्या तक प्यार की मंजिल पर छोड़ देगा
जो आया है उसे जाना ही है और जब तक हम किसी से भी जुड़े रहेंगे तब तक जूझते रहेंगें इसलिए बेहतर है कि यह मानकर चलें कि जो है वह नष्टप्रायः है और निर्मोही बनें रहे तभी जीवन की सार्थकता है
हम जीते जी निर्मोही हो ना सकेंगें और प्रपंच में उलझे ही एक दिन फक्क से उड़ जाएंगे और फिर तो सब छूट ही जायेगा इसलिए निर्मोही बनें रहिये - जिससे भी मिलें दो टूक मिलें ताकि आपके विलोपित होने के बाद कोई दो अश्रु ना बहाएं

सबसे कठिन समय मे मिलने वाले जीवन के उपहार निशुल्क है बस हम संजो सकें अपनी स्मृतियों में
मेरा गुलमोहर, 1979 में लगाया था आज यह सम्बल है और मेरा सच्चा हमदम
पूरी रात जागकर इसे निहारता हूँ अँधेरे में हरियाली और लालिमा की जगमगाहट अप्रतिम होती है


कभी झांकना ऐसे गूंथे हुए फूलों में लम्बी दास्तान सुनने को मिलेगी मानो कोई अपनी ही कहानी इन फूल पत्तियों से स्तब्ध होकर सुना रहा हो
धूप के आईने में सब कुछ इतनी जल्दी सूख जाता है कि मालूम ही नही पड़ता, जीवन में धूप में तपकर तपेश हो गया वह कभी भी आहत भी हो सकता
जब भी कोई किसी तपिश से बचकर एकालाप करते हुए अपनी स्मृतियों के कुएँ में अकेला उतरेगा यकीन मानिए फिर कभी नही उबर पायेगा
धूप सिर्फ बाहर नही दिखती , यह बहुत गहरे धँसकर भीतर की सीलन भरी पर्तों को भी शुष्क कर देती है


यहाँ गर्मी की भयावह बरसात है, आत्मा पर यातना के छालों से परछाईयाँ गायब हो रही है इतना तेज उजाला है कि मन के काले दाग नही दिख रहें, छत पर डेढ़ मिनिट में तन मन दाग में बुझे कपड़े सूख जा रहें हैं, सब्जियां नही है बाज़ार में फलों के राजा आम भी खास हो रहै है, जामुन, अचार या करौंदें दिख ही नही रहें, भीषण ताप में मन का काला कलुषित संताप निकल रहा है
ऐसे में मुझे तुम्हारे शहर की बर्फ याद आती है - वो अमराइयाँ, वो नीम, बरगद, पलाश, मधुमालती, मोगरा, रातरानी और उजली चांदनी रातें बहुत शिद्दत से याद कर रहा हूँ



रात वैसी ही है क्या - छत पर गुलजारमयी होकर किसी दिलजले मजनूं की तरह गुलजार सुनाती हुई , किसी गली में दूर से कुल्फ़ीवाले की आवाज या बर्फ के गोले के जादुई स्वाद और चटख रंगों के बीच से देर तक सुस्ताती हुई सुरमुई सी जो सुबह सुबह नींद के आगोश में लेती ही गई कि सूरज किसी जमींदार सा निकल आता है मृत्यु तक के दिनों में से एक दिन का हिसाब लेने


और तुम वही हो - खिजाब लगाती हो या सफेद लटों के उजालों में अपने पश्चाताप धोकर रोज किसी नरम रस्सी पर सुखाकर किसी अंधेरे कोने में रो लेती हो - अपनी हथेली से बासते पसीने से आँसूओं को पोछते हुए और अपना अक्स अभी भी उस छुईमुई या हरश्रृंगार के दरख़्त जैसा है या किसी बारहमासी के सफेद फूल सी हो गई हो जो सब सहकर भी सफेदी ओढ़े चुपचाप किसी कब्र पर बियाबान में अभी भी खिल जाता है या ऑफिस टाईम नुमा नौ से छह तक बस बाकी गुमनामी का अँधेरा


इस धूप में बर्फ बनकर तुम्हारा खड़ा रहना याद आता है और लगता है मानो अब कुछ अभी भी वही ठहरा है और आत्माओं के वृहत्तर समंदर के इस ठहरे पानी में एक छोटे से पत्थर की दरकार है, मैं मुतमईन हूँ कि हलचल होगी और जुम्बिश भी जो हमें दूर तलक फिर ले जाएगी


***


अब जिससे भी मिलता हूँ लगता है यह आखिरी मुलाकात है (जबकि कइयों से पहली होती है )थोड़ी बात करूं या जी भर कर - बिछड़ता हूँ तो जमकर हाथ भींच लेता हूँ, आलिंगन में लेते हुए आँख की कोर में आये आँसू छुपा लेता हूँ - जी भर दुआएँ देकर स्मृति में संजो लेता हूँ सब कुछ


जीवन की धूप सबकुछ सूखा रही है और अभी पूरा समर शेष है

***

यात्राएँ हमें शहर दर शहर ले जाती है और हम बजाय देखने समझने के अपने शहर के कूचों गलियारों और स्मृतियों से उस शहर की तुलना कर हर जगह खुद को पराया महसूसने लगते है और यही वो परायेपन की आग होती है जो अपने दड़बों में लौटने को बारम्बार मजबूर करती है


गगन घटा गहरानी रे 


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कभी यादों की खिड़कियां खोलेंगे तो बाहर गुलमोहर की हरी पत्तियां, मोगरे के फूल, रात रानी की सुवास और स्वच्छ नीले आसमान में एक चाँद दिखेगा

बस नही रहूँगा तो मैं - दूर देखना पूरब में एक टिमटिमाता तारा सा दिखूंगा ठीक खिड़की के दोनों दरवाज़ों के बीच

उस घनी शाखाओं वाले बरगद की खोह में मिलेगा एक दिया जिसकी लौ जल रही होगी अँधेरे में कुछ ऐसे कि सब ओर से उजाला ढाँक रहा हो कालिमा और थोड़ा सा शेष बचा तेल भभकते हुई लौ को सहेज रहा होगा

उत्तर दिशा में गूंज रहें होंगे गान - मंद सप्तक में इकतारे के साथ कि आत्मा कबीर हो जाएगी देहत्याग कर और गुनगुनाती रहेगी - 'गुरुजी मैं तो एक निरंतर ध्यावूं जी, दूजे के संग नही जाऊं जी'

मेरी चीज़ें, आवाज़, हंसी, अवसाद , आँसू, दर्द - वही दर्ज होगा उसी लिपे हुए चौपाल में जिससे सौंधी खुशबू आएगी और फिर जब कोई बछड़ा रम्भाने लगें तो समझ लेना कि तृप्त नही हुई है, आत्मा की कोई कोर अपूर्ण रह गई रंगीन होने से

हां , एक बार गीली मिट्टी को देखना नीचे बिछी - वहाँ भी मेरे पद चिन्ह होंगे और मेरी हंसी की कतारों के झूमर दीवारों पर सजे हुए मिलेंगे ऊपर रेंगतें हुए


खिड़कियां खोलना जरूर मन भर आये तो

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सवाल गिटार का नही सुरों का था, तबले का नही सम का था, पेटी का नही काली चार पर ठहरे मद्धम का था, संतूर का नही धैवज में बजने का था, शुद्ध कल्याण का नही समय का था और आरोह का नही राग की शुचिता का प्रश्न था जो उस महफ़िल में सिरे से गायब था - जाहिर है सरस्वती को रूठकर जाना ही था
सिर्फ मंच सज्जा, फैब इंडिया के कपड़ों, महंगे परफ्यूम्स, पौने दो किलो मलें हुए मेकअप से चेहरे की ना झुर्रियाँ छुपती है ना भारी भरकम सत्तावन - अट्ठावन साला शरीर की उम्र, हे भद्राणी और इस सबके लिए कोई आता भी नही था, जो बंधुआ थे वे संगीत के मुरीद थे, वे रागिनियों में राग - विहाग खोजने और आत्मा के किसी कोने पर तृप्ति का एहसास करने आते थे, ये वो दुनिया थी जो सोशल मीडिया की भसड़ से दूर थी


उनकी जब गर्दन हिल गई तो समझो कि धरती मदमत्त हो गई हो सप्त सुर सुनकर , जब उनके कंठ से वाह निकलें और हाथ थम जाएं किसी दिशा में तो आसमान झूम उठता था पर तुम तो ठसक में रहकर गायकी और गुरुकुल परम्परा को अशिष्टता से लाँघकर संगीत के नए गढ़ बनाना चाहती थी - नही, नही अब यह सब सम्भव नही - तुम यवनिका में खड़ी एक मात्र उपेक्षित ऐसी गायिका बन गई हो जिसको तिलांजलि देने के अलावा किसी विद्वजन या श्रोता के पास कोई विकल्प नही है


सुर खो चुकी हो, एक पराजित गायिका का संसार में होना अब कोई मायने नही रखता

लौट जाओ - वाग्देवी का श्राप लगें इसके पहले लौट जाओ
◆कि घर में बहार आई है◆
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ऊंची दीवारें थी बहुत लंबी लंबी और दूर तक फैली हुई, एक लंबा आंगन - जिसमें बेतरतीब सी घास उगी हुई थी लगता था वर्षों से उसे काटा नहीं गया है और वहीं पर उगती और वहीं पर सूखकर नीचे गिर जाती, पेड़ों के पत्ते पहाड़ों से ज्यादा ऊंचे हो गए थे - सूखने के बाद नीचे गिरकर वे पेड़ों से ऊंचे टीले नुमा बन गए थे, दीवारों में चिडिया ने घर बनाना बंद कर दिया था, यहां कोई मैना अंडे नही देती और इस वृहद दालान में मोर ने आकर नाचना बंद कर दिया था बरसों से
दीवार पर काई थी और हर जगह मटमैला सा धूसर भूरा रंग फैला हुआ था , लगता था इन दीवारों के बीच जो भी उगता है वह भूरा मटमैला ही हो जाता है और धूसर भूरा हो मटमैला होकर ही खत्म हो जाता है इसलिए मटमैला रंग इस अंदर की दुनिया का स्थाई भाव था , अंदर कही जमीन नजर नही आती थी अगर दिखती भी तो खून के छितरे बिखरे नजर आते और पूर्णमासी की भयावह रात में चांदनी उजियारे के तले सूखी डगालियाँ और पत्तों की जुम्बिश से जो आवाज़ें उठती वो इतनी क़ातिलाना होती कि कोई झांकने की हिम्मत नही करता
एक टूटा फूटा मकान जिसमें कहने को एक चारपाई थी जिस की बुनावट की रस्सियां भी जर्जर होकर बीच से लटक लटक रही थी और जमीन को छूकर एकाकार होने का सबूत दे रही थी, यह सिर्फ चारपाई की बात नहीं बल्कि कोने में रखी एक पुरानी सड़ती हुई अलमारी की भी कहानी थी जिसका कांच इतना गर्द में भीगकर शुष्क हो चुका था उसमें अब कोई परछाई नजर नहीं आती थी बहुत देर तक नाखूनों से खुरचने पर वहां कुछ रंग उड़ा चुकी शायद लाल बिंदिया, मिट्टी के रंग में बदल चुके कुमकुम के निशान और तेल से भीगे हुए पंजे के निशान नजर आते थे , परंतु यदि कोई सामने खड़ा हो जाए तो उस अलमारी में अपना ही अक्स नहीं दिखता था अलमारी भी मानो इस भुतहा मकान में बर्बादी के द्वार की इंतेहा थी जिसके पांव जमीन में इतने धंस चुके थे यदि कोई उसे हल्के से भी छू दे तो वह धरती को फट जाने का आदेश देकर अंदर समा जाएंगे
पेड़ों की शाखों पर पत्ते इतने गंदे थे कि उन्हें फूल और नई उग रही कोंपल, नर्म पत्ती , फलों से कोई लेन-देन नहीं था और वैसे खड़े थे मानो सदियों से सजा पाते हुए मरने का इंतजार कर रहे हो, दोपहर की धूप जब यहां पड़ती तो हवा भी अंदर आने से घबराती थी, सर्दियों में सूरज यहां नही घुसता और बरसात में पानी की बूंदें जब बरसती तो लगता कि एक सड़ांध है जो आसमान से गिरकर यहां तहस नहस कर रही है
मैं आज इस मकान में रहने आ गया हूं तो लगता है अपने आप से मिलना अब शायद संभव होगा और इसी दुनिया में आहिस्ता आहिस्ता इतना धंस जाऊँगा, रम जाऊँगा कि उस अलमारी के बदले अपने आप को खड़ा पाऊंगा और जब आप यहां आएंगे तो मैं आपको पहचानने से शायद इंकार कर दूँ
एक दुर्गंध यहां व्याप्त है चहूँ ओर जो शवों के झड़ने और सड़ने से उठती है, शवों को किसी ने लाकर यहां जैसे अभी अभी जलाया हो और काई की पर्तों में झींकती दीवारों के पार धुंआ उठ नही पा रहा है - घुटते हुए यही मंडरा रहा है - मैं कभी सूखे पत्तों के टीले देखता हूँ, कभी पेड़, कभी चारपाई की लटकती रस्सियां, कभी आलमारी के कांच को और अपनी बुझती हुई चार होती आंखें उसके पायें देखने में लगा देता हूँ कि जब धसेंगी यह अलमारी तो क्या छन्न से आवाज आएगी
कही यह आवाज मैं अपने भीतर से बाहर निकलती आत्मा की तो सुनना नही चाहता, जो अब कसमसा कर यह देह छोड़ना चाहती हो- मेरे जीते जी यह सम्भव नही कि मैं इस प्रलाप को दर्ज करूँ पर निसन्देह तृप्ति है और शास्ति भी कि जीवन का प्रतिफल बहुत अगाध और स्नेहित रहा, मैं सोचता हूँ, मुंह से घुर्र घुर्र की आवाजें निकल रही है लौट रही है दीवारों से टकराकर, कोई नही है इस धूसरित हो चुके दालान में - अब मेरे पांव कांपने लगते है और अपने दुखस्वप्नों के सूखे होते टीलों से कोई अट्टाहास करते हुए धूसर मटमैली काई लगी दीवारों को पार करना चाहता है


एक अजीब अंधी दौड़ है जहां प्रमोशन पाने के लिए लोग मर रहे है जैसे जैसे आप ऊँचे होते जाते है वैसे वैसे आपको इंसानों को ज़्यादा सजा देने का हक मिलते जाता है एक दिन आप बीस तीस साल की गुलामी पश्चात एक इंसान होकर इंसान को मौत की सजा देने के लायक हो जाते हो
इसे न्याय कहते है - संसार की इस रीत को जब वह आज गर्व से कह रहा था और उसने कहा कि अब 28 वर्षों की हाड़तोड़ मेहनत के बाद मैं यहां आ गया हूँ कि एक करोड़ से ऊपर के मुकदमे हो या मृत्यु के फतवे जारी करना हो मुझे किसी से इजाज़त नही लेनी और इस रणभूमि में न्याय की अंधी देवी मेरे इशारों पर नाचती है और ये जो इस परिसर में फैली अगाध श्रद्धा से कानून की इज्जत करती भीड़ देख रहे हो यह मेरी मेहरबानियों पर ज़िंदा है - ये काले कोट पहने वकील हो या याचक के भेष में खड़ी इंसानियत ये सब मेरे रहमो करम पर आश्रित है


संसार के किसी कोने पर चींटी उंगली बराबर शहर के एक कोने में छोटे से भवन के भीतर चार संतरियों से घिरा और बेहद डरा हुआ शख्स कह रहा था कि मेरे निर्णयों पर किसी का कोई हस्तक्षेप नही और मैं जानता था कि अभी एक बड़ी अदालत के बाबू के पांव पकड़कर वह यहां इस पायदान पर पहुंचा है


न्याय की आस में आँखों पर कफ़न लपेटे एक युवा स्त्री जिसके पीछे भीड़ कुत्सित कामनाओं के साथ देवी कहकर दौड़ रही थी - वह हमेंशा के लिए धरा के भाग को छोड़कर कही दूर आकाश गंगा में विलीन हो गई है


विश्वास, आस्था, भरोसा और बंधन तोड़े बिना कोई भी भवसागर पार नही होने वाला और इसकी शुरुवात स्वयं से ही करना होगी - जैसे कमरे में छत पर लगे मकड़ी के जालों को बड़ी झाड़ू से एक झटके में साफ़ किया जाता है वैसे ही अपने द्वंद और जड़ विचारों को भी पराकाष्ठा पर पहुंचने से पहले तोड़ना होगा नही तो अपने ही जालों में घुसकर अंत मे तड़फ तड़फकर मर जायेंगे हम


◆तेन त्यक्तेन भुंजीथा:◆
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बहुत लंबा , उबाऊ, पीड़ादायी सफर था - याद आता है जब उसने चलना शुरू किया था तो ऊँचे पहाड़ थे, जंगल थे और उछलता पानी था चहूँ ओर




उसने आहिस्ते से चलना शुरू किया था नरम पंजों के बल पर, जब भी कोई कांटा चुभता बिलबिला जाता था पर आने वाले पंजों के लिए उसने जीवन खपा दिया था अपनी सारी अच्छाई और ढेर सारी बुराईयों और कमजोरियों के बावजूद भी



पहले पगडंडियां बनाई, रास्तों के लिए हाड़ तोड़ मेहनत की, दोनो ओर जो भी बीज मिला उसने उन्हें पौधों और बड़े होते पेड़ों के रूप में देखा - अब यह कहना भी गुनाह लगता है कि कुछ योगदान उसका था इस हरीतिमा में और सुनना बन्द कर देता है जब कोई पेड़ कहता है गर्व में उन्मत्त होकर कि जड़े मैंने जमाई, मेरे होने में किसी का योगदान नही



आज पेड़ है, वृक्ष है , रास्ते है ,छाँव है, समतल मैदान है - क्योंकि रास्ते है घने, बड़े और सहज - सुलभ रास्ते - बस नही है तो वह , और सच कहूँ तो अब इतनी शक्ति भी नही कि किसी पर साया बनकर रहमत लूटा सकें


वह पूरा का पूरा अनुपस्थित है परिदृश्य से और जब भी गुजरना चाहता है इन दरों दीवारों से या तनिक सुस्ताना चाहता है तो उसे जगह नही मिलती


आज अचानक कोई आया और कुछ सुझाव दे गया - बोला कि छोड़ दो यह दुनिया और फिर से शुरू करो एक नई आकाश गंगा पर जाकर कि फिर कुछ बीज वृक्ष बनें , कोंपल तन जाएं आकाश में, जड़ें धंस जाएं जमीन में और इतनी कि बरगद की जड़ें वायवीय हो जाती है जैसे, तब तक संरक्षित करना उन बीजों को और तुम फिर अपने को पहचानो


पर सुकून था नही हड़बड़ी में पूछ लिया कि नही हो पाया और फिर वृक्षों ने छोड़ दिया मुसाफिर को तो - बोला चिंता मत करो आपके इलाज का खर्च हम सब लोग उठा लेंगे, एंजियोग्राफी हो या बायपास , किडनी तो नही देगा - कोई पर डायलिसिस करवाने का खर्च जुगाड़ ही लेंगे, मरने पर छह लोग लाने की ग्यारंटी मैं लेता हूँ

स्तब्ध था वो, अपने पेड़ों और फलों की यह आश्वस्ति अंशदायी रूप से सकारात्मक थी और लग रहा था कि अब सच में किसी नए रास्ते और मंज़िल की तलाश नही

उसके जाने के बाद आहिस्ते से उठा वह, अपने दराज़ में से एक कार्ड शीट उठाई और फिर मुश्किल से पेन ढूँढा उसने, आंखों पर एनक लगाई, आँखों से आते आँसूओं को पोछा - कमबख्त भाप बनकर आँखों की शर्म हया को बचाते शीशों को पोछकर उसने उस कार्ड शीट पर लिखा

"इस कमरे अब यहाँ कोई नही रहता, एक आत्मिक शख्स जो कभी काया के रूप में यहां रहता था उसकी अब किसी से भी मिलने जुलने में रुचि नही है और आने जाने या फोन करने की ज़हमत ना उठायें"

समय अपनी कब्र में घुसकर पेड़ों और वृक्षों के विरुद्ध षडयंत्र रचने का था पर उसने अपने ही बीज खत्म करने का अनुष्ठान आरम्भ कर दिया था

अभिमन्यु चक्रव्यूह में फंसता नही हर बार - अक्सर मौत ही उसे खींचकर ले जाती है दो - दो हाथ करने , पराक्रम जीवन के संतापों से, अवसादों और अपराध बोधों से निपटकर अपनी चिरसंगिनी मृत्यु को गले लगाने में है - ना कि सांसारिक पैमानों के अनुरूप ढल जाने में

◆हमारा मरना जीने की सज़ा से बड़ा था ◆

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मैं निर्दयी हो रहा हूँ - कलियों का खिलकर जब फूल बनने का समय आता है उसके पहले ही तोड़ कर किताबों के पन्नों में हर्फ़ों के बीच छुपाकर रख देता हूँ, आप जो भी कहना हो कह लें पर मैं इस समय में पूरे खिले हुए फूल के सौंदर्य को किसी दृष्ट और नराधम के हाथों मसलते हुए मार दिया जाना नही देख सकता





मैं चींटियों की बाम्बी पर पैर रखकर नष्ट कर देता हूँ, नही चाहता कि कोई अपने घृणा के सींचे आँसूओं से भीगा रक्तरंजित आटा उन्हें डालें और वो अबोध तड़फ - तड़फकर मर जाये



मैं गिलहरी, छोटी काली या रँगबिरंगी चिड़ियाओं या कर्कश आवाज वाले कौव्वों और कर्णप्रिय तोतों को अपने गुलमोहर पर बैठते ही बन्दूक से उड़ा देता हूँ मैं नही चाहता कि कोई बहेलिया उन्हें जाल में फांसने के साथ मेरा पूरा पेड़ ही जड़ सहित उखाड़कर ले जाएं



मैं दुनिया के तमाम उन जीवित जगत के नवागन्तुकों को सूरज की पहली किरण देखने से पहले काली अमावस की रात में खत्म कर देना चाहता हूँ क्योकि सूरज के ताप में ऐसा जहर घुल गया है कि वे जी गए तो मरने के लिए तरस जायेंगें और इस सांझे पाप की दुनिया में मौत नही मिलेंगी



मैं सारी जमीन को बंजर में बदल देना चाहता हूँ, नदियों को खारा कर समुद्र में उल्था कर सिसकियों से भर देना चाहता हूँ ताकि समंदर की लहरों पर नदियों की आत्मा का बोझ आकाश से ऊंचा हो जाएं और समस्त जगत का पानी सूख जाएं - जब आँख का पानी बाहर निकलने से परहेज करें और रीतते हुए बालू में धँसकर दुष्प्रेरण करने लगें जीवन से तो जमीन का बांझ होना ही एकमात्र हल है


संसार की समस्त भाषाओं, बोलियों, कहावतों, मुहावरों, संकेतों और अलंकारों सहित व्याकरण को किसी कुएँ की मुंडेर पर खड़े रख गहरे पानी मे धकियाना चाहता हूँ कि फिर कभी वो फाग, चैत्र या शरद का पूर्ण चाँद ना देख सकें क्योंकि जब से भाषा ने अर्थ खोया है वाणी को मुकी चोट मिली है सब सहते हुए भी व्यक्त नही कर पा रही


मैं पलाश, टेसू से लेकर रातरानी और मधुमालती के पेड़ पौधों को छिन्न भिन्न कर समूल जड़ से उखाड़ कर व्योम में फेंक देना चाहता हूँ कि इतनी लाशें जलने के बाद भी इन्होंने अपने फूलों को सुवासित ही किया और लाशों की बदबू को खत्म कर फिर से एक वृहत्तर मौत के पहाड़ को अनदेखा करने का सुनियोजित षडयंत्र किया

मैं इस समय में सभी जीवित लोगों को अमृत पिलाना चाहता हूँ ताकि ये सभी - वो सब भुगतें जो इनके कर्मों से, वाचालता और दृढ़ इच्छाशक्ति से एक निहायत सरल सहज जीवन को कष्टप्रद बना दिया और वाचिक परम्परा को निभाते हर बड़बोले बनकर अपना ही आख्यान रचतें रहें धरा पर

मैं सब कुछ वह करना चाहता हूँ जो रीति, श्रुति और स्मृति की समृद्ध परंपरा से विपरीत है और यही है कि मुझे वो सब चाहिए जो अकथनीय, अकल्पनीय, अप्राधिकारित, अनिर्वचनीय और अविश्वसनीय होगा और इसी में मेरा प्रारब्ध है


स्मृतियों को याद कर, बेबसी में, अपने लोगों के उपहास, करीबी लोगों के धोखों, मित्रों की उपेक्षा, अपेक्षित लोगों की खुदगर्ज़ी, नाशुक्रो के मुंह मोड़ लेने से, वणिक बुद्धि और ओछे लोगों के सद्व्यवहार को परखने से और अंत में अपने आप से घृणा होते समय आँखों की पोर से अकेले में आँसू छलक पड़े तो नीचे गिरने से पहले उन्हें पी लें क्योंकि इसका असर किसी पर नही पड़ने वाला है और बेहतर है कि इन आँसूओं के सूखने से पहले सब कुछ खत्म कर लें यदि आवश्यक हो तो खुद को भी

धुआँ तो धुआँ ही था - अगरबत्ती का था, जलती देह का था, बाँस की बल्लियों का, घास का, कपूर का, घी का, प्लास्टिक का, कागज़ का, कंडे का, लकड़ी का, देह से चिपके कपड़ों का, भीड़ में मौजूद किसी सिगरेट - बीड़ी पीने वाले का और सबसे ज़्यादा धौंकनी की तरह जल रहें दिलों का जो बाज़दफ़े आँखों के रास्ते निकल आता था
सब लोग थोड़ी देर तक शान्त थे, फिर वही तितर बितर हो गए, यहां वहाँ बैठ गये और गपियाने लगें धुआँ पूरे परिवेश में यूं फैल गया था मानो मातम के बीच जीवन की एक हल्की सी उम्मीद
लौटना सब चाहते थे और बेहद जल्दी भी पर धुआँ छंट नही रहा था बस अपने अपने झुंड में बैठे लोग धुएँ से निजात पाकर जीवन के रूपहले धुएँ में खो जाना चाहते थे पर इतनी सारी खुशबूओं और बदबूओं के बीच वे अपने धुएँ की पहचान भूल गए थे
देह जलते हुए सब कुछ छोड़ रही थी और धुएँ के साथ हल्की होकर ऊपर जा रही थी जहाँ जाने के अलावा उसके पास कोई और चारा नही था और कहते थे कि सब ऊपर ही जाते है - सहसा मैंने देखा कि धुआँ भी तो ऊपर ही जा रहा था


देह के बंधन मुक्त किये बिना ना कुछ आकाशीय सम्भव है - ना धुआँ

अपने आसपास देखता हूँ तो बहुत से निरर्थक लोग नज़र आते है - सम्भवतः वो भी मुझे यूँही कोसते हो पर अब लगता है इन बिल्ली के *** को निकाल बाहर करें सिर्फ फेसबुक से, फोन लिस्ट और वाट्सएप से नही बल्कि जीवन से - जब कभी दो चार साल में इनके फोन आये तो सीधा जवाब दो "रांग नम्बर" और बगैर कुछ और बोलें काट दो फोन और ब्लॉक कर दो ससुरों को - जीवन का बहुत नाश किया इन कमीनों ने
ये लोग ना कभी मिलेंगें , ना ही काम आयेंगें कुछ और ना ही मैं मिलने वाला - ना इनके किसी काम का; नौकरी में जहाँ जहाँ भी रहा मेरे घर आकर खूब खा पीकर गए - मुर्गा, मटन, दारू , पनीर से लेकर ड्रायफ्रूट्स तक , अब जब से देवास आया हूँ 5 सालों से तब भी यहां आकर खूब भकोसे साले, और जब बोला कि दस रुपये की एक गोली लेते आना क्योकि शहर में कई बार मिलती नही तो अपने आपको दिवालिया घोषित करवा बैठे ससुरे - इनकी असली औकात अगर बताना शुरू करूँ तो आप सुनकर दंग रह जाएंगे, दिल करता है सबके नाम और कर्म सार्वजनिक कर दूं यहां - ताकि बाकी लोग सावधान हो जाये इन नामुरादों से


एक बार बनारस में एक घटिया लड़की से बड़ी दोस्ती हुई थी दादा दादा बोलती थी विदुषी और यहां के 3 दोस्तों के हवाले से खूब ज्ञान पेलती थी, नख़रे पट्टे कर अपने घटिया थोबड़े को सजाकर यहां फोटू चस्पा करती थी, ताकि मुर्गे फंसते रहें, कॉपी पेस्ट मटेरियल का अपने नाम से प्रयोग कर बस नोबल लेने वाली थी कि हम पहुंच गए, वहां जाकर औकात मालूम पड़ी बनारस हिन्दू विवि में कि यह चंपा अपने निजी जीवन मे कईयों को निपटाकर जमाने को छलती आई है - तब फोन किया तो 5 दिन तक बहाने बनाती रही , आखिर लौटकर जब सच्चाई फेसबुक पर नामजद लिखी तो ब्लॉक करके भाग गई छमिया - कसम से आज भी मेरा नाम लेकर रोज चौराहों पर नींबू मिर्च फेंकती होगी, बनारस के पानी में ही फर्जीवाड़ा और मक्कारी है


उसके बाद दो चार और ज्ञानी मिलें अपने बदसूरत चेहरे और हकलाते हुए जो यहां ज्ञानी बनते है - असली जीवन में निरक्षर निकले , जिस काम यूँ करवा देने की डींग हाँकते थे - साला खुद के पैंट का नाड़ा नही सम्हल रहा था और नाक से सेबड़ा नही पूछ रहा था - तो क्या कहूँ, बड़ा मज़ा आता है कोई फेंकू मिलता है जीवन में तो


ऐसे ही दिल्ली पुस्तक मेले में दिल्ली के दोस्तों की औकात समझ आती है - इनको भी खूब छेड़ा और गलियाया है - साले दो कौड़ी का काम करके गलियों में टुन्न पड़े रहते है और दिखाते ऐसे है जैसे मुगल गार्डन में बाप का कॉपी राइट है इनका


आज फिर दो ऐसे ही नगीने मिल गए - जमके छिल कर सारा बुखार उतार दिया झटके में , भर फागुन में सरेआम लू उतार दी कमबख्तों की - अब ज़्यादा चूं चपड़ नही करेंगे


पांडिचेरी के उस ऑटो वाले की बात कल से दिमाग में कौंध रही है - "जो मेरे काम का नई - वो किसी काम का नई"

एक दो पाठक किसी भी लेखक के लिए और एक या दो दोस्त पूरे जीवन के लिए पर्याप्त है
बाकी तो सब भीड़ है और भेड़चाल


बहुत दिनों से बहुत दूर, बहुत अकेला होकर, बहुत सारी यादों को समेटने, बहुत सारा पैदल चलने, बहुत चुप रहने , बहुत उजाले में चलते हुए, बहुत अँधेरों में, बहुत जुगनुओं के साये में बहुत बार घुट घुटकर जीने के बहुत बार अभ्यास करने के लिए एक बार निकलने का मन है
मैंने पूछा अपने आपसे तो मन बिना जवाब दिए उजाड़ में निकल गया और मैं ठगा सा खड़ा अभी भी अपने आपके जवाब का इंतज़ार कर रहा हूँ
सबसे मन ऊब गया है, आज कुछ अहम, दर्प और गुरुर से भरी मित्रताएं तो एक झटके से ख़ारिज कर दी कि इनसे कुछ होना नही है - ना निभाना है ना संग साथ रखना है जाहिर है एक बंधन में रहना शुरू से किसी आततायी नुमा लगता रहा है



मैं अब सब छोड़ रहा हूँ और उम्मीद भी नहीं कि इस पकती धूप में जब सब कुछ सूख जाएगा और दरक जाएगा, एक पगडंडी पर एक पेड़ अड़ा है और रास्ता रोके खड़ा है मानो जीवन बाधा में एक और रोड़ा लग गया हो


बहुत दूर से बहुत सारी आवाज़ें आती है सदाओं में गूंजती, लगता है सब कुछ जो भीतर है - वह निचोड़ लें जाएंगी ये बहुत सारी आवाजें


मैं शान्त हूँ और चुपचाप, आहत होकर पदचाप सुनने की कोशिश करता हूँ - बस कुछ समय और फिर अपने में ही समाएँ हुए उद्धत मन से ढीठ बनकर फिर से पूछुंगा अपने से कि क्या निकला जाएं





मन में कसक रह जाना जीने की आखिरी संजीदा निशानी है और यदि मन की भीत के कोनों पर असँख्य कसकों का एक ज़खीरा इकठ्ठा हो गया है तो सामान बांध लीजिए - समय आ गया है कि हम अपने पैरों के नीचे ढलती नदी की आहट सुन बेचैन हो, गर्म सांसें छोड़ते हुए बदन को हल्का रखें और समुद्र के वक्ष पर उड़ते बाज के पंखों पर सवार हो जायें, ये बाज किसी अदृश्य आंखों से ही देखा जा सकेगा...



सूरज के ढलते समय याद आता है कि एक बेला बीत गई और हासिल कुछ ना हुआ यदि यही हश्र है हर शाम का तो रात और सुबहों का कोई मक़सद होता होगा - निरर्थक से होते दिन ओसारे पर फैली मिट्टी के मानिंद है जो लगातार रखे रखे जमकर एक ठूंठ बन जाती है

खालीपन सिर्फ खाली ही नही करता वो आपको अपने से भी विलग कर अनुयोज्य में ले आता है और हम प्राज्ञ होने की प्रक्रिया में रीतते रहते है


नैराश्य की भंग होती अप्रत्याशित जीवन संविदा


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जीवन नही था कही, किसी कोने में साँसे थी, ओंस थी और भाप थी, खाली जगहों में निर्वात जैसा भी नही हो पाया जीवन में, जब भी खाली हुआ अंश भी कही कोई तो हवा ने उसे अतिक्रमित कर लिया और आहिस्ते से वो जगहें भी भरती चली गई जैसे सूरज की रश्मि किरणें किर्ची किर्ची भर आती है




एक झंझावात था जीवन - हर बार बहुत कुछ जुड़ता गया, हर क्षण ऐसा आया कि अपनी छाप छोड़ता गया और एक वृहत्तर खाली स्पेस के संग जन्मा मैं अपने लिए एक कोना भी सहेज कर नही रख पाया कि एक मकड़ी के जाले से पतला, तितली के पंखों से कोमल या किस जंगली कबूतर के पंखों के एक महीन से उलझे तारनुमा लायक जगह भी बचाकर रख सकूँ


मैं अपने लिए एक जाल बुनना चाहता था जिसको बुनते बुनते मैं अपने स्वप्नों को वहां सजा लेता - जिसमे कुछ ज्यादा नही, बस थोड़ा सा पानी था स्वच्छ, एक जुगनू के चमकने इतना उजाला, एक जँगली फूल के खिलने लायक आसमान, एक तिल भर जगह जहां खड़ा होकर धरती को दूर तक देख सकूँ, एक पनीली हवा जिसमे से मद्धम सुर यूँ गुजरते कि जीवन धैवत पर थम जाता और उदात्त मन जिसमे सबके स्नेह और सहेजने को भरपूर जगह होती


यह एक सपने की मौत नही बल्कि एक जीवन, प्रचंड आशा, दमकते उत्साह और निर्भीक होते जा रहे संतापों की व्यथा थी जिसमे बेचैनियां थी जो बार बार उद्दाम लहरों के साथ आती और कर्मों से टकराती थी - यही से जन्मते थे अवसाद और लड़ने के माद्दे, पर धीरे धीरे सब कुछ बुझता गया और जब बाती तक में तेल सूख गया तो दिए की मिट्टी भी भुरभुरी होकर बिखरने लगी वैसे ही - जैसे बिखरती है काया श्मशान में लकड़ियों की आंच पाकर और एक फक्क की आवाज से फट जाता है कपाल


जीवन जब अपने आप से रूठ जाता है तो सब कुछ क्षरित होने लगता है, प्रतिसँहरण और मिथ्या व्यपदेशन के बीच अनुतोष की अपेक्षा रखना एक परपीड़न ही तो है जो महज एक आशंका को ही जन्म नही देता बल्कि अपने चरम पर पहुंचकर किसी चलत संविदा या प्रत्याभूति की तरह से नष्ट प्रायः हो जाता है , दुर्यपदेशन की कही कोई गुंजाइश नही होती ऐसे में - यह अपने आपको संसूचित करता रहा बारम्बार


मुश्किलें खड़ी है, रास्ते सुनसान है, हवाएं कोलाहल जन रही है, दूर किसी अंधेरे में जुगनुओं ने बगावत कर दी है, मन के कोनो पर पसरा हुआ तनाव समाश्रित समझौतों के निस्तार का परिचायक बनता जा रहा है, एक आवाज कही से सुनाई देती है प्रार्थना के स्वर गूंज रहें हैं, एक सुवास फैल रहा है चहूँ ओर, सब कुछ खत्म होने की दास्ताँ में समूचा संसार स्तब्ध होने को बेताब है - भीड़ जुटने लगी है और एक हंस उड़ने को व्यग्र होकर प्राज्ञ भाव से फड़फड़ा रहा है

वे कहते है कि जीवन में संघर्ष करें बिना छत्र नही मिलते और मैं कहता हूँ कि आँखें मूंदे बिना कही का भी छत्रसाल नही हुआ जा सकता और इतना कहकर खामोश होता हूँ - एक बार अपने अंदर से हिम्मत बटोर कर संयोग - दुर्योग के लिए उठता हूँ कि पूरी ताकत से चिल्लाकर कह सकूँ 'ज्यों की त्यों धर दीन्ही'

जीवन का प्रतिफल क्षरित हो जाने में निहित है
मरने वाले को कपाल क्रिया के बाद तालियों की गड़गड़ाहट सुनाई देती है और वह स्वर्ग - नरक जाते हुए तृप्त होकर लौटता है , उपस्थित लोग भी खूब ज़ोर से तालियां पीटते है कि चलो चार - पांच घण्टे का समय खत्म हुआ और अब स्वस्थ चित्त से घर लौटेंगे, कल फिर कोई प्रेत आएगा


खुशी अंदर से आती है जो दिल के किसी कोने में ग़म के पास रहती है सौत की तरह और बहुत कम मौकें मिलतें हैं जब चहक कर उमड़कर बल्ले बल्ले उछलती है इधर ग़म को चिंता नही क्योंकि वह ख़ुशी का स्थाई भाव है

रोज शाम को यहां पर बैठ जाता हूं लगता है कि यह कर्ज है जो उतारना है , पहाड़ी के सामने से जब सूरज उगता है और यहां पर जलती लाशों को देखता हूं तो संसार का यथार्थ सामने आ जाता है , सब स्पष्ट हो जाता है और लगता है मानो किसी ने इस तरह से बनाया था कि सब यहीं उगे और यही खत्म हो, किसी भी तरह मन नही मानता कि जीवन यहीं से उगेगा - यहीं पर रहेगा -यही यात्राएं होंगी और यहीं पर अंत होगा
संसार के सारे सुखों से दुखों से मुक्त होते हुए एक दिन यहां पहुंचना है, यहां रोज एक पागल देखता हूँ आज भी वह बड़बड़ा रहा है - भाग जा, भाग जा, भाग जा, वह बदहवास हो कर राख को अपने चेहरे पर मलता है, चिताओं की लकड़ी से अपना बदन खुजाता है और कहता है जिस प्रकार मनुष्य पुराने कपड़ों को त्याग कर नए वस्त्र धारण करता है उसी प्रकार आत्मा पुराने तथा जर्जर शरीर को छोड़कर नवीन भौतिक शरीर धारण करती है , वह कहता है - तू भाग जा, अभी क्यों आया है , तेरी काया को अभी और चमका , अभी इसेे और मांज , थोड़ा और तड़प संसार में जो दुख है - वह भी तूने देखे कहां है
सन्ताप, अवसाद, ताप, कुंठाओं और प्रतिस्पर्धाओं से भरे शरीर की आस कितनी थी, दौड़ ही रहा हूँ सब कुछ पा लेने को और इस सबमे यह भूल गया कि मैं कहाँ - कहाँ छोड़ता रहा, अपने से बात ही नही की, समझना ही नही चाहा कभी अपने को - सुबह उठता तो प्रचंड वेग और जोश से भागता, सबको पीछे छोड़ने की होड़ में कभी थकना सीखा ही नही, रात में अतृप्त स्वप्नों का संसार लेकर अधखुली आँखों से अपनी झोली में वो सब कुछ पा लेने की हवस थी कि लगता बस यह एक और मुकाम , एक और गला काट स्पर्धा का धावक बन जाऊं, अपने नन्हे पगों से इस वृहत्तर दुनिया को किसी वराहावतार की तरह मात्र तीन डगों से नाप लूँ पर इस सबमे भूलता गया कि हम सिर्फ एक निमित्त मात्र ही है
जन्म से लेकर यहां आने तक कितना दौड़ते हैं, हर तरह की उपलब्धि पाना चाहते हैं - हर वह पुरस्कार में प्राप्त कर लेना चाहते हैं जो हमारे बदी में लिखा था या नहीं, परंतु यह सच है कि हम लगातार यह भूलते जाते हैं कि हमें यही लौटना है - यही से जन्मे थे तो जाहिर है यही लौटना होगा और हमें याद भी नहीं रहता कि हम इस बियाबान में इन पेड़ों के बीच में , इन गेहूं की झूलती बालियों के बीच में - और टूट गए पतरों के बीच किन्ही चार लोहे के खंभों पर टिका दिए जाएंगे
बहुत कम सामान लगता था यहां तक आने के लिए है पर इतना कुछ जोड़ रखा कि जब घर से चले तो सिर्फ चार लोग लगे और चार बांस की खपच्चियाँ और एक मिट्टी की मटकी के पीछे जलती मद्धम आँच की रोशनी में सवार होकर झूमते हुए यहां पहुंचे है अभी - अब आगे सब साफ है - उजाले है और दीप्त है , धुला - धुला सा श्वेत और निरभ्र ; देखो ना अब - इतने मजबूत शरीर को जिसका नाम था, यश की कीर्ति पताकाएं थी चहूँ ओर - एक छोटी सी तीली की मंद आँच ने छन से जला दिया और कोई बुझाने भी नही दौड़ा, सब देखते रहें और आंखों ही आंखों में सब सह गए
एक उदास सभागार है और हम सब इंतजार कर रहे हैं कि कैसे यह धीरे-धीरे भर जाए और कोई सन्नाटा तोड़ते हुए हम सब को अंदर से भर दे - ठीक ऐसे जैसे महकते हुए फूल को अचानक कोई हवा का झोंका आकर कुचल देता है, एक कोमल कोंपल को मसल देता है अचानक, समुद्र की लहरें ऊंची और उद्दाम होकर आहिस्ते से उसके गर्भ में समा जाती हो जैसे, अँधेरों में एक जुगनू के मरने की आवाज भी ना आती हो जैसे
हमने शोर किया, बतियाये बहुत, नाद से आरोहण किया पर जब उस विराट ने यह देह छोड़ी तो एक आवाज़ नही हुई, कोई झांक नही पाया, किसी की स्मृति में उसकी किंचित सी छबि भी नही , हर बार गुबरैलों की तरह हर मौत पर इकट्ठा हुए पर कोई इस नश्वर देह को अजर अमरता का पट्टा नही पहना पाया
पागल अट्टाहास कर रहा है, कह रहा है "तो आज फिर आ गया तू, जा आज सात मुर्दे है भैरव खुश है काल का श्राप आज के लिए मिट गया है , अब जो मरेगा सई साँझ को वह कल आएगा, तू जा, जब कम होगा तब बुलाएंगे तुझे
मैं दरवाजे की ओर बढ़ता हूँ जो सिर्फ प्रवेश नुमा है कोई दरवाज़े नही है यहां - इधर से जाओ तो पीछे श्मशान है और आगे भविष्य , आशा और रंगीन संसार और उधर से देखो तो ठीक विपरीत
मैं सोचता हूँ कि दरवाज़ें कहाँ है - आत्मा के घाव पर लगे जख्मों पर मलहम लगाने को नितान्त एकात्म और एकांत की जरूरत है , मैं सहलाना चाहता हूँ पर तभी देखता हूँ कि एक लाश चली आ रही है, कुछ लोग मुंह नीचे किये चले आ रहें है - सबके चेहरों पर मलिन कांति है और निर्वात बन रहा है, सूरज डूब गया हैं पागल का अट्टाहास चरम पर है
मैं आज फिर कल लौट आने के लिए जा रहा हूँ -मुझे नही पता कहां क्योंकि जहां से आया हूँ वहां कोई दरवाज़ा नही है
आसमान में चाँद साफ और निर्मल होकर दमक रहा है, खुले आसमान के नीचे मेरी यह दूर दराज़ के जंगल मे यह क़त्ल की रात है और मन मानो एक लंबी यात्रा पर निकल जाना चाहता हो - इसकी छाया तले किसी अनजान सफ़र पर हमेंशा के लिए







जर्जर होते मकान सिर्फ स्मृतियों के इतिहास है और हम इनमें घुसकर अपने आप को तसल्ली दे सकते है कि इनकी दीवारों पर दर्ज आँसूओं से बने भित्ति चित्र हमारी अनसुनी कहानियाँ हैं

धूप ने हवाओं के साथ चमकना शुरू करते हुए कहा कि जीवन धूप, ताप और पसीने का सम्मिश्रण है और इसके बिना ना हंसी है और उद्दाम वेग का बहाव , एक बहती नदी को सूखे बिना भरने के लिए कुछ नही रहता, लाओत्से कहता था अपना कप खाली करो पहले


रास्तों की फिक्र करने से ही मंजिल मिलती है - दूरी, पेड़ की छाँह देखकर कलुष हो जाता है मन, सुस्ती छाती है तन पर और कदम डगमगाते है, फिर यात्राएं बोझिल हुआ करती है - बेहतर है रास्तों और रास्तों के विभ्रम दूर रखें और आत्मा की इच्छाओं पर पग धरते हुए आगे बढ़ते जाएं

मैं सपना देख रहा हूँ कि सब कुछ खत्म हो गया है, सत्ता की भूख ने सबको हताश कर दिया है - देश में गम्भीर संकट है, लोकतंत्र की हत्या हो चुकी है और सीबीआई से लेकर सुप्रीम कोर्ट का दोहन किया जाकर खुले आम नर संहार हो रहा है खून की नदियां बहाई जा रही है जात और मजहब पूछकर नागरिकों की हत्या हो रही है , पत्थर लिए लोग लड़कर मर रहे हैं और कही से बांसुरी की आवाज़ सुनाई दे रही है

मैं दीवारों के सहारे चलता रहा जिनमें सदियों की सीलन थी, कन्जी जमी थी और उनमें इतनी चिकनाई थी कि उनसे सटी जमीन भी बहुत ठंडी थी. ये दीवारें सिर्फ कहानी नही सुनाती थी - इनके पास सिसकियां थी, चीत्कारें थी और लम्बी उच्छ्वासों का सागर था, ये दीवारें इतने सन्नाटे गढ़ती थी कि अँधेरों में भी परछाईयाँ जीवंत हो उठती थी, दीवारों की नींव में आकृतियां चीखती थी, दीवारों के सिरों पर कौवे मंडराते और बीच के हिस्सों में चीकट दाग यूँ चिपके रहते जैसे किसी ने खंखार कर बलगम जैसा ग़म छींट दिया हो, मेंढक के उछलने से दीवारों के खोल हिलते. मैं दीवारों को जब भी पकड़ता हूँ - एक सुरंग में पहुंच जाता हूँ - जहां सिर्फ लम्बी - लम्बी सिसकती दास्तानें दर्ज है और जब पढ़ता हूँ उन्हें तो लगता है कि ये जीवन के सच्चे संघर्ष की भ्रमित कहानियां हैं जिनसे सदियों तक मुहब्बत की सदायें आती रहेंगी

अँधेरों की ठंडी हवाएं डराती है और एहसास कराती है कि रात और सर्द होगी, सपनों की हकीकतें कड़वी और तमन्नाओं की बरसातें दुश्वार बनेंगी आहिस्ते से - हम अभिशप्त है सुप्त रातों के अँधेरों में घिरकर हवाओं से दो चार होने को


एक हाथ ही पर्याप्त है अगर तुम्हारे पास विचारों की सम्पदा, लड़ने का माद्दा, भाषा की समझ, चेहरे पढ़ने की क्षमता, शब्दों की ताकत और भेदने - बूझने की अकूत दौलत और लोगों से करने के लिए झोली में आकाशभर मुहब्बत हो तो

परेशान हो - जीवन, प्रतिस्पर्धा, असफल होने और तनावों - अवसादों से, जेब मे रुपया नही है, घर दोस्तों से निराश हो, प्रेम में असफल और अपनी पीड़ा भी नही कह पा रहे तो सुनो -
घर से निकलो


अनजान लोगों से मिलो

उनके संघर्ष को समझों

पैदल चलो शहर में

अंधेरे दबे कोनों में जाओ

मदमस्त हो जाओ 

वर्जनाएं तोड़ो 

उन्मुक्त हो जाओ 

मन के कोनो को जीने दो

अपनी गलीज़ बौद्धिकता खुद पर मत थोपो

जीवन को जीवन रहने दो

यह कोई पुरस्कार की दौड़ नही

यह खुद को समझने की पहल है

किसी को क्यों देखें हम

हम किसी के लिए नही बनें हैं

मेरा जीवन है और इस पर सिर्फ मेरा अधिकार है


ठंडी हवाएं चलने से मन के अंदर दबी चिंगारियां बुझ नही जाती, वे और प्रज्ज्वलित होकर धधकते हुए आत्मा की पर्तों पर चढ़े आवरण जला डालती है

अपनी पसली के पिंजरों में रखा नाज़ुक दर्द जब बाहर निकलकर हुँकार भरता है तो फूल खिल जाते है और हवाएं वासंती होकर झूमने लगती है


पूरे रात की चाँद को नदियों के सीप मेरे भीतर दौड़े चले आते है और जब मैं कान लगाकर उनका क्रन्दन सुनता हूँ तो अपने भीतर एक निर्वात महसूसता हूँ , पाँवों के नीचे से बहते पानी में अपना दर्द पिघलकर बह जाता है यूँ मानो सारा रक्त बह गया गहरी चोट के बाद

पूरे चाँद की रात को नदियाँ अक्सर मेरे पांव के नीचे से गुजरते हुए मन के अंदर से शब्दों को बहा ले जाती है और मैं रीतते हुए निशब्द हो जाता हूँ






शाम की गठरी में कुछ ऐसी गाँठे हैं जो हमें लगता है कोई ले जाएं, इसके छिलके निकालकर पुनः हमें सौंप दें तो शुष्क और सर्द रात में अलाव जलाकर सेंक लें - सुप्त पड़ी देह को पर गाँठे खुलती नही और उलझाने वाले का ठौर नही कोई
शाम एक यातना गृह है जिसमे धँसकर हम पीड़ाओं का जश्न मनाते है देर रात तक और सुबह होते होते जुगनुओं की भांति खुद में ही विलुप्त हो जाते है

ऊब गया हूं - ठंड से, गर्मी से, बरसात से, धूप से, छाँह से, धरती से , आसमान से , पानी से, बिजली से, सड़क से , जल से, जंगल से , जमीन से, पेड़ से, पत्ते से, फूल से , पत्ती से , फल से, कीट से, पतंगों से, पक्षियों से, आवाज से, सन्नाटे से , उड़ान से, थकान से, चांद से, सूरज से, तारों से - सितारों से , और उन सब ग्रहों से जो कुल मिलाकर मेरे होने और ना होने का एक बड़ा सबक है
यह उबना भी बहुत खूब है - जीवन के ढर्रे पर चलते जाना, आगे बढ़ते जाना और फिर कभी मुड़ कर पीछे देखता हूं तो याद ही नहीं आता कि मैं कहां कहां से गुजरा था ; मुझे अभी भी वह दृश्य याद आते हैं एकाएक कौंधते हैं और मैं सोचने लगता हूं कि वह जगह कौन सी थी हरदा के सिराली गांव में - एक बड़ी सी हवेली है जहां घुसने के लिए किसी मंत्री की इजाजत लेनी पड़ती है उसका नाम विजय शाह था यह भाजपा सरकार की बात थी , मुझे याद पड़ता है केरल में त्रिचूर के केरला वर्मा कॉलेज का पीछे का एक बड़ा सा कमरा जहां बहुत सारी ड्राइंग लगा रहा हूं देश भर के हजारों बच्चे वहां मौजूद है , मुझे याद पड़ता है कर्नाटक के श्रवणबेलगोला का एक गांव जहां पर लोग हिंदी , मराठी और कन्नड़ भाषा के झगड़ों को लेकर अपनी अपनी अस्मिता को स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं
बेंगलुरु के नान्दी हिल्स पर चढ़कर मैं, विशाल और अपूर्व के साथ कोका कोला पी रहा हूं और मांगता हूं कि मुझे एक फिल्टर कॉफी चाहिए और उस दुकानदार का चेहरा याद आता है जो कन्नड़ में कहता है यहां पर कॉफी बनाने की कोई सुविधा नहीं है, बनारस के मणिकर्णिका घाट पर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कुछ युवा मित्र याद आते हैं जो देर रात तक नाव की सवारी पर मुझे घाट दिखा रहे थे और वहां की छोटी-छोटी ऐसी कहानियां सुना रहे थे जो मेरे लिए अचरज था, सारनाथ में गौतम बुद्ध के मंदिर के सामने ठेले पर खड़ा एक आदमी याद आ रहा है जो भारत का अशोक चक्र बेचता था और जब मैंने भाव किया तो वह बोला फ्री में ले जाओ साहब - देश की बात है वरना रुपयों का क्या है आते जाते रहते हैं
लखनऊ का पीजीआई याद आता है जहां मित्र सोनू त्रिपाठी के भतीजे को कैंसर हुआ था और वह सिर्फ 11 वर्ष का था नाम था अग्रज - उसके लिए एक साथ 10 खून की बोतलों का जुगाड़ करना था नई जगह थी, नया शहर, कोई संबंध नहीं , कोई संपर्क नहीं परंतु फिर भी घूम घूम कर जिस तरह से हम दोनों ने उसके लिए खून इकट्ठा किया वह बहुत ही प्रेरणादाई था अग्रज का जब आपरेशन हुआ तो उस समय हमारे पास 14 बोतलें थी , बाद में शेष बची हुई बोतलों को हमने एक वृद्ध महिला के लिए दान कर दिया, अग्रज पता नहीं आज कैसा है परंतु जब उसके सिर के बाल काट रहे थे जिस अंदाज में चीख रहा था और याद करके मैं ठीक वैसे खो जाता हूं जैसे मां का जब ब्रेन ट्यूमर का ऑपरेशन हो रहा था और रात 11:00 बजे नाई कमरे में आया था और उसने मां के सिर के सारे बाल एक झटके में काट दिए थे, उन बालों को सामने देखकर मां बहुत देर तक चुप रही - उसके बाद बुक्का फाड़कर रोई थी, कमरे मे मेरे और मां के अलावा कोई नहीं था, अगले दिन सुबह मां ऑपरेशन के लिए चली गई और उसके बाद जब ठीक हुई तो बातचीत सिर्फ इशारों इशारों में करती थी पन्द्रह दिनों तक और आखरी दिन की काली रात को मैं ही साथ था और अलसुबह जब उसकी आंखें बंद हुई तब भी मैं ही साथ था - अस्पताल से अब इतना डर लगता है, इतना डर लगता है यदि मुझे कल कुछ हो जाता है तो मैं घर में रहकर प्राण देना पसंद करूंगा बजाय अस्पताल की डेटोल भरी बदबू सहन करने के
तमिलनाडु में सत्यमंगलम के जंगलों में किसी ऊंची पहाड़ी पर एक किसान से बात करता हूं जो हाथी से डरा हुआ है - इतना डरा हुआ कि उसने अपने खेतों - घर के आसपास भी बिजली का करंट छोड़ रखा है कि हाथियों के झुंड वहां ना आए और उसे ना सताए - उसे उसके छोटे बच्चे की फिक्र है जो रोज स्कूल जाता है 20 किलोमीटर दूर पहाड़ से नीचे उतर कर और सूर्यास्त के बाद शाम को घर पहुंचता है , मुझे उन्हीं जंगलों में एक महिला का चेहरा याद आता है जिसने मुझे बहुत कम बर्तनों में चूल्हे की लकड़ी पर डोसा बनाकर खिलाया था और मात्र ₹2 लिए थे, मुझे कन्याकुमारी में विवेकानंद स्मारक ले जाने वाला स्टीमर का कर्मचारी याद आता है जिसने मेरा रुमाल नीचे गिर गया था तो आती बार लौटा दिया और अपने काले से चेहरे पर बहुत स्निग्ध दांतों के बीच मुस्कान ला कर पता नहीं क्या कहा था तमिल में परंतु उसकी बातों में एक ईमानदाराना कोशिश झलक रही थी
मुझे याद आता है सुदूर गुजरात के बनासकांठा में दोपहर के समय बहुत देर तक पैदल चलने पर तीखी प्यास के बाद एक घर में पानी पिलाया गया था कांसे के लोटे में - पानी इतना मीठा था कि वह स्वाद में जिंदगी भर नहीं भूल सकता, उस घर में कुछ मुस्लिम महिलाएं बैठकर लिज्जत पापड़ बना रही थी जो वहां से बना कर वो वेड़छी के गांधी विद्यापीठ में भेजती थी और वहां वसंत वडवले नामक ऊंचे पायन्चे का पैजामा पहनने वाले प्रोफेसर उनका मासिक भुगतान मनी ऑर्डर से करते थे , मुझे याद आता है गुवाहाटी में एक सरकारी गेस्ट हाउस के कर्मचारी ने अपनी बाइक पर बिठाकर ब्रह्मपुत्र नदी का फेरा लगाया था और ऊपर कामाख्या मंदिर तक लेकर गया था उस कर्मचारी ने बदले में मुझसे सिर्फ ₹5 मांगे थे


और इन दिनों जब मैं बिल्कुल खाली हूं अपनी छत पर बैठा हूं, घर में रहकर ऊब गया हूं तो यह सारी स्मृतियां मेरे जेहन में रह रह कर याद आती है और मैं पगलाया सा घूमता हूं कोशिश करता हूं कि वह सब मुझे सिलसिलेवार याद आए परंतु एक छोर पकड़ता हूं और दूसरा छोर छूट जाता है...


एक शाम है जो रोज डूबती है, एक सुबह है जो रोज़ आती है और एक जीवन है जो रोज खत्म होता है आहिस्ते से और एक मै हूँ जो रोज़ यह सब देखता हूँ और रोज़ चुप रहता हूँ...........



धुआं भरा है पूरे कमरे में एक खाली पलंग है , कुछ किताबें , एक लैपटॉप , एक चलता हुआ टीवी जो बंद नहीं होता, एक दरवाजा है जो हमेशा खुला होता है , दो बड़ी खिड़कियां है जिनमें पल्ले ही नहीं है - हवा हमेशा आती है और अपने साथ ना जाने क्या क्या उड़ा लाती है और इसी कमरे में बहुत सारी स्मृतियां दर्ज है - हर आने जाने वाले की जो इस कमरे के हर कण में बसा हुआ है - जैसे कोई जीती जागती जिंदगी हो ; बस यही कुछ है जो शेष बचा है और जो बाकी नहीं है उसके बारे में बहुत कुछ कहना है - परंतु वह कहने का भी समय नहीं है बाहर छत पर एक आसमान है जो चांद का इंतजार कर रहा है - ये सांसें मानो चाँद के ही इंतज़ार में ही अंतिम बार किसी चांदनी की सरपरस्ती में जीना चाहती है


जैसे अंतिम दो दिन बीतेंगे दिसम्बर के , जीवन वैसे ही होता है - बेहद ठंडा - धूप, ताप और सूरज के उजालों का इंतज़ार करता, हम मन मसोसकर हरदम कुछ नए की प्रतीक्षा करते है और नया किसी साल की भांति आकर भन्नाट से निकल भी जाता है , बेहतर है कि शुरू से ही समेटने की आदत डाल लें तो नए आगत की प्रतीक्षा नही करनी होगी

आत्मा पर रखा बोझ जब हटता है तो दिसम्बर की विदाई होती है और नए पलों की नये बरस में आगत होती है, बस हमें हर पल याद रखना होगा - 'जब होवेगी उमर पूरी' - हर सांस जैसे भीतर तक आकर दीप्त कर जाती है जन्म से - उसी तेजी से निकलेगी भी - रोक नही सकेंगें हम - जैसे निकलता गया समय उंगलियों के महीन पोरों से रेत के मानिंद

आएगा तो नया साल नही, जनवरी नही, संकल्प और दृष्टि के संधान नही, होंगी नही उद्दाम आशाएँ, नया समय नही, जनवरी की पहली तारीख पर दिसम्बर के अंत पर टँगा अपनी बेचैन आत्मा को मुक्त करने की विनती करता फड़फड़ाता हुआ कैलेंडर नही, बल्कि हम खुद ही अपने आपको बचाकर ले आयेंगें एक भय , आशंका और फुसफुसाते हुए -पिछले शोक संतप्त पलों से - नए साल के कान में अनुनय करते हुए कि पिछला कुछ अमिट सा रहे दिलों - दिमाग़ पर - कुछ ऐसे कि प्यार और संवेदनाएँ गुत्थम गुत्था रहें हर कोने और आत्मा के पोर पोर तक और भींजते रहें - गाहे बगाहे , यदा कदा यूँही

खामोशी दिसम्बर का दूसरा नाम है जो कपट का भी परिचायक है, वर्षान्त में अपने लब सीलकर हम उस कपट के दोषी हो जाते है जो हमने जानते बुझते हुए अपने आप से किये थे

दिसम्बर की गुजरती आखिरी सुबहें नए साल की आप्त प्रार्थनाएँ है जो नरम हवा से गुजरकर धूप में पक रही है

◆ आधे चाँद को पूरी जगह ◆
बहुत देर तक रात को जागता हूं अजीब सी उहापोह में पाता हूँ - ना जाने क्यों वो रास्ते, वो जगहैं और वो इमारतें याद आती है जहां पर घूमते घूमते कभी पहुंचा था, झिझकते हुए तनिक रुका था, जागते ख्वाबों से गुजरते हुए जगहों को टटोला था, महसूस किया था ; सुनता रहा और बहुत बारीकी से देखने की कोशिश की कि आखिर क्या है उस जगह में जो मुझे समय यहां ले आया
मुझे याद पड़ता है मेरे घर से, इतने बड़े खानदान से या कि मेरे शहर से भी इन जगहों पर आज तक कोई नहीं आया होगा और शायद भविष्य में कभी आएगा भी नहीं ऐसा प्रतीत होता है, कि इन जगहों पर आना और उनकी स्मृतियों को दर्ज कर लेना मेरे नियति में बदा था और मुझे समझ नहीं आता ; यह देर रात तब होता है जब मैं जगा होता हूं , नींद में होता हूं , दिन में चलता फिरता हूं , काम करता हूं तो ना जाने क्यों आजकल वो सारी जगहें क्यों याद आती है
लगता है जैसे मेरा इनके साथ कोई एक अदभुत नाता रहा है और मैं हर जगह को बहुत शिद्दत से अपने अंदर महसूस करता हूं , घर में भी कई बार ऐसा लगता है कि मैं अपनी काया से निकल कर उस जगह पर पहुंच गया हूं जहां बहुत ऊंचे सागौन के पेड़ थे, पलाश के फूल महक रहे थे, काली चिड़िया , बटेर और मैना गा रही थी , एक सुबह में जो टिटहरी की आवाज सुनाई देती थी - वह फिर से मुझे सुनाई देती है, तितलियां दिखाई देती है, भंवरों के शोर में मैं पागल हो जाता हूं और अपने काम से जी चुराने लगता हूं
मुझे लगता है कि मैं कहीं और हूं और विचलित करती हुई आत्मा जब पुनः इस काया में प्रवेश करती है तो लगता है कि मैं पस्त हो गया हूं, ताकत नहीं बची है, ऊर्जा का स्रोत खत्म हो गया है और मैं बेहद संकुचित मन से गिर गया हूं अपने भीतर खन्दक में डरते हुए , अपने कांधे पर चिकोटी काटता हूं - दोनों हाथों को फैलाकर आसमान को अपने अंदर भर लेना चाहता हूं , जोर से चिल्लाकर कह देना चाहता हूं कि मैं यही हूं ,अभी यहीं हूं ,अभी भी यहीं हूं - अपने पांव इस धरा पर इतनी ताकत के साथ रखता हूं कि लगता है धरती मेरे बोझ से दब जाएगी और समंदर का सारा पानी सिमटकर मेरी अंजुरियों में चला आएगा
उन इमारतों को याद करता हूं तो वहां के पेड़, उनके बरामदे , उसके कमरे , कमरों की खिड़कियां, खिड़कियों के पर्दे, पर्दे की धूल मेरे मन के ऊपर चढ़ जाती है और मैं धूल धूसरित हो जाता हूं ; अपने दोनों हाथों से बड़े पके हुए बालों को झटका लगाता हूं और पाता हूं कि मेरी टीशर्ट पर, मेरी कमीज पर, मेरे पेंट पर, मेरे जूतों पर धूल का गुबार चढ़ गया है आत्मा का पोर पोर परपीड़न महसूस रहा है, कलुष है, अंधकार, सुबह होते नजर नही आ रही - सांस लेते समय घबराहट होती है - मैं सांस नहीं ले पाता, आवाज रूठ जाती है, गले में घुर्राहट होने लगती है - लगता है पूरे शरीर पर धूल ही धूल हो गई है जैसे कि मान लो मैंने हड़बड़ी में मैंने चीटियों की बांबी पर पैर रख दिया है
मैं घबराता हूं , हताश होता हूं, अपने पास सम्बल की एक डोर रखता हूं हर ओर जाल की तरह फेंकता हूँ पर इसे ठौर नही मिलता कही और अंत मे होश आने पर पाता हूं कि मैं तो यही हूं - इसी कमरे में , इसी काया में, इसी कुर्सी पर बैठ देखता हूँ कि आँखें स्थिर, दिमाग स्थिर, शरीर मानो सुन्न हो गया है - लगता है अपनी आत्मा किसी और आत्मा के साथ मिलकर मेरे साथ खिलवाड़ कर रही है और मैं लगातार स्खलित होते जा रहा हूं - विचारों में, सिद्धांतों में, मर्यादाओं में और अपने आप में इतना धंस गया हूं कि बाहर निकलना भी बहुत मुश्किल है
क्या कोई चिकित्सक इसका इलाज करेगा शायद नहीं क्योंकि यह मेरी स्मृतियाँ और मेरे जाए दुख हैं , एक नाव है जो सूखी नदी में फ़टे बांस के बने चप्पू से रेंग रही है और एक जीवन है जो लथड - लथड कर आगे निकल रहा है , मार्गशीष माह का अष्टमी वाला चांद पुनः एक बार पूर्ण होने को है

बाजरे या तिल के इंतज़ार में विदा होता नवम्बर
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आज वैकुंठ चतुर्दशी है यानी त्रिपुरारी पुर्णिमा - जो दोपहर दो बजे आरंभ हो चुकी है, सब्जी बाजार में मैथी के एकदम ताजे पत्ते लिए बैठी थी वह बुढ़िया, कह रही थी कि आज का चांद कल के चांद से ज्यादा सुंदर होगा इसलिए कि कल तो पूनम है ही और चांद को होना ही है सुंदर और पूरा होने के पहले जो थोड़ी सी कमी रह जाती है वहीं आखिर में सबसे सुंदर होता है ; पूरा होने पर तो हर कोई सुंदर कहेगा और ना भी कहे तो सुंदर होने का खिताब कोई छीन नहीं सकता उससे 

ठीक यही समय है जब बाजार में चारों ओर हरापन बिखरा पड़ा है हरा पालक, हरी मेथी, हरे सुये की तीक्ष्ण गन्ध वाली पत्तियाँ, गीला अदरक, महकता लहसुन, ताजी बालोर, चटख रंग लिए बैंगन, लाल भक्क से टमाटर याकि बहुत नरम सी मटर और यही कही मानव जीवन आसपास बिखरा पड़ा है 

यह जाते हुए नवंबर के आखरी दिन है जो साल का आखिरी महीना ले आएंगे जैसे आखरी मुहाने पर खड़ा जीवन यूं ही कुनकुनी धूप में सूखते हुए निष्ठुर कड़क हो जाएगा और फिर हम इस गुजरे हुए साल के बारे में सोचेंगे, सही भी है जीवन की पूर्णता के एक कदम पहले ही सब कुछ सुंदर होता है, पूरा साल होने पर तो खूबसूरत हो ही जाएगा क्योंकि गुजर जायेगा और किसी भी गुज़रे हुए का मातम नहीं मनाते बस मुस्कुराकर याद कर लेते हैं और जब होंठ का तालमेल दिमाग़ की उन महीन स्मृतियों से होता है जो गुज़रते हुए अपनी जगह बना गई थी तो बरबस ही मुस्कुराहट फ़ैल जाती है कही यादों के नश्तर भले ही चुभते रहें 

मैं नवम्बर में हिसाब कर लेना चाहता हूँ ताकि शेष बचे समय मे साल की गुजरती जा रही हर धूप छाँह की बदली को करीब से देखूँ , अपने अंदर उस ताप को महसूस करूँ जो आहिस्ता से इस जर्जर हो चुके शरीर को तपाते हुए खत्म कर देगी, जाने के पहले इस साल की सभी स्मृतियों को संजोकर यूं रखना चाहता हूँ जैसे खसखस, बाजरे की या तिल की पकती फसल से कोई नरम हाथ हर छोटे से चिकने दाने को बिखरने से पहले सहेज लेता है और नए साल के उत्तरायण में जाते सूर्य को अक्षत देकर विदा करता है और दिन रात की चाल बदल जाती है

मैं इंतज़ार में हूँ नवम्बर के इन आखिरी दिनों में अपने आप से एकाकार होने को ताकि दिसम्बर जब शुरू हो तो विनम्र धूप में सब कुछ विदा कर सहेजने को औचक सा तैयार रहूँ

( 2 )

माहे नवम्बर के बरक्स अमरूदों से उम्मीदें 
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यह अमरूदों का मौसम हुआ करता था यह वह समय था जब बहुत छोटे से, नरम और गुदबदे से खूब सारे बीज लिए अमरूद पक जाते थे और फिजाओं में उनकी महक तैरा करती थी - लगता था पूरी धरती के सारे फल खत्म हो गए हैं और सिर्फ अमरूद  ही बचे हैं 

किसी को हरा रंग देखना हो तो अमरूदों को देखो जिसमें इतने भिन्न भिन्न रूप हैं कि हर अमरूद का अपना हरापन है जीवन की भांति, हर अमरूद के भीतर अपने बीजों का एक ढांचा है - कहीं कम है, कहीं ज्यादा, कहीं लाल, कहीं सफेद और कहीं पीले से जर्द पड़ते दाँतों के समान जो पायरिया से लगभग ग्रस्त हो गए हो पर उनकी चमक और महत्व बरकरार थी

यह वही अमृत के हिस्से थे जो हमेशा जीवन में आशा बनाएं रखते थे, इसके हरे हिस्से को खोलकर या चबाकर मैं बीजों को गहराई से देखने - समझने की नाकाम कोशिश करता और बीजों को देख हमेशा एक नए संसार की कामना जागृत होती थी - यह दीगर बात थी कि कई पौधे अमरूद के मैंने लगाए वे पनपे भी , सूख भी गए, और कही फल लगें तो पक नही पाएं - काले होकर किसी सात माही बच्चे की तरह अल्प अवधि में ही खत्म हो गए 

नवम्बर के इसी मौसम में अशोक के पेड़ के शीर्ष भी शिखरों को, नीरभ्रआसमान छूने की  कामना करते है - पुरानी पत्तियां गिराते हुए नई पत्तियों की होड़ के साथ ऊँचें और ऊँचे होते जाते है जैसे चीड़ के पेड़ मनाली में बादलों को भेदकर निकल जाना चाहते हो, कहते है एक अशोक का पौधा लगाने से सौ पुत्रों का सुख मिलता है - अब हंसी आती है कि इसी सोच ने अपने आसपास बेटियों की संख्या धीरे-धीरे समाज में इतने नीचे कर दी है कि अब गिनने के लिए भी एक दिन शायद ही शेष ही बचे 

वे अमरूद के बीज बहुत उम्मीद जगाते थे उन्हें फ़ल में मौजूद पानी के साथ खाना - जो अमरूद के अंदर पर्याप्त रूप से मौजूद होता था - लगता था तृप्ति मिल गई है,  परंतु यह भी सिखाया जाता था कि अमरूद से खांसी होती है और माह नवंबर अनुशासन तोड़कर ढेरों कच्चे पक्के अमरूद खाकर खाँसते खाँसते और बहती नाक पोछते दिसंबर आ जाता था, दिसंबर के आखिर की सात दिन की छुट्टियां बहुत ध्यान खिंचती थी, खुश रहते थे, सपने और उमंगों में जीते जीते नवंबर खत्म हो जाता था 

इस नवंबर का खत्म होना सिर्फ पीड़ा और स्मृति दंश नहीं था बल्कि अगले साल तक उम्मीदों का एक जखीरा बचाये रखने की भी भारी ज़िम्मेदारी होता, लगता था इसी नवंबर के बाद शेष बचे माह में जीवन को अगले बरस के लिए तैयार ही नहीं करना था - बल्कि शेष जीवन के लिए बीजों को सुरक्षित रख लम्बी लड़ाई लड़नी है - धरती के हर उस कोने से जो बीज को उगने में व्यवधान पैदा करता है, आसमान के हर उस हिस्से से जो उसकी धूप रोकता है और पानी से जो हर ओंस की बूंद में सुबह आता तो है पर सूरज की रश्मि किरणों की थाप पड़ते ही फुर्र हो जाता है जैसे अच्छे पल और आवारा हवाओं से जो किसी भी दिशा से आती और कंपकपाते हुए घायल कर जाती

माहे नवम्बर की गुफ्तगूँ दिसम्बर के गलियारों तक ही नहीं अपितु जीवन के दूर - दूर तक पसरे बरामदों और आंगन -ओसारियों में सुनाई देती है और मैं चहकता हूँ कि एक चिड़िया मेरे आंगन में फुदके और पक रहें अमरूदों में चोंच लड़ा जाएं, तोतो के झुंड आएं और सारे अमरूदों को झूठा कर जाएं कि बीज मीठे होंगे तो आने वाले दिसम्बर के पीछे से झांकता नया साल कुछ कोमल नवांकुर लेकर आएगा और हम फाग में मस्ती के गीत गाएंगे 

कहते हैं अग्नि सबसे पवित्र होती है अग्नि के सामने यदि हम बैठ जाए तो अपने अंदर का दर्द आहिस्ता आहिस्ता पिघल कर खत्म हो जाता है, अपने अंदर की बुराइयां खत्म हो जाती है , अपने अंदर जो भी सदियों से जमा हुआ है - वह खत्म हो जाता है. जलती हुई अग्नि बहुत कुछ ऐसा कर जाती है जो हम सारी उम्र मेहनत करके भी नहीं कर सकते परंतु अग्नि के सम्मुख बैठक कुछ क्षणों में ही हम जो पिघल जाते हैं मानो अपने भीतर कुछ शेष नहीं है
अग्नि हमारे चारों तरफ फैले एक औरा को भस्म कर देती है और वह औरा खत्म होकर व्योम में मिल जाता है और हम एकाकार हो कर तटस्थ हो जाते हैं. अग्नि सिर्फ अग्नि नहीं, बल्कि यह देवताओं की जीभ है जो हमेशा सच बोलती है इसलिए अग्नि के पास बैठना मुझे बहुत सुहाता है. मैं चाहता हूं कि अपने को विलीन कर दूँ और हमेशा के लिए अग्नि में मिल जाऊँ ताकि अंदर जो कुछ छुपा है जो कुछ जमा है जो कुछ ठोस है वह एकदम से पिघल कर बाहर हो जाए और मैं स्वाहा हो जाऊं सदैव के लिए.....


रावण से मुझे इसलिए हमेशा ईर्ष्या होती है और उन सबसे जो अग्नि में समा गए और हमेंशा के लिए स्तब्ध होकर शांत हो गए सदा के लिए

धुंध और बरसात की बूंदों के बीच ही जीवन का सार छुपा है - बस यही से होकर गुजरना है और इस सबको समझने में जो समय लग गया, लग गया - अब तो बस सब छोड़ कर निश्चित हो जाना है और सचेत और सम्यक भाव में निबद्ध होकर तटस्थ हो जाना है


एक ढलती शाम का दर्द ही असली जीवन का राग द्वैष है और साजो सामान, जब यह समझ मे आ जाये तो फिर अद्वितीयजन्य कर सकोगे और प्रतिग्रहीत कर पाओगे कि जीवन का समपार्श्विक हिस्सा प्रतिक्षण प्रविरत हो रहा है , अर्थान्वयन पर अवलम्बित सुर यवनिका में बज रहे हैं

दुनिया की भीड़ से जितनी दूर रहो उतने ही अपने पास रहोगे और कुछ कर पाओगे अन्यथा एक मखौल बनकर रह जाना और विदा हो जाना कोई जीवन तो नही जबकि आपके पास समय बिल्कुल कम हो

रंग उदासियों की शरणगाह है जहां वे अपनी नाराजगी, गुस्सा, क्षोभ और अवसाद छोड़कर घुल जाते है, सहज होकर जीवन के झंझावातों से मुक्त हो जाती है

नाराज़ होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है और यदि आप किसी से नाराज़ है तो यकीन मानिए वो कोई अपना ही होगा जिससे आप भयानक नाराज़ है - बशर्ते वो आपको अपना मानें

जीवन में अधिकांश चीजें दुविधा में डाल देती है और इस सबमे खत्म भी हो जाती है पर मोह और त्याग के बीच हम संशय में रहते है और इस तरह अपने आप को नित्य तिरोहित करते हुए एक दिन निस्पृह से हो जाते है



जब एक लम्बी नींद लेनी ही है तो क्षणिक झपकियों का क्या आनंद लेना


इंतज़ार करिये - एक लम्बी शाश्वत नींद आपकी ओर बढ़ रही है



नेह की छोटी सी कुण्डी ने दुनिया की वृहत्तर दीवार को बचाये रख्खा है जो रोज कुचक्र रचकर जीवन का विध्वंस करना जानती है



आसमान से आगे कुछ तो होगा ही पर ना नज़र जा पाती है ना सोच , बस हम अपने में ही सिमट कर रह जाते है , यही से हम और आसमान का फर्क बहुत बारीक सी रेखा में बंट जाता है - यह बंटना ही जीवन का स्थूल और साक्ष्य है जो हर पल हमें बिसारना है और ऊँचा होते जाना है


आसमान से आगे कुछ तो होगा ही पर ना नज़र जा पाती है ना सोच , बस हम अपने में ही सिमट कर रह जाते है , यही से हम और आसमान का फर्क बहुत बारीक सी रेखा में बंट जाता है - यह बंटना ही जीवन का स्थूल और साक्ष्य है जो हर पल हमें बिसारना है और ऊँचा होते जाना है

भाषा और लेखन की तरह जीवन भी सम्भावनाओं से भरा है, अबाध है और वेगमयी भी - सदैव उद्दाम और जल्दी में, हड़बड़ाहट में , अनिश्चितता से भरा, इसलिए मैं ना लेखन और भाषा में - ना ही जीवन मे "पूर्ण विराम" जैसा विराम चिन्ह इस्तेमाल करने के प्रयोगों का पक्षधर हूँ


हमेंशा खुला रहता हूँ और लेखन में पूर्ण विराम नही लगाता, पता नही कब , कहाँ, कैसे, कही भी कुछ कौंध जाएं - एक नई और निस्पृह - नवाचारी शुरुआत के लिए सतत खुली, चाहे निर्मम भी हो- आकाशभर और उन्मुक्त जगह रहनी ही चाहिए
थका हुआ दिख रहा था , बहुत दिनों बाद मिला वो - एक जमाने मे बेहद चर्चित, संघर्षशील और जुझारू शख्स था इधर जब से आंदोलन और धरने रैलियां बन्द हो गई वह भी बेरोजगार हो गया है
दो तीन संस्थाओं से भी जुड़ा पर कुल मिलाकर हासिल शून्य रहा, अधिकारियों से दोस्ती भी काम नही आ रही अब , जगह जगह छलनी शरीर और आत्मा का सिसकता दर्द लिए वह हर कही नजर आने लगा
हर ओटले और ओसारे पर कतराए हुए लोग उससे भागते और साथ रही स्त्रियां भी उसे और उसके हर भोगे हुए संसर्ग को विलोपित कर नए की तलाश में सम्भावनाएं टटोल रही थी , साथ में जेल गए ज्ञान दिया वे ही अब कन्नी काटते है और उसे निरापद मानते थे


रोटी का सहारा भी इधर ख़त्म हो गया था पर अब ना घर में कोई सम्भावनाएँ थी ना ही बाहर , बस अब कहानियाँ थी और क़िस्से पर उन्हें सुनने वाला कोई ना था


जाहिर है वह बेहद निराश और टूटा हुआ हर जगह अपनी असफ़लता और यायावरी की पुरानी कहानियां सुनाता रहता है और हर जगह से थका हारा लौटता है घर


शाम की तलाश में फिर डूबता है झील में और रात भर बेचैन रहता है कि कल कहां जाना होगा और सुबह उठकर अख़बार में शहर में आज होने वाले कार्यक्रमों की सूची जी भरकर देखता है


जब बहुत तनाव हो तो जीवन को ढीला छोड़ दो और सिर्फ उन बातों का और शख्सियतों के विशुद्ध मजे लो जो आपको तनाव दे रहें हो


जिम्मेदारियां इंसान को बांधती नही बल्कि मजबूर करती है कि वह स्वाभाविक जीना छोड़कर उलझता रहे और एक दिन उसी में गुत्थम गुत्था होकर सांस छोड़ दे , बेहतर है कि एक झटके में सब तोड़कर उन्मुक्त हुआ जाए



हर मौत जीवन की उम्मीदों, उदण्ड आशाओं और उद्दाम वेग से प्रबल होती महत्वकांक्षाओं के खिलाफ एक महती गवाही है जो अनंतिम रूप से सत्य है

उदास शामें सुप्त और ढलते जा रहे जीवन की माशुकाएँ है जो रात ढलने तक कवच जैसी बनी रहती है

जिस पथ पर जाना है वहां बादलों के सिवा कुछ नहीं, यह धरती है जिसकी कोई सीमा नहीं और रास्ते ऐसे ही मानो जिनका कोई ठौर नहीं, बस यूं ही गुजरते - गुजरते अब सब कुछ खत्म हो रहा है - जीने का मकसद, सांस लेने की तरीके, जिंदा रहने की आहट और चुपचाप चली आ रही है वह पदचाप जिसे सुनकर मैं चौक जाता हूँ और बारंबार लगता है कि कहीं और अब जाया न जाए, कहीं और चला ना जाए, पथ सारे दुर्गम हो चले हैं, खत्म हो गए हैं वे रास्ते और धूप आसमान, छाँह, ओस की बूंदें, रक्तिम आभा, स्नेहिल लाली, भाषा के मुहावरें और रक्त रंजित से पल तारी हो रहें है , देख रहा हूँ कि सब खत्म हो गया है - एक भी किरण नजर आती नही दूर क्षितिज तक

भीगती सुबहों के ये फूल एक दिन फ़ल बनेंगें

इस बरसात में उग रही हर कोंपल तुम्हारे लाख प्रयास के बाद भी सफल है, कितनी घास रौंदोंगे, ये सब तुम्हारे ताप से नही अपनी आंतरिक ऊर्जा से स्पंदित है

भीगती सुबहें धूप के इंतज़ार में बैठी अतृप्त आत्माएं है जो सूखकर फुर्र हो जाने को बेताब है


बाहर अभी अभी धुंध में एक पत्ता खिला है दिन और रात के मिलन के ठीक एक घंटे बाद और मैंने उसे देखा खिलते हुए, कल सुबह तक शायद वह बाकी पत्तों की तरह उतना ही हरा हो जाएगा जितने और सब है- बस फर्क रह जायेगा तो इतना कि वह धुंध से उपजा बरसात की एक रात का है और अब उसे भी औरों के संग साथ धूप को सहना होगा

जब हमें लगने लगे कि अब निभाह मुश्किल है और कुछ ठीक नही हो सकता तो यवनिका पर ठिठककर सोचने का अर्थ नही, काले मेघों से आच्छादित धरा पर सब कुछ त्याज्य कर ही आगे बढ़ना होगा और ये मोह के बीच लिपटती जा रही एषणाओं को झटके से तोड़कर निकलना होगा सफ़र पर - सबसे पहले दोस्त छोड़ो, फिर परिजन और अंत मे स्वयं परिव्राजक बनकर निकलो तभी कुछ रच पाओगे ऐसा जो सम्भवतः आत्मा को छू सके


क्योंकि संसार मे उन लोगों की उपस्थिति ज़्यादा है - स्मृतियों में ही सही- जो विदा ले चुके है और कही दूर शांत चित्त से सो रहे है चिर स्थाई भाव से इसलिए मैं अब विचलित नही होता किसी भी हलचल से क्योंकि शनैः शनैः वही जा रहा हूँ और तुम सबको भी वही जाना है इसलिए ज्ञान, अभ्यास और अहम को भी छोड़ते चलो

राजकुमार सिद्धार्थ का घर छोड़ना मेरे लिए आज भी बड़ा सवाल है और इसका जवाब मुझे गया और सारनाथ में भी नही मिला - साँची में भी नही
सवाल उठना और वाजिब समय पर उठाना अपने को शक शुबहा में देखना - जीवन का सत्य होना चाहिए और यह सकारात्मक है और अपने हर गलीज़ से गलीज़ प्रश्न का सिलसिलेवार जवाब खोजना अपने शरीर के साथ आत्मा का पूर्ण बुद्ध हो जाना है
हम सबके भीतर यह एषणा, द्वंद और संघर्ष बना रहे यही सब कुछ है

उजाले अंधेरों में ही समझ आते है
अंधेरों में ही राहें छुपी है जो मंजिलों के पार होकर विलोपित होती है और यह समझने में पूरी रात बीत जाती है और अगर एक जीवन एक रात है तो उजाले सदियों की परछाईयाँ है जो हमें आश्वस्त करती है कि कुछ रास्तें कुछ मिट्टी की गोद मे बनेंगें और फिर उगेंगें कही से नवांकुर

ये उजालों के खेल जीवन के सुप्त में बने रहें और जलती रहें जिन्दगानियाँ कोने कोने पर
वस्तुतः हम कही जाते ही नही है - घर , अपने लोग, स्मृतियाँ, मिलन और नई जगहें हमें अपने अंदर झांकने के मौके देती है कि जो था , जिसे छोड़कर नूतन की तलाश में आये थे वही बेहतर था और हम अपने को समझाते हुए हर बार अपनी जड़ों की ओर लौट आते है कि आओ लौट ही चलें अब कुछ नही गूँथने को और सहेजने को


बस लौट रहा हूँ चार दिन बाद बहुत सारी यादों को सहेजा है और इस सबमे बहुत लोग , मित्र और संगी साथी ज़ेहन में लंबे समय बने रहेंगे


जब भी भीगा इन बारिशों में तो बहुत बहुत सूखा रह गया और जब जब भीगने से बचा तो पोर पोर भीग गया, जीवन के इस स्याह गाढ़े रहस्य को सुलझा नही पा रहा और बरसात है कि फिर जाने को है



गीली हवाओं से पूछो बारिश होने मायने, गीली मिट्टी से पूछो बूंदों के नृत्य की थकान, हरी कोमल पत्तियों से पूछो बादलों के रीत जाने का सुख, जमीन में रिसते पानी से पूछो आत्मा के तृप्त होने का स्वाद और जब कुछ ना पूछ सको तो महसूस करके देखना कितना खाली हो तुम सिर्फ प्यार की एक बूंद के बिना इस धरा पर


मैं काले आसमान से नही डरता क्योकि उसमे उमंग की बूंदे भरी होती है , नीला कभी नीला होता ही नही और इंद्रधनुष भी बेहद क्षणिक है , इसलिए मैं काले बादलों का इंतज़ार करता हूँ - वो उन नेह की बूंदों को लाते है जो जीवन को इंद्रधनुष बना देती है और किसी चीड़ के पेड़ से छनती हुई चांदनी जीवन को निरभ्र सा उजला कर देती है


मैं नींद में बूंदों के साथ भीगता हूँ और फिर सपनों में बारिश के तन पर मिट्टी रौंदकर हवाई किले बनाता हूँ किसी जादूगर की तरह - जिसे जमाने की हकीकतें और सच्चाईयां छुपाकर भरपूर प्यार बांटने की आदत है, अफसोस यही है या यूं कहूँ कि बारिश गोया कम होते जा रही है इन दिनों सच्चे आँसूओं की तरह


बहुत बार सोचा कि बून्द बनूँ , फिर सोचा नदी बनूँ , फिर लगा कि समंदर बन जाऊँ जिसका ठौर नही पर फिर लगा प्यार के लिए बहुत ही थोड़ी सी जगह चाहिए , मेरे लिए ओंस नुमा स्वाति नक्षत्र की एक ही बून्द काफी है


बरसात की बूंदों में भीगकर कुछ और गीला हो जाता हूँ मानो खुद ने खुद को निचोड़ लिया है और सब ओर बह रहा हूँ दिशाहीन सा

रिश्तों का कोई लेखा नही और इसकी बही में सैंकड़ों ऐसे किस्से लिखे है जिनमे कहानियां भाप सी उठती है , आग सी ठंडी होती है और गूंगी होकर भी वाचालता से परे निकल जाती है - सत्व, विरक्ति और किसी निर्गुण सी आसक्ति में डूबी कहानियां ही असल मे हमारा स्थाई भाव है जीवन का , बस यही कड़ी रिश्तों को इतना मजबूत करती है कि वे छन्न से बजकर टूट जाते है

रिश्तें कोई पेड़ पौधे नही जिन्हें पानी से सींचा जाए , इन्हें खून से ही सींचना पड़ता है और अंत मे बहुत निर्मोही होकर छोड़ना पड़ता है तभी उसकी पवित्रता और सहजता बनी रह सकती है

असल मे जन्म के पहले तय हुए रिश्ते तो बेहद मजबूत होते ही है तमाम गिले - शिकवों के बावजूद भी पर जो हमने अपना खून, समय और भावनाएं देकर जो रिश्तें कमाएं या बनाएं उन्ही से हमको अक्सर खतरा बना रहता है

एक उम्र और समय के बाद हम रिश्तें इसलिए बनाते या ढोते है कि ये लोग कम से कम मेरी मैय्यत में आएं और कंधा दें


आवाज एक गुनगुना सा सुनाई देने वाला पछतावा है क्योंकि हम हर चीज को आवाज से ही पहचानते है और यह अमिट पहचान जितना जोड़ती है उससे ज्यादा तोड़ती है और यही समभाव हमे अंत मे देह के बाद जिंदा रखता है और हम बने रहने को अभिभप्त होते है जब तक व्योम में गूंज बनी रहती है हमारी



आवाज का स्वाद, रंग और आकार सिर्फ हमी बुझ सकते है क्योंकि हर आवाज का स्वभाव हर बार भिन्न होता है और इसलिए जब एक घुर्राहट से अंतिम आवाज व्योम में गूंजती है तो हम ध्वनि और प्रतिध्वनि के चक्र से निकलकर आकाश में समा जाते है

भीड़ के बीच शोर में जब अंदर से आवाजें उभरने लगती है तो कोलाहल में सिर्फ एक प्रतिध्वनि आती है जो हर बार टकरा कर थोड़ा और शांत करती है और इस तरह से ध्वनि, स्पंदन और चीखों के साथ हम खुद की ही आवाज को खत्म करते है








सन्नाटों के स्वर आवाजों की भिनभिनाहट को पकड़ कर ऐसी दिशा में ले जाते है जहां सब कुछ शांत हो जाता हैं और फिर हम कभी आवाज को दोहरा नही पाते


सोचा था कि 
एक टुकड़ा धूप चुराकर
थोड़ी सी छांव बचा लूंगा 
पर एक बरसात ने 
सब यूँ धो दिया
मानो साँसों पर पहरे 
लगा दिए किसी ने


टूटा तो सब कुछ ही था 
जुड़ने की प्रक्रिया में फिर टूटना जारी रहा 
ऐसा टूटा फिर कि कही कोई संभावना शेष नही रही




साँसों, संघर्ष, संस्तुति, संयम, संजोग और सहजता की कोई भाषा नही होती जैसे जन्म मृत्यु और इनसे उपजी वेदना की कोई भाषा नही होती वैसे ही इनके बिना भी जीवन का कोई अर्थ नही होता - बस एक बहुत बारीक सा तंतु है जो हर समय चैतन्यता में हम पर तारी रहता है बशर्ते हम उसे बूझकर समझ लें और ठीक समय पर कूच करने निकल पड़े


जन्म अगर सुबह है तो धूप उसको पकाने वाली ऊष्मा है जो जीवन को तपाकर सांझ के लिए तैयार करती है, कड़ी धूप में दिनभर तपकर सुस्ताते हुए मद्धम शाम को हम जीवन का लेखा सहेजते है इसलिए कि अब अंधेरी रात में सब समेट कर एक लंबी यात्रा पर निकल जाना है, कोई हड़बड़ी ना हो और भय में हम औचक से ताकते ना रहें गहन अंधियारे को - बस अगली सुबह कही और किसी और ठौर ठिकाने पर


मृत्यु असल मे जन्म से पहले तय है बस हम सिर्फ उसके आने का इंतज़ार करते है, कई बार हम उसके मुहाने पर बैठे बैठे ही जीवन गुजार देते है ठीक ऐसे जैसे दूब के शीर्ष पर बैठी ओंस की बूंदें और झक्क उजाले की एक ही रश्मि किरण के साथ ही सब कुछ क्षण भंगुर हो जाता है

हम सबकी स्मृतियों में मरने वालों की स्मृतियाँ ज्यादा लम्बे और असरदार तरीके से ज़िंदा रहती है और यही वजह है कि हम मौत से खौफ खाते है इसलिए नही कि हम मर जायेंगे, बल्कि इसलिए कि हम स्मृतियों में तब तक रहेंगे जब तक हमें जानने वाले ज़िंदा है
अकेलापन वास्तव में हम ओढ़ते है वस्तुतः हम कभी अकेले नही होते, स्मृतियों की उहापोह के बीच और मन के अंधेरे कोनो के अंतर्द्वंद हमे अकेला नही होने देते और इसी के साथ साथ एक अनवरत यात्रा चलती रहती है - निर्जीव, निरंकुश और निस्तेज जिसमे डूबकर हम वैराग्य का अभिनय करने को बाध्य हो जाते है


अपने अकेलेपन में हम नितांत दयनीय हो जाते है और उस भीड़ को भीतर टटोलते है जो कभी हमे सुहाती नही थी और ठीक इसी प्रस्थान बिंदु से एकालाप और कल्पनाओं की उड़ान शुरू होती है

सारी जिंदगी चाँद के इंतज़ार में बीत सकती है - पूनम या अमावस के चाँद में , बशर्ते सीमाएं आकाश सी चौड़ी हो, खुली हो और इतना स्पेस हो कि एक सांस जाएं तो दूसरी के इंतजार में बेचैनी ना झलकें सफर में

सितारों से भरी रात में सिर्फ चाँद ही सबसे उजला नजर आता है और उसकी चमक ही इस समय सर्वोपरि है - यह उसने लगातार कृष्ण पक्ष में कालिमा से जूझते हुए बनाई है

खुली रात में चाँद के नीचे सोना असल में जागने की पीड़ा है जिसका अंत एक भक्क से होती सुबह में होगा


हर दिन एक सदी के मानिंद होता है जो जीवन के तीनों पड़ावों को लेकर आता है और गहरी रात के समक्ष खत्म होता है, स्मृतियाँ उकेर कर खत्म होता हर दिन एक नए दिन के लिए पुराने का विलोप कर लौटता है - यह लौटना और नए के उदय के बीच जो स्पंदन हम महसूसते है वो ही हमारा सम्बल है जो जीने की उदात्त भावना और खत्म होने के धीर को संजोए रखती है


एक पुराना कंदील सिर्फ इसलिये सभ्यता से बाहर कर दिया जाता है कि अब वह महज एक शो पीस है जिसकी आवश्यकता अब नही रह गई है, यह इस बात का भी प्रतीक है कि हर वस्तु , जीवन का एक समय और उद्देश्य होता है जो वैतरणी की भागम भाग में अपना दायित्व पूर्ण कर पार हो जाना चाहता है


हर बात का अंत अत्यंत जरूरी है - चाहे प्रेम हो या तनाव और मौत से बेहतर कुछ हो ही नही सकता बाकी जो प्रचण्ड और उद्दाम आशाओं में जीवन के स्वप्न और अर्थ देखते है वे मासूम है, उन्हें मालूम ही नही कि जीवन यथार्थ और फेंटेंसी के बीच झूलती कड़वी सच्चाई है
चलते हुए हम सब थकते है - उत्साह, जोश, उद्दाम आशाओं, अनंत सम्भावनाओं और वायवीय परिकल्पनाओं से पर इन्ही सिक्कों के दूसरी ओर सन्तुलन के लिए तनाव, घोर निराशा, कुंठा, ना कर पाने की बेबसी, ठहराव और अस्थायित्व की प्रचण्ड ज्वाला भी साथ चलती है , विचलन और परावर्तन के तार पर इन सबको साधकर जो शेष रहता है वह जीवन है और इसका जो मिला - जुला परिणाम है - वह है अनंत थकान जिसे एक विश्रांति की जरूरत है

मैं सोचता था, मैं चाहता था, मैं ये कर सकता हूँ - ये सब भेद है और दिमाग़ी जालें - इनसे निजात पाये बिना या मैं का त्याग किये बिना कुछ भी सम्भव नही, इस सबको लगातार पोषित करने से मैं को ही हम उत्तुंग शिखर पर ले जाते है और अंत मे पाते है कि मैं निहायत ही एक भोंथरा सा अवयव था समूचे परिदृश्य पर, इसलिये मैं का त्याज्य ही मैं में विगलित हो जाना है अस्तु मैं को मैं में समाहित कर खत्म कर दो


हम भटकते रहते है सर्वत्र और पाते है कि हम ही भटके हुए है मन, वचन, कर्म, वाचा और दृष्टि से, यह आंतरिक भटकाव ही एक तरह की वेदना है जिसे खत्म होना ही चाहिए और अपने को निर्विकार मान कर विलोपित करते हुए अनंतिम की ओर बढ़ना चाहिए ताकि अन्य किसी के लिये स्पेस और अनंत सम्भावनाओं की गुंजाइश बनी रहें


जब सारे मकसद खत्म हो जाये और जीवन का कोई उद्देश्य शेष ना रहें तो मोहमाया का त्याग ही श्रेष्ठ है और एक रास्ता चुनकर उस पर चलना शुरू कर देना चाहिए ताकि गमन को अर्थ मिलें और वह अपने प्रारब्ध पर पहुँचे

ये जो शाख़ें है बची हुई है अब तक - वे भी झिर जाती गर पानी की कुछ लहरें उनकी जड़ों से शीर्ष तक नही पहुंचती तो, कई बार नीचे से उन्मुक्त शिखर पर जाने में समय तो लगता है पर फूल तभी खिलते है


ये जाते हुए फूलों का उदास मौसम है जो तपती धूप की दोपहरी को सहकर गमगीन और चिपचिपी शाम को गुलज़ार करने का भरसक प्रयास करता है पर स्याह रात के अंदेशों की वजह से अनमना होकर रह जाता है



एक पगडंडी, एक समंदर, एक शांत आसमान , एक जीवन से भरा हंसता चेहरा और मलिन क्लान्ति से भरा मौत का घर देखिये, अगर आप जुझ रहे है अपने आप से तो आपको मौत के घर मे पस्त और गमगीन चेहरा सुकून देगा और आप सहज ही विरक्त होकर माया से दूर होता पाएंगे अपने को


शाम को कई बार जल्दी अस्त होना पड़ता है और यह शाम ही जानती है कि एक क्षण के लिए आई बदली उसकी सहज गति पर कितना प्रभाव डालती है, अस्तु वह जूझना भूलकर अपने को अस्त कर लेती है कि यह सब कुछ उसके हिस्से में आने से बचा रहें


जीवन की अंतिम लड़ाई बहुत सहज तरीके से लड़ी जाना चाहिए और इस लड़ने या जूझने की प्रक्रिया में ऐसा ना हो कि मौत भी यूँ आये कि पाँव फिसले किसी तालाब में और आप अनघड़ से खत्म हो जाये


ये जो लौ जल रही है, इसे जलाने की जद्दोजहद में हम सब जिस तरह से जूझ रहे है वह सिर्फ उस तेल के चमत्कार का कमाल है जो ठीक नीचे अँधेरे में बून्द बून्द जलकर स्वाहा हो रहा है और सब कुछ खत्म


जब जीवन की लौ बुझने को हो, हवाएं विपरीत दिशा में उद्दाम वेग से बह रही हो तो जूझने के हजार बहाने मिल सकते है बशर्ते हम सब कुछ विलोपित कर जीवन का मोह छोड़ दें और निर्मोही बन जाएं



जीवन की इस लड़ाई में हमें नही पता कि हम कौन है, खुद ही को नही मालूम कि हम कौन क्यो और कहां है पर फिर भी जूझ रहे है एक स्थाई पहचान के लिए, कोई बताएं कि क्यों










सच तो यह है कि हम सब एक कम्फर्ट ज़ोन में रहना चाहते है और कतराते है बाहर निकलने से , हम सब जूझने से डरते है और डर एक स्थाई भाव है


जीवन मे सृजनात्मकता, सर्जन और बेहद कठिन कार्य भीड़ के बीच भीड़ बनकर ही सम्भव है, जो जूझने से बचकर किसी अभेद्य किले में जाकर अपनी छवि बनाने की नाकाम कोशिश करते है वे कायर है और अकर्मण्य


सफ़र के साथ ही नर्तन, आरोह अवरोह और सुरों का संगम हो सकता है यदि आप यहाँ जूझने के बजाय शास्त्रीयता की ठसक बनाये विशिष्ट बनने की ओर है तो आप जीने का माद्दा ही खो चुके है


जिसे चलते सफ़र, शोर, पंखों की गड़गड़ाहट और पटरियों के बीच संगीत का राग यमन, बाँसुरी पर दरबारी कान्हड़ा, तबले की झपताल सुनाई और समझ आ जाये उसे जूझने की परिभाषा या भाषा की समझ मत सिखाइये


जहाँ मैं खड़ा हूँ वहाँ तक आने के लिए एक लम्बा तपता रेगिस्तान है और सूखे लबों पे मंजिल का नाम लेकर जूझते आना है


रात की चमकीली रोशनी के नीचे खड़े होकर संसार को देखो तो लगता है जीवन के कितने सायों से जूझना अभी बाकी है


उद्दाम वेग से प्रबल होती कुत्सित कामनाओं से निजात पायें बिना क्या हम सच में गतिमान भी हो सकते है, यदि इस ज्वर को नहीं रोक पा रहे तो जाने का मकसद अधूरा है और भयावह भी... मुक्त हो पूर्णरूपेण तभी सत्व निखरेगा जीवन का......


जिद, व्यग्रता, बेचैनी और निस्पृह भाव एक तरह से जाने की आतंरिक तैयारी का हिस्सा है जो लम्बे अभ्यास से आता है और इसके चलते हम जाने के प्रारब्ध को निश्चित करते है ..जिद करो और अपने को बदलो......


पूर्णमासी के चाँद का भी आज से क्षरण आरम्भ हो गया है, कल जितना मोहक था आज थोड़ा दुर्बल है- जाने में दुर्बलता होना स्वाभविक है पर इसी से तो पार पाना है ...


जाने में तो देखा है कि हम अपने को टटोलने के बजाय विहंगम दृष्टि से परिवेश को देखते है जबकि होना तो यह चाहिए कि हम अपने होने का एहसास करें तो संभवत निकल पायेंगे यहाँ से ...


सहानुभूति, सहृदयता, भावनाओं में रहकर जाया नहीं जाता -निर्मोही बनकर जब जाते है तो जाने का प्रतिसाद मिलता है जाओ तो ख्याल रखना इसका ..


बहुत बन्धन बना लिए थे तुमने इस छोटी सी कोख से कब्र की यात्रा में, कहते है जाने से पहले सब यही छोड़ना होते है साथ किसी को ले जाते नही देखा तो आत्मा का बोझ भी छोड़ जाना इसी जगह ताकि कुछ फूल उग सकें और महकते रहो हरदम.....


धीर गम्भीर चित्त से विचारना एक बार बहुत सारी दुनियावी बातों के साथ कि जाने के पहले क्या परम पद पा लिया है, हम सब बहुत सामान्य मनुष्य है पर वहाँ तो सब एक ही है ना, जाते हुए भजना मत गुनना बस...

एकांत में कितना एकाग्र हो पाते है हम, याद आते है वे सब चले जाने वाले जो रास्तों को पार कर अनंत यात्रा पर निकल गए हैं - जाते हुए दृढ़ भरोसा रखना मन में कि लौटना होगा नही अब...




दहकती हुई दोपहर के बाद ढलती शाम को चित्त शांत होता है, मन के दर्पण को साफ कर हम निहारते है कि यह दिन दीन बनाकर जा रहा है पर क्या हम अभिमान से दूर जा पाते है ...


जाओ तो ऐसे कि सब कुछ छोड़ दो, नए का संधान करो और फिर लौटकर आओ तो एक नए धर्म, दर्शन और जीवन पद्धति को लेकर लौटो - जो विज्ञान सम्मत हो, व्यवहारिक हो और संसार मे बोधिवृक्ष की भांति फैलता ही रहें सदैव


ये जाती हुई शाम हरी पत्तियों को भी गहरे काले रंग में डुबो जाती है तो सोचो हमारी आत्मा के कोनो को कितना कालिख से मल जाती होगी, जाते हुए सोचना...

बन्धन तोड़ने तो होते ही है - सिद्धार्थ गए, महावीर गए, गए अनेकानेक - तभी सार्थक हुआ जा ना, नही जाएंगे तो धरा का भार बढ़ेगा और फिर रहने की सार्थकता भी अब नही है ना - कुछ भला है तो जा ना



जाता कौन नही पक्षी भी पशु भी, झर जाती है पत्तियाँ, फूल भी महक पसराकर चले ही जाते है - बहुत छोटा होता है इन सबका काल, साठ सत्तर बरस के कालखण्ड के बाद भी जाने के नाम पर हम उदास हो जाते है

शाम के उजाले को सूरज के साथ जाते देखता हूँ, भोर में शुक्र तारे को जाते देखता हूँ, फिर तारों को चाँद के साथ जाते देखता हूँ , जाने को देखने की आदत सी हो गई हों मानो

जैसे जैसे चाँद अपने शबाब पर आ रहा है वैसे वैसे जाने की बेला समीप आ रही है, क्योकि पूर्णता पतन की भी शुरुवात है ना

धूप में गुजरे है जो उन्हें दरख्तों से कोई वास्ता नहीं 

जाने में बहुत कुछ जा सकता है वो सब भी जो जाने के सर्ग पर उदात्त भाव और उदास मन से विदा देने दूर-दूर से आये होते है पर वे भी जाने की बेला में जाने का स्वांग कर औचक से रह जाते है....

जाना सभी को है कल,आज या अभी पर जैसे कोई जाता है वैसे सब ले जाये समेटकर अपना सब कुछ, थोड़ा सा कुछ भी छुटा बहुत तकलीफ देता है ....

जाना था तो जगह खाली कर जाना था, अभी तक यही कही थे और अचानक से रात और दिन के बीच जा ना हो गया, जगह तो नही गई....

चले ही जाना एक बार सब कुछ छोड़कर - मोहमाया सभी कामनाएं और बिछोह का गुनगुना दर्द - क्योकि छोड़ने में ही लगेगा कि कुछ जुड़ा था, अंतर्मन की गांठों से बेचैन सा.......


देखना यह कि कैसे हम अपने को पूरा निचोड़ कर निकल सकते है यह जानना जाने से पहले बहुत जरुरी है, बचे भी ना रहें और निकल भी जाएँ ऐसे मानो कभी आये ही ना थे..........


जाते हुए खुले मन से जाना, बहुत आहिस्ते से - दिन की धूप ने जगह जगह मिट्टी को भुरभुरा कर सूखा दिया है, जाते हुए मन अक्सर गीला रह जाता है और मिटटी सब सोख लेती है








सांझ जब ढलती है तो दिन भर की दुश्वारियां याद आती है, जाओ तो इन्हें हमेशा के लिए यही छोड़ जाना - मै रात को इनसे जुझूँगा



सुबह से निकली धूप भी तेज चमक के बाद ठंडी होकर जा रही है, जाओ तो ऐसे ही - शांत चित्त से जाओगे तभी कल उजले होकर खिलोगे

जब ढलती शाम का अँधियारा जाती धूप को देखकर मुस्कुराता है तो शाम और गहरा जाती है, जाना तो धूप -अँधेरों के बीच मुस्कुराते हुए

सूरज भी जाते जाते थकते हुए बहुत ठंडा हो जाता है, आसमान की लालिमा में छुपकर घुप्प हो जाता है, जाओ तो लालिमा देकर जाना

मौसम बदलने से दिन लम्बे हो जाते है और रास्तों पर भी परछाई दिखती है इसकी, जाओ तो तुम्हारी परछाई के पार छोड़ जाना एक टुकड़ा अपना


जाती हुई सूरज की रश्मियां चुभती भी है पर आत्मा के उस पोर के लिए जरूरी भी है जो दीप्त रखती है, जाओ तो रश्मि-किरण बन जाना

सोचे बिना कुछ शब्द बोलना ऐसे कि वे दीवारों को अभेद्य किले बना दें, जाने से पहले शब्दों की लड़ी छोड़ जाना, दीवारों पर महकते हुए लटकेगी

एक बार अपनी इच्छाओं और कामनाओं को टटोल लेना जाने से पहले, अतृप्त होकर जाने को जाना नही कहते

जब जाना ही है तो सब कुछ छोड़ दो, इसी से शायद कुछ छूट जाए और ठहरना स्थगित हो जाये

जाना है तो एकदम से चले जाओ रुक रुककर जाने से जो तड़फ होती है उससे पूरी धरा को तकलीफ होती है

जाने के लिए मन से तैयारी करनी होती है , शरीर का नही आत्मा के पोर पोर को जाना होता है सिर्फ भौतिक रूप से जाना नही होता

जाते हुए मुस्कुराकर जाना और मराठियों की तरह यह कहना कि जल्दी आता हूँ - येतो, जातो नही

चांद अनंतकाल से जा रहा है हर बार पुरा आसमान समेटकर ले जाता है पर लौटकर धवल हो जाता है, जाना तो चांद की तरह

ऐसे जाना कि स्तब्ध ना हो यहां के फूल और पत्तियाँ, कांटों को देखा है अक्सर दुखी इसलिए भी कि लोग छिटककर दूर चले जाते है , पछताती तो जड़े भी है

कांकड़ की उस दूब को भी कहकर जाना जो अक्षत बनकर हमेशा से झूमती रही, गीली मिट्टी में धंस गई है पर उसने देखा है कि लौटा नही कोई जाकर

दिन, माह या वर्ष खत्म नही होते - वे याद आने - जाने के दुष्चक्र है, इसलिए इन्हें यही छोड़कर जाना वरना यही रह जाओगे

इच्छाओं का कोई छोर नही और जब जाते है तो ये प्रबल होती है, दमित करके ही पार पाया जा सकता है इनसे

जाने के लिए बहुत सोचने की जरूरत नही बस 'जा ना' एक क्रिया है और इसे ही मानो 'नि क ल' जाओ, सोचने से कमजोरी आती है

जब जाना ही है तो सब समेट लो अपने पास और रख लो सम्हालकर, असल में यहाँ भी धरे रह जाओगे तो बिखरोगे ही ज्यादा , टूटे ही हो वैसे - यहाँ और वहाँ में टूट जाओगे...

जाते हुए पलटकर देखना सिर्फ एक प्रतिक्रिया है कि अब संभव ना हो यह सब फिर, फिर भी लौटना कम से कम एक बार पूरे के पूरे.......

जाने के बाद फिर दुश्चिंताएं भी छुट ही जाती है जैसे सूखी नदी में रेत नहीं चमकती कभी

कह के जाओ कही तो फिर लौट कर मत आना, आने से उम्मीदें बढ़ जाती है





[ तटस्थ ]

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