मित्रों, उत्तर सदी की हिन्दी कहानी का विकास दुनिया के
किसी भी साहित्य में उपलब्ध प्रक्रिया के तहत अपने आप में अनूठा होगा इस लिहाज से
कि हिन्दी कहानी ने इस समय में बहुतेरी ना मात्र घटनाओं को देखा, परखा और समझा वरन
भुगता भी है इसलिए उत्तर सदी की हिन्दी कहानी एक नाटकीयता नहीं, एक कहानी की
परम्परा नहीं बल्कि एक सम्पूर्ण इतिहास को व्याख्यित करती है जहां लेखक,
इतिहासकार, कलाकर्मी अपने समय से दो चार होते है मुठभेड़ करते है और फिर उस सब
होने, देखने और भुगतने का सिलसिलेवार दस्तावेजीकरण करते है और हमें सौंपते है है
एक समृद्ध विशाल और बड़ा फलक जिसे हम आने वाले समय में सीखने के लिए सहेजकर रख
सकें.
विश्व परिदृश्य
विश्व के परिदृश्य पर नजर डाले तो हम पायेंगे कि पूरी
दुनिया में यह बेहद उठापटक और खलबली मचने वाला समय रहा है जिसे साधारण भाषा में हम
संक्रमण कह सकते है परन्तु इस संक्रमण के काल में इतिहास में कभी ना घटित हुई
घटनाओं ने समूची मानवता को प्रभावित किया और एक बेहतर दुनिया को देखने के महा
स्वप्न को भंग कर देने के षड्यंत्रों को देखा समझा. निश्चित ही कहानी को चाहे वो
हिन्दी या विश्व के किसी और भाषा की हो, को इस बदलते परिदृश्य ने प्रभावित किया
है. सन 1991 में गोर्बाच्योव के ग्लास्तनोस्त और पैरेस्त्रोईका ने जिस तरह से रूस
का खात्मा किया वह समय बहुत ही कठिन समय था जिससे सदी का महास्वप्न भंग हुआ यह
मेरा मानना है. ठीक इसी समय से दुनिया के परिदृश्य पर एक नजर डालें तो हम देखते है
कि उदारवाद सुधारवाद और वैश्विकीकरण का समय में श्रमजीवी समुदायों को हाशिये पर
धकेलने का काम बहुत सुसंगठित तरीके से किया जाने लगा और एक संघर्षशील वर्ग को
आहिस्ते से पूरे विकास से हटाने का काम किया गया. जिस पूंजी को एक अभिशाप मानकर एक
नई दुनिया देखने का स्वप्न हमने संजोया था वही पूंजी राजनीती पर हावी होती गयी और
अन्तोत्गात्वा सर्वोपरि हो गयी. नए उद्योग घरानों का प्राकृतिक संसाधनों पर सत्ता
के साथ मिलकर उदय और फिर पूरी दुनिया से सर्वहारा वर्ग के हकों, लड़ाईयों और ट्रेड
यूनियनों को सिरे से नकार कर ठेकेदारी प्रथा से मानव शर्मा को हांकना, टास्क
आधारित काम पर पूंजी का वितरण आदि भी इसी वर्ग की एक चाल थी जिसने मजदूरों को ना
मात्र खत्म किया बल्कि उन्हें ज़िंदा रहने के लिए भी नहीं छोड़ा. अमेरिका और रूस के
द्वीध्रुवीय व्यवस्था के पराभव का भी यही समय है जन विश्व संस्था के रूप में यु एन
ओ जैसे संगठन एकाएक ताकत बनकर उभरे जिन्होंने रूस के खात्मे के बाद अमेरिका के
बढ़ते वर्चस्व को विश्व में स्थापित किया यहाँ तक कि एक ठोस उदाहरण से अपनी बात
कहूं तो ईराक पर किया गया हमला बगैर सहमित के किया गया और सिर्फ तेल पर अपना दबदबा
कायम करने के लिए हजारों जानें ली गयी. इसी से दुनिया में तेल की राजनीती पनपी
जिसने कालान्तर में दुनिया भर में रिसेशन या मंदी थोपी जिसका नुकसान ज्यादातर गरीब
मुल्कों पर हुआ जो संसाधनविहीन थे और इस मंदी में इन्हें अपना सब कुछ बेचना पडा या
भारत जैसे देश को अपना सोना भी गिरवी रखना पडा.
विश्व के फलक पर तेजे से बढ़ते घटते क्रम में दुनिया के
इतिहास में सभ्यताओं के संघर्ष जो इस उत्तर सदी में उभरे है वे अपने आप में बेहद
रोचक, डरावने और सिखाने वाले है. दक्षिण एशिया में उभरे गुट निरपेक्ष जैसे
आन्दोलनों की महत्ता ख़त्म हो गयी और एशियाई देशों के सामने चुनौतियां अपने पड़ोसी
मुल्कों और साथ वाले गरीब देशों से ही मिलने लगी लिहाजा अपनी सारी ताकत वे बनिस्बत
विकास, गरीबी, बेरोजगारी या महिला समानता, दलित और वंचित लोगों की भलाई करने के
आपस में लड़कर अपनी ऊर्जा और संसाधन ख़त्म
करने लगें जिससे वे लगातार गरीब होते चले गए, गृह युद्धों की स्थिति में जी रहे इन
देशों के सामने अमेरिका के सामने घुटने टेकने के अलावा कोइ और चारा नहीं बचा और
अमेरिका अपने हतियार बेचने के लिए एक से दूसरे मुल्क में यात्राएं करता रहा और
किसी सिद्धहस्त खिलाड़ी की तरह से बाजार में वो सब देता रहा जिससे उसके प्रोडक्ट
दनिया के बाजार में छा जाए और वो स्थानीय उद्योग धंधों को ख़त्म कर अपना वर्चस्व
दुनिया में शामिल कर पाए. यूरोप के राजनैतिक नक़्शे में बदलाव को भीहमने इस उत्तर
सदी में देखा जहां एक ओर दोनों जर्मनी का एकीकरण हुआ, और दीवारें टूटकर गिरी वही
युगोस्लोवाकिया, चेकोस्लोवाकिया और सोवियत संघ जैसे देशों का या शक्तियों का विघटन
हुआ जो कि बहुत चिंतनीय था परन्तु बदलती अर्थ व्यवस्था और राजनैतिक ध्रुवीकरण के
समय में कही से कोई आवाज उठाने वाला नहीं था. इसका असार अभी तक है हाल ही में एक
छोटे से देश को विश्व मुद्रा कोष ने खरीदने की बात की थी परन्तु अच्छी बात यह थी
कि जन मानस ने जनमत में इस बात को नकार दिया.
भारतीय परिदृश्य
भारतीय परिदृश्य पर एक नजर डालें तो हम पायेंगे कि दुनियावी
उथलपुथल से भारत जैसा देश भी अछूता नहीं रहा, पचास साल की आजादी के बाद देश ने
करवट बदलना शुरू किया और यहाँ के लोगों ने जब अभी आजादी का मतलब समझा ही था, शासन,
प्रशासन और स्वशासन की इकाईयों को समझकर वे 73 वें और 74 वें संविधान संशोधन को
अंगीकार करके सुशासन स्थापित कर ही रहे थे कि मंदी ने उनके जीवन पर प्रभाव डाला और
सब कुछ विध्वंस कर दिया. यह बहुत लम्बी बात नहीं है जब मन मोहन सिंह ने संसद को
संबोधित करते हुए कहा था कि “लम्हों ने खता की है और सदियों ने सजा पाई है” लिहाजा
देश को गिरवी रखकर आर्थिक सुधार करना होंगी, विश्व बाजार को अपने आँगन में बुलाकर
मिश्रित अर्थ व्यवस्था के मॉडल को हमने एक झटके में तोड़ दिया. उदारवाद की बयार में
छोटे मोटे लोग बह गए और एक ग्लोबल विश्व और मॉल की चकाचोंध भरी दुनिया से सबसे
सॉफ्ट मध्यमवर्ग को लुभावने सपने दिखाकर यहाँ भी संघर्ष को सिरे से खत्म कर दिया
गया.
इस समय में मिश्रित या यूँ कहें कि गठबंधन सरकारों का दौर
चालु हुआ जिसने समूचे राजनैतिक ढाँचे को एक अजीब स्थिति में पाया, इस गठबंधन से ना
मात्र आर्थिक बदलाव करना पड़े बल्कि सामाजिक और राजनैतिक बदलाव एक अनिवार्य तत्व की
तरह से आया जिसने भारतीय विकास के सोपान में नया अध्याय लिखना आरम्भ किया. इस उथल
पुथल भरे समय में ही हमने मिश्रित अर्थ व्यवस्था की विदाई की और मप्र के एक छोटे
से जिले बडवानी से उभरे नर्मदा आन्दोलन ने विकास और विनाश के प्रश्न उछाले इस ताः
के जमीनी आन्दोलनों से पूंजी का जहां महत्त्व बढ़ा वही पूंजी के प्रति एक नफ़रत भी
समाज ने देखी जहां एक बड़ा तबका सामने आया और बेहद प्रतिबद्धता से जमीनी आन्दोलनों
में नेत्रित्व के रूप में सामने आया और फिर एक बार नक्सलवाद, माओवाद, एक्टिविज्म
को परिभाषित किया जाने की मांग उठी ठीक इसके विपरीत जातिगत ध्रुवीकरण और हिन्दू मुस्लिम
शक्तियों के कारण समाज में कमजोर और वंचित समुदाय को लगातार हाशिये पर धकेला गया
क्योकि इस साम्प्रदायिकता में सबसे ज्यादा नुकसान गरीब और शोषित वर्ग का हुआ. पर
इसी के साथ राजनीती में दलित और वंचित वर्ग ने अपनी घुसपैठ भी बनाई. इनकी राजनीती
और निर्णय में बहाली भी इसी दौर की उपज है.
उत्तर सदी की कहानी
सबसे महत्वपूर्ण उत्तर सदी की कहानी की यह थी कि इस समय में
हिन्दी की चार पीढियां बराबरी से सक्रीय थी, बहुत प्रतिबद्धता से चार पीढ़ियों का
एक साथ सामान रूप से सक्रिय रहना हमें निकट इतिहास में कही देखने को नहीं मिलता,
यहाँ तक कि क्षेत्रिय भाषाओं में ऐसा बिरला उदाहरण देखने को नहीं मिलता. निर्मल
वर्मा, भीष्म साहनी, कृष्णा सोबती, कृष्ण बलदेव वैद, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर,
मोहन राकेश से लेकर संजीव, राजेन्द्र दानी, उदय प्रकाश प्रकाशकांत, हरी भटनागर,
संजीव ठाकुर, भालचंद्र जोशी आदि जैसे लेखक बेहद सक्रीय होकर कहानी लिख रहे थे.
इन्ही के साथ साथ साठोत्तरी पीढी के सक्रीय दूधनाथ सिंह, काशीनाथ सिंह रविन्द्र
कालिया जैसे कहानीकार भी सक्रीय थे. जीतेन्द्र भाटिया, रमेश उपाध्याय, मृणाल
पांडे, गोविन्द मिश्र, स्वयंप्रकाश, सत्येन कुमार, पंकज बिष्ट, मन्नू भंडारी,
रमाकांत श्रीवास्तव यानी प्रतिबद्ध और गैर प्रतिबद्ध दोनों प्रकार के साहित्यकार
थे.
इस चार पीढी की सघन और रचनात्मक यात्रा में कहानी कई तरह के
धरातलों पर चल रही थी जहां एक ओर राजेन्द्र यादव, मोहन राकेश और भीष्म साहनी,
ज्ञानरंजन कहानी को अपने तई परिभाषित कर रहे थे, नई कहानी की संरचना पर बात हो रही
थी वही कहानी के मूल स्वर में महास्वप्न भंग की आहट हिन्दी में भी बनी हुई थी,
नईदुनिया के स्वप्न भंग होने की बात कहानी ने भारत की आजादी के दो दशकों में ही
भांप ली थी और इसी तर्ज पर एक भयावह दुनिया
का मंजर कहानी में सामने आने लगा था. उद्योगिकीकरण और तेजी से बढ़ाते जा रहे
शहरीकरण के कारण परिवारों का विघतन हो रहा था और इसे उभारने में कई कहानीकार सफल
रहे जिन्होंने महानगरीय पीड़ा को देखा, शहरीकरण और खत्म होते गाँव, वहाँ की
संस्कृति पर शहरी आक्रमण का प्रभाव देखा तो उन्होंने कहानी में भी व्यक्त किया और
जो फिल्मों में स्क्रिप्ट लेखन के लिए बंबई की ओर निकल गए वहाँ उन्होंने रुपहले
परदे पर भी इस पीड़ा को व्यक्त किया. इस पूरी कहानी के मूल स्वरों में दलित और
स्त्री विमर्श मुख्य रूप से दो विमर्शों की तरह से उभरकर आये जिसने कहानी की
संवेदना को प्रभावित किया. तुलसीराम, ओम प्रकाश वाल्मिकी, अजय नावरिया आदि जैसे
कहानीकारों ने अपनी कहानियों के माध्यम से दलित चेतना को सामने रखा, वही रमणिका
गुप्ता, पुष्पा मैत्रेयी, लवलीन, जया जादवानी, प्रभा खेतान, मनीषा कुलश्रेष्ठ जैसी
महिला कहानीकारों ने महिला चेतना और विमर्श की बात हिन्दी कहानी में रखी. इस
स्त्री विमर्श ने हिन्दी कहानी में स्त्री संबंधों की पड़ताल की, स्त्री
स्वातंत्र्य की नए सिरे से व्याख्या की, सीमोन द बाउवा को एक बार फिर से व्याख्यित
किया, खारिज किया और फिर स्वीकार भी किया.
इसी समय में इन कहानीकारों ने उदारवाद से आ रहे परिवर्तन की पड़ताल की, इस सन्दर्भ
में स्वयंप्रकाश की कहानी “मंजू फ़ालतू” कहानी का उल्लेख आवश्यक है, साम्प्रदायिकता
पर लेखन बहुतेरे लेखकों ने किया अजगर वजाहत से प्रकाशकांत तक परन्तु इस मुद्दे पर
अखिलेश की कहानी ‘अगला अन्धेरा’ इतिहास में उल्लेखनीय है. जहाँ ‘और अंत में
प्रार्थना’ जैसी कहानी लिखकर उदय प्रकाश ने समाज, सत्ता, परिवर्तन और संवेदना को
एक नया अर्थ दिया, वही प्रियंवद ने बूढ़े का उत्सव या खरगोश जैसी कहानिया दी जो
संवेदना के स्तर पर एक अलग तरह की कहानियाँ थी.
हिन्दी कहानी में जमीनी आन्दोलनों से उभरे मुद्दों ने कहानी
को प्रभावित किया. वीरेन्द्र जैन के उपन्यास डूब ने विस्थापन जैसे मुद्दे को उभारा
वही दर्जनों कहानियों ने भारत में फैलते बेरोजगारी के मुद्दे को एक चिंतन के रूप
में उभारा जिसने एक बड़े युवा वर्ग को प्रभावित भी किया और साहित्य से जोड़ा भी. बढ़ता
तथाकथित मध्यमवर्गीय समाज का इस दौर में बढ़ना भी एक संकेत है जो अपनी
महत्वकांक्षाएं बढाता जा रहा है क्योकि उसे लगता है कि यही शार्ट कट सही है बदलाव
का - जहां उसे ना लम्बी कतार में लगना है, ना इंतज़ार करना है किसी बात का जेब में
रुपया है तो वह दुनिया की हर सुविधा भोग सकता है, खरीद सकता है और उसके लिए संसार
में हर चीज बिकाऊ है यहाँ तक कि साहित्य की मूल संवेदनाएं भी वह खरीद सकता है. चकाचौंध की दुनिया से प्रभावित मध्यमवर्ग हमारे
सामने है और अब वह सवाल नहीं खोजना चाहता, वह सिर्फ विन विन के सिद्धांत पर जीना
चाहता है और बाजार के ट्रेप में. किश्तों के जाल से दुनिया की हर सुविधा को वह
अपने लिए हर कीमत पर हासिल करना चाहता है.
संवेदना
उत्तर सदी की हिन्दी कहानी में संवेदना दो स्तर पर मै देखता हूँ, एक नागर
संवेदना और दूसरी ग्रामीण संवेदना. नागर संवेदना ने जहां बेरोजगारी, शहरीकरण,
एकाकीपन त्रासदी, लगातार प्रेम से उभरी और खत्म हुई त्रासदियों को उभारा वही इस
कहानी के खिवैया बने जया जादवानी, एस आर हरनोट, निर्मल वर्मा जैसे लेखक. उदय
प्रकाश की कहानी पाल गोमरा का स्कूटर या मोहनदास इस पूरी पीड़ा को व्यक्त करती
कहानियां है. वही ग्रामीण संवेदना ने गाँव की मूल समस्याएं अर्ध और पूर्ण
बेरोजगारी, विस्थापन, गाँवों का खत्म होना, जमीन का बिक जाना और खेती की जमीन पर
कल कारखानों का उग आना जैसे मुद्दे उभारें. संजीव ठाकुर की कहानी ‘झौआ बेहार’ इस
ग्रामीण संवेदना को व्यक्त करती कहानी है जहां एक युवा शाहर में आकर किस तरह से खो
जाता है. ग्रामीण संवेदना की कहानी को स्वर दिया पुन्नी सिंह, संजीव, महेश कटारे,
कुंदन सिंह परिहार, प्रकाशकांत, अखिलेश आदि जैसे लेखकों ने. इसी के साथ कहानी में
नई आयी संवेदना में आदिवासी समाज की चिंताएं भी उभरी - खासकरके ‘युद्धरत आदमी’
जैसी इस संवेदना को प्रतिनिधत्व देने वाली पत्रिकाएँ महत्वपूर्ण है. हंस, वागर्थ,
आजकल, पश्यंती, सारिका, गंगा, समकालीन जनमत, आदि पत्रिकाओं ने आमजन पर केन्द्रित
अंक निकालें. नए समाज का स्वप्न ध्वस्त हो रहा था, टूटने से जो लम्बी परछाईयाँ
समाज में पड़ रही थी उसने कहानी को गंभीर किया. सुविधाएं बढ़ी जरुर है पर इसके मायने
क्या है और क्या होंगे.
आज की कहानी में संवेदना के स्तर पर शहरी ग्रामीण दोनों
समाजों को मूल चिंताओं को कह रही है. इसलिए उम्मीद की जाना चाहिए कि ये नया समाज
रचेंगी और धैर्य से हमे सब कुछ एक दस्तावेज की तरह से पढ़ना होगा.
संदीप नाईक - (विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा आयोजित "डा जी डी बेन्डाले महिला महाविद्यालय, जलगांव, महाराष्ट्र" में दिनांक 22 और 23 सितम्बर 15 को
आयोजित की गयी राष्ट्रीय संगोष्ठी में पढ़ा गया एक सत्र के आधार वक्तव्य के रूप में
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