चार कटखनी बिल्लियों से देश परेशान है और दुनिया इस देश की लोमड़ी से.........एक बिल्ली को हाथी से मुहब्बत है वो सारे प्रांत में हाथी लगाकर उनपर से सत्ता हासिल करना चाहती है, एक बिल्ली जूते चप्पलों से अपने राज दरबार की शान बनाए रखती है, तीसरी सिर्फ बडबड कर देश के नामुराद मौन मोहन सिंह को नचाना चाहती है, चौथी देश की राजधानी में बैठी जल-मल बोर्ड और इहारी-बिहारियों को कोस कर अपना अपराध बोध पूरा करती है और सबसे ज्यादा लोमड़ी देश और जंगल की सत्ता को वशीभूत कर अपने दूध पीते शावक को जंगल राज सौपना चाहती है. हाथीयों ने बगावत कर दी और जूते चप्पलों की फेक्ट्रियां बंद हो गयी और एक गूंगी नेत्री से ट्राम में बैठे लोग हंसिया हथोडा लेकर लोग उत्तेजित है बदला लेने को, एक और चारु मुजुमदार की व्युत्पत्ति हो रही है, दिल्ली के बिहारी बिल्ली का दूध छुडाकर उसे घंटियों की ट्रेन में बिठाकर दूर यमुना पार छोड़ आये है और लोमड़ी से परेशान प्रजा अपने लिए एक नए नायक की तलाश में नपुंसकों की भीड़ में मर्द ढून्ढ रही है सेना नायक पराजित है, देश के लोग गैस बत्ती के भावों से नाराज पुरे दरबार में आग लगाना चाहते है, पेट्रोल और डीज़ल को लेकर सडकों पर है सारे पानीदार लोग और कुछ उचबक नेता जो सतासीन होना चाहते है और देशप्रेम का नाटक कर भरमाते रहे है- जो ना आजादी में थे ना निर्माण में, सिर्फ मंदिर- मस्जिदों के विध्वंस में जिनका नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा गया है, अब सडकों पर आपस में कुत्ताफजीती में पड़े है इनकी एक दो बिल्लियाँ अभी भी मुखर है यहाँ वहाँ और रोज चोले बदलती रहती है.......बिल्लियों की शव यात्रा निकलने को है और देश के बुद्धिजीवी और मीडिया के लोग बगल में चीज़, मुख में अमूल का बटर, हाथो में घी की हांडी लेकर निकल पड़े है सर पर तनी है बैनरों की छत जिसपर जे एन यू , नक्सलबाड़ी लेकर अम्बेडकर विवि के नारे सजे है.........और कही से कुमार गन्धर्व के स्वर मुखरित हो रहे है "उड़ जाएगा हंस अकेला, जग दर्शन का मेला" भोर का सपना कितना डरावना है........
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
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