आज चर्चा भाषा से सम्बंधित कुछ आधारभूत आंकड़ों की. प्रस्तुत आंकड़े ‘एथनोलोग- लैंग्वेज ऑफ़ वर्ल्ड’ नामक वार्षिक पत्रिका जो कि दुनिया की सबसे भरोसेमंद जीवित भाषाओँ की डायरेक्टरी बनाती है उसके 2023 के अंक से लिए गए हैं.
सिर्फ भारत ही ऐसा देश नहीं जहाँ भाषाई विविधता इतनी अधिक है. दुनिया में हैं 240 देश (आधिकारिक तौर पर 195) और कूल 6809 भाषाएँ हैं. उससे कई गुना ज्यादा हैं उपभाषाएं और बोलियाँ. अकेले पपुआ न्यू गिनी में 840 जीवित भाषाएँ हैं. इंडोनेशिया (707) और नाइजीरिया (517) के बाद भारत (447) चौथे स्थान पर है. अफ्रीकन कबीले अपनी अलग अलग भाषा और बोली लिए घूमते हैं. बात अफ्रीका की क्यों, अकेले झारखंड में आदिवासियों की ही कुडुख, हो, संथाली, मुंदरी, खड़िया, खोरठा इत्यादि दर्जनों अलग अलग भाषाएँ हैं. नार्थ ईस्ट प्रदेश तो खैर अपनी भाषाई विविधता का एक गुल्दाश्ता ही है. कई भाषाएँ यद्यपि स्वतंत्र भाषा के रूप में चिन्हित हैं, लेकिन हैं एक ही भाषा के अपरूप. उदाहरण के लिए ‘अवधी’ और ‘ब्रज भाषा’ में मामूली सा जो फर्क है, लैटिन से उत्पन्न अन्य भाषाओँ में भी उतना ही फर्क है. और यह फर्क एक सतत प्रक्रिया के तहत दूरी के हिसाब से थोड़ी थोड़ी बदलती रहती है. ‘कोस कोस में पानी बदले पांच कोस में बोली’ यह पंक्ति सिर्फ भारत भूमि की नहीं बल्कि पुरे विश्व की भाषाई और सांस्कृतिक विविधता बताते हैं. अगर परदेशी पर्यवेक्षक की दृष्टि से देखो तो मगही, अंगिका और भोजपुरी ग्रामीण हिंदी के रूप मात्र हैं. मगर उस स्थान विशेष के निवासी की दृष्टि से तो तीनो में जमीं आसमान का फर्क है.
अब बात राजभाषा की. किसी देश की आधिकारिक राजभाषा के परिपाटी की शुरुआत 500 ईसा पूर्व मेसोपोटामिया के फारसी साम्राज्य में विलय के साथ ‘अरामाइक’ को आधिकारिक भाषा बनाये जाने के साथ हुई थी जो कि सिकंदर के उदय के साथ ग्रीक भाषा को अपनाये जाने तक करीब 200 सालों तक राजभाषा बनी रही. आज की तारीख में अंग्रेजी 51 देशों की राजभाषा के रूप में अंकित है, वहीँ भारत जैसे कई और देश हैं जिनकी कोई राजभाषा नहीं है. अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, मेक्सिको इत्यादि ऐसे ही बिना राजभाषा वाले देश हैं. वहीँ दुसरे तरफ अकेले बोलीविया में सबसे अधिक 23 भाषाओँ को राजभाषा का दर्जा प्राप्त है. भारत में कूल 16 भाषाओँ को आधिकारिक भाषा की श्रेणी में रखा गया है.
अब बात दुनिया में सबसे ज्यादा लोगों के द्वारा बोले जाने वाली भाषा की. सर्वाधिक 93 करोड़ लोग मंडेरियन को अपनी मातृभाषा के रूप में बोलते हैं वहीँ अंग्रेजी को मातृभाषा के रूप में बोलने वाले 38 करोड़ और हिंदी को अपनी प्रथम भाषा माने वाले लोगों की संख्या है 34 करोड़. मगर किसी भी रूप में चाहे मातृभाषा या संपर्क भाषा की बात हो तो शीर्ष स्थान पर अंग्रेजी (145 करोड़) आ जाती है, मंडेरियन (113 करोड़) और हिंदी (60 करोड़) क्रमशः दुसरे और तीसरे स्थान पर. हालाँकि दुनिया की बीस सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषाओँ में बंगला, तमिल और तेलुगु भी आते हैं. अब यह हमारे जनसँख्या के बोझ का फल है या पडोसी देश जैसे पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका का योगदान, यह फैसला आप पर.
आंकड़ों की आखिरी फेहरिश्त संपर्क भाषा यानि ‘लिंगुआ फ्रैन्का’ के मद्देनजर. जहाँ देश की आधिकारिक भाषा के रूप में देखा जाए तो अंग्रेजी 58 देशों की आधिकारिक संपर्क भाषा है, वहीँ अफ्रीकन देशों में फ्रेंच और लैटिन अमेरिका यानि न्यू वर्ल्ड में स्पेनिश सबसे ऊपर हैं. कॉमनवेल्थ की तर्ज पर फ्रेंच भाषी देशों को फ्रंकोफोनी भी कहा जाता है. लेकिन एक और बात गौर करने की है कि दुनिया की 55% आबादी बाईलिंगुअल यानि एक से अधिक भाषा बोलने वाली है. भारत में भी ये बात उतनी ही सच है.
आंकड़े और गणित बस यहीं तक. अब कुछ मौलिक सवाल!
सवाल यह कि बचाया या फैलाया किस भाषा को जाए? क्या हमारे बचाने या ना बचाने से किसी भाषा की नियति तय होती है या फिर उसके लिए भाषा खुद जिम्मेदार है? क्या यही सवाल तब भी पैदा हुए नहीं होंगे जब ‘संस्कृत’ की जगह ‘प्राकृत’, ‘पाली’ और फिर उनकी जहग ‘अवहट’ ले रही थी. खुद हिंदी भी तो अपने वर्तमान स्वरुप में अधिकाधिक दो सौ सालों से है, तो इसके भविष्य को लेकर इतनी चिंता क्यों?
सवालों की दिशा थोड़ी बदलते हैं. क्या मेरा हिंदी प्रेम और यह भाषाई आन्दोलन सिर्फ इसीलिए तो नहीं क्योंकि मैं एक हिन्दीभाषी हूँ और मेरी अंग्रेजी कमजोर है. कोई भी गैर हिन्दीभाषी अपनी भाषाई पहचान को क्यों छोड़े हिंदी को प्राथमिकता देकर? मगर दूसरी तरफ सवाल यह भी कि हिंदी की जगह अंग्रेजी को ही प्राथमिकता क्यों? क्या भारत में लिंगुआ फ्रांका अंग्रेजी ही रहनी चाहिए या हिंदी?
इन कडवे सत्यों से भी आँख नहीं मोड़ा जा सकता कि अंग्रेजी का ज्ञान नहीं होने से हम दुनिया के साथ कदम से कदम मिला कर चलने में पिछड़ ही जायेंगे. यह भी सच है कि विदेश यात्रा (विकसित देशों या फिर कॉमन वेल्थ देशो की यात्रा ही अमूमन विदेश यात्रा समझी जाती है), बिना अंग्रेजी के संभव नहीं. विश्व साहित्य या कला का रसास्वादन भी टेढ़ी खीर हो जाती है अंग्रेजी के ज्ञान के बिना. यह भी सर्वमान्य तथ्य है.
यह भी ध्यान रहे कि चीन, रूस और जर्मनी जैसे गैर अंग्रेजी मुल्कों में अंग्रेजी एक विदेशी भाषा के रूप में शामिल है और लोग जानते, समझते, सीखते भी हैं. मगर कॉमनवेल्थ देशों के अलावा अन्य देशों की आधिकारिक भाषा अंग्रेजी शायद ही है. और उन्होंने लिंगुआ फ्रांका के रूप में अंग्रेजी की जहग किसी देशज भाद्षा को ही तरजीह दी है.
अब जरा इस बिंदु की तरफ ध्यान दीजिये. दो रसियन या फ़्रांसिसी अगर अमेरिकन एअरपोर्ट पर मिलेंगे तो उनकी बातचीत की भाषा क्या होगी? क्या वे आपस में अंग्रेजी में बातचीत कर के एक दुसरे से खुद को श्रेष्ठ दिखने की कोशिश करेंगे? क्या टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलने के कारण ओलंपिक में स्वर्ण पदक प्राप्त करने वाले धावक की महिमा कम हो जाएगी? क्या पुर्तगाली (ब्राजील की अधिकारिक भाषा) में अपनी पाण्डुलिपि लिखने और फिर अंग्रेजी अनुवाद को इंटरनेशनल बेस्ट सेलर बना देने वाले पाउलो कोएल्हो की गुणवत्ता कम कर के आंकी जाएगी? या फिर मोजार्ट की धून इतालियन की जगह अगर अंग्रेजी में होती तो ज्यादा मधुर होती?
अब आखिरी में ये रही ताजातरीन सनसनी. इन्टरनेट पर प्रयुक्त होने वाली भाषा एक दशक पहले तक सिर्फ अंग्रेजी थी. लेकिन अब अकेले यूट्यूब पर अंग्रेजी का प्रतिशत घटकर 45 हो गया है, उसकी जगह कई अन्य भाषाएँ आगे बढ़ रही हैं. हिंदी शून्य से बढ़कर 5 प्रतिशत हो गयी है, और भारतीय भाषाओँ में सबसे आगे हैं.
हम भले अपनी खुमारी में सोये रहें, मगर बाज़ार अपना रास्ता खुद बना लेता है. आज हॉलीवुड की लगभग बड़ी फ़िल्में हिन्दुस्तानी भाषाओँ में डब होकर रिलीज होती हैं. फेसबुक और अन्य सोशल मीडिया के ए.आई. हिंदी में अनुवाद उपलब्ध ही नहीं करा रहे, एप को ही हिंदी में प्रयोग के लायक बना रहे हैं. विकिपीडिया से लेकर गूगल तक ऑटो ट्रांसलेशन की सुविधा से लैश हो रहे हैं. भाषा की बाउंड्री टूट रही है. जल्द ही भाषा सभ्य एवं सिविलाइज्ड संभ्रांत वर्ग का सूचक नहीं रह जाएगा. कंटेंट ज्यादा प्रभावी होंगे. ऐसे में हम सब खुद यह तय करें कि बाजार की दिशा हम किधर और कैसे मोड़ते हैं. क्योंकि अभी हम दुनिया के सबसे बड़े उपभोक्ता हैं और यही अवसर है.
इतिहास गवाह रहा है कि समय की धार पर वही भाषा जीवित रह पायी है जिसने बाजार को जिन्दा रखा है, चाहे वो महान साम्राज्यों के रूप में हो, यूरोपियन उपनिवेशकों के रूप में या फिर आज के डिजिटल महाबाजार में.
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