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Anuradha Singh's Story Review, Vaidhya's theft, Drisht Kavi, Kuchh Rang Pyar ke - Posts of 15 to 17 Sept 2-23

 

क्या आपने बलराज साहनी की फ़िल्म "अनुराधा" देखी है जिसमें एक डॉक्टर है और उसकी उपेक्षिता पत्नी जो दिन रात घर मे लगी रहती है, अपने से ज़्यादा पति को प्यार करने वाली अनुराधा कुशल, हुनरमंद और दक्ष है पर घर में मात्र पत्नी है ; गृहस्थी सम्हालते हुए वह सब कुछ घर सँवारने और बचाने में लगा देती है, और फिर एक दिन दोनो में खटपट होती है, वह घर छोड़कर अगली सुबह जाने वाली है और उसके डॉक्टर पति का बॉस उसके प्रयोग देखने सुदूर गाँव आ जाता है तो देखता है कि पत्नी की आँखें बहुत कुछ कह रही है और फिर एक अप्रतिम गीत लीला नायडू गाती है और डॉक्टर का बॉस डॉक्टर को समझाता है, अगली सुबह शंका - कुशंका के बीच जब वह उठकर देखता है तो वही रूपवती पत्नी आँगन बुहार रही होती है, बहरहाल, यह अचानक याद आ गई फ़िल्म इसलिये लिख दिया - क्योंकि कुशल, दक्ष, निपुण और समर्थ रचनाकार अनुराधा सिंह की बात मैं यहां कर रहा हूँ - जिनकी कहानी "हंस के सितंबर अंक" में आई है
Anuradha Singh ने कल अपनी कहानी की चर्चा की थी तो मैंने हँस की साइट से यह कहानी डाउन लोड की और पढ़ी - क्योकि आजकल हँस मिलता नही है दुकानों पर, चंदा भरो तो नियमित डाक से पत्रिकाएँ आती नही है
कहानी क्या सम्पूर्ण आख्यान है - जहाँ दो चरित्रों के माध्यम से भारतीय सामाजिक व्यवस्था में पति और पत्नी के बहाने से परिवार, दोनो के रोल, अपेक्षाएँ, कर्तव्य, प्रेम, समर्पण, अल्हड़पन, दिलकश मौसम, नौकरी, व्यवसाय, हुनर, शिक्षा, विशेष प्रकार की जरूरतों वाले बच्चों की समस्या से लेकर किशोरावस्था के बच्चों में समानुभूति - खासकरके लड़कों में माँ के प्रति प्यार और प्यार से ज्यादा माँ को समझने की प्रवृत्ति पर इतना बारीक काम करके अनुराधा ने यह कहानी बुनी है कि मैं आश्चर्य चकित हूँ कि कैसे यह सब वह कर पाई होंगी ; कहानी का कालांश भी बीस बाइस साल के तरुणों से शुरू होता है जो पैंतालीस वर्ष के होने तक चलता है और इस लम्बी कालावधि को साधे रखना तभी हो सकता है जब आप पूर्णतया फोकस हो और भाषा, चरित्र से लेकर कहानी की थीम पर केंद्रित रहें किसी समाधिस्थ की तरह
फिर याद आया कि वो कवि और साहित्यकार होने के संग-साथ शिक्षा के एक बड़े काम से जुड़ी है, महानगरों की रेलमपेल में जीवन बीता है, विविध लोगों से मिलना शौक और काम का एक वृहद हिस्सा रहा है , तिब्बती भाषा से अनुदित कविताओं के साथ अन्य कविताओं और दीगर विषयों पर की यदा-कदा की गई टिप्पणियों में उनकी भाषा पर पकड़ दिखती है जो सम्पूर्ण रूप से इस कहानी में सशक्त तरीके से उभर कर आई है
खासकरके एक स्त्री को स्त्री के मन की थाह लेने को तो हम मान सकते है कि वह निपुण होगी पर यहॉं जिस तरह से प्रांजल भाषा में एक पुरुष के मन की गहराई में जाकर जो बड़ा कैनवास रचा है वह बेहद प्रभावशाली है जिस पारंगतता के साथ बहुत छोटी बातों को वे पकड़ पाई है वह अदभुत और अप्रतिम है और यही उन्हें तमाम तरह की बातों से ऊपर उठा देता है ; जिस खूबसूरती से छोटी - छोटी चीज़ों, दैनिक जीवन की अस्त-व्यस्त घटनाओं को जोड़कर मनोवैज्ञानिक रूप से यह कहानी गढ़ी है - वह काबिले तारीफ है
और अंत में कहानी का "द एंड" - जिस जगह जाकर वह पाठक को भौचक्का कर छोड़ती है वह बेहद भावुक कर देता है, आप जोश और उत्तेजना में अपनी ही पीठ पर "अ" लिखा महसूस करते है
बहुत बधाई अनुराधा और खूब शुभकामनाएँ
एक उपन्यास की भी दरकार तो कर ही सकता हूँ
आमीन

***
लगभग 75 के होंगे, जीवनभर फर्जीवाड़ा किया, यहां - वहां नौकरी करके संस्थाओं के कबाड़े किए और फिर कलमघिस्सूपन से मानदेय ले - लेकर अरबों मन कचरा लिख दिया, सरकारी अधिकारियों के बंगलों पर जाकर पूजा - पाठ करते रहें - सतनारायण भगवान की कथा से वैभव लक्ष्मी के उद्यापन तक का काम अगाध श्रद्धा से किया बदले में जो मिला - उससे दो-तीन फ्लैट खरीद लिये, शहर के बाहर नेशनल हाईवे पर दस-बीस एकड़ ज़मीन और बेटे को विदेश पढ़ाकर सेट कर दिया, दूसरे जिले में पढ़ाने वाली मास्टरनी बीबी को घर के पास प्राइमरी स्कूल में सेट कर दिया वो वही झंडा गाड़कर स्थापित हुई और घर बैठे रिटायर्ड हो गई
कोई ऐसा कोई सेमिनार, वर्कशॉप, संगोष्ठी, कार्यशाला या बैठक नही - जहां लंच के समय बन्दा ना पहुँचा हो खादी का झब्बा पहनकर, कोई ऐसी जगह नही जहाँ यात्रा भत्ता बंटता हो और ये नही, यह तो टिकिट सहित हाजिर रहता, कुछ भी कूड़ा कचरा बंट रहा हो - बन्दा उठा ले जाता और फिर धे कॉपी पेस्ट और थोड़े दिन बाद अपने नाम से नई हाइपोथीसिस वाली नई किताब मार्केट में, ये समाजवादी, गांधीवादी, वामपंथी, दलित, आदिवासियों के सुधारक, सपाई, शिक्षाविद या अभा ब्राह्मण समाज के स्थानीय समन्वयक - क्या थे बूझ नही पाया आजतक
आज देखा बड़े सालों बाद तो प्रोफ़ाइल लॉक्ड थी, फोन करके पूछा तो बेशर्मी से बोला -"आजकल खतरे बहुत है, नई उम्र की लड़कियाँ परेशान करती है, वीडियो कॉल करती है - अब उम्र नही रही - हीहीहीहीही, और सुनो ना - कोई काम हो तो बताओ, कोई क़िताब लिखनी हो तो बताओ, हो कहाँ आजकल, नज़र नही आते, और वो सुनन्दा तुम्हारी दोस्त थी ना - किस विभाग में सचिव है आजकल, कमिश्नर है या सचिव तक पहुँच गई "
हैरान था मैं इसके डर, ख़ौफ़, नियत, सामाजिकता और बेशर्मी पर
***
"ओटला" देवास में हम साहित्यिक मित्रों का एक खुला मंच है जहां हम वर्षों से लिखने-पढ़ने की गतिविधियाँ करते है, इस क्रम में हमने देश भर से दिग्गज कवियों, कहानीकारों और विविध लेखन में सक्रिय मित्रों को बुलाया है
वर्षों पहले इसकी टैग लाईन मैंने लिखी थी और रेखांकन किया था मित्र मुकेश बिजौले ने
पर आजकल दुस्साहस बढ़ गया है लोग आइडिया ही नही कॉपी पेस्ट करते , बल्कि पूरा का पूरा लेकर चैंप देते है, जो भी दिमाग़ है उसका इस्तेमाल करके, फेसबुक ने यह तो सीखा ही दिया है
भगवान भला करें इन महामनाओं का







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