कहते है पुराने दोस्त पुरानी शराब की तरह होते है, भले बरसों ना मिलें पर एक ताज़गी और उत्साह से भर देते है जब दो घड़ी ही बात हो जाये तो
कल Shabnam Aziz Khaled का जयपुर से फोन आया तो कुछ गुत्थियां सुलझा रहा था, मायूस था पर दस मिनिट बात हुई तो मज़ा आ गया, आज सुबह से कुछ लिख रहा था जल्दी उठकर दो फ़ीकी चाय हो गई थी थोड़ी देर छत पर टहलने लगा तो बगिया में सुर्ख खिलें गुड़हल पर नज़र पड़ी तो Srilakshmi Divakar की अचानक याद आई , आराधना जी से लेकर विनीता और ना जाने कौन - कौन याद आये - हम सब एक वृहद परिवार है और सारे लड़ाई - झगड़ो और विचारों में भिन्नता के बाद आज एक है, काम को लेकर सबकी साझा समझ है और बदलाव के लिये प्रतिबद्ध है इस समय में हम सब लम्बी लड़ाई लड़ रहे है, अपने निजी जीवन में हम सब कड़ा संघर्ष कर यहाँ तक आये है एक पारदर्शी साफ समझ और इरादों के साथ
मैं - मप्र, शबनम - राजस्थान, श्रीलक्ष्मी - कर्नाटक राज्य के क्रमशः राज्य समन्वयक थे एक अमेरिकन फंडिंग एजेंसी में और महिला जनप्रतिनिधियों के साथ जमकर दुस्साहस और धमाल के साथ ढेरों काम करते थे, आये दिन देशी - विदेशियों के सैलाब उमड़े पड़े रहते थे काम देखने को
बैंगलोर याद आया फिलोमीना याद आई और वह प्रकृति की गोद मे बसा चट्टानों से घिरा प्रशिक्षण केंद्र याद आया जहाँ फिलो मुझे गुड़हल की आयुर्वेदिक चाय पिलाती थी
कितने प्यारे दोस्त थे और अभी भी है - आदिल, अनिता, मीनू, Indira Pancholi , गंगा से लेकर ढेर सारे मित्र - जो जीवन की सौगात के रूप में मिलें
आज अभी जब गुड़हल के एकदम ताज़े फूलों की बनी यह चाय पी रहा हूँ तो भाप के साथ बहुत कुछ उमड़ रहा है, बाहर लम्बे समय बाद घटाएं छाई है और बूंदा - बांदी हो रही है
जीवन स्मृतियों से ताक़त लेकर फिर से जीवन में लौट आने का नाम है, सबसे मुश्किल दिनों में एक छोटी सी याद आपको सकारात्मक बना देती है
मुश्किल समय है पर यह भी गुज़र ही जायेगा, श्रीलक्ष्मी कहती थी - "Sandip, calm down, take a long and deep breath.." और शबनम कहती है - "भाई जान, अब यही है, एडजस्ट तो करना पड़ेगा"
( इसमें सीखने जैसा है कुछ नही, बस पानी में दो फूल डाले है, थोड़ा सा उबाला है और एक बूंद शहद डालकर पी रहा हूँ, मधुर यादों के साथ स्वाद अलौकिक और अप्रतिम है)
"गुरू की करनी गुरू जानेगा"
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एक किताब याद आती है जिसमे शुरूवात थी कि "शिक्षक, वेश्या और पादरी वो लोग है जिनके पास कोई चला जाये तो इन्हें खुशी नही होती और कोई इनसे दूर चला जाये तो इन्हें ग़म नही होता"
ये सब ज्ञानीजन रोज - रोज इतना बोल रहे हैं और सीखा रहें है कि सीखने और सुनने के अर्थ ही बदल गए है, हर कोई कुछ ना कुछ सिखाना चाह रहा है, अपने ज्ञान से दुनिया को समृद्ध करना चाह रहा है - बस कोई झपट्टे में आ भर जायें, ईश्वर भी इनसे, इनकी वक्तव्य कला और सिखाने के जोश से आज़िज आ चुका है
दिन में आने वाली 50 मेल और 50 वाट्सएप्प संदेशों में 90 % तो ज्ञान बाँटने वालों के होते है - ऑनलाईन, प्रवचन, सेमिनार, वर्कशॉप, स्लाइड शो, गोष्ठी, मंथन, विचार गोष्ठी, ज्ञानदान, मोटिवेशनल स्पीच, पुस्तक चर्चा, मनोरंजन के नाम पर भड़ास पेलने वाले कुख्यात ज्ञानी, देश - विदेश के शिविर और जगत गुरुओं के व्याख्यान - मेरा सिर्फ़ इतना सा सवाल है कि श्रोता, दर्शक, पाठक कहाँ है इन सब विद्वान और विदुषियों के लिये, मतलब हद यह है कि किसी कलाकार की जन्मशती है या कवि की तो भी लोग तो पेल ही रहें है मज़मा जमाकर, पर उनके परिजन भी जमकर धँधा कर रहे मरे - खपों के क्रियाकर्म को परोसकर दुनियाभर में रायता फ़ैला रहें है - सब समझ रहे पर बोलता कोई नही, सब सौजन्य से खुश रहते है
हद यह है कि 21 साल का युवा दो कौड़ी की पत्रकारिता कर बैठा है किसी गली - मोहल्ले से और वह यूट्यूब खोलकर ज्ञान बांट रहा, खुद के अश्लील फोटो की दुकान परोसकर फॉलोवर्स बढाने वाला अय्याश कवि नैतिकता पढ़ा रहा है, कॉपी - पेस्ट लेखक जिसका अपना घर नही सम्हल पाया और दूसरे के घर उजाड़कर घटिया कामों में लिप्त है - वह देश की राजनीति की दशा और दिशा सम्हालने का ज्ञान पेल कर ठेका ले रहा है, भ्रष्ट ब्यूरोक्रेट धर्म, साहित्य और फूड फेस्टिवल में भीड़ जुटाकर अपनी परम विद्वता झाड़ रहा दुनियाभर को इकठ्ठा करके, तीन - चार महिलाओं से अवैध सम्बंध रखने वाला व्यक्ति जेंडर समता की बात कर रहा, दलित वंचितों के घर ना जाने वाला और घृणा करने वाला उन पर कहानियाँ लिखकर रोज नगद पुरस्कार बटोर रहा है और एक छद्म रचकर पूरी दुनिया को बेवकूफ बना रहा है, दुकान चलाने वाले ग्लोबल खतरों और बाजारीकरण के लेक्चर दे रहे है और सीरीज़ सुनने के रुपये ऐंठ रहे है, कब्र में लटके बूढ़े देशभर में ज्ञान के नाम पर साहित्य में रुपये बटोरने का नँगा खेल खेल रहें है और मज़ेदार यह है कि "ये सब जानते है कि ये क्या कर रहें है"
इसलिये हमें अब ना शिक्षकों की ज़रूरत है और ना ही सम्मान करने की और शिक्षक दिवस जैसे बेमतलब के उत्सव अब महज ढकोसला है - बेहतर होगा कि यह प्रपंच अब बन्द कर दिए जाएं
वैसे भी 76 वर्षों में हमने सिर्फ़ एक ही राधाकृष्णन को पूजा है , होना तो यह चाहिये था कि जगत गुरुओं के देश में हर सेकेंड एक शिक्षक के नाम समर्पित होना था, इन 76 वर्षों में "शिक्षक अपना दायित्व समझता" तो आज यह देश बेरोजगार, साम्प्रदायिक, भ्रष्ट, गैर बराबरी वाला, हिंसक, पतित, परजीवी, जाहिल और गंवारों का देश ना होता
अपने 38 वर्षों के अनुभव पर कह सकता हूँ कि आज के सोशल मीडिया के समय में जब पीआरटी से लेकर विवि के विभागाध्यक्ष 24×7 इंस्टाग्राम, फेसबुक, वाट्सएप्प पर पिले पड़े है तब इन सबकी ज़रूरत नही है, इन्हें गुरू होने के दायित्व को छोड़ देना चाहिये अब ज्ञान के लिये इन पर कोई मोहताज नही
बहरहाल, ज्ञानियों बाज़ आओ और शिक्षक दिवस मनाना बन्द करो, काहे हार, फूल - पत्ती, पेन, कॉपी और गिफ्ट बटोरने के लिये पढ़ाने के बजाय दिनभर मक्कारी में लगा देते हो
#संदीप_की_रसोई
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