“लोहे का बक्सा और बंदूक” कहानी के विकास का पाठयक्रम
झारखण्ड देश का एक आदिवासी बहुत राज्य है जो प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध है, इस राज्य में 32 प्रकार की आदिवासी जनजातियों वाले विभिन्न आदिवासी समुदाय रहते है, जिनमे गौंड प्रमुख है. इसके अलावा असुर, बंजारा, बाथुडीबेड़िया, भूमिज, बिंझिया, बिरहोर, उरांव, सरना, मुण्डा से लेकर अनेक जनजातिया है जो प्रकृति की गोद में रहकर अपना जीवन बसर कर रही है. झारखण्ड राज्य बिहार से अलग होकर 15 नवम्बर 2000 को स्वतन्त्र राज्य के रूप में अस्तित्व में आया था. आज झारखंड बहुत तेजी से विकास के पथ पर अग्रसर है. 24 जिलों में फैला और पहाड़ो चट्टानों और हरे भरे जंगल से आच्छादित यह प्रदेश अनूठा है. मेरा ख्याल है झारखण्ड एकमात्र ऐसा राज्य है जहां आज भी 35 से ज्यादा लोक भाषाओं की पत्रिकाएँ निकलती है और लोग खरीद कर पढ़ते है, इस राज्य में बहुत घूमा हूँ तो यह भी समझ आता है कि बोलियाँ और संस्कृति लोगों ने सहेज कर रखी है अभी तक.
हम लोग जो ग्रामीण और विशेषकर आदिवासी इलाकों से वाकिफ नहीं है उनके लिए किसी क्षेत्र को जानने समझने का एक मात्र माध्यम लिखा हुआ ही होता है फिर वो प्रिंट मीडिया से आया हो, इलेक्ट्रानिक चैनलों द्वारा परोसा गया हो सृजन से आया हुआ साहित्य हो क्योकि हमारे दैनिक जीवन के कामों और रोजी – रोटी के चक्र में फंसे हम लोग घुमने जाते भी है तो तीर्थयात्राओं पर, पहाड़ो पर या समुद्र किनारे पर किसी सुदूर जंगल में जाने की जरूरत महसूस नहीं करते, इसलिए साहित्य पढ़कर ही हम किसी भौगोलिक जगह, संस्कृति और वहाँ के दैनिक जीवन के क्रिया कलापों के बारे में जान सकते है.
योगेन्द्र आहूजा ने सही लिखा है कि “मिथिलेश प्रियदर्शी हिन्दी की कहानी की एक बड़ी उम्मीद और आश्वस्ति है” और मेरा मानना है कि यदि हमें हिंदी कहानी को बचाना होगा तो एक नहीं लाखों मिथिलेश अभी और चाहिए. मिथिलेश मूल झारखंड से आते है 16 दिसंबर 1985 को चतरा जिले में जन्मे मिथिलेश की पढाई पटना, वर्धा से होते हुए मीडिया में पीएचडी जवाहरलाल नेहरू विवि, नई दिल्ली से की. हाल- फिलहाल वे मुम्बई में रहते है और मराठी फिल्मों के स्क्रिप्ट लेखन का कार्य करते है. पहले जेएनयू और फिर मुंबई और इसके पहले पटना, रांची यानी अनुभवों का एक बड़ा फलक होने से इनके अवलोकन बहुत तगड़े है और सामाजिक मुद्दों के प्रति सरोकार बहुत गहरे है. वे कहानी को अपनी बात कहने का माध्यम ही नहीं बनाते, बल्कि झारखंडी होने के नाते वहाँ की संस्कृति और सभ्यता, त्यौहार, परम्परा, राजनीति और जन-जीवन को बहुत वृहद ढंग एक बड़ा वितान तैयार करके वहां के मुद्दों और समस्याओं की पुरजोर पैरवी करते है. जंगल उनके भीतर साँसों की तरह से धडकता है और एक संवेदनशील आदमी को इस बात से जलन हो सकती है कि उसके पास यह सब क्यों नहीं है.
मिथिलेश का बचपन वहां के जंगलों और फिजाओं में गुजरा है और आदिवासियों के साथ उनकी गहरी दोस्ती रही है. इसलिए उनकी कहानियों का मूल स्वर आदिवासी अस्मिता, बढ़ता शहरीकरण, पलायन, रोजगार और नक्सलवाद के नाम पर पुलिस की प्रताड़नाओं का वर्णन है. लम्बी कहानियां साध पाना एक तपस्या है खासकरके जब आपका फलक इतना फैला हुआ हो और आप सिर्फ मुद्दे पर अडिग रहना चाहते हो खासकरके एक पुरी ऐसी कौम जो विकास के तमाम दावों और आरक्षण जैसी संविधानिक सुविधा होने के बाद भी बहुत चालाकी से उपेक्षित रखी गई. विस्थापन का दंश हर जगह अब नजर आने लगा है और जिस पैमाने पर आदिवासी इससे प्रभावित है वह डरावना है. मिथिलेश ने कहानी लेखन की शुरुवात 2007 में की और पहली ही कहानी “लोहे का बक्सा और बंदूक” को वागर्थ 2007 का नवलेखन पुरस्कार मिला. मिथिलेश की कहानियों का उडिया, बंगाली, पंजाबी के अलावा मराठी में अनुवाद हो चुका है. “लोहे का बक्सा और बंदूक” उनका पहला कहानी संग्रह है जो लोकभारती प्रकाशन से आया है और हिंदी साहित्य जगत में चर्चा में है. इस संग्रह में कुल छह कहानियां है और यह संग्रह 166 पृष्ठों में फैला है औसतन एक कहानी 27 – 28 पृष्ठों की है जो उनके लेखन कला, अवलोकन क्षमता और शब्दों पर महारथ हासिल होने की योग्यता दर्शाती हे. इन परिपक्व कहानियों की भाषा इतने सुगम्य और सहज है कि आप एक कहानी पढ़ना शुरू करते है और आपके सामने किसी फिल्म के मानिंद विजुअल्स चलने लगते है - आप खो जाते है - मानो वे चरित्र आपके सामने आकर अपनी बात कह रहें है , ये चरित्र आपको हंसाते है, रूलाते है गुदगुदाते है, और धीर-गम्भीर आवाज़ में समस्याओं से वाकिफ करवाते है, वे बताते है कि गाँवों में सामंतवाद अभी भी जोरों पर है, जल-जंगल और जमीन के मुद्दे वन-अधिकार कानून 2005 पारित होने के बाद भी सुलझे नहीं है, पुलिस का आतंक, महिलाओं पर जुल्म, बच्चों और विकलांगों की उपेक्षा शाश्वत है, किसी को भी नक्सली कहकर पुलिस और व्यवस्था जान से मार देती है और शेखी बघारने लगती है, यह पुरे दण्डकारण्य क्षेत्र में देखते है जिसमे सात राज्य आते है.
इस संग्रह में कुल छह कहानियाँ है. “हत्या की कहानियों का कोई शीर्षक नहीं होता “ संग्रह की पहली कहानी है जो एक बड़े शहर में घटित होती है. पाठक मन्त्र मुग्ध से पढ़ते चले जाते है और जब मुहाने पर पहुंचते है तो ठगे से रह जाते है पर शहरी जन जीवन में यह सब सामान्य है. किस्सागोई में माहिर मिथिलेश यहाँ योगेन्द्र आहूजा को एडगर एलन पो के रूप में नजर आये. कहानी में एक खून की कहानी है जिसमे लेखक एक शहर में जीवन जीने के संघर्ष कर रहा है और एक दोस्त के अचानक आने पर कैसे उसका अतीत, विश्वविद्यालय और वो सब याद आता है जब वह बेहद मुश्किल दौर से गुजरा, उससे उसके इस दोस्त की हत्या हो जाती है और फिर कैसे उसने यह सब छुपाया. बेहद रोचक ढंग से लिखी गई यह कहानी मिथिलेश की अदभुत कल्पनाशीलता की मिसाल है और कहानी का अंत बहुत ही जोरदार है.
दूसरी कहानी “सहिया” बहुत ही बारीकी से आदिवासी जीवन की दैनिक घटनाओं और शादी, संस्कृति, परम्परा, मांड बनाने और हमेशा साथ होने की बात करती है. कैसे आदिवासी इलाकों में मिशनरी ने काम फैलाया और उन्हें पोषित भी किया, शिक्षित भी किया और बचाया भी और इस सबके बावजूद आदिवासी वही रहें. सरकार का दमन चक्र और नीतियाँ, आदिवासी लोक जीवन में शक शुबहा के नाम पर अस्मिता से खिलवाड़ और दखलदांजी इस कहानी में सब दर्ज है. यहाँ मुझे “काला पादरी” बेहद याद आया, पुन्नी सिंह जी के सहरियाओं पर लिखें उपन्यास याद आये पर इस सबके बाद भी नायक की स्त्री किस चालाकी से सामन्तियों, ठाकुरों और पुलिस के चंगुल से अपने नवविवाहित पति को निकाल ले जाती है और जिस तरह से घटनाओं का बारीकी से जिक्र करते हुए यह कहानी बुनी गई है वह पढ़ना रोमांचित करता है.
कहानी “मुनाफ़ा” एक कस्बे में घटित हुई कहानी है. साम्प्रदायिकता और पुलिस गठजोड़ के चश्मे से लिखी यह कहानी आपको किसी जासूसी उपन्यास सी लगाती है बहुत धीरे-धीरे यह कहानी आगे बढती है और आपको कस्बे के बहाने उन कोनो की यात्रा कराती है जो मंदिर-मस्जिद या धर्म के नाम पर संगठन चलाते हे और कैसे अपना उल्लू सीधा करते है. राजनीती कैसे अपना काम करती है और पुलिसिया चरित्र कुल मिलाकर मौज में व्यस्त रहता है उसे सिर्फ और सिर्फ रूपये से मतलब है, इस कहानी में जो फ़िल्मी स्क्रिप्ट लेखन का अनुभव है वह घटित होते नजर आता है.
“बहन का प्रेमी” कहानी भाई बहन के सम्बंधों के साथ शुरू होती है और किस तरह से बहन की शादी होने पर भाई अवसाद के एकांत में चला जाता है और उसका यह एकाकीपन उसे नौकरी की तलाश में दूसरे देश ले जाता है, एक दिन जब बहन के मरने की खबर आती है तो वह बदहवास सा लौटता है और बहन के ससुराल में जाता है जिस जीजा से उसके सम्बन्ध कभी मधुर नहीं रहें, वह समानुभूति से उसका दर्द समझने की चेष्टा करता है, तभी उसे गाँव में घूमते हुए मालूम पड़ता है कि इसी जीजा ने उसकी बहन की हत्या की है जो पंचायतों एम् महिला आरक्षण के चलते मुखियाईं बन गई थी और उसने गाँव की बेहतरी के काम किये. यहाँ तक कि पोस्ता की खेती उजड़वा दी जो युवाओं को नशे की ओर उन्मुख करती है. यह बहुत मार्मिक कहानी है जो भाई-बहन के नैसर्गिक रिश्तों को दर्शाती है. जिस तरह से इस कहानी का विकास एक “ओरगेनिक” तरीके से होता है वह बहुत खूबसूरत है, मिथिलेश ने बचपन से लेकर युवावस्था, फिर प्रौढ़ और अंत में बहन की मृत्यु तक भाई-बहन के निश्छल प्यार का जो खांका खींचा है वह मैंने अभी तक पढ़ा नही है. इस संग्रह की सबसे बेहतर कहानी मै इसे ही मानता हूँ कि एक छोटे से परिवार में कैसे खुशियाँ, रंजो गम सहते हुए एक मध्यम वर्गीय परिवार जीवन जीता है और फिर दुखांत होता है. यहाँ कहानी आपको क्लेश और तनाव में ले जाती है, अवसाद निश्चित ही मृत्यु उपरान्त उभरा हुआ सबसे सशक्त स्थाई भाव है. जिस तरह से नायक का आखिर में पश्चाताप है वह आपको दारुण दुःख से भर देता है.
आखिरी कहानी जो शीर्षक से है - “लोहे का बक्सा और बंदूक” में एक आदिवासी युवा की कहानी है जिसका बचपन गाँव के सामंती माहौल में बीता और स्कूल से लेकर हर जगह वह उपेक्षित रहा पर बड़ा होने पर उसकी कद-काठी और शारीरिक क्षमताओं के कारण उसे पुलिस में नौकरी मिल गई. जिस तरह से बिन बाप के इस बच्चे के बचपन, उसकी माँ का संघर्ष और गाँवों में मजदूरी के प्रलाप का जिक्र हुआ है वह पढना बहुत ही दुष्कर है, एक बच्चे कि आँखों से जंगल और शोषण का पहिया है जो हमें बाइस्कोप से मिथिलेश दिखाते है. हम सबके पास अपनी अपनी माँओं के संघर्ष की कहानियाँ है और इसी तरह से इस आदिवासी युवा की भी कहानी है जो जंगलों में पलकर बड़ा हुआ पर शहरी जगहों पर पुलिस थानों में रहते हुए जो शोषण और रुपयों की बाँट देखता है उससे उसका मन विक्षुब्ध है पर निचले स्तर का सिपाही होने से वह कुछ करने में असमर्थ है. एक दिन तफ्तीश के दौरान जंगल में तीन आदिवासियों को फर्जी मुठभेड़ के बहाने पुलिस नक्सल बताकर मार डालती है और अपनी पीठ थपथपाती है वह शोचनीय है. गोलियों से छलनी करने में वह भी इस पाप में शामिल है – यह प्रसंग उसके जीवन में दुखों का पहाड़ खड़ा कर देता है और वह एक तरह से वह सायकिक हो जता है और किसी स्क्रीजोफेनिया के मरीज की तरह विक्षप्तों सा व्यवहार करने लगता है. एक बार फिर मुझे काला पादरी का वह युवा आदिवासी फादर याद आया जो धर्म परिवर्तन करके शहरीकरण की चकाचौंध में अपने ही लोगों के खिलाफ खडा हो जता है और एक दिन जब उसे आत्मग्लानि होती है तो वह लौट जाता है तटस्थ होकर.
मिथिलेश के पास कमाल के अनुभव, अदभुत प्रांजल भाषा और अभिव्यक्ति है. यह उनकी शैक्षिक पढाई की देन भी हो सकता है और नैसर्गिक प्रतिभा तो है ही, क्योकि मीडिया की पढाई में पांच ककार ‘एच’ और एक ‘डब्ल्यू’ पढाया जाता है और उन्होंने अपनी समझ और पुख्ता अनुभवों से इसका भरपूर उपयोग किया है. दुर्भाग्य से आज हिंदी में जिन कहानीकारों को जबरन पूजा जा रहा है और दोगले लोगों को उठाया जा रहा है वह अनैतिक ही नहीं - अपराध भी है, क्योकि मिथिलेश जैसे समर्थ कहानीकार को पढने के बाद मेरी यह समझ बनी है कि जो कहानीकार नब्बे के दशक से या इक्कीसवीं सदी में जुगाड़ और सेटिंग से यहाँ-वहां छप रहें है, और बेशरमी से पुरस्कार बटोर रहें है उन्हें यह संग्रह पढ़ना चाहिए कि भाषा की तमीज, संस्कृति, अभिव्यक्ति और राजनैतिक – सामाजिक घटनाओं का पूरे वैश्विक आर्थिक जगत पर क्या प्रभाव पड़ता है और इस सबमे बदलाव जो बहुत धीमे-धीमे परन्तु मजबूती से हो रहें है - उनका क्या महत्त्व है. मै इन कहानियों को बार- बार पढूंगा इसलिए नहीं कि ये अच्छी कहानियाँ है बल्कि इसलिए कि कहानी की रचना और विकास को समझने के लिए ये एक जरुरी पाठयक्रम का हिस्सा है.
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“लोहे का बक्सा और बंदूक”
मिथिलेश प्रियदर्शी
लोकभारती प्रकाशन
मूल्य 199 रूपये मात्र
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