|| बकैती बरकरार - बेमिसाल दस साल ||
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कश्मीर फाइल्स, पद्मावती या द केरला स्टोरी - सब अतिशयोक्ति है और मकसद सिर्फ़ एक - चुनाव जीतना और प्रचंड हिंदूवाद को बढ़ावा देना, सांप्रदायिकता बढ़ाना और एक समुदाय विशेष के माथे टैग लगाकर अपनी नाकामियों और निकम्मेपन को जनता की नज़रों से बचाना
द केरला स्टोरी में लड़कियों को - वो भी नर्सिंग में मास्टर डिग्री कर रही लड़कियों को इतना मूर्ख बताया गया है कि वे किसी के भी बहकावे में आ जाती है, अगर यह सच है तो बेहतर है घर बिठाओ ससुरियों को और 14 -15 की उम्र में ब्याह कर दो, मतलब किसी से भी विवाह पूर्व शारीरिक सम्बंध बनाने के लिए प्रोटेक्शन का प्रयोग करना है - यह नर्सिंग में मास्टर कर रही केरला जैसे जागृत प्रदेश की लड़कियों को नही ज्ञात तो गोली मार दो साली पढ़ाई को, वह लड़की क्या सेवा करेगी देश, दुनिया या मरीजों की
गज्जब का घटियापन और गज्जब की उजबक हरकतें पूरी फिल्म में - तभी दल और विचारधारा के लोग लड़कियों को निशुल्क शो दिखा रहें, आज जब कोई दूरस्थ गांव की लड़की उसकी मर्जी के बगैर फुल्की नही खाती किसी से तो वह मुस्लिम बन जाएगी बहकावे में आकर और श्रीलंका पार करके सीरिया पहुँच जायेगी, खाजपा को लगता है नगद राशि या ऐसी घटिया फिल्में दिखाकर आधी आबादी को बरगलाकर वोट ले लेंगे तो यह भी सही है, जेंडरियों मुबारक, कॉमरेड लोग्स मुबारक, गांधी वादियों मुबारक और स्व सहायता समूहों के ज़रिए अलख जगाकर "तू बोलेगी - मुंह खोलेगी" का बैंड बजाने वाली नारी संगठनों की ओपन लिबरल बहनों मुबारक हो जो आप 76 वर्षों में यानी आज़ादी के तुरंत बाद मताधिकार का प्रयोग करने वाली महिला शक्ति ज़िंदाबाद, स्त्री अस्मिता और समता पर लिखने, बोलने और टें - टें करने वाली लेखिकाओं कवयित्रियों मुबारक हो
है भगवान - मल्लब 140 करोड़ लोगों की अक्ल पर पानी फिर गया है , बस आने दो कर्नाटक और देश में फिर से नाली से गैस बनने वालों की सरकार, कर्ण पैदा करने की तकनीक और परिधान बदलने वाले जोकर्स की सरकार
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कभी कोई कविता भी जीवन का अभिन्न हिस्सा बन जाती है और फिर सब कुछ साफ़ हो जाता है, एमए अँग्रेजी साहित्य के दौरान वर्ड्सवर्थ, कॉलरिज, जॉन कीट्स, यीट्स, और एमिली डिकिंसन, ओ'नील के साथ-साथ रॉबर्ट फ्रास्ट ने भी बहुत प्रभावित किया था
रॉबर्ट फ्रॉस्ट की यह कविता और एमिली डिकिंसन की कविता "This is my Last Letter to the World", मेरे लिए जीवन की वे माइलस्टोन कविताएँ है जिनके बरक्स मैं हिंदी, मराठी या अंग्रेजी की बाकी कविताओं को समझने की चेष्टा करता हूं और उन्हें स्वीकारता या खारिज़ करता हूँ, लाख गालियाँ खाई, बुराई मोल ली पर रास्ता वही चुना जो अलग था, कम लोग जिस पर चलें पर मैंने पदचिन्ह दिए और अपना रास्ता बनाया - जीवन एक बार ही मिलता है और फिर क्यों किसी मूर्ख से चरित्र प्रमाणपत्र या नोबल की उम्मीद करें
इधर हिंदी में किशोर, युवा और अधेड़ से लेकर प्रौढ़ और बुजुर्ग कवियों ने [मेरे सहित] जो गंदगी मचाकर रखी है ना उससे अब कविता के प्रति वितृष्णा हो गई, या तो सब चोर है जो कही से माल लेकर अपना बता रहें या फिर लिख ही घटिया लिख रहे फिर वो कोई भी हो, युवाओं ने 51 से 101 कविताएँ प्रतिदिन लिखने और इंस्टाग्राम से लेकर हर जगह चैंपने की मानो सुपारी ले रखी है, बदतमीज और विशुद्ध चोर ये लोग सिवाय ट्रोलिंग के कुछ नही करते और जानते
बहरहाल, इस तरह की कविताएँ लिखने के लिए जो माद्दा चाहिये वो बिरलों के पास ही शेष है अब, बाकी तो 50 साल का प्राध्यापक 18 - 20 साल की नौकरी में 100 सँग्रह ले आया है और दस साल से पीएचडी की थीसिस घिस रहा कुंठित 40 साला शोधार्थी चापलूसी से 120 शोध लेख कविता पर छपवा चुका है चम्पादकों के कुत्ते घूमाकर
"The Road Not Taken"
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Two roads diverged in a yellow wood,
And sorry I could not travel both
And be one traveler, long I stood
And looked down one as far as I could
To where it bent in the undergrowth;
Then took the other, as just as fair,
And having perhaps the better claim,
Because it was grassy and wanted wear;
Though as for that the passing there
Had worn them really about the same,
And both that morning equally lay
In leaves no step had trodden black.
Oh, I kept the first for another day!
Yet knowing how way leads on to way,
I doubted if I should ever come back.
I shall be telling this with a sigh
Somewhere ages and ages hence:
Two roads diverged in a wood, and I—
I took the one less traveled by,
And that has made all the difference.
◆Robert Frost
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कर्नाटक में नरेंद्र मोदी चुनाव के जोश में जो होश खोकर जिस तरह की घटिया भाषा बोल रहे है, बॉडी लैंग्वेज इस्तेमाल कर रहे , body shaming कर रहे है दूसरों का - वह अभद्र है और पद की गरिमा के अनुकूल नही है
कोई घटिया बोलता हो, कांग्रेसी या कोई कुछ भी बोलेगा तो क्या प्रधानमंत्री भी इतने ही निम्न स्तर पर आकर बोलेंगे और अपनी बॉडी लैंग्वेज इतनी अशालीन कर लेंगे, यह संस्कृति है, विदेशी पत्रकार जो कव्हर कर रहें है वे क्या रायता परोसेंगे, जगसिरमौर ऐसे बनेंगे, हद है मतलब
मतलब चुनाव का ही काम कर रहे 2014 से और आज कर्नाटक तक आते - आते इस स्तर पर उतर आए - अभी तो मप्र, राजस्थान और छग के चुनाव है इसी वर्ष, तो क्या सभी सामाजिक मर्यादाएं तोड़ देंगे, #मोहनभागवत जी और भाजपा के बुद्धिजीवी प्रकोष्ठ वालों सम्हालें इस व्यक्ति को, सत्ताएं तो आती - जाती रहती है, पर इतिहास जो दर्ज कर रहा है वह कौन पोछेगा फिर और क्या आदर्श पेश कर रहा है यह शख्स आख़िर युवा, किशोरों, महिलाओं और देश के लोगों के सामने, यह है असली मन की बात
सुप्रीम कोर्ट को भाषा और भाषण की मर्यादा भी अब तय करके लक्ष्मण रेखा खींचना चाहिये, फिर कहेंगे कोर्ट क्यों आ रहा बीच में
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