|| बादल घुमड़ते है, गर्जना में याद आते हो ||
उज्जैन जाओ तो चन्द्रकान्त देवताले जी की याद आती है, अभी बीच में उस कचोरी वाले की दुकान तरफ से निकला - जहां वे ले जाते थे हाथ से खींचकर, कमल ताई के जाने के बाद एकदम अकेले हो गए थे और कोई जाता मिलने तो बच्चों से खुश हो जाते, हम लोगों ने उनके साथ इतना महत्वपूर्ण समय बीताया और जीतेन्द्र श्रीवास्तव से लेकर मदन कश्यप जी आदि जैसे कई मित्रों और वरिष्ठ साथियों को लेकर उनके घर गए है, उनके पीछे हिंदी के वरिष्ठजन कहते थे उज्जैन के कि "सूर्योदय हो गया और लकड़बग्गा हंस रहा है"
पिछले दिनों उसी घर की तरफ से निकला तो मन भर आया - थोड़ी देर बाहर खड़ा होकर निहारता रहा, उनके पाले ढेर कुत्ते बैठे थे बाहर - उदास और ऊँघते अनमने से, लोहे का दरवाज़ा सूना पड़ा था, पौधों की हरियाली पीले जर्द पत्तों में बदल रही थी और उस पतरे के शेड तले किताबों का अंबार नजर नही आ रहा था, मेरे पास उनका दिया जामुन और कई पौधे है जो अब बड़े हो रहें है
उस दिन मुझे लगा कि वे अभी बाहर आएंगे और कहेंगे कि "संदीप, अंदर नही आये तो पाप लगेगा, आओ बैठो देखो यह तुकाराम का अभंग हिंदी में ठीक हुआ या नही, या जरा फेसबुक पर वो फोटो दिखाओ तो जो नरेश सक्सेना का है और लखनऊ में कही कविता पाठ कर रहें हैं, आई से खाना बनवा लें तुम और बहादुर लेट हो जाओगे, अभी आराम से जाना देवास है ही कितना दूर, अब खाना ख़ाकर जाओ, नीलोत्पल को फोन लगाओ बोलो कि गर्म कचौरियाँ लेते आये, जलेबी का भी बोल दो, फिर कोई नई किताब निकालते और पत्रिकाएँ बिखेर देते
अब मेरे घर मे लैंड लाइन फोन भी नही है , नही तो रात - बेरात घनघना उठता था फोन कि "हेलों, मुक्तिबोध बोल रहा हूँ, केदार बोल रहा हूँ ...." और फिर धीरे से पूछते कि समय है ना डिस्टर्ब तो नही कर रहा और खूब ठहाके लगाकर बातें करते रहते थे
यह कविता Rajesh Saxena जी ने उनका आत्मीय स्मरण करके लिखी है और इसे वही और बेहतर ढंग से समझ सकता है जिन्होंने अपने कवि के संग साथ उज्जैन और मालवे को जिया है , लम्बी - लम्बी बातचीत की है और उन ठहाकों में शामिल रहा है - जो अंत में दिल्ली में जाकर एक दिन खत्म हो गए
सावन, आषाढ़ और भादो के मौसम या दीवाली या दहकता वसन्त हो वे हमेशा याद आते है और आते रहेंगे, राजेश भाई क्या कविता है, बहुत ही बढ़िया कविता पूरी समानुभूति है इन भावनाओं से
बहरहाल, आप राजेश भाई की कविता पढ़िये
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"आखिर बेटी के घर से नहीँ लौटे तुम"
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जब भी जाते हमेशा लौट
आते थे आठ ,दस, बारह
या खूब से खूब पंद्रह दिन मे
पिछले साल भी तो
लौट आये थे पाँच दिन में
पर इस बार दिल्ली की
हवा में पता नहीँ क्या था ? कि लौटे ही नहीँ
या कि बेटी के घर से लौटना
दुनिया का सबसे
मुश्किल काम लगा ?
पर फिर तर्क लगाकर सोंचूं
तो ये उज्जैन भी तो
बेटी का ही घर है जो
सालों साल से कर रही
क्या क्या कितना कुछ
आपकी सेवा में !
क्या था इन गुजिश्ता दिनो मॆं कि हम इस शहर के बाशिन्दे
उस अंतिम लपट को भी
नहीँ देख पाये जहाँ
पानी के दरख्त पर आग
के परिंदे बसेरा करेंगे
हालंकि तुम तो
कितने ही सालों से हमें
हर चीज़ में आग बताते रहे !
जो भी हो फिलवक्त ग़मज़दा हूँ और अपनी समझ की
छोटी सी चौहद्दी में प्रेम के छाते के नीचे दुःख के पहाड़ पर खड़ा अकेला हांफते हुए
आकाश को ताक रहा हूँ
और उधर तुम इन्द्रधनुष के अपने पसंदीदा बैंजनी रंग में विलीन हो रहे हो लगातार !
◆ राजेश सक्सेना
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