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Khari Khari, Kuchh Rang Pyar Ke Chaitali in Dewas 11 and 14 August 2022 - Posts of 12 to 14 August 2022

|| अम्बानी, अडाणी या झुनझुनवालाओं का अमृत महोत्सव ||




इस पर कुछ बोला या ट्वीट किया क्या मोदी जी, जाहिर है सरकार किसकी है 2014 से, बल्कि कांग्रेस भी कम नही थी पूंजीवाद को बढ़ावा देने की शुरुवात कांग्रेस ने ही की है, और अब यह साफ होगा पर कुछ लोगों को यह सनातन संस्कृति और धर्म, मूल्य याद नही आयेंगे
राकेश झुनझुनवाला के साथ तो फोटो डाल दिया - क्यों, यह कहने की जरूरत नही, पर इस बच्चे का क्या
और यह सिर्फ आज की बात नही, यह देश अम्बानी, अडाणी, राकेश झुनझुनवाला का है और ऐसे बच्चों या कमजोर पिछड़े दलितों का नही , इनके नाम पर कार्यवाही तो दूर एक ट्वीट भी नही आएगा - चाहे कितने भी लोग मर जाये
इस ओर कुछ कहेंगे क्या दलित नेता या सिर्फ झंडे लगाते रहेंगे, सुंदर कांड पढ़ेंगे, जॉम्बी बने स्कूल - कालेज से बाहर अपने समुदाय के युवाओं के लिए नौकरी या गरिमामयी जीवन की लड़ाई भी लड़ेंगे, दलित आंदोलन भी भ्रष्टाचार, अवसर और बकवास मुद्दों पर लगा है, जो समझदार है वे किताबें लिखकर, घूम फिरकर अकूत कमाया हुआ धन लूटा रहें है , अपने बच्चों को विदेशों में पढ़ा रहें है और फाइव स्टार होटल्स में शादी ब्याह करके दहेज में करोड़ो बाँट रहें है
वरना क्या बात है कि सबसे ज्यादा दलित आबादी वाले यूपी में एक तानाशाह सरकार फिर से सत्ता में आ जाती है और तिलक, तराजू और तलवार को चार जूते मारने वाले बिक जाते है और एक विधायक नही बना पाते है - क्योकि मायावती से लेकर ये सब नेता या ब्यूरोक्रेट्स धूर्त है , स्वार्थी है
बोलो तो कहते है मुद्दे को भटकाते हो, ये समाज से जाति कभी खत्म नही होने देंगे - क्योकि इनकी भी चार सौ बिसियाँ इसी से चलती है , धंधे चलते है दलितों से, ये लोग बुद्ध, लाओ, दर्शन या ओशो से लेकर अंबेडकर पर और दुनिया भर से कॉपी - पेस्ट मटेरियल चुराकर कोरे बुद्धिजीवी बनते फिरेंगे, फोकट का ज्ञान बांटेंगे, पर यह नही समझता कि पढ़ता कौन है तुम्हारा कचरा और जर्नल्स में छपे आलेख
( मोदी जी की पोस्ट का लिंक https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=695135485314020&id=100044527235621)
***



75 वर्ष सँविधान पढ़ा नही, धर्म ग्रन्थ पढ़ते रहें तो जाहिर है यही होना था और यह अभी और बढ़ेगा - दलित, ओबीसी, अल्प सँख्यक के नाम पर क्योकि इस सबकी जड़े भी यही है और जितना आप दबाएंगे उतना भड़केगा यह सब
राज्यों की सरकारें कुछ नही कर सकती जो लोग राजस्थान में कांग्रेस को दोष दे रहें वे कमजोर समझ के है यह एक व्यक्ति ने किया है जो भयानक जातिवादी है, इसमें भाजपा, कांग्रेस कुछ नही कर सकती, मायावती या मुलायम या लालू या नीतीश क्या उखाड़ लिया
असली जातिवादी जड़ें खून में है जब तक सरकारों के भरोसे रहोगे कुछ नही हो पाएगा सरकारें तो चाहती है कि जाति बनी रहें ताकि वोट का धंधा चलता रहें
जब तक सरकारी नौकरी के लॉलीपॉप में आरक्षण का भूत, चुनावों में जाति के आधार पर उम्मीदवार, केबिनेट मंत्रियों में जातियों का प्रतिनिधित्व वाला नाटक, हर जगह पर धर्म और मन्दिर में घुसने के लिए उत्साह, जगह जगह गांधी अंबेडकर से लेकर तमाम समाज के पूजा योग्य लोगो के स्टेचू लगते रहेंगे यह होता रहेगा
मीडिया से लेकर हर जगह योग्य लोगों को ना रखकर धर्म जाति या क्षेत्र विशेष के लोगों को रखा जाएगा चाहे कुलपति हो या आशा कार्यकर्ता यह होता रहेगा
सबसे ज्यादा बचपन से जनेऊ, टोपी, और बाकी प्रतीक इस्तेमाल करके जो इंजेक्शन हम लगा रहें है उन्हें बन्द किये बिना यह सब नही थमेगा और इसके लिए हम सब ज़िम्मेदार है कोई मोदी इंदिरा राजीव जगजीवन मोरारजी या वीपी सिंह नही - ये सब चाहते है कि लड़ते रहे जाति और धर्म के नाम पर
फेसबुक पर नौकरी नही लगने या पीएचडी में चयन ना होने पर पढ़े लिखे लोगों और मूर्ख युवाओं का दलित या ब्राह्मणों को गाली देना एक शगल बन गया है, इन्हें टट्टी करने को संडास नही मिलता तो ब्राह्मणों को गाली देते है - इनसे क्या बहस करना गज़ब के मूर्ख और चौमू है ये, और कमाल यह है कि 90 % लोगों का यह धंधा है और जो मलाईदार पदों पर बैठे है वे कम है क्या भयानक किस्म के शोषक है, एक भी दलित अधिकारी या विधायक बता दें जो उसने जाति को मिटाने के लिए कोई काम किया हो तो बल्कि वह इस व्यवस्था का पोषक बन जाता है कितने आदिवासी मित्र है पर मजाल कि वे उनके हक में वाजिब ढंग से लिखते या बोलते हो - ये सब सफेदपोश है और सवर्ण बन गए है यहाँ घड़ियाली आँसू बहाते है और सबसे बड़े नौटँकीबाज है दुष्ट और धृष्ट कहीं के
और शिक्षक - इनके बारे में क्या कहा जाए, सबसे पहले इन्हें नागरिक शास्त्र पढ़ाओ, मिड डे मील से लेकर जितना भेदभाव ये करके करना सीखाते है उतना कोई नही कम्बख़्त कितना भी कोसो इनको नही सुधरते , 75 वर्षों में एक साम्प्रदायिक, नीच, भ्रष्ट, हिंसक और नालायक देश बना दिया है इन्होंने
यह हम सबका कलंक है और इस बच्चे के हम सब हत्यारे है किसी एक को दोष देना विशुद्ध मूर्खता है
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मार्के की बातें अग्रज डॉक्टर Sanjay Chaturvedi जी द्वारा
•••
कभी-कभी मेरे पास कुछ व्यक्तिगत संदेश आ जाते हैं कि भाषा सुधारने में मैं उनकी कुछ मदद करूँ। अनुमान है कि ये संदेश युवाओं से आते होंगे, जिनके पास मुझसे बहुत अधिक ऊर्जा और नई दृष्टि है। मैं क्या जवाब दूँ?—जिसकी भाषा ख़ुद इतनी बिगड़ी हुई हो, वह दूसरे की क्या सुधारेगा? मेरी साहित्य या भाषाओं में कोई शिक्षा न हो सकी। स्वाध्याय भी कुछ न हो पाया। अब तो समय भी इतना नहीं बचा। अपने उन अँधेरों में मैंने जो किया, वह आपसे बाँट सकता हूँ। उपदेश देने की हैसियत नहीं है, लेकिन जो अक्सर उत्तर में बोलता हूँ—वह यह है :
• आपने जिससे रास्ता पूछा है, वह ख़ुद भटका हुआ है।
• एक उम्र के बाद भी कोई आसान राह नहीं सूझती।
• सभी ज़ुबानों को सुनते रहिए—सड़कछाप ज़ुबानों को भी।
• गालियों में निहित हिंसा से बचिए, लेकिन उनमें संचित मनीषा को सुनिए।
• जो सूझता है, बोलते रहिए।
• लिखिए भी ऐसे जैसे बोल रहे हों।
• ‘वैचारिक’ गिरोहों से डरिए मत; वहाँ अब विचार नहीं बचे—घोर अज्ञान, दृष्टिहीनता, कुंठाएँ, मनोव्यभिचार और सुपारियाँ हैं।
• सुपारियों से डरिए मत—अपनी राह चलिए।
• समीकरणों और फ़ैशनेबल विमर्शों से आतंकित मत होइए, यहाँ प्रतिभा और स्मृति के प्रति अथाह विद्वेष है।
• भाषा की आत्मा अजर-अमर नहीं होती।
• औपचारिक भाषा और फ़ैशनेबल विमर्शों की आत्मा कबकी मर चुकी होती है।
• अकेले रहना पड़े तो बलपूर्वक अकेले रहिए—समीकरणों के सामने समर्पण से बेहतर है गुमनाम रहना।
• गिरोहों और समीकरणों से दूर रहने का अभ्यास भी भाषा और मौलिकता की कृपा का रास्ता है—भाषा पात्रतानुसार अपने आप उतरने लगेगी।
हो सकता है कि ये रास्ते आपके लिए ठीक न हों, पर मेरे पास कोई विकल्प नहीं था।
हो सकता है कि आप अपने लिए कोई नए रास्ते निकालें।
***
|| पुरानी जींस ||





कल कुछ दोस्त मिलें जो 1983 की बेच के थे और कुछ जो 1976 से साथ थे - वो भी जिसके साथ 1982 में तत्कालीन राष्ट्रपति स्व श्री नीलम संजीव रेड्डी से पुरस्कार लिया था
चैताली, चंचला, सीमा, अर्चना, ज्योति, रफत, अनिता, स्मिता, शर्मिष्ठा, प्रयास, विजय, अल्पना, मीनाक्षी, इंदुबाला, रेखा, और भी कई मित्र - गज्जबै का दिन था कोलकाता से लेकर भोपाल, धार, गुना, अशोकनगर, बड़नगर, बड़ौदा, इंदौर और देवास तक के मित्र थे, कुछ तो 35 वर्षों बाद मिलें ज्यादातर आ नही पाएं इस मिलन समारोह में - गीत याद आया एक पुराना
"ये जीवन है, इस जीवन का यही है रंग रूप..."
उम्र के इस ढलान पर ये ही सब तो ताक़त है और अब गप्प करने का आधार, सब बड़े होते बच्चों, नाती - पोतों से घिरे है और पारिवारिक जिम्मेदारियों से तो, सबको यूँ बच्चों से किशोरावस्था वाले दिनों को याद कर, खुलकर खिलखिलाते, हंसते, मस्ती करते और प्यार से लड़ते - झगड़ते कितना अच्छा लगता है

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