उहापोह एक रात है जो खत्म नही होती
'बहुत दूर तक चलते रहने के फायदे ये है कि दिल - दिमाग़ में जो उथल पुथल या तनाव होते है वे घुलने लगते है'
'पर दूरी कैसे तय हो रही - यह कौन बताएगा, सिर्फ़ कदमों से दूरी तो नही पाटी जाती ना'
'तो उधेड़बुन, ठहरे रहने और एक जगह के ही कोई पैमाने है क्या, मन तो निश्चल है और बैठे - बैठे ही सुदूर जगत तो छोड़ो, बैकुंठ धाम की यात्रा भी कर आता है - नदी के पानी मे उछलकर, ऊँची चोटियों पर चढ़कर, समुद्र की गर्जना को भी हुँकार दे आता है'
'तो फिर यात्रा या कदमों से दूरी नापने की जरूरत क्या है'
'कि शरीर सधा रहेगा और यहाँ - वहाँ जाने से कुछ रिक्तता कम होगी'
'पर शरीर तो नश्वर है, कबीर कहते है ना मत कर काया का अभिमान तो फिर और रिक्त तो कुछ रहता ही नही, विज्ञान ने यही सीखाया और ....'
'सोचते रहो, देखो कितनी दूर चल आये, मन की थाह का कोई ठिकाना नही और कोई पार नही, बस एक जंगल है, एक ठिया, एक मौन, एक सृष्टी, एक दृष्टि, एक फ़लसफ़ा और इस सबसे बढ़कर जीवन का वो कड़वा सच - जो एक समय के बाद सामने दिखने लगता है'
"दिख रहा क्या आपको, पानी में तैरती परछाई देखिये, नही तो अपने आंसूओं का स्वाद जब लेंगे तो आपको जीवन के अंतिम सच का वो सच नजर आएगा - जो बस अवांगर्द सा आसपास घूम रहा है"
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