किसी को कोई फ़र्क नही पड़ रहा
•••••••••••
पहल का बंद होना ही साहित्य के लिये फायदे की बात है
125 अंक निकलने के बाद भी कोई द्वितीय पंक्ति नही, दो - चार लोगों से घिरे लोग और पारंपरिक अकड़ का ज़माना अब चला भी गया है, विचारधाराओं के संकट काल में पहल जैसी पत्रिकाओं की वास्तव में ना अब ज़रूरत है और ना किसी को पढ़ने के लिए इतना समय है
वे लोग इठला भले ही लें कि हम पहल में छपे है पर उन्होंने पहल को क्या दिया - यह भी सोचना चाहिये, इसी के साथ 70 -75 - 80 - 90 पार के लोग सम्पादकीय टीम में ठसक और अकड़ से रहें तो नए सृजित हो रहें लेखन, साहित्य या कहानी - कविता को कैसे पखारेंगे, प्रोत्साहित करेंगे और न्याय भी करेंगे
आज पहल बंद हो रही है, कल तद्भव या ऐसी ही पत्रिकाओं का भी टाईम आयेगा और बहुत जल्दी आएगा, आना भी चाहिये -मेरी राय में, क्योंकि इन कुछ सम्पादकों को अपने कम्फर्ट ज़ोन और द्वीपो में रहने की इतनी बुरी आदत हो गई थी / है कि इनके लग्गू - भग्गू ही इन्हें ले डूबे और कुछ छर्रों, चेले -चपाटे इन्हें ढोते रहें, विश्व विद्यालयों में व्याख्यान की दुकानें चलवाने से लेकर पीएचडी के इंटरव्यू या नौकरी में तेल मालिश करने वालों को नियुक्ति दिलवाने तक का काम, इन लोगों ने ना कुछ पढ़ा - ना लिखा बस मठाधीश बन गए और आश्रम चलाने लगें
बहरहाल, मेरे लिए बड़ी अच्छी खबर है और ज्ञानरंजन जी को अब विश्राम करना चाहिये - वैसे भी पत्रिकाओं की भीड़ में वे अब अकेले पड़ते जा रहे थे, देने को कुछ है भी नही अब; जो मठाधीश जमकर बैठे है संस्थानों और पत्रिकाओं के निर्णायक पदों पर - वो समझ लें या हंस जैसी पत्रिकाओं की दुर्गति भी देख लें कि इस गुटबाजी और कम्फर्ट ज़ोन में या चंद लूटे पीटे निठल्लों और बेरोजगारों को पैनल बनाकर पेड़ा नियमित रूप से बाँटने से क्या होता है और यह पैनल बनाकर हर अंक में उन्ही नगीनों को फार्मूला लेकर छापने का क्या हश्र होता है - यहाँ मैं साहित्य, संस्कृति से लेकर गाय - गोबर, सेक्स, देबोनियर, कल्याण या महिला - किशोर या बच्चों के नाम पर पत्रिकाओं की नवाचारी दुकान चलाने वालों को भी स्पष्ट रूप से कह रहा हूँ
दुनिया बदल रही है और ये "लेखन और छपन" की ठेकेदारी लंबे समय तक नही चलेगी बाबू लोग; नया रचने और छापने के बजाय अपनी गोटियां फिट करते रहोगे तो दुनिया बेवकूफ नही है - आप रोते रहिये - स्वास्थ्य, आर्थिक तंगी, मैनपावर, समझ, संयोजन, प्रकाशन का या सरकार के असहयोग आन्दोलन का रोना - धोना किसी को नही सुनना है आपके ये "फनी एक्सक्यूज़"
बहुत कर लिया और जो अभी कर रहे है वे भी बटोरने में ही लगे है या चुके हुए चौहानों को पाल रहें है सामाजिक सुरक्षा पेंशन की तरह या मरने के पहले निकम्मी औलादों के लिए नगदी वाले पुरस्कार ही बटोर रहें हो देशभर में और इस सबमें अपनी प्रतिबद्धता कब कहाँ गिरवी रख दी या बेच दी याद कर लो एक बार
इस पोस्ट में ढेरों सन्दर्भ है, इसलिये जरा तर्क से बात करें और ज्ञान जी ने भी अपने यहाँ छपी कूड़ा सामग्री को जबरन समाज में मनवाया और पुरुस्कृत करवाया है - या तो खुद ने निर्णायक बनकर या किसी को प्रभावित करके, इसलिये उन्हें इस कसौटी पर छोड़ा नही जा सकता
वैसे एक मासूम सवाल और - पत्रिकाओं की जरूरत अभी है क्या - खासकरके पहल टाईप
***
बहुत मुश्किल समय है, अपने निकटस्थ लोगों की मृत्यु के बाद भी हम उनके शोक में या अंतिम संस्कार में जा नही पा रहे हैं, पहले हम कहते थे कि सुख में ना सही पर दुख में जरूर शरीक होना चाहिये भले ही कुछ भी हो कैसे भी सम्बंध हो और यह शालीनता हमारे घर परिवार और संस्कारों में निहित है पर इस कोरोना ने ना मात्र यह जाल तोड़ा बल्कि हमें इतना भयभीत और मजबूर कर दिया है कि हम बेबस है और जिनके साये में जीवन गुजारा, उन्हें अंतिम समय मे विदा भी नही दे पा रहें है
सावधान रहें, शेखी में ना रहें, जबरन की मर्दानगी दिखाते हुए बाजारों में ना घूमें हालात बहुत खराब और घातक है, कोरोना का यह नया वाईरस अत्यंत खतरनाक है और तुरंत आक्रमण कर सीधे दिल और गुर्दों को क्षति करके मौत तक पहुंचा रहा है मरीज दो तीन दिन में ही खत्म हो जाते हैं, देखते देखते 2, 3 दिन में सातवीं खबर आज मिली और सभी 45 से 70 के बीच के एकदम स्वस्थ लोग थे
वैक्सीन लगवाएं या नही यह आपका व्यक्तिगत निर्णय हो सकता है पर उसके बाद भी जीवन की ग्यारंटी नही है और वैक्सीन कोई अमृत नही है - इतना तो समझ ही सकते है कि दुनिया भर के लोग एकमत नही हो पा रहें है इसके डोज़, अंतराल और प्रभावों पर बस " दिल बहलाने को ग़ालिब यह ख्याल अच्छा है " की तर्ज पर सब ग़ाफ़िल है , दरअसल में हड़बड़ाहट में किया गया जल्दबाजी का फ़ैसला है जिससे सिर्फ शोध में हुए खर्च के हिसाब की वसूली की जा रही है और नतीजों की परवाह किसी को नही है आंकड़े भले ही जो कहें पर अभी की स्थिति में वैक्सीन सिर्फ एक भुलावा है इसलिये लगवा लें पर आप कोरोना प्रूफ हो गए है यह ग्यारंटी कतई नही है
मित्रों सतर्क रहें
***
नीच निठल्ले लगे व्यापार में
है जनता किसान मझधार में
जात धर्म के झूठे बौने
कर देंगे छलनी सबके सीने
इनका कोई धर्म नही है
नीच नराधमों का पेट नही है
वोट की खातिर घूमे फिरे है
लोग किसान मुंह इनके जीरे है
देश धर्म का कोई ना बन्दा
बेच बाच के करो फिर धँधा
होली है और अब किसानों के लिए कोसिये कम से कम इन धूर्त मक्कारों को जो सरकार के नाम पर देश चला रहे है और रोज अपनी औकात बंगाल में दिखा रहें है
***
Comments