रंगोली और परम्परा बोध
मराठी संस्कृति वृहद और समृद्ध है और इसके कई अच्छे गुणों में संस्कार से लेकर खानपान, पहनावा और घर परिवारों का रखरखाव भी महत्वपूर्ण है, इसके लिए कल्पना और अभिव्यक्ति की बहुत ठोस जरूरत होती है, महिलाओं ने इस जिम्मेदारी को बखूबी निभाया है बल्कि उन्होंने ने इसे अक्षुण बनाये रखा है: महाराष्ट्र में महिलाएं अपने घर के सामने रोज सुबह रंगोली बनाती है, झाड़ू पोछा करने के बाद घर आँगन से लेकर घर के देवालय के सामने, रंगोली हवा के झोंको से उड़ भी जाती है पर महिलाओं की यह जिद है कि वे अपना काम जारी रखेंगी - भले ही कितने आंधी तूफान आयें और कोई उनके बने - बनाएं चित्र और कल्पनाओं को मिटा दें, पर वे नया रचने का सृजन करने का काम निरंतर पीढी - दर - पीढी जारी रखेंगी. और यही वो परम्परा और संस्कृति है जो उन्हें रोज सुबह उठकर नया सृजित करने और रचने की प्रेरणा देती है, हर दिन नए जोश में सुबह उठकर झाडू पोछा करके घर आँगन में अपने मन से नई आकृतियाँ बनाकर ही वे दिन की शुरुवात करती है, यह सिर्फ जेंडर का मुद्दा नहीं, बल्कि सदियों से चली आ रही वो जिद है जो उन्हें ज़िंदा रखती है और अपने मन की बात कहने का मौका देती है, जरूरत इस बात कि है कि उनके इस रचे और बनाएं संसार को देखा जाएँ. कालान्तर में यह कला जगह - जगह फैली और आज एक प्रतिष्ठित कला के रूप में स्थापित है, दक्षिण भारत में भी इसके विभिन्न प्रकार देखने को मिलते है, क्योकि वहाँ भी मंदिरों के निर्माण और बड़े भवनों पर कलाओं का बड़ा प्रभाव है, दक्षिण में फूलों की रंगोली भी सामान्य बात है वहां की रंगोली के पैटर्न महाराष्ट्र के पैटर्न से एकदम अलग है. इधर देश भर में सड़कों से लेकर बड़े मैदानों में रंगोली बनाने के प्रयास आये दिन देखने को मिलते है जो कि सुकुनदायी है
देवास मराठा राज्य रहा है - जाहिर है यहाँ की कलाएं और संस्कृति मराठी सभ्यता से प्रभावित है, महाराष्ट्र के और मालवा के साथ की संस्कृति और परम्परा में रंगोली एक जरुरी चरण है जिसका विकास यहाँ भी हुआ और संभवत महाराष्ट्र के बाद मालवा में विकसित और पोषित हुई. इस शहर में इस परम्परा के कई वाहक रहें और स्व अफजल साहब से लेकर आज शहर में युवाओं का इस कला के प्रति रुझान इस बात की तस्दीक करता है कि यह परम्परा ना मात्र ज़िंदा रहेगी बल्कि आगे भी बढ़ेगी.
मनोज पवार एक संवेदनशील कलाकार ही नही बल्कि एक संस्कृतिकर्मी भी है जिनके सरोकार बड़े है वे केनवास के साथ रंगोली के रंगों से उसी तरह खेलते है जिस तरह से कूची से, अपने हाथो से रंग बनाकर खाली जमीन पर जब उनके चित्र उभरकर आते है तो देखने वाले को सहसा यकीन नहीं होता कि ये चंद सूखे रंगों से बने है और यह रंगोली है. पिछले दस वर्षों से वे लगातार अपना शो देवास शहर में आयोजित करते है और भगत सिंह को अपना आदर्श मानते है इसलिए वे कहते है कि “आज जब बाजार, राजनीति और आर्थिक परतंत्रताओं में समाज जकड़ा हुआ है, और कलाओं के प्रति उदासीन होता जा रहा है और ऐसे में जिस आजाद भारत का सपना भगतसिंह जैसे लोगों ने देखा था वो बुझ रहा है, शहर का भगत सिंह क्लब यदि कार्यक्रम कर रहा है तो यह बड़ी बात है , मैं उन्हें यदि साल में दस पंद्रह दिन नही दे सकता तो क्या अर्थ है फिर"
मनोज कहते है - " रंगोली बनाना एक दुष्कर और कठिन काम है क्योकि इसके लिए रंगों की समझ के साथ रेखाओं पर नियन्त्रण जरुरी है – जब रंग ठोस रूप में हाथों से छूटकर जमीन पर बिखेरते है तो शरीर तो टूटता ही है पर जमीन पर जो नया उग आता है वह सुकूनदायी होता है, देश दुनिया में अनेक कला शिविरों में शिरकत कर चुके मनोज का कला की दुनिया में बड़ा नाम है पर उनकी चिंता यह है कि रंगोली जैसी मुश्किल कला को शहर के युवा अपना तो रहें है, पर प्रयोग करने से डरते है, नया नही सीख रहें है, वे जोखिम लेने से भी कतराते है, शहर में कला और अन्य आनुषंगिक कला के जानकारों को साथ मिलकर सामने आना चाहिए बजाय गुमटियों में सिमटने के ताकि शहर का नाम और ऊंचा हो सकें"
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