मनमोहन युग में सोना बिका, मोदी युग में देश
धूर्त, मक्कार और व्यापारी आते है किस भेष
तो बोलो सारा, सारा, बोलो सारा सारा
***
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल एक चर्चित उत्सव है जो हमेंशा विवादों के घेरे में रहता है, इसी के समकक्ष हमारे प्रगतिशील मित्र और लेखन से जुड़े साथी समानांतर रूप से पीपुल्स लिटरेचर फेस्टिवल का आयोजन करते है जो जनमुद्दों की बात ही नही करता वरन पैरवी भी करता है पूरी प्रतिबद्धता से
इस वर्ष यह समारोह ऑन लाईन हो रहा है, आज एक सत्र के संचालन करने का सुअवसर प्राप्त हुआ जिसमें सर्वश्री विभूति नारायण राव (दिल्ली), हरीश पाठक (मुम्बई), डॉक्टर देवेश सूद (जयपुर) एवं डॉक्टर सुनील चतुर्वेदी जी (इंदौर) ने पैनलिस्ट बनकर महत्वपूर्ण चर्चा की
कार्यक्रम प्रसारित होने के समय लिंक शेयर करूँगा, यह अवसर देने के लिए आभारी हूँ श्री ईश मधु तलवार जी, बड़े भाई प्रेमचंद गांधी जी, चरण सिंह जी पथिक, स्वतंत्र मिश्र का
***
कवि ने मोदी जी को लिखा फिर, जब सब दूर से थक हार गया
विषय - लोकल की भोत मेंतपूर्ण बात
माननीय मोई जी
सेवा में भोत ई नरम निबेदन है कि जे आयोजक लोग मेरे कूँ कबी सम्मेलन में बुलाते नी हेंगे और बहार बालों को बुला के हमकूँ सब्कूँ शोरता में बिठा देते हेंगे, आप या तो इनको बोलो और नी तो लोकल की बात करना बंद करो, हम आत्म निर्भर ही भले और अब्बई पिछले हफ़्ते मैं दिल्ली सिंधु बार्डर आ रियाँ था तो किसी ने अख़बार में छाप दिया, एस पी साब के गुंडे जबानों ने ट्रेन से हेड के पिलेट फार्म पे भोत मारा - अब बोलो क्या भीड़ कूँ कबिता सुनाने जाना कोई गुनाह है क्या
जल्दी से आदेस भेजो आप तो लोकल के लिए
आपका पक्के बाला भगत
लाइवा
***
सुखी मतलब नौकरी से है क्या पंकज भाई अर्थात शिक्षक, प्राध्यापक, डॉक्टर, वकील, इंजीनियर या उद्योगपति
जब तक यह स्पष्ट नही होगा तब तक कुछ समझ नही आयेगा क्योकि सुख का अर्थ बहुधा भरे पेट से है और आज हिंदी कविता इन्ही सबके इर्द गिर्द है और फटेहाल नँगे भूखे कवि अब नजर नही आ रहें युवा शोधार्थी भी पाँच अंकों की फेलोशिप लेकर कविता कर्म कर रहे है और जो मंचीय है वे तो निश्चिंत ही सुखी है
आपको यह थोड़ा और खोलकर स्पष्ट करना चाहिये तभी कुछ ठीक ठाक सा कहा जा सकेगा
----
इस समय सबसे ज्यादा सक्रिय भरे पेट लोग है हिंदी कविता के फलक पर और इसमें हिंदी के शिक्षक, प्राध्यापक और शिष्य वृत्ति लेकर हिंदी में शोध करने वाले छात्र है इसलिए अगर पंकज भाई को इन्हें देखकर आश्चर्य हो रहा तो क्यों - यह भी सवाल है , बाकी फिर ब्यूरोक्रेट्स है, रिटायर्ड, खब्ती और कुछ पेट भरे लोग है
***
लो जी -
● हर बॉर्डर पर पुलिस
● पक्के राजनेता अपने कल्लू मामा उर्फ अमित भाई अस्पताल गये पुलिस को देखने
● नेताओं में दो फाड़
● पासपोर्ट जब्त होंगे सबके
● मीडिया जोर शोर से दिखा रहा
●●● योगेंद्र यादव कहाँ हो, दिखा दी अपनी वाली, अण्णा वाली चाल याद आ गई
●●●● चलो तमाशा खत्म हुआ अब सब ठीक है - ना रहेंगे किसान, ना होंगे समझौते और ना होंगे कृषि बिल वापिस
~ जय मोदी
~ जय शाह
~ जय तोमर
~ जय योगेंद्र यादव
~ जय टिकैत
~ जय मीडिया
●●●● बाय द वे कितने में हुआ सौदा टिकैत, योगेंद्र और बाक़ी सब नेताओं
इंडिया वान्ट्स टू नो
India wants to know
तो मिला क्या किसानों को, जनता को आख़िर में
बाबाजी का
***रिपोस्ट - फेबू ने याद दिलाया
--------
गाथा जिसपर पारदर्शिता आवश्यक है
●●●
किसी भी फेलोशिप को प्राप्त करने के लिए देने वाले का पड़ोसी होना जरूरी है
देने वाले को गाहे बगाहे लिफ्ट देना, उसकी सब्जी भाजी की थैली उठाना, उसके बच्चे की पॉटी धोना और कभी कभी मौका मिलने पर संवेदनाओं का नाटक करना भी बेहद जरूरी है
यदि आपके पास कुछ घटिया कहानी और काम के नाम पर बकवास कहानियां है जिन्हें सुनाकर आप महीनों मुफ़्तख़ोरी कर लोगों को पका सकते है तो आप सर्वथा योग्य व्यक्ति है
यदि आप गांव कभी गए थे - दो चार पांच के साथ गमछा ओढ़कर , राजधानी से किसी के संग लदकर आंदोलनों और एक्टिविज्म या विस्थापन के श्राद्ध में और अभी तक आपको एकाध दलित, आदिवासी या कोई और बाबू , पटवारी की कहानी याद हो तो आपको राष्ट्रीय स्तर की फेलोशिप जुगाड़ सकते है
यदि आप किसी ब्यूरोक्रेट को लपेटे में लेकर एकाध बार पब्लिक में उससे तुम, या अपनत्व से बात कर लें और एकाध कभी भी क्रियान्वित ना होने वाला आदेश दो कौड़ी के विभाग से निकलवा दें तो फिर आप 65, 66 या 70 वर्ष के हो जाएं आपको फेलोशिप से जबरन नवाज़ दिया जाएगा
अपनी व्यक्तिगत ज़िंदगी में आप भले ही विशुद्ध ब्राह्मणवादी रहें हो या अभी कान में जनेऊ लपेटकर मूत्र विसर्जन करते हो पर आपको दलितोत्थान, आदिवासी और जाति मिटाने के लिए फेलोशिप मिल जाएगी
व्यक्तिगत जीवन में स्त्री आपकी कमजोरी रही हो , पूरा देश और जगत दुनिया जानती हो कि आप नैपकिन की तरह अपने जीवन में स्त्रियां बदलते रहे हो, बूढ़ा होने पर भी आपकी लार का अंत नही - चाहे पाँव टूटे या हाथ, दिमाग़ ठिकाने भले ना हो, पर जेंडर, महिला समता के नाम पर ज्ञान की बकलोली कर आप बेशर्मी से उन्ही महिलाओं से फेलोशिप ले सकते है जो आपकी नपुंसकता की शिकार रही हो या एक पत्नी (लव मैरिज वाली ) के बाद भी विजातीय या अन्य मुक्ता के साथ रहकर एन्जॉय करते हुए फेलोशिप ले सकते हो
◆◆◆
यदि आपने कुछ कभी लिखा और यहां वहां छप गया तो आप पत्रकार हो सकते है , सुबह उठकर चड्ढी पहनकर अखबार के हॉकर बनें और धीरे से एजेंसी लें और स्थानीय किसी ब्यूरो को मारकर आप गद्दी हथिया लें
फिर लेख - आलेख लिखना शुरू करें, यदि थोड़ी समझ हो तो अडोस - पड़ोस में चल रहे मिट्टी, कीचड़, टट्टी - पेशाब से लेकर आंध - बांध, नदी - नालों या ऐस - गैस के आंदोलन से जुड़ जाए - भगवान भला करेगा
करना कुछ नही - खादी भंडार जाइये, दो चार लकदक कुर्ते खरीदिये - 2 अक्टूबर के आसपास छूट में , दो जींस, किसी हाट से गमछा और बस आते - जाते रहिए, टपरी की चाय पीते - पिलाते रहिए और आपके लेख सेटिंग से छप ही रहे है , कोई तेज़ी से बढ़ता अखबार ज्वाइन कर लीजिए और मंत्रालयों में रोज़ ब्यूरोक्रेट्स की आरती उतार आईये - बस हो गए पापुलर जनसेवक, विकास पत्रकार या एक्टिविस्ट
फिर रोज़ अखबार बदलिए, इस बीच कोई ना कोई एनजीओ घास डाल ही देगा , कोई ना कोई मीरा दीवानी बनकर आपके एटीट्यूड झेलने को भगवान भेज ही देगा जीवन में, आप उसको मजे में खूब भोगिये, मीडिया की मीराओं को उनके घर जाकर च च च करते हुए बाम मलिये और काम पर चलिए , हाँ बीयर पिलाना और सुट्टा मारना भी सिखाईये ताकि ये कन्याएं दिल्ली में पहुंचे तो पूर्णतः वर्जनाओं से मुक्त हो जाएं
फेलोशिप लेने के लिए अपनी व्यभिचारी प्रवृत्ति को बरकरार रखते हुए आप यदि ज्यादा ही क्रांतिकारी दिखना चाहते हो तो किसी भी पिछड़े जिले की शुद्र, आदिवासी या अन्य कोई पढ़ी लिखी कन्या से ब्याह की भी नौटंकी रचा लीजिए - फिर आपसे बड़ा सत्यशोधक नही समाज में - मस्त बीड़ी पीकर जिगर की आग बुझाते रहें देश विदेश घूमते रहें किसी का बाप आपको अंतरराष्ट्रीय या यूएन की फेलोशिप मिलने से नही रोक सकता
कामरेड, समाजवादी, गांधियन, कांग्रेसी और संघियों से यारियां निभाते हुए अपना उल्लू सीधा कीजिये - आपको निश्चित ही मिड कैरियर की कोई ना कोई फेलोशिप मिल जाएगी - मजे में तीन माह से लेकर दो साल तक का "सबाटिकल" लीजिए और जी भरकर बकलोली करिए - क्योकि फेलोशिप का अर्थ है खुलापन, फिर चार पांच लाख हड़फ भी जाएं और रिपोर्ट भी ना दें तो कोई ख़ाँ घण्टा नही उखाड़ सकता, इस रुपये से आप दो चार कुत्ते - कुत्तियाएँ भी खरीदकर ब्रीडिंग का धंधा खोल सकते है - अरे यार कार आदि तो साला दस लाख का खेल है और फिर जरूरी भी है ना - यू नो
फेलोशिप एक स्वर्ण मृग है जो लंका ले जाता है और अंत में फेलो को परम विद्वान ज्ञानी रावण की तरह मरना पड़ता है - और मौत के समय कोई मंदोतरी या सीता भी आखिरी समय में साथ तक नही देती
◆◆◆
1972 का समय था मप्र जैसे घोर पिछड़े आदिवासी दलित प्रदेश में समाज के विकास का काम फेलोशिप से ही शुरू हुआ था शीर्षस्थ लोग इस शब्द, इसके मायने और इसके विस्तार से वाकिफ थे, उस्ताद थे इसलिए सरकार को ही चुना लगाकर सीनियर फेलो बनकर यहां चरने चले आये, वे सब अभी तक सुरक्षित है और प्रोफेशनल चरवाहे है अब तो
उनके रूप रंग, अंग्रेज बीबियां और रुपयों की आमद देखकर कई स्थानीय भी यह हुनर उन पापड़ बड़ी उद्योगों में जाकर सीखने लगें, जो बच्चे लंगोट में सू सू करते थे - वे यह सब गू मूत पी पाकर बड़े और विद्वान बन रहे थे, गांवों से निकलकर शहरों में आयें, नकल की, पास हुए फिर कलम घिस्सू शोधार्थी बनें और जब बड़ी दुकानों से अब रिटायर्ड हुए है तो एक एक कॉमरेड तीस से चालीस लाख का इपीएफ लेकर निकला, और अभी भी शिक्षा, स्वास्थ्य और दलित आदिवासियों के उठावने और नुक्ते की बूंदी मज़े में रोज़ उड़ाता है, और अब तो आठ हजार से बारह हजार रोज़ का भाव है
एनजीओ में रहें वहाँ संजाल में फंसकर समझें कि शहद किधर है यूनिसेफ में या किसी गोरी चमड़ी में सो कागज आर पार किये और धन संपदा और वैभव के समंदर में लायसेंस लेकर डूबे यह चीखते हुए कि खुसरो दरिया प्रेम का - वाकी उल्टी धार
नया था सो क्या किया एक ही कुलदेवी थी फेलोशिप देवी सो पकड़ लिए पांव और घर भर, बीबी बच्चे, इमोशन, अक्ल, बुद्धि, ज्ञान, अज्ञान, जुगाड़, सेटिंग और कमीशन का भोग लगाकर पहले एक पाई , फिर दो और अब कोई जगह नही छूटती जहां से फेलोशिप देवी की कृपा ना बरसें - एक चार लाख की तो दूसरी छह, तीसरी बारह तो चौथी चौबीस की है, कुछ एक साल की तो कुछ पांच - बस ऑलिव ऑइल का मसाज करते रहिए , मख्खन सब जगह मिलता हैं इधर और फल पाते रहिये थोड़ी कोशिश से "वर्ष के सौ" में दमक सकते है
पूरी बेशर्मी एनजीओ में सीखी चोरी - चकारी, अकॉन्ट्स में हेरफेर, फर्जी बिल बनाने की पारंगतता, फर्जी रिपोर्टिंग, गूगल देव से कॉपी पेस्ट कर पीपीटी से लेकर रिपोर्ट बनाना, सरकारी सर्वे रिपोर्ट का बेजा इस्तेमाल और यह सब कर संसार के दूरस्थ इलाकों में जाना और ज्ञान की जड़िया बांट आना - जिसमें अपने यहां की गरीबी, भुखमरी और आंकडों की बाजीगरी जिसे बेचकर आप राजधानी में दो से तीन बेडरूम के 3 - 4 फ्लैट और मकान खरीद ही सकते है
फेलोशिप के लिए एक बुनियादी शर्त है कि आपमें रीढ़ ना ही हो बाकी सब भालो आछी, सब मजा मा छे
***
"कुछ तो मेरे पिन्दारे-मुहब्बत का भरम रख, तू भी तो कभी मुझको मनाने के लिए आ
एक उम्र से हूं लज्जत-ए-गिरिया से भी महरूम, ए राहत-ए-जां मुझको रुलाने के लिए आ
अब तक दिल-ए-खुशफहम को हैं तुझसे उम्मीदें, ये आखिरी शम्में भी बुझाने के लिए आ"
◆ अहमद फराज
*******
क्या ही कहा जाये अब
***
शिवराज सिंह जी आज देवास में है
मामा जी यह बताईये कि आप काम की बात करने आये है या झाँकी बाजी करने
35 वर्षों से कुछ विकास नही हुआ जब तक यहाँ की राजशाही समाप्त नही होगी, तब तक लोकतंत्र नही होगा यहाँ, किसी को विकास की परवाह नही, सब घटियापन की ओछी राजनीति चल रही है , मेट्रो ट्रेन देवास आ रही थी पर शिवराज सरकार ने उसे भी खत्म कर दिया पर विधायक ने कुछ नही किया, पिछले सत्रों में उपस्थित ही नही रही ना उनकी रुचि रहती है तो वे क्या मेट्रो की बात करेंगी, हाँ नगर निगम कमिश्नर संजना जैन को हटाने में जरूर वे सक्रिय रही बाकी तो क्या किया पूछिये मत
देवास का सत्यानाश पहले दिग्विजय सिंह ने किया इंड्रस्ट्री खत्म करके और फिर भाजपा सरकार ने बावजूद इसके कि 35 वर्षों से एक ही परिवार का विधायक रहा और नतीजा यह कि सब ठप्प है कुछ नही हो रहा सब बर्बाद कर दिया
और बाकी प्रशासन तो यह जिला अभिशप्त ही रहा है लूप लाईन में पड़े कलेक्टर यहाँ टाईम पास करने आते है जिनका लोगों से कोई लेनदेन नही, नगर निगम और बाक़ी सब तो भ्रष्टाचार के अड्डे है ही
खैर
Comments