Khari Khari, Drisht Kavi and Bharat Bhawan, Vislova 's poster about dustbin - Posts of 12 to 15 Feb 2021
"कैसे आसमां में सुराख हो सकता नही"
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"मैं ऐसे कवियों की सूची बनाना चाहता हूँ जिन्हें भारत भवन में कविता-पाठ के लिए "नहीं बुलाया" जाता है, कवि मित्र कृपया अपने बारे में बतलायें, जिन्हें बुलाया जाता है उनकी सूची बहुत आसान है"
कल किसी ने एक प्रश्न पूछा था
वरिष्ठ लेखक और चिंतक श्री नर्मदा प्रसाद उपाध्याय जी ने लिखा कि - "कितना करेंगे? अकेली कविता ही क्यों? साहित्य की अनेक विधाएं हैं, ललित कला के अनेक अनुशासन हैं, उनसे जुड़े कितने सर्जकों को भारत भवन ने याद किया अपने निर्माण से अब तक? यह संस्थान साहित्य और कला दोनों के प्रतिनिधित्व का दावा करता है, मैं बीते तकरीबन 47 वर्षों से लिख रहा हूं, भारत के अनेक संस्थानों में और विदेशों में हिन्दी साहित्य और कला के सन्दर्भ में बुलाया गया हूं, सम्मान भी मिले , फेलोशिप भी, 40 से अधिक पुस्तकें भी हैं - साहित्यिक समाज में लोग थोड़ा बहुत जानते भी हैं, भोपाल में भी बहुत रहा और वहां के कार्यक्रमों में भी खूब सहभागिता की, लेकिन किसी कार्यक्रम में सहभागिता की बात तो दूर मुझे आज तक भारत भवन के किसी कार्यक्रम में उपस्थिति का आमन्त्रण तक मेरी जानकारी में मुझे नहीं मिला है"
अपुन ना कवि है ना लेखक आदि के मुगालते है पर एक जागरूक पाठक जरूर है इसलिए कुछ विचार और प्रश्न है जिनपर विचार किया जाना चाहिए
■ मेरा मानना है कि वहाँ से कोई जवाब नही मिलता पूछने पर , जैसे इंदौर से दो स्थाई कवि है जो हर बार बंधुआ मजदूरों की तरह उपस्थित मिलेंगे - मानो पट्टा लिखाकर आये है, इधर एक बिहारी के प्रबंध न्यासी बनने से उसने बिहारियों को खूब बुलाया, तीसरा विवि में हिंदी और अँग्रेजी के माड़साब लोगों को भी फ्लाइट और 20,000/- की दक्षिणा मिल जाती है, चौथा युवा जो चरण धोऊं है, मख्खन मालिश में निपुण और पारंगत है - वे प्राथमिकता में होते है
■ हिंदी में माड़साब लोगों का गैंग हर जगह है, भयानक संगठित है और ये किसी को कही भी घुसने नही देंगे - पत्रिकाएँ हो या समारोह, जहाँ छेद भी होंगे (Loop holes) तो इनके पोतड़े धोने वाले शोधार्थी घुसेंगे, बाकी का भगवान मालिक है
■ अपने को किसी से नोबल नही लेना और हिंदी की घटिया राजनीति में नही पड़ना, और यही सवाल रज़ा फाउंडेशन से भी पूछा जाना चाहिये - वहाँ तो और ही एकाधिकार है - मरे - खपे साहित्यकार, चित्रकारों के रुपये पर बना वह संगठन नितांत ही औचक तरीके से काम करता है, कुल मिलाकर हर जगह गुरु घण्टाल है - निजी विवि, ट्रस्ट, मठ, गढ़, अकादमियां - सरकारी हो या गैर सरकारी, यहाँ यह भी उल्लेख करना जरूरी है कि लाल गमछा ओढ़कर अरबों रुपयों की संपत्ति देशभर में खड़ी कर लेने वाले भी साहित्य की गंगा में डुबकी लगाकर अपने निजी कुम्भ मेले लगाते है और हमारे विपन्न साहित्यकार जो गण्डा बंधे कॉमरेड है - हीहीही करके पहुंच जाते है चिरौरी करने और भरीपूरी नौकरी, पेंशन लेने के बाद भी इस वृद्धाश्रम के दरवाज़े पर घण्टा बजाते है
■ लगता है लोगों को लड़ना पड़ेगा, बोलना तो पड़ेगा - जब सच के पक्ष में नही बोल सकते और फेसबुक पर लाइक चटखाने से भी डरे - वो बन्दा और कुछ भले हो - पर साहित्यकार तो नही, सवाल पूछना सबका संविधानिक अधिकार है
■ हम जानते है कि सबके गैंग है और सबके छर्रे है और मालिश करने और करवाने वालों की गैंग है - प्रगतिशील हो, जनवादी हो या पुरखों की याद में साहित्य के बहाने जुगाड़ बिठाने वाले फर्जी लोग या वृद्धाश्रम चलाने वाले तथाकथित कॉमरेड - सब एक है, मप्र की ही आदिवासी लोक कला परिषद, मप्र कला परिषद, मप्र साहित्य अकादमी से लेकर सब इस धंधे में शामिल है
■ व्यक्तिगत नही पर एक पाठक के रूप में और जब भोपाल में भी दस वर्ष रहा तो भारत भवन को नजदीक से देखा, साहित्य ही नही - हर क्षेत्र में संगीत हो या कलाओं के विभिन्न अनुशासन - क़ई वर्षों से एक गैंग देख रहा हूँ - कवियों में भी वे ही चेहरे है और कलाकारों में भी - बारम्बार, हर वर्ष, हर आयोजन में और यह देखकर लगता है मानो कोई स्थाई पद मिल गया है इन्हें
■ एक आवेदन सूचना के अधिकार में मांगिये ना भारत भवन से कि खर्च कितना हुआ, कवियों के चयन की योग्यता क्या है, क्यों इंदौर, दिल्ली, पटना या लखनऊ के वही लोग वर्षों से आ रहे है, अभी तक कितना मानदेय ले चुके है कुल मिलाकर ये लोग, मप्र के लोगों को क्यों अवसर नही दिया जा रहा, कितने दलित लेखकों को आज तक मौका मिला - यह व्यक्तिगत आलोचना नही पर एक तंत्र के तौर पर और ललित कलाओं और आनुषंगिक मुद्दों पर समझ बनाने में उपयोगी होगा
■ दूसरा, जो कहते है कि रज़ा निजी है - इसलिए नही पूछ सकते तो यह बता दूँ कि रजा फाउंडेशन एक ट्रस्ट है किसी की निजी सम्पत्ति अब नही है और वह पब्लिक फंड से बना है - जिसका आडिट भी होता है और बाकी सब भी
■ मेरा स्पष्ट मानना है कि पारदर्शिता यदि साहित्य में नही तो कोई अर्थ नही, क्यों नही लोग बोलते है, इतने कायर है तो भड़भूँजे की दुकान खोल लें साहित्यकार होने से; भोपाल की ख़ेमेबाजी का नतीजा है यह सब, भोपाल और मप्र में सबसे ज़्यादा कबाड़ा प्रगतिशीलों ने किया है मप्र साहित्य अकादमी तो चलो सरकारी है - वहाँ कभी संघी आयेंगे कभी वामी और कभी कामी पर ये जो "खुले लोग" है इन्हें क्या हो गया है, साहित्य ब्यूरोकेसी नही है जहां हायरार्की का होना जरूरी है
■ यह जानता हूँ कि यह सब लिखने से नुकसान होगा मेरा, दुश्मन वैसे ही कम नही - आज लोगों ने खुद को स्थापित करने के लिए बकौल राहुल गांधी "हम दो - हमारे दो" के मंच, प्लेटफॉर्म बना लिए है और हर दस दिन में चूतियापे करके आत्ममुग्ध रहते है, खुदा बन गए है, सोशल मीडिया ने पेज, ब्लॉग आदि जैसे सुलभ अवसर उपलब्ध करवाकर इन्हें ना जाने किस आकाश गंगा का चमकता डूबता सूरज बना दिया है, ये लोग खुद, अपने चंगू मंगू, चार - छह बंधुआ मजदूरों और दो - चार माशूकाओं के साथ नित्य कुकृत्यों में संलग्न रहते है जिसे साहित्य सेवा कहकर दुष्प्रचारित किया जाता है - हर कस्बे और शहर में आपको ये नगीने मिल जायेंगे और ऐसे घातक समय में यह सब लिखना, सवाल खड़े करना भी खतरे से खाली नही है
[ यह पोस्ट सिर्फ बौद्धिक जुगाली और चर्चा के लिए है, ज्यादा ज्ञानी इसे फ्रस्ट्रेशन भी लेबल कर सकते है, सिर्फ मुद्दों की बात करें एक विज़न के साथ, व्यक्तिगत आलोचना ना करें ]
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काश कि मेरे सहित सभी को एक - एक कूड़ादान मिल जाते तो 300-400 कविताओं को एक ही संग्रह में पेल देने वाले कवि, घटिया कहानी संग्रह, तथ्यहीन भारी उपन्यास, कभी ना पढ़े जाने वाली कचरा आलोचनाएं, विशुद्ध मूर्खताओं से परिपूर्ण फर्जीवाड़े से भरपूर शोध प्रबंध, भौंडे ढंग से लिखे गये उबाऊ और बकवास किस्म के यात्रा वृतांत, अप्रामाणिक और कॉपी पेस्ट किस्म की सनसनी फैलाने वाली घटिया किताबें - आम, वाम और काम के नाम पर नही छपती - भारत का एक चौथाई जंगल तो बचा रहता कम से कम
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Arun Dev
जी, की भीत से साभार ***
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