हम करें राष्ट्र आराधन
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एक ओर चाँद पर चंद्रयान, 104 उपग्रह छोड़ना
दूसरी ओर
न्यूटन, ग्रेविटी, मोर के आंसुओं से बच्चा, महाभारत काल मे इंटरनेट, कर्ण के समान पैदा होने / करने की तकनीक, बत्तख, गाय और ऑक्सीजन - मतलब दुनिया में ना इतने एक्ट्रीम पर रहने वाले मूर्ख ना कोई थे, ना है और ना होंगे
कम से कम चरक या सुश्रुत को ही याद कर लेते, पतंजलि को ही याद कर लेते, पण्डिता रमा बाई को ही याद कर लेते या गार्गी को ही याद कर लेते
गैलीलियो को जो चर्च ने सज़ा दी या ब्रूनो को जलाया या चर्च के आधिपत्य को ना मानने वालों के साथ अमानवीय व्यवहार किया वह कोई गलत नही था - सत्ता जब मूर्ख, उजबक, अपढ़ और अनपढ़ों के हाथ मे होती है तो वे सिर्फ ज्ञान का ही सत्यानाश नही करते बल्कि पूरी पीढ़ियों को बिगाड़ते है
यह सिर्फ इस सरकार की बात नही विप्लव देव या केंद्रीय मंत्री उदाहरण नही बल्कि यह एक श्रृंखलाबद्ध सुनियोजित कार्यक्रम और संगठन कृत दुष्प्रचार का हिस्सा है इसी देश मे हम गोबर गणेशों ने गणेश की मूरत को दूध पिलाया है और वैज्ञानिकता को धता बताई है - याद है उस समय स्व प्रो यशपाल ने कितना लिखा , समझाया था पर हम तो धर्म भीरू और भेड़ है
अभी साढ़े चार साल बाकी है इंतज़ार कीजिये ये महामना क्या क्या परिकल्पनाएँ स्थापित करते है और विलक्षणता की ऊंचाइयों को छूते है - एक ओर दुनिया भर में ज्ञान का डंका बजाने और भीख मांगने हम घूम रहे है दूसरी ओर सामान्य से कम समझ वाले मंत्री जिम्मेदार विभाग लेकर बैठे है
उच्च शिक्षा , ज्ञान, खुलापन, बहस और शोध की संभावनाएं यही निहित है - यकीन मानिए जनाब यह नया अंधा युग है और यहां चीज़े साफ़ तभी दिखेंगी जब हम सब गहन अँधेरे में होंगे
आईए स्वागत करें हम अपना ही , अपने भाल पर उन्नत टीका लगाकर
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पुढच्या वर्षी लवकर या
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'दर्द का रिश्ता' स्मिता पाटिल और सुनील दत्त की अदभुत फ़िल्म थी जिसमे देश प्रेम, चिकित्सा सेवाएं, कैंसर, बोनमेरो, और प्रेम के बीच पूरा महीन रिश्तों का तानाबाना बुना गया था, अंत में सब भला होता है और फ़िल्म आस्था और पारिवारिक मूल्यों के साथ देश प्रेम पर खत्म होती है, इसका एक गाना आजतक प्रचलित है - " मेरे मन मंदिर में तुम भगवान रहे / मेरे दुख से तुम कैसे अनजान रहे "
इस फ़िल्म को पिताजी देखने ले गए थे, अंत में उनकी आंखों में आंसू थे और बहुत भावुक मन से उन्होंने इस फ़िल्म की तारीफ़ की थी, आज यह सब सोच रहा हूँ तो याद आ रहा है सब कुछ
मराठी घरों में गणपति उत्सव एक विशेष उत्सव है जिसके लिए पूरा परिवार, पूरा मोहल्ला और पूरी संस्कृति उत्साहित रहती है - गणपति के आने से पूर्व ढेरों तैयारियां होती है और 10 दिन का यह उत्सव इतनी धूमधाम से मनाया जाता है कि विश्वास नहीं होता गणपति कोई मूर्ति है, कोई देवता है या कोई ऐसी चीज जो 10 दिन बाद खत्म हो जाएगी - गणपति की मूर्ति घर में आने के साथ साथ उन्हें विराजित किया जाता है और उनके साथ परिवार के जरूरी सदस्य के रूप में व्यवहार किया जाता है - जहां उन्हें मीठा और नमकीन का भोग तक लगाया जाता है, वही परिवार के हर सदस्य उनसे अपने मन की बात करते हैं और यह कोशिश करते हैं कि अपनी समस्याएं उनके साथ बांट सके, कह सके और सुन सके
10 दिन के बाद जब गणपति की विदाई होती है तो मन बहुत भारी हो जाता है ऐसा लगता है कि शरीर से - देह से आत्मा निकल कर जा रही है और भावुक मन से सभी बहुत भारी आंखों से उन्हें विदा देते हैं, 10 दिन का हल्ला गुल्ला और मेला ऐसे खत्म होता है जैसे जीवन से सब कुछ समाप्त हो गया - तब लगता है कि बचा क्या है
आज ऐसा ही कुछ हुआ जब मित्र प्रयास और समाधान गौतम ने अपने महाविद्यालय में हम मित्रों को बुलाया और गणपति उत्सव का समापन किया तो बहुत अच्छा लगा - हॉल में भव्य रूप से विराजित किये गए गणपति जी की आरती हुई और फिर एक भंडारा हुआ जहां पर शहर के गणमान्य नागरिक, महाविद्यालय के विद्यार्थी , शिक्षक और पारिवारिक सदस्य उपस्थित थे यह आत्मीय आयोजन इतना भव्य था कि लगा हम सब एकाकार हो गए हैं
देवास शहर में ही अपने साथ पढ़े हुए हम सात आठ मित्र हैं जिसमें से हम चार -छह लोग आज मिल पाए, कुल मिलाकर यह दिन बहुत अच्छा रहा; मन दुखी है गणपति जी की विदाई है - इन 10 दिनों में बहुत कुछ मैंने भी कहा और सुना है और कुछ - कुछ बातें हुई हैं - जिनका जिक्र फिर कभी करूंगा, अभी रुंधे हुए गले से यही कहूंगा कि "गणपति बप्पा मोरया - पुढच्या वर्षी लवकर या"
"नाना के मन में सबसे पहले यही विचार आया. हाथ की कॉपी सावरकर ने एक तरफ़ रखी और क़लम बुशर्ट में खोंसते हुए बात आगे बढ़ाई, “गाय घास भी खाती रहती है और मलत्याग भी करती रहती है. थकने पर अपने ही मूत्र और मल में पसरकर न केवल बैठ जाती है बल्कि पूँछ मारमारकर वह मलमूत्र से अपना पूरा शरीर गंदा कर लेती है. यह कैसा दिव्यजीव है जिसे स्वच्छता तक का ज्ञान नहीं और इस गौमाता का मूत्र और मल पवित्र करनेवाला और बाबासाहेब आम्बेडकर की छाया तक अशुद्ध करनेवाली है. ऐसा माननेवाले मनुष्यों की बुद्धि कितनी भ्रष्ट हो चुकी है, इसका अनुमान तुम स्वयं ही लगा सकते हो "
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दादीबाई शाओना हिलेल की जीवनी पर एक टिप्पणी
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Ammber Pandey की यह कहानी चमत्कृत करती है , इस कहानी का कथानक विशुद्ध राजनैतिक, ग्लोबल, शोषण, स्त्री और जेंडर के मुद्दों के बीच से होता हुआ मुम्बई, सावरकर और जातिवादी समाज की दुर्दांत व्यथा को चित्रित करता है
यह समालोचन पर दूसरी कहानी है एक माह बाद जो आपको एक सांस में पढ़ने को मजबूर करती है - यह पढ़ी जाना चाहिए और खासकरके उन लोगों को पढ़ना चाहिए जो बगैर श्रम किये कहानी पे कहानी पेले जाते है और उनमें एक जैसा कथानक और बिम्ब रचते है, हर घटिया अखबार और पत्रिका में छपने की भूख लिए पुरस्कारों की हवस में डूबे फर्जी और कॉपी पेस्ट लेखकों को यह कहानी पाठ्यक्रम की तरह पढ़ना चाहिये, यह अम्बर की अध्ययनशीलता, शोध का उद्यम और व्यापक वैश्विक दृष्टि, इतिहास और इस सदी की शुरुवाती उथलपुथल का व्यापक अध्ययन के श्रेष्ठ निचोड इसमें शामिल है
जियो अम्बर , तुम हर बार चमत्कृत ही नही करते , बल्कि दो बार से वीर सावरकर को लेकर जो समझ बन रही है, गाय , गौ, गोबर, गौमूत्र और गौमाता का जो आख्यान तुम वर्णित कर बड़ी समझ बना रहे हो जगत की - इस समय हिंदी के किसी लेखक में दम नही कि इस विहंगमता से अपनी बात तार्किकता और प्रमाणों से कह सकें
हिंदी कहानी में चीफ की दावत मिल का पत्थर थी, अम्बर की पिछली कहानी और इस कहानी को आप लगन से पढ़ेंगे तो समझ पाएंगे कि यह एक बड़े आंदोलन की नुमाइंदगी करती कहानी है जो आजादी के आंदोलन से ठीक पहले शुरू हुई और अब एक मोड़ ले रही है, दुर्भाग्य से अब ना कमलेश्वर है, ना राजेन्द्र यादव, ना नामवरजी या कोई शख्स जो इन दो का मूल्यांकन कर इतिहास में एक नया नाम दें - यह महज तारीफ़ नही पर ज्ञानोदय में छपी कहानियों के बरक्स कह रहा हूँ और बाजदफ़े नाराज भी होता हूँ कि हमारे कहानीकार क्या कचरा लिखते है और सस्ते पुरस्कार भी पा जाते है जुगाडमेन्ट से
अरुण देव जी का शुक्रिया कि यह साहस समालोचन में है कि इतने बड़े फलक और समयांश पर फैली कहानी को जगह दे रहें हैं
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