बहुत याद आते है वे शिक्षक
पुराने राजवाड़े में स्कूल लगा करता था जिसकी दीवारें जर्जर हो चुकी थी और छतों से टपकता हुआ पानी उन दीवारों पर कंजी की एक मोटी परत बना देता था,आठ दस पुराने कमरों में सिमटा हुआ स्कूल, बहुत पुरानी टाट पट्टियां, शिक्षकों के लिए रखी हुई लकड़ी की कुर्सियां अपनी दास्तान अनूठे अंदाज में कहती थी पर जो लगाव, प्रेम और अपनत्व शिक्षक और छात्रों के बीच में था वह अद्भुत था। उन दिनों कक्षा की सफाई करते हुए हमें कभी झिझक महसूस नहीं हुई और घर से पीतल का लोटा माँझकर कर शिक्षकों को पानी पिलाना मानो हमारी दैनिक दिनचर्या का एक हिस्सा ही था और शिक्षक इस बहाने बच्चों के घरों से सीधे जुड़े होते थे - कोई फर्क नहीं पड़ता था कि वह पानी अखलाक के घर से आ रहा है , कैलाश के घर से या धर्मेंद्र के घर से - उन्होंने कभी नहीं पूछा अखलाक, कैलाश या धर्मेंद्र के माता पिता क्या करते हैं, उनकी जाति क्या है ।
हेड मास्टर पठान साहब सफेद झक पायजामा कुर्ता पहन कर और काली टोपी लगा कर आते थे और जब रसखान कृत कृष्ण लीला पढ़ाते "खेलत खात फिरे अंगना, पग पैंजनी बांध पीरी कछोटी, काग के भाग बड़े सजनी हरि हाथ से ले गए हो माखन रोटी" इसको पढ़ाते - पढ़ाते कृष्ण का इतना सुंदर वर्णन करते थे कि बरबस ही कृष्ण का बाल रूप पूरे जीवन के लिए आंखों में समा गया और एक पौराणिक चरित्र को हमने जीवित मान लिया। पठान साहब जब रहीम या कबीर को भी पढ़ाते उनके दोहे समझाते तो लगता था यह स्कूल कभी खत्म ना हो और जीवन की पाठशाला रहीम, कबीर, रसखान ,दादू , मीरा में ही बनी रहे और हमेशा चलती रहे।
मानसून के मौसम में सावन के सोमवार,आंवला नवमी , आषाढ़ी पूर्णिमा, गुरु पूर्णिमा , शिक्षक दिवस ,मुहर्रम, गणेश चतुर्थी यह सारे दिन ऐसे गुजरते थे मानो जीवन का असली मजा और उद्देश्य इन दिनों के आयोजन और इन्हें सार्थक करने में ही निहित है। घर में दादी से लेकर मां , मौसी , मामी चाची , बुआ सब शिक्षकीय व्यवसाय में थे इसलिए शिक्षा का जगत वह अपना सा और नितांत करीबी भी लगता है, लगता था जैसे शिक्षा, शिक्षक और जीवन बस इसी में घर आंगन और दुनिया बसती है।
यही वह जादू था जिसने पढ़ने के लिए, पढ़ाने के लिए एक समझ विकसित की और धीरे - धीरे किताबों की बड़ी दुनिया से नाता जोड़ा, अक्षर शब्द का मतलब तो बहुत बाद में समझ में आया जब साक्षरता अभियान में काम करने का निश्चय किया - अक्षर मतलब जिसका क्षरण ना हो सके कभी। सफदर हाशमी की कविता "किताबें करती है बातें" जब पढ़ी तो लगा कि किताबों का कितना बड़ा संसार है और यह संसार कितना भी बड़ा हो जाए उन्हें शब्दों और वर्णों में समेट कर समझा जा सकता है ।
हम लोगों के साथ पढ़े हुए कितने ही मित्र हैं जो आपस में मिलने पर सबसे पहले बातचीत की शुरुआत अपने शिक्षकों को याद करके ही करते हैं कि अज़ीज़ सर कहां हैं, शंकर लाल पंवार का क्या हुआ, राठौड़ मैडम कब गई , सहगल सर इन दिनों कहां है या निंबालकर मैडम की तबीयत बहुत खराब रहती है कभी चल कर देख आते हैं । स्कूल के शिक्षक हो या हायर सेकेंडरी स्कूल के या इस डिजिटल युग में जुड़े कॉलेज के शिक्षक आज भी उनके साथ बहुत सहज तरीके से बातचीत होती है, सोशल मीडिया पर उनसे नोकझोंक होती है और लगातार सीखते रहते हैं। परंपरा यह भी है कि हम लोग आज भी अपने शिक्षकों से मिलने शिक्षक दिवस के दिन उनके घर जाते हैं । आज मेरी एक छात्रा से बात हो रही थी जिसे मैंने 1987 - 88 में पढ़ाया था तो उसने कहा कि " मुझे याद है परीक्षा में मूल्यांकन के दौरान आपको जो पहली बार ₹ 20 मिले थे उससे आपने गर्मियों में हम सबको ककड़ी खिला दी थी पर आज हम लोग जब ड्यूटी देने जाते हैं और जो ₹ 90 पाते हैं तो वह हम बहुत सहेज कर वापस ले आते हैं - किस तरह से चीजें 20 सालों में बदली है यह अब हम देख पाते हैं " मेरे कई छात्र हैं जो आज यहां वहां बड़े पदों पर काबिज हैं वह कहते हैं कि निश्चित रूप से आपका शिक्षण बहुत अच्छे गुरुओं ने कराया होगा तभी आपने हमें एक खुला माहौल, सीखने के मौके और बराबरी से चर्चा करने के अवसर कक्षा में दिए - मत भिन्नता होते हुए भी छात्रों को बराबरी का माना और अपने हिसाब से विषय चुनने से लेकर विकसित होने की छूट दी तभी आज हम जीवन के क्षेत्र में अच्छा परफॉर्म कर रहे हैं।
बचपन से शिक्षकों को एक अलग संदर्भ और मायनों में हमने देखा, सीखने की ललक नया कुछ कर पाने की छूट और बराबरी से बातचीत करने का जो मौका हमें मिला था वह दुर्भाग्य से आज के पूरे परिवेश में और शैक्षिक जगत में लगभग नामुमकिन है बहुत सारी सुविधाएं होने के बाद भी, बहुत सारा डिजिटलाईजेशन, महंगी फीस, महंगी पाठ्य सामग्री , महंगे उपकरण, बड़ी प्रयोगशाला है , बड़े खेल के मैदान , बड़े-बड़े पुस्तकालय और बसों की सुविधाएं होने के बाद भी क्या कारण है कि आज शिक्षक और बच्चों के बीच "कनेक्ट" नहीं है ।
सितंबर माह गणेश उत्सव का भी माह है जो त्योहारों की शुरुआत का प्रतीक है हम सब जानते हैं कि आजादी के आंदोलन को पुख्ता करने के लिए लोगों को एकत्रित करने के लिए लोकमान्य तिलक ने इस उत्सव की शुरुआत की थी आजादी के 73 वर्षों बाद यह त्यौहार मनाया जा रहा है - यह निश्चित ही शुभ है परंतु क्या अब यह लोगों को एकत्रित कर रहा है ? हर गली मोहल्ले में गणेश उत्सव मनाया जा रहा है और लोग बंट रहे हैं , मोहल्लों के नाम से अब समाज , जाति धर्म का अंदाजा लगाया जा सकता है । यह दुर्भाग्य है कि जिन चीजों को धीरे-धीरे खत्म होना था वह चीजें बढ़ते - बढ़ते इतनी बढ़ गई हैं कि अब लगता है इन्हें समाप्त कर पाना मुश्किल होगा । बहुत बड़ा दायित्व हमारे शिक्षा जगत पर है - यदि हम अभी भी सुधर गए और समझ गए तो हम देश को सच में एक नए विकसित आकार में ढालकर असली का देश बना सकते हैं - आज हमें एक राधाकृष्णन की नहीं लाखों-करोड़ों राधाकृष्णन की जरूरत है जो देश के कोने कोने में जाकर कर "सा विद्या या विमुक्तते" की बात को लोगों तक पहुंचा सकें
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