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Girish' s Birthday and Other Posts - Seminar of Universities etc Posts of Sept 2019 I and II Week

Image may contain: Girish Sharma, smiling, outdoor and nature

अढाकू और पढ़ाकू गिरीश को जन्मदिन की बधाई
मित्र , अनुज और जानदार शख्स है गिरीश, खूब पढ़ते है - हिंदी, अंग्रेज़ी, उर्दू और फ्रेंच और हम इनका भेजा कुछ पढ़ना शुरू करते ही है कि नया लिंक, पीडीएफ वाट्सएप में टप टप टपकने लगता है फिर पढ़ो और प्रतिक्रिया दो और इतनी विविधता सामग्री की - आप भौचक रह जाएं कि कहाँ से लाता है यह बन्दा इतने सन्दर्भ और फिर बहस, तार्किक चर्चा और अंत में सहज भाव से सब कुछ जज़्ब कर लेना
काम और सिर्फ काम के प्रति प्रतिबद्धता और दोस्तों के लिए जान हाजिर, लंबे समय से दोस्ती है और आज जब दस साल की इस यात्रा को देखता हूँ तो लड़ाकू का विशेषण जरूरी लगता है जोड़ना - क्योकि लड़ाई सिर्फ लड़ाई नही - वह उसूलों की जियादा है बजाय कोई मूर्त लड़ाई के और वहां लड़कर ही गिरीश ने मकाम हासिल किया है और अपने आसपास के सर्कल में ही नही - बल्कि वृहद रूप में एक रोल मॉडल भी स्थापित किया है - इस पूरी सियाहत का, यंत्रणा और हिम्मत का साक्षी रहा हूँ , निष्पक्ष भाव से मैने समझने की कोशिश की है और क़ई निर्णयों में शामिल रहा हूँ इसलिए हम कुछ दो तीन लोग बहुत करीब है और गूंथे हुए से है
मैं मुतमईन हूँ कि आने वाले वर्ष और भी धीर गम्भीर होने वाले है और वे अपना श्रेष्ठ अभी देंगे
गिरीश को जन्मदिन की बधाई, स्वस्तिकामनाएं एवं बहुत स्नेह और दुआएँ
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हर साल की तरह आज भी वे तुम्हें गुरु, ज्ञान, देश निर्माता आदि की सूली पर लाकर ज़िंदा ही टांग देंगे - हार, फूल, माला, तिलक, घटिया शाल और अंदर से सड़े नारियल के साथ घटिया कागज़ का चरित्र प्रमाणपत्र भी पकड़ा देंगे - ठंडे समोसे, सात चिप्स और नकली मावे की मिठाई के साथ
भाषणों में गोली देकर तुम पर इमोशनल अत्याचार करेंगे, राधाकृष्णन से तुलना कर तुम्हे नीच साबित करेंगे जिसने कभी कही नही पढ़ाया, तुमसे समर्पण मांगेंगे और तुम्हारी दरिद्रता का मजाक उड़ाकर आज महान साबित करके ही छोड़ेंगे
पर तुम स्थाई नियुक्ति, सातवें वेतन आयोग का नियमित वेतन, क्रमिक पदोन्नति और बराबरी पर अड़े रहना
शिक्षक दिवस कुछ नही होता, शिक्षक को रोज प्रसव पीड़ा सहना पड़ती है ताकि गंदे बजबजाते समाज मे, नालायक होते जा रहे, स्थापित हो चुके भ्रष्टाचार, अश्लीलता, गुंडे मवालियों के अड्डे बन चुके स्कूल, कॉलेज और विश्व विद्यालयों में अपनी आबरू छुपाती वाग्देवी और पतित होते जा रहे मूल्यों के बीच अपनी इज्जत बचाकर रोज शाम बापड़ा घर आ जायें वही शिक्षक का पारितोष एवं प्रतिफल है
"अशिक्षक दिवस" की कोई बधाई नही
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चाँद का मुंह टेढ़ा है जनाब
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हिंदी विवि वाले कितने दिनों तक केदारनाथ, मुक्तिबोध, वीरेन डंगवाल, निराला, प्रेमचंद, से लेकर बाकी सब पर सेमिनार करते रहेंगे और जनता का रुपया बर्बाद करते रहेंगे - अपने यार दोस्तों को , जातिवादी संगी साथियों को बुलाकर ऐयाशी करना शिक्षा के नाम पर धब्बा है, भारत जैसे गरीब मुल्क में इस पर प्रतिबंध लगना चाहिये, ऊपर से दुर्भाग्य यह होता है कि विभागों की घटिया राजनीति और प्राध्यापकों का भेदभाव, मनभेद, मतभेद और झगड़े बहुत साफ़ रूप से सामने आते है और सबके सामने पोल खुलती है बुरी तरह से
यूजीसी से रुपया ऐंठकर ये लोग सेमिनार के नाम पर एक माह तैयारी करते है, फिर फ्लाइट टिकिट, गेस्ट हाउस, होटल, अध्यक्ष, अतिथि, हर सत्र के जजमान और यजमान अलग, मेहमान, वक्ता, संचालक , आभार मानने वाले अलग और सुनने वाले शहर के दो चार चुके हुए बूढ़े उम्र के अंतिम पड़ाव पर आ चुकी औरतें जिन्हें सुनाई नहीं देता और हाथ पकड़कर सभागार में खींच कर लाना पड़ता है और कुर्सियों पर भीड़ बढ़ाते मास्टरों के शोधार्थी जो बेचारे पानी पिलाने से लेकर फोटो खींचने और फेसबुक तक रिपोर्ट पेलने का काम करते हैं , सेमिनार के बाद एक माह फिर सब सस्पेंड रहता है दो माह की पढ़ाई लिखाई बर्बाद कर देते है और बाकी समय दूसरे सेमिनारों में घूमते रहो
इन सेमिनारों में लीचड़ सम्पादकों, निकम्मे और चुके हुए रचनाकारों और शहर भर के टुच्चे तथाकथित साहित्यकारों की पौ बारह हो जाती है कि मुफ्त का भोजन, जबरन का मंच और अपनी ना बिकने वाली घर में पड़ी रद्दी जो खुद की ही लिखी होती है सबको बांटने का मौका मिल जाता है , लोकल अखबार के रिपोर्टर भी आकर "पान पट्टी" मुफ्त में खा जाते है और कुछ एक दो हजार भी लूट ले जाते है - माटसाब से न्यूज़ छापने के नाम पर, इस अवसर पर निकली स्मारिकाएँ तो तेरहवीं का शोक पत्र लगती है
शाम के समय में निंदा पुराण रस में लिप्त होकर शराब के दौर चलते हैं और यहां वहां के रिक्त पदों , पीएचडी की सीट पर बातचीत और कुलपतियों की शामत होती है तू कब सेमिनार कर रहा है , मुझे कब बुला रहा है तेरी पत्रिका में लेख छपा कि नहीं, मेरी पत्रिका में लेख कब भेजेगा , थोड़ा आसपास घुमवा दो , थोड़ा जल्दी जाना है ट्रेन का टिकट कैंसिल करके फ्लाइट करवा दोगे तो ज्यादा बेहतर होगा
इस तरह की बातचीत से यह सेमिनार खत्म होते हैं इनकी क्या उपयोगिता है कोई नहीं जानता सिवाय बकवास के कुछ नहीं होता यह बताओ कब तक केदार, रसखान, कबीर, मीरा, मुक्तिबोध , निराला, महादेवी प्रेमचंद और तमाम उन लोगों पर बकवास किए हुए सदियों से लिखे पर्चे पढ़ते रहोगे और शोध भी नया कुछ कर पा रहे हो - बस वही उपन्यास , कहानी, कविता में राजनीतिक , सामाजिक यथार्थ, महिला चरित्र , आलोचना, सौंदर्य और इसके अलावा है क्या
इन सेमिनार्स में युवा मास्टर प्रमाणपत्र लेने आते है ₹ 2000 देकर और शोधार्थी जेब से किराया भाड़ा देकर सेमिनार का उपस्थिति प्रमाणपत्र लेने ₹ 500 से 800 तक जमा करके बापड़े तीनों चारों दिन सबके पाँव ही पड़ते रहते है कौन ठरकी किस पैनल में फंस जाए और बदला लेने पर उतर जाएं और इस बहाने वो नई नवेली युवा शोधार्थिनो को या महिला प्राध्यापकों को ताक कर 500 या 800 वसूल लेते है
बेचारे बच्चे भी तंग आ गए हैं तुम्हारी बकलोली से पर वे करेंगे क्या - उन्हें तो झेलना ही है , कुछ भी हो जाए - क्योंकि डिग्री भी लेनी है और बाद में कहीं कॉलेज के लिए सिफारिश भी लगवानी है विश्वविद्यालयों में सेमिनार के नाम पर जो कचरा इकठ्ठा होता है साल भर तक उसे तुरंत प्रभाव से बंद किया जाना चाहिए - यह सिर्फ आपस में मिलने जुलने के अड्डे विकसित करने का तरीका है और कुछ नहीं, जिस तरह से लाखों रुपए बर्बाद होते है एक सेमिनार में उसका आउट पुट शून्य होता है कितने छात्र या मास्टर है जो हिंदी के केदारनाथ अग्रवाल या निराला या प्रेमचंद बन पाए
विज्ञान तकनॉलाजी में कम से कम नई समाजोपयोगी खोज और तार्किक बातें तो होती है वहाँ भी कचरा और नगीने बहुत है पर हिंदी अंग्रेज़ी में नमूने बहुत है फेसबुक पर ही टटोल लीजिये एक जाति के , एक वय के और एक गुट के प्राध्यापक आपको हर जगह नजर आ जाएँगे और मजाल कि इस गैंग में कोई महिला, दलित या अन्य प्राध्यापक दिख जाए यहां तक कि संचालन और आभार से लेकर गीत या सरस्वती वंदना गाने वाले भी इसी गैंग के सक्रिय सदस्य होते है
[ नोट - इस पोस्ट पर ना लाइक होंगे ना कमेंट क्योकि यहां बोलकर कोई अपने खुदा की गुडबुक से अलग होना नही चाहेगा - बहरहाल, अपुन तो साफ बोलेगा किसी को बुरा लगें तो लगें - दो रोटी ज़्यादा खा लेना ]
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स्कूल के हिंदी मास्टर -फ्रस्ट्रेशन के पूरक
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हिंदी का ज्ञानी, किसी भी विवि से पढ़ा हो और कुछ लिखने पढ़ने में रुचि हो ऊपर से अलेस, प्रलेस या जलेस के झंडे उठाता हो एवं रोज़गार के नाम पर स्कूल शिक्षक बन जाता है तो उसका विवि या महाविद्यालय में ना होने के फ्रस्ट्रेशन में जीवन नरक बन जाता है और फिर वह हर किसी को पेलना शुरू कर सबका जीवन नरक बना कर ही छोड़ता है
ये हिंदी के स्कूल मास्टर ना नेट , ना जेआरएफ और ना पीएचडी - पर ख्वाब विवि में हिंदी के आचार्य, मठाधीश या यूजीसी के हेड बनने के होते है, दर्जनों युवा मित्र भी है और ऐसे भी जो पीएचडी करके बैठे है - नवोदय और केंद्रीय विद्यालय में या राज्य सरकारों में चयनित हो गए पर नही गए क्योकि विवि में पढ़ाना है जीवन मे
उम्र में 38 - 40 के हो गए -शादी ब्याह हुआ नही, गाइड की चिरौरी करते हुए उम्र बीत गई, माया मिली ना राम, और जो मजबूरी में स्कूल में घुस गए जैसे तैसे या जुगाड़ से - अब अपने फ्रस्ट्रेशन से गर्दा मचाये है - साहित्य, शिक्षा, पत्रकारिता, विदेश नीति से लेकर संस्कृति तक यानी हर जगह उंगली करते रहते है और बस स्वर्ग से एक उंगल दूरी पर ही है - पढ़ाने के अलावा सारी बकर करेंगे और हर समय स्कूल के बाहर रहने को लालायित रहेंगे
जहाँ नही बोलना - वहाँ भी पेल आते है - लम्बा चौड़ा और कुछ चुके हुए चौहानों और मिसफिट साहित्यकारों और बूढ़ा गई थकी मांदी औरतों के चक्कर में स्वयम्भू कवि, आलोचक , कहानीकार या सम्पादक भी मानने की धृष्टता कर बैठते है
प्रभु इन्हें मुआफ़ मत करना - ये सब जानबूझकर कुंठित होकर कर रहे है भारी षड्यंत्र के तहत
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विश्विद्यालयों में अब परीक्षाएं कम्प्यूटर पर ऑन लाईन होना चाहिये, शुरुवात देवास के लीड कॉलेज से हो और यहाँ पर्याप्त मात्रा में कम्प्यूटर देकर यह शुरू हो, आजकल मोबाइल पर भी युवा तेजी से लिख लेते है, इसलिए ऑन लाइन हो और यह शीघ्र आरम्भ की जाएं
परीक्षाओं के प्रश्न ऐसे हो कि छात्रों को सतत पढ़ना ही पड़े या किताबें टटोलना पड़ेगी, नकल रुकेगी, कागज़ बचेगा और समय पर सब काम सम्पन्न होंगे
दिक्कत यह भी हो रही कि हाथ से लिखना अब मुश्किल होता जा रहा है, लंबे लंबे प्रश्नों के लंबे लंबे प्राचीन काल से चले आ रहें बकवास किस्म के प्रश्न मजबूरी में लिखना पड़ता है, कॉपियां जांची नही जाती और पन्ने गिनकर नम्बर दे दिए जाते है - गधे घोड़े एक समान हो जाते है , दो ढाई लाख प्रति माह कमाने वाले प्राध्यापक भी जरा दिखाए तो सही कि वे कुछ कर सकते है - बाबा आदम के ज़माने से चले आ रहें बकवास प्रश्नों को छापकर मुक्त हो जाते है 2 - 4 माह में भी जांचकर नही देते कॉपियां और छात्रों का जीवन बर्बाद कर देते है
#विक्रमविवि_उज्जैन में इसी घटियापन के कारण डेढ़ साल में एक सेमिस्टर हो रहा है तीन साल की डिग्री छह साल में हो रही और प्राध्यापक है नही महाविद्यालयों में, अतिथियों के भरोसे ठेके पर काम हो रहा है, कॉपियां जांचने के नाम पर विशुद्ध मक्कारी होती है - कॉपियां जांची ही नही जाती बस मनमर्जी से अंक बांटे जाते है, विवि को परीक्षा फीस वसूलना है और कॉलेजेस को फीस से जेब भरना है, जनभागीदारी वाले कभी आकर नही देखते कि कॉलेज के हाल क्या है अकादमिक हो, प्रशासनिक या अध्ययन अध्यापन के - जनभागीदारी समिति में राजनैतिक पिठ्ठू भरना बन्द करें पहले और अकादमिक लोगों को रखें जो अनुश्रवण और मार्गदर्शन कर सकें बजाय निकम्मे और अपने लोगों को रोज़गार देने के
इस सबका हल एक ही है अब नियमित परीक्षाएं ऑन लाइन ली जाएं - माननीय मोदी जी बहुत डिजिटल इंडिया की बात करते है तो अब यह काम भी करें ताकि सिर्फ बातें ना हो बल्कि क्रियान्वयन में भी दिखें
मप्र शासन के युवा तेजस्वी मंत्री भाई जीतू पटवारी जी इसकी पहल करें और पाइलेट के तौर पर देवास से आरम्भ करें जहां के वे प्रभारी मंत्री है
आशा है विचार होगा इस नवाचार पर -जवाब अपेक्षित है जिम्मेदार लोगों से
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उन दिनों छग में एक प्रोजेक्ट कर रहा था फील्ड वर्क करके दूर दराज़ के जिले सुकमा से होटल में आया ही था कि खबर मिली कि बिनायक के घर छापा पड़ा है तो वहां पहुँचा, मालूम पड़ा कि इलीना और बिनायक सेन के सूर्या अपार्टमेंट वाले घर से रायपुर में भी हजारों क़िताबें प्रशासन ने जप्त की, गाड़ियों में भरकर ले गए - जो दोनो ने जतन से दुनिया भर से खरीदी थी, बाद में पता नही वो कौन अधिकारी ले उड़ा - कोई या तो गंवार होगा इन माननीय की तरह या क़िताबी कीड़ा आय ए एस या आय पी एस रहा होगा या इनकी किसी की बीबी जो कवि टाईप होगी
शायद तीन साल पहले साथी सीमा को दिल्ली पुस्तक मेले से गोर्की और लेनिन खरीदने पर परेशान किया गया था और नक्सलवादी साहित्य कहा गया था इसे
जाहिल गंवार लोग हर जगह बैठे है सिर्फ न्यायपालिका में नही या वो एकमात्र जज नही
अपने कॉलेज में अभी एक प्रतियोगिता में मैंने अनुपम मिश्र का नाम पूछा, उनकी क़िताब "आज भी खरे है तालाब" का पूछा, नर्मदा पर बना पुनासा बांध किस राज्य में बना है पूछा, विक्रम सेठ, अरुंधति रॉय, अरुणा रॉय, नंदिनी सुंदरम, प्रभाष जोशी, दिलीप पडगांवकर, प्रणव रॉय - यहाँ तक कि तसलीमा नसरीन भी नही मालूम - विधि के तीनों साल के एक भी विद्यार्थी जवाब नही दे पाए - बाकी को छोड़ दो, ये सब 23 से ऊपर के है , ग्रेज्युएट या मास्टर डिग्री करके आये है - अब क्या कहूँ अपने ही बंधु बांधव है सब
कभी कभी आप ही गला घोंटके या फांसी लगाकर आत्महत्या करने को जी चाहता है , पिछले दिनों एक विधि प्राध्यापक ने कहा था कि मदर टेरेसा पंजाबन थी- जिंदगी भर मुंबई में काम करती रही और जब उसकी हत्या चर्च में हुई तो उसे ईसाई घोषित कर दिया, अब बताइए क्या किया जाए और यह सब पढ़े लिखे लोग हैं पीएचडी तक - इनका अचार डाले या मुरब्बा बनाकर आयात निर्यात कर दें
शर्म आती है कि हम पढ़े लिखे लोगों के साथ कार्यपालिका मेंं काम करते हैं - न्यायपालिका भी वैसी है और विधायिका तो छोड़ ही दीजिए - रहा सवाल मीडिया का तो वहां मटेरियल बहुत है
अपनी कुछ दस बीस हजार किताबों को अब समुद्र में जाकर डूबो आना होगा या लोहे के पर्दों में छुपाकर रखना होगा शायद - साला मृत्युंजय हो या पुनरुत्थान, अपराध और दण्ड हो या प्रेमी प्रेमिका संवाद , पाश हो दुष्यंत या गोरख पांडेय सब दिखती है , चे गवारा हो या चैपलीन, परसाई या मुक्तिबोध रचनावली, जितेंद्र श्रीवास्तव हो या विष्णु खरे या वीरेन डंगवाल या सुभाष पंत - पता नही भर्ती कैसे हो जाती है इनकी बड़े पदों पर और इन्हें खाना पच कैसे जाता है, बगैर पढ़े नींद कैसे आ जाती है महान लोगों को
स्व सफ़दर हाश्मी आज होते तो लिखते, गाते और कहते कि " पढ़ना लिखना सीखो, ओ मक्कारी करने वालो, दिमाग़ लगाना सीखो ओ ज्ञान बाँटने वालों ...."
अबे ओये गायतोंडे - हरामी, साले - सल्फास है क्या बै
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