देवास जैसे शहर में रोज सुबह यह कचरा दो से तीन लाख लोगों तक अखबारों के माध्यम से पहुंचता है , अमूमन 8 से 10 पर्चें रोज़ आते है अखबारों में और हम अखबार उठाकर झटक देते है और इन विज्ञापनों को उठाकर गोला बनाकर डस्टबीन में स्वाहा कर देते है
कितने लोग पढ़ते है, कितना मार्केटिंग का फायदा होता है इन जैसे ब्रोशर, लीफलेट या पैम्फलेट्स से जो 20 से 140 जीएसएम कागज़ पर बांटे जाते है
इन पर प्रतिबन्ध लगना चाहिए क्योंकि पेड़ ही कट रहें हैं ना और पानी से लेकर बाकी सब मुद्दे तो है ही
कौन जिम्मेदारी लेगा और कौन लगाएगा प्रतिबंध
क्या कोई वन अधिकारी, जिला कलेक्टर, मंत्री, सांसद, विधायक या राज्य सरकार मर्दानगी दिखाएगी
बेहद दुखद है, जरा बताईये आपके यहाँ कितना कचरा आता है, कितना पढ़ते है इन्हें और कितना सामान आपने खरीदा या आई वी एफ करवाया या इस जैसे विज्ञापन प्रेमी मानसिक रोगी डाक्टर से मिलें या प्लाट खरीदें
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FCRA के नाम पर जमीनी काम करने वालों को पिछली सरकार ने बहुत प्रताड़ित किया और इसकी वजह से वो लोग जो इन एनजीओ में काम करते थे - बिल्कुल अनपढ़ थे, समाज के एकदम हाशिये पर पड़े लोग थे और एनजीओ में काम करके दो से सात आठ हजार प्राप्त कर दूर दराज के गांवों में परिवार चलाते थे, अचानक बेरोजगार हो गए
एनजीओ वह पांचवा क्षेत्र था जो अति शिक्षित से लेकर एकदम अनपढ़ों को रोजगार उपलब्ध करा रहा था जिससे सरकार के ही फ्लैगशिप कार्यक्रमों के प्रति जागरूकता भी बढ़ रही थी बल्कि असली हितग्राहियों तक योजनाएं भी पहुंच रही थी
आज एक बड़ी जनसंख्या सरकार की वजह से बेरोजगार हो गई और सरकार का डाह यह है कि एनजीओ को जो लाख से करोड़ रूपया सालाना मिलता था वह हमारी विचारधारा के लोगों और संस्थानों को मिलें और हमें नही तो किसी को नही, पर सवाल यह भी था कि अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं दंगों, गाय, गोबर, गौमूत्र के लिए अनुदान नही देती और यह अनुदान लेने के लिए भाषाई दक्षता, अँग्रेजी और प्रबंधन में कुशल होना जरूरी है जो जाहिर है इन लोगों में शून्य है
इसके विपरीत एनजीओ ने भी इस तरह के रुपयों का दुरुपयोग किया , 100 डॉलर का अनुदान यदि किसी बच्चे के नाम आया तो उसे 100 रुपये देकर पारदर्शिता के प्रमाणपत्र भी प्राप्त किये और महान बनें है अब इनको भुगतना तो पड़ेगा ही - कब तक आप शोषण करते रहेंगे और अस्सी लाख से लेकर एक डेढ़ करोड़ के घर खरीदेंगे, दफ्तर खरीदेंगे, खेती और तमाम विलासिता की चीजे खरीदेंगे, अपने घर, महंगी गाड़ियां और जमीन खरीदकर संस्थाओं के ओव्हर हेड निपटाते रहेंगे और धनपति बनेंगे - ऊपर से खादी के झब्बे और अंदर से जॉकी - यह तो नही चलेगा ना जनाब, गांव नही जाएंगे पर विदेशों में माह में 3 बार हो आएँगे ,माह में 10 से 15 दिन दिल्ली भोपाल पटना में पड़े रहेंगे थ्री स्टार होटलों में मुर्गा चबाते हुए - वो भी इन्हीं गरीब गुर्गों के नाम पर
इंदौर के ही कई एनजीओ को जानता हूँ जो 15 % देकर काम कर रहें है, जापान या अन्य देशों के यूरो से बड़ी बड़ी बिल्डिंग तान दी, थोड़े दिन दफ्तर का नाटक चलाया और अब निजी सम्पत्ति है, करोड़ो की जमीन हड़फ कर बैठे है , भोपाल में कइयों को जानता हूँ जो लाखों का हेरफेर करते है, पांच - पांच करोड़ की बिल्डिंग दस दस बीघा जमीन पर बनाएं बैठे है और भोपाल से रीवा सतना तक निजी कार लेकर जाते है या साल में दस बार विदेश घूमते है , छग में अपनी पीएचडी का खर्च तक प्रोजेक्ट में जोड़ने वाले या जोहान्सबर्ग में बार बार जानेवालों को जानता हूँ - क्या कीजै इनका
कैलाश सत्यार्थी से लेकर पदम् भूषण पाने वालों की बड़ी श्रृंखला है जो पानी से लेकर, एड्स, कंडोम प्रमोशन, महिला उत्थान, किशोर एवम युवा विकास, शिक्षा स्वास्थ्य, आदिवासी विकास और संडास तक मे गले गले डूबकर कमा खा गए और आज ज्ञानी बनकर दलाल बने हुए है
सरकार ने पिछले 5 सालों में हजारों एनजीओ का FCRA कैंसल किया है, और अभी नई सरकार बनें एक - दो माह हुए ही है और पुनः बदला लेने की घातक प्रवृत्ति शुरू हुई है , आज इंदिरा जयसिंह और आनंद ग्रोवर के घर जो हरकतें मात्र 13 लाख के लिए की है वह घटिया सोच और टुच्ची मानसिकता का द्योतक है जबकि कितने लोग अरबों रुपये लेकर आपकी निगाहों के नीचे से विदेश भागे है और आज तक कुछ नही कर पाएं है
एनजीओ को इसका विरोध करना चाहिए और इन तानाशाहियों का जवाब भी देना चाहिए
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130 करोड़ लोग निराश हो जाएं बाजारवाद, क्रिकेट और खेल परिणामों से यह तो अति है , 10 -12 लोगों की व्यक्तिगत अच्छाईयों और कमियों से देश नही चलते - इतिहास गवाह है इस बात का और ठीक इसके विपरीत यह भी बात है कि एक दो लोग ही सभ्यताओं को डुबोने के लिए पर्याप्त होते है
बहरहाल
काश इतना कन्सर्न देश के शोषित, पीड़ित जो बड़ा तबका है, के लिए होता तो हमें आज मनोरंजन और राष्ट्रीय पहचान के लिए अंतरराष्ट्रीय कम्पनियों के हाथों बिके खिलाड़ी और कठपुतलियाँ बने इन 15 -20 लोगों के परफॉर्मेंस पर निर्भर नही रहना पड़ता
सोचिए, कितने लोग राष्ट्रीय समय तो दूर, अपने जीवन का महत्वपूर्ण रचनात्मक समय बर्बाद कर रहें हैं
ख़ैर, नो ज्ञान - नो हिंदुस्तान
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The Shawshank Redemption
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इस फ़िल्म में टीम रॉबिन्सन का अभिनय उत्कृष्टता की सीमा है और मोर्गन फ्रीमैन की अदभुत आवाज, अभिनय और व्यक्तित्व है बन्दे का
यह अदभुत फ़िल्म है जिसमे षड्यंत्रों के साथ मानवता को दर्शाने वाली कहानी है
जितनी बार इसे देखता हूँ मन को छू जाती है यह और बार बार 1940 के दिनों के जेल, बर्बरता, अमानुषिक अत्याचार, बेईमानी, भ्रष्टाचार , धर्म के आडम्बर में रुपया कमाने और कैदियों के साथ किये जाने वाला दुर्व्यवहार पर इस सबके बाद भी एक व्यक्ति की काबिलियत और धैर्य से किये जाने लंबे समय तक याद रखने वाले कार्यों पर आस्था जगती है
इस फ़िल्म को जरूर देखिए
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ऊपर से ज्ञानी बनकर बकलोली अलग
मजेदार तब होता है मुफ्त की दारू और दिन दहाड़े रुपये वसूलने वाला पुलिसिया साहित्यकार नैतिकता पर ज्ञान देता है
भ्रष्टाचार में रंगे हाथ पकड़े गए लोग गरीब बेबस लोगों की कहानियां लिखकर लखटकिया पुरस्कार प्राप्त करते है
दलितों से हाथ मिलाने में परहेज करने वाले यही सरकारी लोग दलित उत्थान के नित नए तरीके कहानी कविता में परोसते है
ब्लॉग बनाकर लॉलीपॉप देने वाले भी बहुत है युवा लड़कियों की घटिया कविताएं सरकारी टाईम में अपने ब्लॉग पर चैंपकर ब्लॉग को शेयर करने की चिरौरी करने वाले भी है
कभी नौकरी पर नही जाएंगे और घर पर कविता कहानी का पापड़ बड़ी उद्योग लगा रखेंगे आधे घण्टे में उपलब्ध करवा देने वाले ये सरकारी तनख्वाह हर माह बोनस स्वरूप लेते है
घर के खर्चे नही चलते , आधी जिंदगी उधार पर गुजार दी, दस बीस से लेकर हजारों की देनदारी बाकी है पर कोई बुलाये कविता कहानी सुनाने और बात करने तो हवाई यात्रा के टिकिट मांगते है
बेशर्म है ये लोग नीच से ज्यादा नीच
[ हिंदी के तथाकथित बड़े कवि यहां रायता ना फैलाएं कि फ्रस्ट्रेशन है वे खुद एक बार अपनी हैसियत भी देख लें जिसे हिंदी में औकात भी कहते है ]
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ये जवाब है देवेश पथ सरिया को एक काल्पनिक हिंदी के महानतम सम्पादक की ओर से
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मत बताओ उसका नाम क्या फर्क पड़ता है
मत लिखो, मत भेजो क्या फर्क पड़ता है
कोई चावल लेकर नही आता कि लिखो और हमें दो
तुमसे ज्यादा लिखने वाले चरण रज पीने वाले है जो छापने का रुपया देते है
तुम एक क्या सात जन्मों में सम्पादक बन नही सकते
हिंदी को लेकर समझ ही क्या है
मेल में लोग लघुशंका करने से ज्यादा कविता भेजते है
रोज दस पत्रिका निकल जाएं इतना कचरा आता है तुम्हारी ना भी आये तो क्या
और तुम्हारी औकात क्या है एक पृष्ठ का विज्ञापन भी दिया या दिलवाया है कभी
मेरे जन्मदिन या शादी की एनिवर्सरी पर विश किया
मेरी पोस्ट पर लाइक कमेंट्स का हिसाब है मेरे पास तुम नही हो कही
और तुम जिसे बड़ा कवि मानते हो ना और जिस गुट के हो वो सब हरामखोर है साले
और अब सम्पर्क मत करना बड़ा आया हिंदी का कवि एकदम घटिया आदमी हो कवि तो कभी बन नही सकते तुम
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तैयार रहें ये भी जवाब है
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