जुलाई की धूप बादलों की शिकायत है
बिन बदले बाद्दल जब छूकर निकल जाते है तो उससे बड़ा संताप की नही हो
सकता बशर्ते आपको प्यास का अंदाज हो और नेह की एक बूंद का भी महत्व पता हो, ज्यों
- ज्यों बादल कारे होते जा रहें हैं गुलमोहर झर रहा है, इन फूलों का झरना यूँ तो नियति का ही एक हिस्सा है पर मन मानने को
तैयार नही, रक्तिम लालिमा के इन फूलों से गत 35 बरसों का नाता है, ये स्मृतियों की सफ़ेदी के सबसे
बड़े हिस्से रहें है और अपने जीवन के बेहतरीन पल इनकी छाँह में बीताये हैं, ये
गुलमोहर सिर्फ एक पेड़ नही जो खोखला हो रहा है, इसके मोटे तने में वलयों को चीरकर दीमकों ने घर बना लिया है, रोज़ काली मिट्टी की एक परत चढ़ती दिखाई देती है और अगले दिन भोर में
खिर जाती है
भोर से रात के तीसरे पहर तक जब इस पर दूधराज, लाल तरुपिक, हुदहुद, टूटरु, लाल मुनिया, धनेश, ठठेरा बसन्धा, स्वर्ण पीलक, गुलदुम बुलबुल, मटिया लहटोरा, बड़ा महोक, लीशरा अबाबील, उल्लू, कोयल, नीलकंठ, तोता, गिलहरी या गौरैया जैसे पक्षी आकर
बैठते, फुदकते खुली छत पर - ढेरों प्रकार के दाने खाते तो मन प्रफुल्लित
हो जाता और कोशिश करता कि शुक्र तारे के उदय होने तक संगीत की लहरियाँ सुनता रहूं
इनकी और बस निहारते हुए ही आँखें मूंद लूँ, इधर प्रचंड ताप के बावजूद भी पत्तियां
हरी हुई है,
फूलों ने अपने पूरे लालपन से टेसू
को पछाड़ा है और इस पूरे चैत से जेठ में हजारों लोग इसके नीचे से सांस लेकर गुजरे
हैं दुआ देते हुए , मुसाफिरों ने सुस्ती ली है और
गर्मी में अपनी पूरी आंखें खोलकर रास्ता देखा, निहारा और सही कदमों से मंज़िल पर पहुंचे है
आज जब सूरज की तपिश कम हुई है और पुरा आसमान काले बादलों से ढंक
गया है तो एक एक कर फूल गिर रहें हैं और हर गिरते फूल के साथ मैं अपने को भयभीत
पाता हूँ और मन अनिष्ट से भर जाता है , आंखें बंद कर बुदबुदाता हूँ, हाथ जुड़ने लगते है और होठ कांपने लगते हैं - ये कोई असहज नही पर एक
समय में विचलन की घातक और कमजोर करने वाली स्थिति है, प्रार्थनाओं के स्वर तेज हो
रहें हैं और बादल ज़िद्दी स्वभाव में एक बार फिर घिर आये हैं वसुंधरा को अपने स्नेह
से उंडेलने कि ख्वाब सच हो , फुलें फलें और अंगड़ाई लेकर धरती
उठें, पर हर बार सिर्फ छूकर निकल जा रहें है – किसान टकटकी लगाए बैठा है खेत तैयार
है – युवा शाहरुख का क्लास में मन नही लगता – कहता है सब जगह पानी गिर रहा है और
हमारे यहाँ एक बूँद भी नहीं आई, बोअनी कब करेंगे वह कहता है इधर चार सालों में
पानी बहुत कम हो गया है, पवन चक्कियां लगाने से हवा पानी ही लेकर नहीं आती –
रुवांसा होकर रह जता है
जुलाई सबसे आशादायी माह लगता है मुझे जब भी याद करता हूँ तो मेरे
पास जुलाई की स्मृतियाँ है घर से लेकर मोहल्ले की – मानसून का आगमन ख़ुशी से भर
देता था, मोहल्लों के सारे बच्चे मेंढकों को खोजते हुए मालवा की परंपरा के अनुसार
एक पट्टी पर मिटटी में मेंढक को दबाकर घर घर जाते थे, और पानी के लिए दुआ करते थे
और जब झड़ी लगती तो ऐसी कि रुकती ही नही थी, घर में आटा खत्म, माचिस सिल जाती थी,
सब्जियां नही मिलती, बाजार ठंडे पड़ जाते थे, बिजली नही रहती, टपकती छत में घर की भगोनियाँ
और हण्डे गगरे रखकर दिन भर पानी उलीचते रहते थे और पानी के रुकने का इंतज़ार करते
थे, कचरा बहता रहता था पर उस समय प्लास्टिक की मार नही थी
समय बदला ऋतुयें आती जाती रही पर पानी की अमृत बूंदों का नाता धरती
से टूटने लगा और धीरे धीरे उनका आना कम होता गया, पता नहीं क्यों लोगों ने सरकार
ने बहुत उपक्रम किये, छत से पानी सींचकर धरती में डालने कू कोशिश की, तालाबों को
गहरा किया, कुओं – बावडियों की सफाई की, खेतों में भी तालाब बनवाएं और बहुत रोका पानी पर जितना प्रयास अक्र्ते गए उतना ही
कम होता गया – अब ना जुलाई जुलाई है, ना बरसात बरसात, ऐसे में छपाक छपाक कर गलियों
में भरे पानी के बीच से प्लास्टिक का रेनकोट ओढ़े और बरसाती जूते पहनकर बस्ता टाँगे
स्कूल जाने की क्या स्मृतियाँ बच्चों के दिमाग में बसेंगी - पक्षी आ नहीं रहें,
अबकी बार कोयल नही कूकी यहाँ पेड़ इतने हरे और मजबूत नही रहें कि उन पर रस्सी डालकर
कोई झूले डाल दें और मीठे संगीत की तान सुनाई दें.
डग डग रोटी पग
पग नीर वाला मालवा तरस रहा है और मुम्बई में लोग पानी से त्रस्त है यह दर्शा रहा
है कि प्रकृति में कितना असंतुलन हो गया है और हमने अपने आपको कहाँ से कहाँ लाकर
खड़ा कर लिया है. बरसात, गर्मी या ठंड के
बीच इंतज़ार की स्थिति घातक है और इसमें जी लेना ही जीवन है - एक ऋतु से दूसरी ऋतु
के बीच वाले संक्रमण काल में जीने वाला कभी निराशा से भर नही सकता और रिक्त नही हो
सकता
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