बिगाड़ का डर
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दूर देश जाना था मजूरी करने, लगभग पलायन ही था घर से, पर रोक लिया दोस्तों ने, गांव के लोगों ने कहा कि कहां जाओगे परदेस, कोई जानने वाला न हो, कल कुछ हो गया तो - यही सब मिलकर कुछ कर लेंगे, हम लोग है ना - मदद कर देंगे, कसम से बहुत ताकत मिली थी उसे
फिर वह भी अनिष्ट की आशंका में रुक गया, उम्र भी हो चली थी, शरीर बीमारियों का घर बन गया था और वह यही रुक गया, दोस्तों ने क्या ही मदद की , मजूरी करने जाना ही पड़ता था, अब वह गांव का बागड़ तभी पार करता - जब एकदम ही भूखों मरने की नौबत आ जाती
अपनी लड़ाई खुद ही लड़ना पड़ती है - ना घर वाले काम आते है, ना दोस्त यार, बल्कि दोस्तों को वह सुट्टा, कच्ची दारू, सुल्तान की दुकान से काली चाय पिला - पिलाकर और कंगाल हो गया था, आये दिन कोई संत - महात्मा या विद्वान को दोस्त गांव बुलाते तो उससे भी रुपया मांग लेते बेशर्मी से - बावजूद इसके कि सबको मालूम था कि वो निरापद है और कंगाल, पर दोस्ती थी ना सबसे
आज फिर दिखा वह तो आवाज़ दी उसने, दोस्तsssse, सुनो - आओ चाय पिलाता हूँ, मैं तो अचानक घबरा गया कि उधार ना मांग लें पर फिर हिम्मत करके गया , बहुत खुश था वह, टपरी वाले सुल्तान को बोला "आज दूध और चीनी वाली दो कड़क चाय पिला दें" जब मैंने पूछा कि इतना ख़ुश क्यों है तो बोला
"आज ग्रामीण बैंक के सेविंग वाले खाते में अर्ध वार्षिक ब्याज मिला है 116 रूपये"- उसकी आँखों मे आंसू थे, बोला - "यार आज छह माह बाद कोई इनकम हुई है"
कड़क चाय के गर्म ग्लास हम दोनों के हाथों में थे पर सुड़कने की हिम्मत नही हो रही थी दोनो की , चाय ठंडी पड़ती जा रही थी
[ बिगाड़ के डर से ईमान की बात ना कहोगे - प्रेमचंद ]
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