हिरणा समझ बूझ बन चरना
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पर्यावरण से लेकर जल जंगल जमीन की चिंता करने वाले करने वाले हिंदी से लेकर आंग्ल तक लेखकों का एक बड़ा समूह है जो सब कुछ लिखता है और बदले में पैसे कमाता है - अपने साथ-साथ अपने कुत्ते बिल्ली के नाम से भी यह लोग लिखकर पैसा कमा रहे हैं
इधर एक नया ट्रेंड जागा है कि इस पूरे कचरे को किताब के रूप में लाया जाए और इनकी कमजोरी का फायदा उठाकर कुछ प्रकाशक देशव्यापी अभियान चलाकर देश भर के ऐसे लेखकों को ढूंढ रहे हैं जो किताब छपवाने के लिए बेचैन है
ये वे प्रकाशक हैं - जिन्हें ना कागज की समझ है, न प्रूफरीडिंग की, न डिजाइन की, ना रेखांकन की और ना फॉन्ट की- बेहद घटिया किस्म की किताबें ट्रकों और ट्रेन की बोगियां भरकर छाप रहे हैं और प्रत्यक्ष रूप से पेड़ों को काटकर पर्यावरण का नुकसान कर रहे हैं
इस तरह से धंधा चला कर इन्होंने साहित्य - संस्कृति और लेखन का जो नुकसान किया है - उसकी भरपाई आने वाले इतिहास में कभी कोई नहीं कर सकेगा
यह दुखद है कि अब प्रकाशन के अड्डे सिर्फ दिल्ली, इलाहाबाद या मुंबई नहीं , बल्कि छोटे राज्यों के छोटे शहरों में भी प्रकाशन के मठ विकसित हो रहे हैं - जहां से एक नए प्रकार के नपुंसक और अकर्मण्य लेखक वर्ग को आईवीएफ पद्धति से पैदा किया जा रहा है जो विशुद्ध निठल्ले और नाकारा हैं या चुके हुए है
इन प्रकाशकों के सामने अपने प्रकाशन से प्रकाशित कूड़े के लेखकों को खड़ा कर दिया जाये तो ये पहचान भी नही पाएंगे और अंत में ये ही प्रकाशक 500 रुपये में 50 किलो के भाव रद्दी बेचते है या किसी राज्य के साहित्य सम्मेलन में मुफ्त में बांटते है किताबें और लोग धर्मशालाओं या हॉस्टलों के संडास में किताबें पटक कर भाग जाते है
अपना तो ऐसा ही है कि अब लेखक नाम से ही विश्वास उठ गया है चोर उचक्कों की दुनिया है , दुर्भाग्य यह है कि इन प्रकाशकों के जाल में अब कब्र में पैर लटकाए वरिष्ठ कहानीकार या उपन्यासकार भी आ गए है
नए नवेले सेटिंगबाज चरण पकड़ूँ और चापलूस की बात तो ठीक भी है बेचारे अपराध बोध से घिरे है इन्हें बेस्ट सेलर भी बनना है , किसी हीरालाल, चंपालाल, नत्थूलाल या कलावती, चंपा - चमेली से समीक्षा भी करवानी है और नही कोई करेगा तो खुद ही लिखकर किसी भी भड़भूँजे के नाम से आत्म मुग्ध होकर चेंप देंगे और फिर पुरस्कार के लिए वरिष्ठों के पंखे झलना भी महती कार्य है
[ समझ आना और फिर अपने गिरेबान में झांकना दो अलग बातें हैं ]
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