26 जुलाई 2008 की ही सुबह थी भीगी हुई, अचानक सांसे उखड़ने लगी और मैं बदहवास सा आईसीयू में डाक्टर, डाक्टर चिल्लाने लगा
जब तक लोग जागते, कोई मदद के लिए आता - सब कुछ खत्म हो चुका था
आज शब्द भी नही है कि कुछ लिखूँ , मन भी नही है और हिम्मत भी नही
माँ के लिए जीते जी कोई लिख नही पाता तो देहावसान के बाद कौन लिखेगा
बस नमन , स्मृतियाँ और अपने अकेलेपन में पुनः उस सबको जीने की तमन्ना जो माँ के होते ही सम्भव था
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कवि गोष्ठी दोपहर 3 या 4 से रखने का यह बड़ा फायदा है कि 100 रुपये तक की चाय में सब निपट जाते है, आते ही कितने है, दो चार लंगर वही के होते है झाड़ू लगाने वाले तो उसका भी इलाज है - दूर किसी टपरी में चले जाओ - बस्स हो गया काम
महिलाएं होने से सब बिजी रहते है चाय के दौरान और साला कोई सिगरेट भी नही उठा लेता कि पेमेंट करना पड़े
रविवार को रखो तो और फायदा ज्यादातर आते ही नही और कई बार चिढकू बूढ़े - बुढ़िया आयोजक एन मौके पे आयोजन निरस्त कर ये 100 रूपये भी बचा लेते है
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पूरे समय वह शांति से कहानी कविता सुनता रहा बीच बीच में वह बोला भी, आखिर में हाल से बाहर निकलते समय पूछा कि कौन हो मित्र तो जवाब देने के बदले बोला - ये समकालीन मतलब क्या, और बैनर पर जलेस क्यों लिखा है जलना, जलन सुना है पर जलेस का क्या अर्थ है
एक बुजुर्ग कवि ने समकालीन का मतलब समझाया और जलेस का मतलब बताते समय जलेस का पदाधिकारी भिन्ना गया जलकर फिर बोला आ बै चाय पी और निकल
और उस कवि को तो काटने पर खून ही नही मिला जिसकी कविता सुनकर ये मुंडी हिला रहा था
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4289 फेसबुक मित्रों की पोस्ट्स पर लाइक्स और कमेंट्स के बाद भी कोई छाप नही रहा था उसकी कउता, ना किसी अवन - भवन ने बुलाया कभी , जबकि सारे चुतिये साहित्यकार भर रखें थे लिस्ट में
आखिर एक रामबाण नुस्ख़ा मिला और फिर कवि "बुकर" को प्राप्त हुआ
ओम शांति
परमात्मा अपनी कविता की किताब में उसे जगह दें
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और फिर शहर के टूच्चो ने तेजी से वट वृक्ष बनते जा रहे कवि की सारी मौलिक रचनाओं को मलयालम, पश्तों से अनुदित करार देते हुए उसकी हत्या कर दी
बाजारीकरण के कठिन दिनों में आजकल वो चिर युवा "अपना स्वीट्स" के एकदम ताज़े खुले आउटलेट पर वेरी नाइस तरीकों से लहसन की सेंव और सोन पापड़ी तौलकर बेचता है
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एकदम चोखे धन्धे की जगह थी जहां एक बड़ा सा हाल था कवियों - कहानीकारों के लिए, चारो तरफ गुटखा तमाखू की दुकानें थी, पेट्रोल पंप था लगा हुआ और सामने सांची पॉइंट और हाल के ठीक नीचे खाना बनता था , चौराहे के दूसरी ओर सोमरस, आमरस भी उपलब्ध होता था
कविता की आत्माएं हाल में बिल्कुल कम, गुटखा तमाखू की दुकान पर थोड़ी, साँची पॉइंट पर और ज़्यादा और खाना बनने वाली जगह पर सबसे ज्यादा घूमती थी अतृप्त मानो सारे खण्डकाव्य आज खा - पीकर ही मानेंगी
इस तरह हिंदी कविता का उत्तरोत्तर विकास हो रहा था
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और कवि गोष्ठी के अंत मे जब आभार करने एक सज्जन मंच पर आये तो श्रोताओं के पीछे और बीच में फंसे सारे युवा अचानक झटके से उठ खड़े हुए और पुट्ठे झाड़ते हॉल से बाहर निकल गए कि रुके तो कुर्सियां उठानी पड़ेगी और हर कुर्सी के नीचे पड़े थर्मोकोल के खाली चाय के ग्लास उठाना पड़ेंगे
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फिर रचनाकार उर्फ कवि ने अपनी 13 कविताएं पेलकर आहिस्ते से लजाते हुए कहा कि आज इस अगस्त ऑडियंस से भरे सभागार में जो सुख मिला वह अप्रतिम है और आप सबको प्रणाम करते हुए मैं अध्यक्ष जी और अग्रज संचालक की अनुमति के बगैर अपनी नन्ही सी कोमल बिटिया को मंच पर बुला रहा हूँ कि वो आये और आप सबका आशीर्वाद लें
यह धृष्टता करने की माफी पर अभी अभी इसने 153 कविताएं पूरी की और आपके बीच बैठे जगत प्रसाद जी जो प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय पत्रिका "निर्गुणी" के संपादक है , ने बिटिया से कहा था कि कभी सुनाए कुछ - तो उनके आग्रह पर बिटिया को बुला रहा हूँ , आप सबकी दुआओं से यह पटना भी जा रही है 26 जनवरी को कविता पढ़ने
आपका सबका आशीर्बाद और दाद चाहूँगा - अपनी डायरी सम्हालते वे मुश्किल से माईक छोड़कर मंच पर बैठ गए
श्रोताओं में बैठे वसन्त सकरगाये ने भिन्नाते हुए चिल्लाकर पूछा लड़का पैदा नही किया क्या , चार पांच सम्पादक और बुला लेते , और इस कविता पेलू कवि की नसबंदी हुई कि नही या अभी भी चल्लू है काम काज
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23 लोगों की भीड़ में कहानी पाठ कर रहे रचनाकार को शुगर की बीमारी थी और वह 47 पेज की एक छोटी सी लघुकथा पढ़ने के दौरान 3 बार पेशाब करने गया, हाल से लगे पेशाबघर में जिसकी बजबजाती खुशबू पूरे वातावरण को रोमांटिक बना रही थी, जब चौथी बार जाने लगा तो साढ़े तीन महिला कवि हंस दी - तो उठने के बजाय उसने कहानी पढ़ने का स्वांग फिर चालू कर दिया
थोड़ी देर में नत्थूलाल की कचोरी वाली दुकान के ओटले जैसे बने स्टेज से नाला बह निकला और सारे श्रोता नाक पे उंगली रख च - च - च करते निकल पड़े
कहानी के पौने सैतींस पेज बाकी थे
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और फिर संचालक ने धमकाते हुए कहा कि यदि अब अगले कवि ने एक से ज़्यादा कविता पढ़ी या डेढ़ से ज़्यादा मिनिट समय लिया तो मैं यह मंच छोड़कर घर चला जाऊंगा, सबके चेक मेरे पास ही है और होटल वाले को मना कर दूँगा कि किसी को खाना मत खिलाना, रामभरोसे धर्मशाला में कमरा भी नही मिलेगा
कवियों में खुसुर पुसुर चालू हो गई, अध्यक्ष ने संचालक के कान में बोला - मेरी अद्धि दे देना , मैं तो बोलुआं ही नई , क्या
[ प्रिय मित्र Mani Mohan की टोपी में सुर्रखाब
के पंख लगाने को सप्रेम भेंट ]
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हिंदी के सम्पादक को ना जाने किस बात का गुरुर है कि वे मेल को पढ़कर जवाब भी नही देते, पुराने बुड्ढे ठुड्ढे छोड़ दो कि वे संजाल तकनीक से वाकिफ नही पर जो वाट्सएप और फेसबुक पर चौबीसों घँटे ज्ञान पेलते रहते है - वे तो कम से कम अशिष्ट ना बनें
या देखकर बताती हूँ / बताता हूँ - कहकर कुंडली मारकर बैठ जाएँगे, ऊपर से - अबे तुमसे तो तुम्हारे बाप दादा ठीक थे जिनमें तमीज तो थी
एनजीओ टाईप अनुदान बटोरकर पत्रिकाएं छापने वाले भी औकात दिखा देते है- चंदा लेते बखत हाथ जोड़े जोड़े फिरेंगे
क्या करें नाग पंचमी आ रही है - दूध आर्डर कर भेजूं क्या
बाबू समझो इशारे
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हिंदी कविता के आयोजन में शूरवीर कहानीकारों के कहानी पेलने का एक अनुशीलन
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● प्रस्तावना - हिंदी कविता के कार्यक्रमों से जनता तो दूर कवि खुद कितना दुखी है यह Mani Mohan की ताजा पोस्ट्स पढ़कर समझ आता है
● शोध की आवश्यकता - हमारे यहां भी कुछ ऐसा ही बन गया है - पापड़ बड़ी उद्योग की तरह गोरख धँधा चलाने वाले धे कविता पे कविता लिखकर यहां - वहां और फेसबुक पर पेलने के बाद गोष्ठी के अंत में 30 से 50 पेज की कहानी पेलकर स्खलित होते है और वही "सोता वही रचनाकार " चाय से निपट कर जुदा होते है कि अगले हफ्ते फलाने - ढिमके के घर या नशिस्त में या महफ़िल में मिलेंगे
● केस स्टडी - हमारे गांव के पास में भी ऐसे ही लोग हर माह बैठकर किसी ना किसी को बुलाकर उसका टीका तिलक करके बाकायदा 6 -7 लोगों की भीड़ में "कवि लिंचिंग" करते है और अंत में अनहायजीनिक चाय पिलाकर पिंडदान करते है, कवि का यह श्राद्ध करने की रस्म अगड़ेपन के नाम पर पुरोधाओं को याद कर होती है और इस "कवि लिंचिंग" में दर्जनों अभी तक शहीद हो चुके है और क्रियाकर्म के बामण पुजारी वही है आजतक जो तटस्थ भाव से हर माह शिकारी नजरों से दूर दराज के नए मुर्गे फांसते रहते है, स्थानीय घाघ तो इल्ली, दिल्ली, पश्चिम बंगाल, केरल, राजस्थान, उत्तर प्रदेश से लेकर भारत भवन और अजा - मजा फाउंडेशन तक माल बटोरने और हवाई सुंदरियों का लुत्फ़ उठाने जाते है, वे इन स्थानीय टुच्चो में शामिल नही होते और बड़ा गांव होने के नाम पर बाहरी मुर्गे भी कटने को ऐसे बेचैन कि उल्टियाँ करने के दरवज्जे और 4 श्रोताओं के मंच खोजते रहते है, अब सुना कि पड़ोसी गांव के ये ही पंडे पूरे खानदान को एकसाथ बुलाकर सम्पूर्ण वाङ्गमय सुनने का और मौत के कुएँ में जलील करने का नवाचार आरम्भ कर रहे है - गांव तरक्की पर है
● सारांश - इसलिए अपुन ने कउता - कहानी के भड़ासिया कार्यक्रम में जाना ही छोड़ दिया , साहित्यिक ग्रुप छोड़ दिये - क्या करें जब थर्ड क्लास लोग एडमिन के नाम पर आय ए एस हो जाये और कुंठाओं का वमन करते रहें इनके तथाकथित ग्रुप्स में डाँट डपट करने में जवान से लेकर कब्र में पैर लटकाए बूढ़े भी कम नही - जो लोग जीवन जप और गप्प करके नौकरी में रिटायर्ड हो गए और हरामखोरी की पेंशन खा कर कउता - कहानी का धंधा चला रहे उनसे क्या इश्क मोहब्बत और सरोकार रखना
● निष्कर्ष -मन करता है तो यही पेलो यही झेलो और यही निर्वाण को प्राप्त हो जाओ
■■■ इति सिद्धम
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भाई भावेश, हेमंत
सब सच, सहमत पर यदि हम खुद ही हथियार डाल देंगे तो क्या होगा, ये अधिकार सदियों की लड़ाई के बाद भी दुनिया के कई लोगों को उपलब्ध नही है अभी तक
यह बड़ा मुश्किल और दुविधा भरा समय है मित्रों, असली परिणाम और मंशाएं सामने आने लगी है, लोगों को भी एहसास हो रहा है भक्ति भाव कम दिख रहा यह नही कहूंगा पर जनता जान भी रही है
एक कथा याद आती है, मैं दुविधा में हमेंशा बुद्ध के पास गया "अपना कप खाली करके" और मुझे ज़ेन और बुद्ध दोनों में रास्ता नजर आया
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जंगल मे एक बार आनंद बरसात के समय तथागत के लिए पानी लाने गया और 5 - 6 बार खाली हाथ लौट आया
बुद्ध ने पूछा कि "बार बार क्यों लौट रहे हो" - तो आनंद बोला - "भंते, नदी बहुत उफान पर है और कीचड़ साथ आ रहा है बहकर"
तो तथागत बोलें - " रे बावले - बरसाती नदी है , वही बैठ जाता , कीचड़ तो बह ही जाता और साफ पानी भी आ जाता - जीवन में लम्बी दूरी तय करना है तो सिर पर बोझ कम और दिल में पहाड़ से ज्यादा धैर्य रखना होगा"
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इतनी नफ़रत जीवन में किसी से नही हुई जितनी इस सावन की धूप से हो रही है
हे ईश्वर, खुदा, अल्लाह, जीसस, वाहे गुरु - कही हो तो आओ और समेट ले जाओ धूप को चार माह तक , इस धरती के साथ हम सबकी प्यास बुझा दो
हमारे पापों की सज़ा इन नन्हें पौधों को, खेतों में मुरझा रही फसलों को मत दो, हम पर रहम करो, बख़्श दो हमें
मुआफ़ी दे दो, इतना भुगतने के बाद हम शायद सुधर जाएं, पानी की हर बूंद को सहेज लें हमारे कंठ तरस रहें हैं
बरसो रे मेघा
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माँ ने पूछा
बेटा क्या कर रहे हो
आज आज़ाद की पुण्यतिथि है जोशभरा स्टेटस डाल रहा हूँ फेसबुक पर
बेटा बोला
जाकर दो बाल्टी पानी ले आ इसी जोश में - माँ बोली
ये फालतू काम नही करता , मैं राष्ट्रवादी हूँ माँ - बेटे का जवाब था पोस्ट करके सो गया था हीरो
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भगौड़ा,भ्रष्ट कुलपति और भाजपा
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ये स्तर था माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विवि भोपाल का और ये वो व्यक्ति था जिसने गधों घोड़ो को प्राध्यापक बनाया था
दूर के रिश्ते में भाई की एक लड़की जिसका एमबीए भी नही हुआ था वह यहां पढ़ा रही थी मतलब मैं जानता हूँ कि जिसे हिंदी अँग्रेजी तो दूर हमारी मातृभाषा मराठी की भी मूल समझ नही थी
कुछ और भी है जो गौशाला और गौमूत्र अभियान में इस भ्रष्ट कुठियाला के समर्थक थे जो भोपाल से लेकर दिल्ली तक के कैम्पस में इसके कमीशन एजेंट थे
यह हालत है मप्र में तत्कालीन भाजपा सरकार के कारनामों की ऊपर से अनाड़ी बैन ने उच्च शिक्षा का कबाड़ा किया राज्यपाल रहते, अभी इंदौर के देवी अहिल्या विवि में 25 दिनों से धारा 52 लगी है कुलपति ही नही है, उज्जैन में शर्मा जी कोर्ट में जाकर हरिश्चंद्र बनें है
यह सब किसने किया, कांग्रेस ने 56 वर्ष में जितना कूड़ा किया 15 साल में भाजपा ने ट्रेचिंग ग्राउंड बनाकर कुतुब मीनार से ऊँचे पहाड़ बना दिये
कुठियाला को तो हथकड़ी डालकर गधे पर बैठाकर भोपाल के गली मोहल्लों में शाही सवारी निकालना चाहिए इससे बड़ा धूर्त और गुलाम कोई (अ)शिक्षाविद ना होगा दुनिया जहान में
सोचिए कि एक कुलपति को फरार यानी तड़ीपार घोषित करना पड़े मतलब कहां खड़े है हम
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इन काली सदियों के सर से
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देवास नगर निगम में भाजपाईयों ने 5 साल काम नही किया, एक कमिश्नर था कठपुतली देवेंद्र सिंह - भयानक भ्रष्ट जिसे तत्कालीन सत्ता का वरद हस्त था सो जमा रहा बरसो
बाद में एक कमिश्नर और आया जो कमीशन ख़ाकर तत्कालीन विधायक और निगम से भयानक कमिशन खाकर निकल गया पूरा शहर अपनी कब्र की भांति खोद गया
अब नई महिला कमिश्नर आई है जिसने बहुत साल पहले उस समय के विधायक को सोनकच्छ में नकली वोट डालने से मना किया था और एसडीएम रहते केस बनाया था
अब यही महिला नगर निगम के भ्रष्ट पार्षदों और निगम के दलालों की फाइल खोलकर मामले निकाल रही है तो भाजपा में खलबली है, कल इन लोगों ने विशुद्ध गुंडागर्दी, बदतमीजी चक्का जाम करके दिखा दिया कि तगड़ी मिर्च लगी है और विधायक खेमे को यह सहन नही हो रहा कि जिसने उनके विधायक के सोनकच्छ में केस बनाया था - वो शहर में इनके काले कारनामे उज़ागर करें सो नाटक कर रहें है
महिला कमिश्नर को दिलेरी से काम करना चाहिये और इन भ्रष्ट पार्षदों, निगम परिषद और महापौर से लेकर सभी दलालों की निजी संपत्ति की भी जांच करना चाहिये कि कैसे दो कौड़ी के बस स्टैंड छाप लोग आज अरबपति बन गए , जो लौंडे लपाडे किसी पद पर नही वो किस हैसियत से निगम में घुस कर दादागिरी कर रहें है
ना तालाब ठीक हुए ना पानी की व्यवस्था हुई, अतिक्रमण भयानक और बेतरतीब सा अवैध निर्माण, नर्मदा से पानी खरीद ही रहें है - कोई विजन नही ना कोई स्वप्न सिवाय निजी संपत्ति बनाने के कुछ नही किया इन लोगों ने , जिन कॉलोनियों में लोगों ने निज धन से रोड बनाये थे उन्हें भी खोद दिया और इनका ठेकेदार भाग गया रुपये कमाकर
पाप का घड़ा भर गया है नगर निगम देवास का , एक महिला ने सबको औकात बता दी है
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मित्रों के एक समूह में बैठा था - मज़ेदार गम्भीर बहस का एक हिस्सा पढ़िए
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एक बोला "तुमने दुर्भाग्य से यहां पढ़ाई की एमपी में, भूखे मरते हुए यहां आए थे, बीए किया, सेटिंग से काम पर लग गए, अब यही नौकरी कर रहे है और यही के लोगों को मूर्ख कहते हो, साला बोलता है एक बिहारी, सब पर भारी, पढ़ते भोपाल, दिल्ली, मुम्बई, भुवनेश्वर और कोलकाता में और गाली उन्ही को देते हो "
दूसरे मित्र ने कहा कि "इतना गर्व है तो जाओ बिहार , चवन्नी कमाकर भी देखो, नंगे भूखों का प्रदेश है और भ्रष्ट लोगों का प्रदेश, बिहार में दम होता है तो बाहर नही भटकते बिहारी , रिक्शा चला रहे है आय ए एस है पर अपने प्रदेश को नही देखेंगे और दूसरों को गाली देंगे", बेंगलोर, नोयडा, नाशिक , दिल्ली, मुम्बई , लद्दाख से लेकर अरुणाचल तक में कमा खा रहे हो और फिर भी अकड़ गई नही "
मजेदार चर्चा होती रही और अंत में बिहारी मित्र धमकी देने पर उतर आया - बांह मरोड़कर तो यहां का मित्र बोला - 'जा हिम्मत हो तो निकल यहां से बिहार जा, एक रुपया कमाकर दिखा, दिल्ली मुंबई कोलकाता या हमारे जैसे शहर इन्हें ना पालें पोसे तो भूखे मर जाएँगे'
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निष्कर्ष यह है कि भारतीय कोई नही है हममें क्षेत्रवाद कूट कूटकर भरा है और एक बाला साहेब ठाकरे सबमें बैठा होता है, इस सारी बहस में संविधान कही है ज़िंदा ? आर्टिकल 14 पहले पढ़ाओ - बजाय आर्टिकल 15 देखने से
एक और बहस में कुछ मित्र बहस कर रहें है कि केरल की बाढ़ में देशभर ने मदद की और अब आसाम और बिहार में बाढ़ है तो केरल के या दक्षिण के लोग मदद करने को तैयार ही नही, वे बिहार या आसाम की विपदा में कुछ भी देने को तैयार नही बल्कि एक गहरा "डिस्कनेक्ट" रखते है - बुद्धिजीवी मित्र लगें हैं तर्क और विवाद में
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विवाद कहां है, बिहारी सच में चालू है या बाकी लोग मूर्ख, सच में एक बिहारी सबपे भारी या गरीबी भुखमरी में जीने को अभिशप्त होकर भी , राजनैतिक समझ होने के बाद भी क्यों देशभर में भटकने को मजबूर या बाकी लोगों का रुख ऐसा क्यों और दक्षिण के लोगों का यह डिस्कनेक्ट क्यों
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