मणिपुर में अप्सा हट गया क्या
महिलाओं के नग्न प्रदर्शन से लेकर 12 साल की भूख, हड़ताल और अनशन की क्रांति का सिला शादी के बाद सिमट गया, ये है कहाँ क्रांति की जनक आजकल
पिछले हफ्ते विस्तारा, बेंगलोर में ये जोड़ी देखी थी
सही है कि सबको अपनी जिंदगी जीने के हक़ है पर अगर आप सामाजिक क्षेत्र को हथियार बनाकर अपना ध्येय साध रहें हैं, कामरेडों का लाल गमछा ओढ़ या संघियों का भगवा चोला पहनकर सैंकड़ो एकड़ जमीन दबाकर निजी शिक्षा को बढ़ावा देते हुए विश्व विद्यालय खोल रहें है या उद्योग तो आपमे और किसी हरामखोर में फर्क नही है
बहुत से नाटक देखकर अब मन उचट गया है , अब कोई कहता है कि हम ये कर रहें है फलाना ढिमका तो लगता है गुरु फालतू की बकर मत कर सीधे बता कि दो तीन साल बाद क्या हथियाना है जमीन, रुपया, कोई फेलोशिप, अख़बार, एनजीओ, अंतरराष्ट्रीय यात्रा, किताब लेखन के लिए बड़ा अनुदान, किसी यू एन में पीठ, पद या नोबल पुरस्कार
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पुस्तक मेले से किताबें खरीदते समय हम किताब, कहानी, कविता नही लेखक से बने सम्बन्ध या बनाने के लिए कृत्रिम मुस्कुराहट खरीदते है
कई बार प्रकाशक की दोस्ती भी नजर बेधती है तो लाज शर्म में दो चार किताबें भर लेते हैं
लेखक की दोस्ती, उसके आग्रह, दुराग्रह, फेसबुक के मैसेज बॉक्स में आई मनुहार और न्यूज़ फीड पर आई अमेज़ॉन लिंक की बहार भी दिमाग़ में होती है
कई बार किताब को लेकर किसी की पाठकीय टिप्पणी, किसी तथाकथित लेखक के कमेंट्स और छूटभैये अख़बार में छपी समीक्षाओं की कतरन भी खरीदने के पीछे महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है
किताबें घर आ गई और बंडल का फोटू यहां चैंपकर हम महान , लेखक और किताब गई भाड़ में
बाकी तो आगे आप समझदार ही है
कुल मिलाकर आशय यह है कि ना आग्रह ठेलें, ना ज्ञान दें, ना लिंक पहुंचाए मनुहार और न्यौतों की तरह और ना पुस्तक मेले से किलो के भाव की तरह उठा लाई किताबों के श्रीमुख दर्शन करवाएं, किसी लेखक ने पलटकर पूछ लिया कि भैया मुंह दिखाई में सिर्फ पांच चरित्रों के नाम बता दो तो कसम से ग़दर हो जाएगा गुरु
लेखक आत्म मुग्ध ना हो, मानवीय सम्बन्धों को किताब लेखन और खरीदी के बरक्स ना देखें और ना तौलें साथ ही लेखन और व्यक्तिगत रिश्तों को एकदम अलग रखें, प्यार की ऊष्मा को कागज, प्रकाशक और बिक्री की गला काट प्रतिस्पर्धा में ना रखते हुए अपने आपको भला मानुष बना रहने दें और बारीक अवलोकन कर अपने लेखन को सुधारें - ये अंततिम सब मेरे लिये है - आपको ज्ञान दूँ मेरी ये औकात कहाँ
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और हिन्दू - मुस्लिम, मन्दिर - मस्ज़िद, पाक - कश्मीर, बीफ, मोब लिंचिंग, रुपया बहाकर,अम्बानी - अडानी के हवाई जहाज में उड़कर, दलित- सवर्ण के आधार पर चुनाव लड़ना हमारी महान सांस्कृतिक परम्परा रही और ईवीएम से जीतकर सारे विधायक खरीदकर सरकार बनाने की गौरवशाली समृद्ध अलोकतांत्रिक और तानाशाही भरी आदत हमारी रही है
इसलिए मप्र, छग और राज में सरकार हम ही बनायेंगें और 2019 में तो खैर मोदी जी को लाना ही है , देश का सत्यानाश अभी बाकी है जब तक कंगाल भी भूख से मर ना जाये और भारतीय प्रशासन के अधिकारी भी आत्महत्या ना करने लगें किसानों के आंकड़ों से ज्यादा हर उच्च,मध्यम और निम्न वर्गीय के आंकड़े ना आये तब तक काम करना है, नोटबन्दी के बाद कमीने हिंदुस्तानी अभी भी दस बीस हजार बैंक में दबाए बैठे है जब तक नंगे होकर सड़क पर भीख ना मांगे और विदेशी आका यहां आकर बुलेट ट्रेन से झांककर इन्हें पित्ज़ा के टुकड़े ना डालें या दीनदयाल, गुरुजी, हेडगेवार, मुरली मनोहर जोशी से लेकर आडवाणी की और ऊंची मूर्तियों से देश को हम पाट नही देते, हर गांव मुहल्ले में उद्धव ठाकरे जैसी कलाकृतियां निर्मित नही कर देते मेरा काम खत्म नही हुआ है भक्तों
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