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मोहल्ला अस्सी 19 Nov 2018 and other posts

इस चुनावी संग्राम के समय में "मोहल्ला अस्सी" फ़िल्म का प्रदर्शन असली राजनीति है बै भो....
आने वाले समय में नही बल्कि आज ही भारत सोच कम रहा है और बोल ज्यादा रहा है - बाकी सब बकैतों को छोड़ दो मैं भी शामिल हूँ इसमें
पाड़े की पीड़ा हम सबकी है पर हमें भी रुपया चाहिए आदर्शों और चूतियापे से पेट नही भरता
हम सब बार्बर बाबा बनना चाहते है - रोग खरीदकर योग भोग बेच रहे है पर हम बार्बर बनने के चक्कर में भयानक बर्बर बन गए हैं
हम काली चमड़ी वालों को गोरी चमड़ी का अपराध बोध आज भी सालता है और इस अवसाद में हम कितने गहरे जा चुके है यह हम समझना भी नही चाहते
मन्दिर - मस्जिद, चर्च कोई मुद्दा ना कभी था ना होगा, जब भी लोकसभा या विधानसभाएं प्रसव पीड़ा में होगी नाजायज औलादें पैदा होकर तांडव करेंगी
गालियां भाषा, समाज और संस्कृति का हिस्सा नही - जरूरी अंग है , जो लोग शुचिता और तहजीब की बात करते है वे घोर अशालीन और अतार्किक है और घटियापन के शिखर पर बैठे है और भाषा के जानी दुश्मन है
मोहल्ला अस्सी बनारस ही नही - हर शहर, घर और हर व्यक्ति की कहानी है जो पर्दे पर दिखती है तो हम जो ठहाका लगाते है - वो ठहाका फ़िल्म पर नही - अपने इतिहास, समाज, अर्थ शास्त्र एवं धर्म - आध्यात्म के खोखले और उथले ज्ञान पर अपने से ही लजाकर मुस्कुराकर भड़ास स्खलित कर मुक्त होते है और कहते है क्या मस्त और बिंदास गाली दे रहा है भो...
मजेदार यह है कि कोई भो...... का किसी भी पार्टी, हिन्दू , मुस्लिम, धर्म, मन्दिर मस्जिद , धंधा, राम - अल्ला - कृष्ण - जीसस का नाम लेकर , कमल, पंजा, गाय भैंस, सायकिल , हाथी , गधे , घोड़े, सूअर , हंसिया - कुदाली का झंडा लेकर मैदान में प्रदर्शन करने नही गया - इसके दो ही अर्थ है जो मैं समझा या तो इन सबको मुद्दा समझ आ गया - चुतियाओं को भी या फिर गधों को समझ नही आ रहा कि किस बात का समर्थन या विरोध करें
बनारस हिंदू विवि के जालिम एवं उजबक मास्टर, चायवाले का पराक्रम, सहनशीलता, जनता और खासकरके औरतों की दबी कुचली हुई भावनाओं और डाह से लेकर रुपयों की हवस को भलीभांति दर्शाया है
काशीनाथ सिंह मर भी जाते तो उपन्यास से याद नही रखे जाते पर अब फ़िल्म से साहित्य के चुतियापा करने वालों के साथ आम जनता में अमर हो जाएंगे , चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने पप्पू की दुकान में काशीनाथ जैसे वामपंथी को चायवाले की ही दुकान में ज़िंदा और गम्भीर बहस करके चायवाले को लपक के छीलते हुए कूट दिया बार बार और वो चुतिया पूरी फिल्म में चुपचाप बैठा चाय छान रहा होता है या कचौड़ियां तलता रहता है -वामपंथी के ना तर्कों का जवाब है उसके पास ना जवाब देने की हिम्मत , चायवाला सिर्फ और सिर्फ पूरी फिल्म में धँधा कर रुपये कमा रहा है यह बहुत साफ सन्देश है
खैर, देख आईये जाकर, कुछ नही तो गालियां सुनने का सुख मिलेगा
[ जैसा देश वैसा भेष स्टाइल में संक्षिप्त टिप्पणी - लम्बी कौन चुतिया पढ़ेगा बै ]
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ऐतिहासिक विश्व विख्यात किताबें लिखने से लेकर हवाई जहाज चलाने जैसी तकनीकी योग्यता वाले इस देश के प्रमुख रहें है
और देश के प्रधान सेवक के पास एक एम ए की डिग्री तो क्या दिखाने को कुछ नही - 130 करोड़ लोगों को इन्होंने सिवाय झूठ और बरगलाने के चार साल किया क्या , सवाल डिग्री का नही बल्कि जनता से बोला गया विशाल भव्य झूठ है जो बार बार बोला गया और अंत मे लोगों ने विश्वास करना छोड़ दिया
जनतंत्र में चुनी हुई सरकार ने ही देश की संस्थाएं बर्बाद करने और हवा पानी तक अम्बानी और विदेशियों को बेचने के अलावा क्या किया
दिल से पूछिए कि ये जितना नाटक करके भाषण देते है वह प्रधान मंत्री पद की गरिमा लायक भी है, मंच पर मुख मुद्राएं, भाव भंगिमाएं देखिये - अपने विपक्षी का सम्मान करना महाभारत में वर्णित है, रामायण में भी जिक्र आता है कि श्रीराम ने रावण को विवेकवान और पंडित माना था और ये चुनावी मोड़ में किस हद तक भाषा और अपना सम्मान भी खत्म करते है यह आप देखिये - इससे राहुल की भाषा देखिये कभी हलकट बात नही की इनके लिए - वो प्रधान लायक नहीं पर इतना चीप नहीं कि मंच पर नौटँकी करें
मुझे अफसोस होता है कि मैं ऐसे देश में रहता हूँ
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1901 से 1961 तक की जनसंख्या देखें तो 2% ग्रोथ के हिसाब से ही आबादी बढ़ी थी इस देववास की, परंतु जब हम 1971 में देवास शहर की जनसंख्या देखतें है तो आबादी एकाएक बहुत तेजी से बढ़ी , इस शहर में उद्योग खुले बैंक नोट प्रेस शुरू होने के बाद
शहर में आसपास के गांवों से भी पलायन कर लोग आ बसें और देश भर के विभिन्न प्रांतों से भी लोग आएं और यह शहर मप्र की औद्योगिक राजधानी बना
जनसंख्या में वृद्धि 1981 और 1991 में भी देखी गई अपने सामान्य नियम 2% decadal growth के विरुद्ध जाकर, परंतु 2001 से यह वृद्धि रुक गई , बल्कि यहां के लोग इंदौर पलायन कर गए
कारण स्पष्ट था कि दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में बिजली, सड़क, पानी ने उद्योगों को तोड़ दिया और देवास में पानी की समस्या जटिल होती गई, तत्कालीन विधायक ने इंदौर नगर निगम से नर्मदा का पानी खरीदना शुरू किया और नर्मदा नायक का खिताब जीता और आज तक यही हो रहा है, जनता के रुपयों से पानी खरीदा जा रहा है, मूल समस्या पर कोई ध्यान नही है और शहर आज भी बेहद पिछड़ा और मूल समस्याओं की खैर खबर से दूर है, बहरहाल
बेरोजगारी इतनी बढ़ी कि पिछले 15 बरसों में उद्योगों के लिए विधायक, सांसद और स्थानीय सुशासन की इकाईयों ने कुछ नही किया और शहर को बर्बाद करके रख दिया, एक ढँग का शिक्षा संस्थान या व्यवसायिक संस्थान नही खुल सका, स्वास्थ्य से लेकर मानव विकास सूचकांक के सारे मुद्दों की ना समझ है ना प्रशासन को कभी जरूरत महसूस होती है कि कुछ ठोस करें इस शहर या जिले के लिए - जनप्रतिनिधि तो सब गौण मानकर अपने स्वार्थ पूर्ति में लगे रहते हैं
आज शहर में सामंतवाद के चलते - जो पूरे मालवा की बल्कि प्रदेश की बड़ी समस्या है और दोनो पार्टियां इसे पोषित कर रही है, यह शहर भी 1992 से त्रस्त है
कब तक हम लोकतंत्र में राजे रजवाड़ों और जहागिरदारों, दरबारों और महाराजों को झेलते रहेंगें और स्वतंत्र नागरिक के रूप में स्थापित होंगे
आज यही कुछ बातें पत्रिका समूह के श्री गुलाब कोठारी जी से देवास में व्यक्तिगत बातचीत में मैंने की जब वे जमीनी हालात की पड़ताल करने अभी आएं थे आभारी हूँ भाई Amit Mandloi , सम्पादक - पत्रिका का , जिन्होंने उनसे "वन टू वन" बातचीत का यह दुर्लभ अवसर उपलब्ध करवाया, कोठारी जी से मप्र और राजस्थान के परिदृश्य पर भी बहुत सहजता से बातें हुई
पत्रिका की यह पहल सराहनीय है और साहस भरा काम भी , सौ सौ सलाम
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कमाल यह है कि एक चपरासी तक के लिए चुनावी आचार संहिता है - साला अपने बाप मरने की छुट्टी नही ले सकता, बीबी की डिलिवरी में अस्पताल ना जाये सरकारी कर्मचारी, बच्चो के शादी ब्याह ना करें, दस्त लग जाएं तो काढ़ा ना पियें, टट्टी पेशाब करना हो तो कलेक्टर से लेकर दिल्ली बैठे ओ पी रावत साब से लिखित में अनुमति लें और सच में लेने चला गया तो निलंबन या बर्खास्त होने का ख़तरा हमेंशा
उधर ससुर प्रधान सेवक से लेकर मुख्यमंत्रीगण और संविधान के पदों पर बैठे लोग बकैती करते फिरें देश भर में - वो भी सरकारी रुपयों के हवाई जहाजों से और तुर्रा यह है कि छुट्टी नहीं लेते बेचारे
गजब के चुनावी खेल और सत्ता के मायावी रूप है, तरस आता है व्यवस्था और नियम कायदे बनाने वालों की अक्ल पर और किसी से पूछो तो जवाब मिलेगा मालूम नही पर आचार संहिता है तो अभी तो सम्भव नही
शुक्र है कि फूल खिल रहें हैं, बच्चें पैदा हो रहें हैं - चुनाव आयोग का बस चलें तो इस पर भी साला प्रतिबंध लगा दें

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