बहुत कुछ नही होना था जीवन में.
कई बार गधों, मूर्खों और विशुद्ध नालायकों को ज्ञान - विज्ञान, सामाजिकता और अर्थ शास्त्र या मीडिया की बात करते देखता हूँ तो लगता है इन दरिद्र और पागलों के साथ क्या करूँ, जिन्हें बचपन से एक अभद्रता से बढ़ते देखा और सारे धत करम जानता हूँ इनके तो क्या इनसे बहस करना, फिर लगा कि उम्र बढ़ गयी है तो अक्ल आ गयी हो तो समझा दूं, पर बहुत विचार करने के बाद लगा कि अब आज से इनके साथ ना बात करनी ना तर्क , सिवाय अपने को कीचड़ में लपेटने के अलावा होगा क्या, क्योकि कहते है ना सूअर आपको कीचड़ में लपेटकर ले जाता है और फिर आनंदित होता है ? इससे अच्छा है छोडो, माफ़ कर दो और आगे बढ़ जाओ ।
कस्बे के संगीत समारोह अक्सर रसीले हुआ करते थे साल में गणेश चतुर्थी से लेकर बारह माह कोई ना कोई आयोजन होता रहता था , कभी रफी के नाम पर कभी रज्जब अली खान के नाम और कभी तानसेन के नाम पर, शहर भर के लोग झकास वाला लाल काला पीला कुर्ता और पैजामें की नाड़ी कसते हुए एक मात्र हाल में पहुँच जाते, एक तरफ औरते भयानक जरी की मोटी काठ पहने लकदक साड़ी में मेकअप लिपटे बैठी होती दूसरी ओर मर्द बैठते, पीछे लौंडे लपाड़े खड़े रहते जो गुटखा फंसाकर आते और शास्त्रीय संगीत से लेकर सुगम संगीत पर बहस करते।
जिनके खानदान में किसी ने संगीत नही सुना वे भैरवी और दरबारी को प्रातः का राग बताते , सारंगी बजाने वाले उस्तादों को मन कामनेश्वर के सामने वाला बैंड वाला बताते ढोल बजने की तुलना तबले से करते और सारा समय उचक उचक कर महिलाओं की पंक्ति में ताका किया करते। मराठी परिवार के कुछ कस्बे में बासी सब्जी की तरह सड़ रहे लोग संगीत समझने का ऐसा नाटक करते कि गर्दन गर्दभ स्टाइल में हिलाते और साले दो दिन के बाद गर्दन में कुत्तों टाइप पट्टा डालकर सब्जी लेने जाते।
यह विचित्र समय था जब कस्बे के पत्रकार एक दुसरे को पूछते कि यार कुछ मसाला दिया है क्या, दो चार समझदार थे तो पन्ने रँगकर पूरे प्रभाष जोशी बन जाते और अशोक वाजपेयी की स्टाइल में घिस देते। प्रशासन का कोई टुच्चा अधिकारी होम गार्ड के जवान की सुरक्षा में आता और आयोजक के सारे गुलदस्ते घर ले जाता मरियल सी जीप में डालकर और नाश्ते में रखे बिस्किट भी।
शहर के बुद्धिजीवियों के लिए यह कुर्ते शिकार करने का समय होता और अपनी चप्पलें सम्हालते हुए वे जसराज, भीमसेन जोशी , बिस्मिल्लाह खां साहब किशोरी अमोनकर की महफिलों के किस्से यूँ बयाँ करते मानो कल ही उनके रसोई से बेसन के पकौड़े खाकर गये हो। ये कला में यूरोप और पिकासा की कला में मोजार्ट पर बात कर सकते थे, फटे जाली वाली बनियान् पहने टूटी स्लीपर पहने ये लोग सरकार को कोसने में माहिर कम, लोगों की जिंदगी में ताक झाँक में ज्यादा रूचि लेते थे ।
ग्लोबल होती दुनिया में संगीत समारोह इनके लिए रंजकता से भरा एक हसीन जलवा था जिसे ये शिद्दत से भोगना तो चाहते थे पर एक रुपया देने में यूँ कन्नी काटते थे मानो किसी ने जायजाद मांग ली हो। आयोजक भी कम ना होते वे भी छोटे मोटे ट्यूशन खोरों से लेकर टैक्स बचा कर उद्योग चलाने वालों को दूह लेते और बाप दादाओं के नाम पर संस्थाएं बनाकर फर्जी उर्फ़ झकास कार्यक्रम की मलाई काटते।
कस्बे के संगीत समारोह अक्सर रसीले हुआ करते थे साल में गणेश चतुर्थी से लेकर बारह माह कोई ना कोई आयोजन होता रहता था , कभी रफी के नाम पर कभी रज्जब अली खान के नाम और कभी तानसेन के नाम पर, शहर भर के लोग झकास वाला लाल काला पीला कुर्ता और पैजामें की नाड़ी कसते हुए एक मात्र हाल में पहुँच जाते, एक तरफ औरते भयानक जरी की मोटी काठ पहने लकदक साड़ी में मेकअप लिपटे बैठी होती दूसरी ओर मर्द बैठते, पीछे लौंडे लपाड़े खड़े रहते जो गुटखा फंसाकर आते और शास्त्रीय संगीत से लेकर सुगम संगीत पर बहस करते।
जिनके खानदान में किसी ने संगीत नही सुना वे भैरवी और दरबारी को प्रातः का राग बताते , सारंगी बजाने वाले उस्तादों को मन कामनेश्वर के सामने वाला बैंड वाला बताते ढोल बजने की तुलना तबले से करते और सारा समय उचक उचक कर महिलाओं की पंक्ति में ताका किया करते। मराठी परिवार के कुछ कस्बे में बासी सब्जी की तरह सड़ रहे लोग संगीत समझने का ऐसा नाटक करते कि गर्दन गर्दभ स्टाइल में हिलाते और साले दो दिन के बाद गर्दन में कुत्तों टाइप पट्टा डालकर सब्जी लेने जाते।
यह विचित्र समय था जब कस्बे के पत्रकार एक दुसरे को पूछते कि यार कुछ मसाला दिया है क्या, दो चार समझदार थे तो पन्ने रँगकर पूरे प्रभाष जोशी बन जाते और अशोक वाजपेयी की स्टाइल में घिस देते। प्रशासन का कोई टुच्चा अधिकारी होम गार्ड के जवान की सुरक्षा में आता और आयोजक के सारे गुलदस्ते घर ले जाता मरियल सी जीप में डालकर और नाश्ते में रखे बिस्किट भी।
शहर के बुद्धिजीवियों के लिए यह कुर्ते शिकार करने का समय होता और अपनी चप्पलें सम्हालते हुए वे जसराज, भीमसेन जोशी , बिस्मिल्लाह खां साहब किशोरी अमोनकर की महफिलों के किस्से यूँ बयाँ करते मानो कल ही उनके रसोई से बेसन के पकौड़े खाकर गये हो। ये कला में यूरोप और पिकासा की कला में मोजार्ट पर बात कर सकते थे, फटे जाली वाली बनियान् पहने टूटी स्लीपर पहने ये लोग सरकार को कोसने में माहिर कम, लोगों की जिंदगी में ताक झाँक में ज्यादा रूचि लेते थे ।
ग्लोबल होती दुनिया में संगीत समारोह इनके लिए रंजकता से भरा एक हसीन जलवा था जिसे ये शिद्दत से भोगना तो चाहते थे पर एक रुपया देने में यूँ कन्नी काटते थे मानो किसी ने जायजाद मांग ली हो। आयोजक भी कम ना होते वे भी छोटे मोटे ट्यूशन खोरों से लेकर टैक्स बचा कर उद्योग चलाने वालों को दूह लेते और बाप दादाओं के नाम पर संस्थाएं बनाकर फर्जी उर्फ़ झकास कार्यक्रम की मलाई काटते।
भांड जब आत्म मुग्ध होकर किसी प्रतिष्ठित मंच पर चढ़ता है तो उसके मुंह खोलते ही सारी गन्द बाहर आ जाती है ।
देवास के संगीत समारोह में एक नजारा लाइव चल रहा है ।
अब समझ में भी आ रहा है कि क्यों ये भांड लोग संगीत कला अकादमी से लेकर फिल्म संस्थानों में काबिज है, राम भजन के साथ भद्दे चुटकुले सुनाने वाले और बेहद गलीज तरीके से आत्ममुग्ध ये लोग पता नहीं क्या समझने लगे है.
आज जो देवास के एक मंच से देश की संगीत कला अकादमी के अध्यक्ष को देखा सुना उससे अंदाज लगाया जा सकता है कि ये लोग किस तरह से घटिया लोगों को संस्थाओं में काबिज करके संस्कृति को क्या स्वरुप देना चाहते है. मेरे लिए मेरी व्यक्तिगत राय में यह सबसे घटिया कार्यक्रम था उस मंच पर जहां भीमसेन जोशी से लेकर बिस्मिल्लाह खान साहब या तीजन बाई जैसी कलाकार ने प्रस्तुतियां दी हो.
युद्धे , यूद्धेवहे , युद्धामहे
अर्थात मैं युद्ध कर रहा हूँ , हम दोनों युद्ध कर रहे है और हम सब युद्धरत है।
- प्रकाश कान्त जी की एक कहानी से ।
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