ज़िंदा रहने के लिए समझौते कर लेते है लोग और यह भूल जाते है कि एक रीढ़ की हड्डी थी जो पैदा होते समय ठीक उनके पीछे पीठ से सटी थी और उसी के सहारे वे बड़े होते गए, उसी में से दिमाग के सारे आदेश तंत्रिकाओं से बह कर शरीर के उन अंगों तक पहुंचे जिन्होंने इंसान को चापलूस और गलीज बना दिया।
बिछते हुए देखता हूँ तो शर्म आती है ऐसे लोगों पर जो एक इंसान के ही आगे इतने झुक जाते है कि कैसे फिर आईना देख पाते होंगे, कैसे अपने घर आँगन में तन कर खड़े हो पाते होंगे, अपने बच्चों से कैसे नजरें मिलाते होंगे।
राजनीति और प्रशासन तो ठीक क्योकि वहाँ तो मानक पैमाने ही ज़िंदा रहने के ये है, पर आप तो व्यवस्था से अलग होकर प्रतिपक्ष बुन रहे थे ना, आप तो एक अलग राह पर चलकर कही और सबके साथ सबके हित साधते हुए चलते रहना चाहते थे ना, आप तो उस ज्वार का जज्बा लेकर आगे मशाले जुलुस में समिधा बन रहे थे जिसे नेतृत्व कहते है, आप तो व्यवस्था से मुठभेड़ लेकर सर्वजन हिताय की बात कर रहे थे ना , फिर क्या हुआ कि एक अदना सामान्य आदमी जो रट्टा मारकर एक परीक्षा पास कर आया है , आपसे ज्यादा छोटा, अनुभवहीन युवा है, बेहद अड़ियल और जिद्दी बन्दा जो आपके स्टेज पर सामाजिक जागरण का प्रणेता और पुरोधा होने का नाटक करता है, और अपने कक्ष में ऐयाश, भृष्ट तानाशाह की भांति काम करता है, आप उसके चरणों में झुक गए जिसे प्रशासक कहते है।
बाबू मोशाय आप उन्ही गरीब दबे और कुचले लोगों को इसी ढीट प्रशासक के सामने फूलदान में परोस कर अपनी रोटी का जुगाड़ कर रहे हो, तुमसे तो यह कहना भी बेकार है कि शर्म हया क्या होता है , काश कि तुम यह बहुत बारीक सा अंतर समझ पाते, अपनी शर्तों पर जीने और काम करने के मकसद समझ पाते, इससे तो अच्छा था कि तंत्र का पुर्जा बनकर डुगडुगी पीटते - जो असंख्य लोग करते है तो कुछ हासिल होता पर तुममे तो अब यह सोचने समझने की शक्ति भी चली गयी है।
बेहद शर्मिदा हूँ कि इस तरह से खत्म होते देख लिया है, मुआफी चाहता हूँ कि मुखौटों को बदलने के खेल में जितने तुम माहिर हो गए हो उसकी बराबरी तो विश्व इतिहास में कोई नहीं कर सकता।
ईश्वर अगर कही है तो तुम्हे जीते जी शान्ति प्रदान करें क्योंकि तुम अब अपनी लाश ढो रहे हो।
आमीन !!!
(बरसों से पेंडिंग अपनी एक कहानी का चरित्र जब एक कलेक्टर के सामने बिछ जाता है तो, को उभारते हुए - पर हकीकत आज भी बदली नही है, आज मीडिया या एनजीओ में मित्रों को एक व्यवस्था के लोक सेवक जैसे तहसीलदार, एस डी एम या एस पी, कलेक्टर के सामने बुरी तरह से दबा और घिघियाते हुए देखता हूँ तो मन के किसी कोने से शोक संतप्त भाव आते है और दिमाग में कीड़े रेंगने लगते है, उफ़ इंसानी फितरत)
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आप लोगों के लिए ये शेर जो घर बैठकर कश्मीर कश्मीर का रोना रो रहे है ।
***** निदा फ़ाज़ली जी के ये शेर ****
हर बार ये इल्ज़ाम रह गया..!
हर काम में कोई काम रह गया..!!
नमाज़ी उठ उठ कर चले गये मस्ज़िदों से..!
दहशतगरों के हाथ में इस्लाम रह गया..!!
खून किसी का भी गिरे यहां
नस्ल-ए-आदम का खून है आखिर
बच्चे सरहद पार के ही सही
किसी की छाती का सुकून है आखिर
ख़ून के नापाक ये धब्बे, ख़ुदा से कैसे छिपाओगे
मासूमों के क़ब्र पर चढ़कर, कौन से जन्नत जाओगे
कागज़ पर रख कर रोटियाँ, खाऊँ भी तो कैसे
खून से लथपथ आता है, अखबार भी आजकल
दिलेरी का हरगिज़ हरगिज़ ये काम नहीं है
दहशत किसी मज़हब का पैगाम नहीं है
तुम्हारी इबादत, तुम्हारा खुदा, तुम जानो
हमें पक्का यकीन है ये कतई इस्लाम नहीं है
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जिन लोगों ने अपने गाँव, कस्बे, शहर या राज्य की सीमा नहीं पार की, और सारी जिन्दगी गली मुहल्ले में चोर उचक्कों की तरह से लोगों से चवन्नी अठन्नी लूटने में लगा दी, गली मोहल्ले में लाठी घुमाते हुए उठक बैठक के खेल खेलते रहें, वे लोग कश्मीर की समस्या पर बात कर रहे है......राष्ट्रवाद लिखना ना आता हो ना इतिहास की समझ हो पर 370 पर बात कर रहे है, शेख अब्दुल्ला को अपने पोस्तीपुरा के टोस्ट बेचने वाले समझ रहे है........यह कोरी बुद्धिजीविता जरुर दो साल में बढी है खूब विकास हुआ बेचारे छदम क्रांतिकारी............
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बहुत मौजूँ है फैज़ अहमद फैज़ साहब आज....
"निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन कि जहां
चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले
जो कोई चाहनेवाला तवाफ़ को निकले
नज़र चुरा के चले, जिस्म-ओ-जां बचा के चले"
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काले बादलों से निकला उजला सूरज
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अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझको
मैं हूँ तेरा नसीब अपना बना ले मुझको
मुझसे तू पूछने आया है वफ़ा के मानी
ये तेरी सादादिली मार न डाले मुझको
मैं समंदर भी हूँ, मोती भी हूँ, ग़ोताज़न भी
कोई भी नाम मेरा लेके बुला ले मुझको
तूने देखा नहीं आईने से आगे कुछ भी
ख़ुदपरस्ती में कहीं तू न गँवा ले मुझको
कल की बात और है मैं अब सा रहूँ या न रहूँ
जितना जी चाहे तेरा आज सता ले मुझको
ख़ुद को मैं बाँट न डालूँ कहीं दामन-दामन
कर दिया तूने अगर मेरे हवाले मुझको
मैं जो काँटा हूँ तो चल मुझसे बचाकर दामन
मैं हूँ गर फूल तो जूड़े में सजा ले मुझको
मैं खुले दर के किसी घर का हूँ सामाँ प्यारे
तू दबे पाँव कभी आ के चुरा ले मुझको
तर्क-ए-उल्फ़त की क़सम भी कोई होती है क़सम
तू कभी याद तो कर भूलने वाले मुझको
वादा फिर वादा है मैं ज़हर भी पी जाऊँ "क़तील"
शर्त ये है कोई बाँहों में सम्भाले मुझको
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