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Allhabad Tourist Diary by Subodh Shukla

मैंने हमेशा इसे अधबना पाया है. रोज़ थोड़ा सा ढह जाता है, बार-बार ज़रा सा मिट जाता है....सभ्यताएं इल्ज़ाम की तरह थोप दी जाती हैं इस पर और यह अपनी उजड्डता की ज़मानत पर रिहा हो जाता है........

इस शहर का कोई मालिक नहीं, कोई दावेदार नहीं.... बालू से लेकर ईश्वर तक सब यहाँ किराये पर रहते हैं..यह अलग बात है कि आज तक न बाकी वसूला गया और न ही बकाया चुकाया गया.....

जितनी भी काट-छांट कर ली जाय अपनी नाप से हमेशा बाहर निकल जाता है यह. इतिहास को बेनामी और वक़्त को दीवालिया बनाना कोई इससे सीखे......

फैसलों तक पहुँचने में जल्दबाज़ नहीं है यह शहर. मशवरे यह लेता नहीं. इशारे यह करता नहीं और पछतावों की इसे आदत नहीं...वंचनाओं के बियाबान में अपनी बेतरतीबी को सींचता रहता है यह - गुमसुम, चुपचाप और विस्मित...

विरासतों की दीमक लगी ज़िल्द के भीतर लगभग नम और पीली पड़ चुकी आस्थाओं के कागज़ पर यह शहर थूक लगी अँगुलियों के निशान की तरह दर्ज़ है....कागज़ जितना पीला पड़ता जाता है निशान उतने गहरे होते जाते हैं.....

हर कीमती चीज़ को धूल बनाने का आदी है यह शहर. हर आदर्श को स्वांग बना डालने में माहिर और हर उत्साह को टोटका...जितनी होड़ में हैं उतने ही संदिग्ध हैं आप इस शहर के लिए

स्पर्द्धाएं गिरवी रखे रहता है यह शहर.और काहिली को क़र्ज़ की तरह सौंपता है...क़र्ज़ चुकता हुआ नहीं कि आप सज़ायाफ़्ता हुए. आपका कर्ज़दार मरना ही इस शहर को ज़िंदा रखता है........

कल्पनाओं में जितना बेरहम है, प्रतीक्षाओं में उतना ही बेरोज़गार है यह. विस्मृति, उमस और नियति, सीलन की तरह फ़ैली है इस शहर में.....एक चिपचिपी सी बदमिजाज़ी इसीलिये हर वक़्त महसूस होती है इसके पास.......

यह नीम उजालों और मटमैले अंधेरों का शहर है. इस शहर की कोई कुंजी नहीं. इस शहर को कोई दस्तक नहीं देता... बिना आहट, चोर-पाँव बस इसकी देहरी लांघ ली जाती है, इसे कोई भनक दिये बगैर.....

यह शहर एक लत है. एक करवट पर लेटा हुआ, अपनी पिनक की नब्ज़ में हमारी चिढ़ का बुखार नापता हुआ.....अपनी गति में असाध्य, अपनी नियति में अछूत......

जैसे ही इसे दृश्य में बदलेंगे यह ओझल हो जाएगा. ज़िल्द चढ़ायेंगे, अपने को तितर-बितर कर देगा, दुलरायेंगे तो हिंसक हो उठेगा. खुद को चौंका देने के हर उतावलेपन को यह या तो कामचलाऊ बना डालेगा या हास्यास्पद.......

यह शहर पुकार नहीं लगाता..आपके बगल में खड़े होकर भी हो सकता है उम्र भर न बोले..... कब कुहनियों से धकियाता हुआ निकल जाय पता नहीं चलता..कब पीठ पर रेंगकर कंधे पर सवार हो जाय और सर चढ़कर बोलने लगे भनक नहीं लगती.....एक बेवजह ज़िद और बेमतलब ऊब के बीच उनींदा लेटा हुआ यह शहर जितना गुम है उतना ही हाज़िर भी है.....

इलाहाबाद एक लावारिस शहर है..इससे लापरवाह होकर मिलिये. अगर आपने इसे पालना-पोसना शुरु कर दिया तो यह आपको अपने पैरों पर खड़ा नहीं रहने देगा...

यह शहर झरोखों से नहीं पुकारता, आड़ से नहीं देखता. पूरी बेहयाई से यह आपको तब तक घूरता रहता है जब तक आप अपनी नज़रें नीची न कर लें - शर्म से या डर से...


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