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"बुद्धिजीवी माफिया"- - अनिल कार्की 12 July 16


युवा साथी और स्नेहिल मित्र Anil Karki की यह कविता सामयिक ही नही बल्कि हमारे पूरे परिवर्तन की ध्वजा उठाये साथियों की हकीकत बयाँ करती है और इस समय मानीखेज इसलिए है कि ये असलियत उघाड़कर सारी नंगाई सामने लाती है।
कामरेड का कोट कहानी याद आती है और अनिल बहुत खूबसूरती से इन सामाजिक गिरगिटों से बचने का इशारा भी करते है। जो राजनैतिक विचारधारा खुलेआम कर रही है उसे तो छोड़ ही दीजिये पर ये जो शातिर है हमारे बगल में बैठकर पाश , दुष्यंत कुमार और गोरख पांडेय को कोट करके धंधा चलाता है, रैली निकालकर EPW में लिखता है उसका क्या। यार, अनिल मजा आ गया, सौ सौ जिंदगियां कुर्बान इस कविता और तुम पर दोस्त।
कही शिल्प टूटा भी है और भाषा का गणित भी पर क्या कहते है भावना को समझो प्यारे !!
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"बुद्धिजीवी माफिया"
वह जो है
नेताओं की तरह
उसका कुरता झक्क सफेद नहीं है
बल्कि दीमक की त्वचा वाला रंग है
उसके कुरते का
खद्दर के झोले में
किताबें है जिसकी
चश्मा जिसका नाक पर
पेट बड़ा है
बावजूद वह
जनता के पक्ष में खड़ा है
वह हांफता है तो
चेले हवा देते हैं
वह बोलता है तो
तालियां बजती है
बिसलरी की बोतल
इतराती बलखाती चली जाती है पास
वह रुकता है
भाषण के बीच
भाँपता है
और फिर हाँपता है
पानी पीता है
तसल्ली से फेंकता है शब्द
फिसलनदार
जनता देखती है उसके मुंह
जबकि वह किसी पहुंचे हुए
जादूगर की तरह
खुद पीकर पानी
हमारी प्यास मिटा देता है
वह करामाती है
जहर खुरान है
उसके पास सुंघाने को नहीं है
जहर न खिलाने को
वह कान के पास आकर बोलता है
आम, गरीब, किसान, औरत,
मजदूर क्रान्ति, स्वराज, जल, जंगल,जमीन
और कई लोग देखने लगते है
नीद में सपना
जबकि वह अपनी चकमक आभा में
हमारी आँखों की रौशनी को छीन देता है
झंडे लहरा रहे हैं
स्वराज आ रहा है
पुलिस चाक चौबंद है
हम लडेंगे साथी कोई गा रहा है
दरियाँ बिछायी जा रही हैं
मायिक लागाये जा रहे हैं
हैलो चेक चेक कहते हुए
मायिक टेस्टिंग हो रही है
समवेत स्वर गूँज रहे हैं
और ठीक इसी समय में मंच पर
बैठा आदमी
धन्यवाद देता है
पत्रकारों का
पुलिस को कहता है
शांति व्यवस्था बनाने के लिए आभार
और जनता से कहता है
हमे और अधिक होना है
हम अभी कमजोर हैं
यह कहता हुआ वह मंच से उतरता है
और तालियां बजती है
हम कमजोर हो जाते हैं
वह कौन है
जिसकी नजर है
हमारे सपनों की गठड़ी पर
जिसने बेच खाये हैं
हमारे क्रान्तिदर्शी स्वप्न
वह जो अब
गिरगिट की तरह कलगी लिए
टपटपा रहा है मुंह
और हम उसके मुंह से अमृत झरने का कर रहे हैं इंतजार
हमें कभी कभी पीने चहिये
कड़वे घूँट सच के
मीठा सुनने के लिए अभिशप्त
कानों को कुछ समय के लिए
मुक्त कर देना चहिए।
- अनिल कार्की

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